Sunday, June 23, 2019

अद्भुत जादुई जड़ Amazing magical root

      अद्भुत जादुई जड़ Amazing magical root


जीवन में धन व समृद्धि की कामना-पूर्त्ति के लिये यह एक अति उत्तम और सरल प्रयोग है ।

रविवार के दिन प्रयोग करने से यह और भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध होता है,अगर रवि पुष्य योग आदि हो तो सोने पे सुहागा।

इसके लिये हमें चाहिये –
सिद्ध किया हुआ दालचीनी का एक टुकडा
छोटा पीला कपडा
पूजा के लिये धूप-दीप आदि 

विधि –
सिद्ध दालचीनी के  टुकड़े और पीले कपड़े को देवी माँ के सामने रखें ।

माँ का संक्षिप्त पूजन कर उनके सामने धूप-दीप जलायें ।

माँ से प्रार्थना करें कि हमे सभी ऋण और शापों से मुक्त करें असीम धन-धान्य व समृद्धि प्रदान  करें ।

दालचीनी के टुकडे को दायें हाथ में लेकर मुट्ठी बंद करें और इसे अपने हृदय चक्र पर रखें । 

अब इस मन्त्र“ॐ धनाय नमो नम:” का 108 बार जाप करें । 

इसके बाद, अपने दायें हाथ को अपने मुंह के सामने लायें, मुट्ठी खोलें और इस पर धीरे से फूंकें ।

दालचीनी के इस टुकड़े को पीले कपड़े में लपेटें ।

आपकी “अद्भुत जादुई जड़” ( Amazing magical root) तैयार है ।

इस जादुई जड़ी को अपने पास या पूजाघर में रखें, आप देखेंगे कि आपकी  मनोकामनाऐं कैसे पूरी होती हैं।

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Friday, June 21, 2019

कहां और कैसे रखें झाड़ू Where and how to keep the broom

                   कहां और कैसे रखें झाड़ू
  Where and how to keep the broom

हमारी दैनिक चर्या में उपयोग की वस्तु है झाड़ू,ये केवल घर की साफ सफाई में ही काम नही आती बल्कि इसके और भी महत्व है। इससे घर में प्रवेश करने वाली बुरी अथवा नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होती है। अत: इसके रखरखाव के संबंध ध्यान रखें कि...

●  खुले स्थान पर झाड़ू रखना अपशकुन माना जाता है, इसलिए इसे छिपा कर रखें।

●  भोजन कक्ष में झाड़ू न रखें, क्योंकि इससे घर का अनाज जल्दी खत्म हो सकता है। साथ ही, स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।

●  यदि अपने घर के बाहर हर रोज रात के समय दरवाजे के सामने झाड़ू रखते हैं तो इससे घर में नकारात्मक ऊर्जा प्रवेश नहीं करती है। ये काम केवल रात के समय ही करना चाहिए। दिन में झाड़ू छिपा कर रखें।

झाड़ू से जुड़े कुछ शकुन-अपशकुन
jhaadoo se jude kuchh shakun-apashakun


1- अगर कोई बच्चा घर में अचानक झाड़ू लगा रहा है तो समझना चाहिए अनचाहे मेहमान घर में आने वाले हैं।

2- सूर्यास्त के बाद घर में झाड़ू पोंछा गलती से भी नहीं लगाना चाहिए। ऐसा करना अपशकुन माना जाता है।इससे लक्ष्मी रूठ जाती हैं।

3- झाड़ू पर गलती से भी पैर नहीं रखना चाहिए। ऐसा होने पर लक्ष्मी रूठ जाती हैं। यह अपशकुन है।

4- कभी भी गाय या अन्य जानवर को झाड़ू से नहीं मारना चाहिए। यह अपशकुन माना गया है।

5- कोई भी सदस्य किसी खास कार्य के लिए घर से निकला हो तो उसके जाने के तुरंत बाद घर में झाड़ू नहीं लगाना चाहिए। ऐसा करने पर उस व्यक्ति को असफलता का सामना करना पड़ सकता है।

6- झाड़ू को कभी भी खड़ी करके नहीं रखना चाहिए। यह अपशकुन माना गया है।

7- हम जब भी किसी नए घर में प्रवेश करें, उस समय नई झाड़ू लेकर ही घर के अंदर जाना चाहिए। यह शुभ शकुन माना जाता है। इससे नए घर में सुख-समृद्धि और बरकत बनी रहेगी।

8- हमेशा ध्यान रखें कि ठीक सूर्यास्त के समय झाड़ू नहीं निकालना चाहिए। यह अपशकुन है।

9- देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने के लिए घर के आसपास किसी भी मंदिर में तीन झाड़ू रख आएं। यह पुराने समय से चली आ रही परंपरा है। पुराने समय में लोग अक्सर मंदिरों में झाड़ू दान किया करते थे।

इन बातों का ध्यान रखें 
Keep in mind these things-

मंदिर में झाड़ू सुबह ब्रह्म मुहूर्त में रखना चाहिए।
यह काम किसी विशेष दिन करना चाहिए। विशेष दिन जैसे कोई त्योहार, ज्योतिष के शुभ योग या शुक्रवार को।
इस काम को बिना किसी को बताए गुप्त रूप से करना चाहिए। शास्त्रों में गुप्त दान का विशेष महत्व बताया गया है।
जिस दिन यह काम करना हो, उसके एक दिन पहले ही बाजार से 3 झाड़ू खरीदकर ले आना चाहिए।

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Thursday, June 20, 2019

जानें भगवान शिव का प्रसाद ग्रहण करें या नहीं? Learn whether or not to accept Lord Shiva's offer

क्या भगवान शिव को अर्पित किया गया नैवेद्य (भोग-प्रसाद) ग्रहण करना चाहिए?
Should we accept naivedya (bhog-prasad) offered to Lord Shiva?

सृष्टि के आरम्भ से ही समस्त देवता, ऋषि-मुनि, असुर, मनुष्यगण विभिन्न ज्योतिर्लिंगों, स्वयम्भूलिंगों, मणिमय, रत्नमय, धातुमय और पार्थिव आदि लिंगों की उपासना करते आए हैं। अन्य देवताओं की तरह शिवपूजा में भी नैवेद्य निवेदित किया जाता है। पर शिवलिंग पर चढ़े हुए प्रसाद पर "चण्ड" का अधिकार होता है।

कौन है ये चण्ड Who are chand

शिव गणों में प्रधान "चण्ड" भगवान शिव के मुख से प्रकट हुए हैं। ये सदैव शिवजी की आराधना में लीन रहते हैं।
भगवान शिव ने अपने लिये अर्पित नैवेद्य ग्रहण करने का अधिकार चण्ड को दिया है।
ये भूत-प्रेत, पिशाच आदि के स्वामी हैं।
इसलिए चण्ड का भाग ग्रहण करना यानी भूत-प्रेतों का अंश खाना माना जाता है।

शिव-नैवेद्य ग्राह्य और अग्राह्य

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता के २२वें अध्याय में इसके सम्बन्ध में स्पष्ट कहा गया है

"चण्डाधिकारो यत्रास्ति तद्भोक्तव्यं न मानवै:।
चण्डाधिकारो नो यत्र भोक्तव्यं तच्च भक्तित:॥" (२२।१६)*

"अर्थात जहाँ चण्ड का अधिकार हो, वहाँ शिवलिंग के लिए अर्पित नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। जहाँ चण्ड का अधिकार नहीं है, वहाँ का शिव-नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण करना चाहिए।"

किन शिवलिंगों के नैवेद्य में चण्ड का अधिकार नहीं है?
Which Shivalinga do not have Chand's right?

इन लिंगों के प्रसाद में चण्ड का अधिकार नहीं है,।
Chanda has no right in the offerings of these shivlingas

 अत: ग्रहण करने योग्य है —

ज्योतिर्लिंग—बारह ज्योतिर्लिंगों  का नैवेद्य ग्रहण करने से सभी पाप भस्म हो जाते हैं।

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता में कहा गया है कि काशी विश्वनाथ के स्नानजल का तीन बार आचमन करने से शारीरिक, वाचिक व मानसिक तीनों पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

स्वयम्भूलिंग — जो लिंग भक्तों के कल्याण के लिए स्वयं ही प्रकट हुए हैं, उनका नैवेद्य ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है।

सिद्धलिंग — जिन लिंगों की उपासना से किसी ने सिद्धि प्राप्त की है या जो सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित हैं।
जैसे — काशी में शुक्रेश्वर, वृद्धकालेश्वर, सोमेश्वर आदि लिंग देवता-सिद्ध-महात्माओं द्वारा प्रतिष्ठित और पूजित हैं, उन पर चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: उनका नैवेद्य सभी के लिए ग्रहण करने योग्य है।

बाणलिंग (नर्मदेश्वर)— बाणलिंग पर चढ़ाया गया सभी कुछ जल, बेलपत्र, फूल, नैवेद्य — प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए।

जिस स्थान पर (गण्डकी नदी) शालग्राम की उत्पत्ति होती है, वहाँ के उत्पन्न शिवलिंग, पारदलिंग, पाषाणलिंग, रजतलिंग, स्वर्णलिंग, केसर के बने लिंग, स्फटिकलिंग और रत्नलिंग— इन सब शिवलिंगों के लिए समर्पित नैवेद्य को ग्रहण करने से चान्द्रायण व्रत के समान फल प्राप्त होता है।

शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव की मूर्तियों में चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: इनका प्रसाद लिया जा सकता है।यथा-

"प्रतिमासु च सर्वासु न, चण्डोऽधिकृतो भवेत्॥"

जिस मनुष्य ने शिव-मन्त्र की दीक्षा ली है, वे सब शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण कर सकता है। उस शिवभक्त के लिए यह नैवेद्य ‘महाप्रसाद’ है। जिन्होंने अन्य देवता की दीक्षा ली है और भगवान शिव में भी प्रीति है, वे ऊपर बताए गए सब शिवलिंगों का प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं।

शिव-नैवेद्य कब नहीं ग्रहण करना चाहिए?
When should Shiva-Naivedya not take it?

 शिवलिंग के ऊपर जो भी वस्तु चढ़ाई जाती है, वह ग्रहण नहीं की जाती है। जो वस्तु शिवलिंग से स्पर्श नहीं हुई है, अलग रखकर शिवजी को निवेदित की है, वह अत्यन्त पवित्र और ग्रहण करने योग्य है।

जिन शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण करने की मनाही है वे भी शालिग्राम शिला के स्पर्श से ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं।

शिव-नैवेद्य की महिमा
Shiva-Naivedya's Majesty

जिस घर में भगवान शिव को नैवेद्य लगाया जाता है या कहीं और से शिव-नैवेद्य प्रसाद रूप में आ जाता है वह घर पवित्र हो जाता है। आए हुए शिव-नैवेद्य को प्रसन्नता के साथ भगवान शिव का स्मरण करते हुए मस्तक झुका कर ग्रहण करना चाहिए।

 आए हुए नैवेद्य को ‘दूसरे समय में ग्रहण करूँगा’ ऐसा सोचकर व्यक्ति उसे ग्रहण नहीं करता है, वह पाप का भागी होता है।

 जिसे शिव-नैवेद्य को देखकर खाने की इच्छा नहीं होती, वह भी पाप का भागी होता है।

 शिवभक्तों को शिव-नैवेद्य अवश्य ग्रहण करना चाहिए क्योंकि शिव-नैवेद्य को देखने मात्र से ही सभी पाप दूर हो जाते है, ग्रहण करने से करोड़ों पुण्य मनुष्य को अपने-आप प्राप्त हो जाते हैं।

शिव-नैवेद्य ग्रहण करने से मनुष्य को हजारों यज्ञों का फल और शिव सायुज्य की प्राप्ति होती है।

शिव-नैवेद्य को श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने व स्नानजल को तीन बार पीने से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।

मनुष्य को इस भावना का कि भगवान शिव का नैवेद्य अग्राह्य है, मन से निकाल देना चाहिए क्योंकि 'कर्पूरगौरं करुणावतारम्' शिव तो सदैव ही कल्याण करने वाले हैं। जो शिव का केवल नाम ही लेते है, उनके घर में भी सब मंगल होते हैं —
"सुमंगलं तस्य गृहे विराजते।
शिवेति वर्णैर्भुवि यो हि भाषते।"

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Wednesday, June 19, 2019


जन्मपत्रिका के कुछ घातक योग
janmapatrika ke kuchh ghaatak yog
जन्म पत्रिका में 2 या 2 से ज्यादा ग्रहों की युति, दृष्टि, भाव आदि के मेल से योग का निर्माण होता है। ग्रहों के योगों को ज्योतिष फलादेश का आधार माना गया है। अशुभ योग के कारण व्यक्ति को जिंदगीभर दु:ख कष्ट उठाना पड़ता है।

अशुभ योग और उनका निवारण?Inauspicious Yoga and their Prevention?

1. चाण्डाल योग
कुंडली के किसी भी भाव में बृहस्पति के साथ राहु या केतु का होना या दृष्टि आदि होना चाण्डाल योग बनाता है।
इस योग का बुरा असर शिक्षा, धन और चरित्र पर होता है। जातक बड़े-बुजुर्गों का निरादर करता है और उसे पेट एवं श्वास के रोग हो सकते हैं।
एक अच्छा ज्योतिषी कुण्डली देख कर यह बता सकता है कि हमे गुरु को शांत करना उचित रहेगा या राहु के उपाय जातक से करवाने पड़ेंगे। इस योग के निवारण हेतु उत्तम चरित्र रखकर पीली वस्तुओं का दान करें। माथे पर केसर, हल्दी या चंदन का तिलक लगाएं।
संभव हो तो एक समय ही भोजन करें और भोजन में बेसन का उपयोग करें।  प्रति गुरुवार को कठिन व्रत रखें।
2. अल्पायु योग
जब जातक की कुंडली में चन्द्र ग्रह पाप ग्रहों से युक्त होकर त्रिक स्थानों में बैठा हो या लग्नेश पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो और वह शक्तिहीन हो तो अल्पायु योग का निर्माण होता है।
अल्पायु योग में जातक के जीवन पर हमेशा हमेशा संकट मंडराता रहता है, ऐसे में खानपान और व्यवहार में सावधानी रखनी चाहिए।
अल्पायु योग के निदान के लिए प्रतिदिन हनुमान चालीसा, महामृत्युंजय मंत्र पढ़ना चाहिए और जातक को हर तरह के बुरे कार्यों से दूर रहना चाहिए।
3. ग्रहण योग
ग्रहण योग मुख्य रूप से 2 प्रकार के होते हैं- सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण।
यदि चन्द्रमा पाप ग्रह राहु या केतु के साथ बैठे हों तो चन्द्रग्रहण और सूर्य के साथ राहु हो तो सुर्यग्रहण होता है।
चन्द्रग्रहण से मानसिक पीड़ा और माता को हानि पहुंचती है।
सूर्यग्रहण से व्यक्ति कभी भी जीवन में स्थिर नहीं हो पाता है, हड्डियां कमजोर हो जाती है, पिता से सुख भी नहीं मिलता।
ऐसी स्थिति में 6 नारियल अपने सिर पर से वार कर जल में प्रवाहित करें। आदित्यहृदय स्तोत्र का नियमित पाठ करें। सूर्य को जल चढ़ाएं। एकादशी और रविवार का व्रत रखें।
4. वैधव्य योग
वैधव्य योग बनने की कई स्थितियां हैं। वैधव्य योग का अर्थ है विधवा हो जाना। सप्तम भाव का स्वामी मंगल होने व शनि की तृतीय, सप्तम या दशम दृष्टि पड़ने से भी वैधव्य योग बनता है। सप्तमेश का संबंध शनि, मंगल से बनता हो व सप्तमेश निर्बल हो तो वैधव्य का योग बनता है।
जातिका को विवाह के पश्चात 5-7 वर्ष तक मंगला गौरी का पूजन विधान करना चाहिए, विवाह पूर्व कुंभ विवाह करना चाहिए ।
यदि विवाह के पश्चात इस योग का पता चलता है तो मंगला गौरी पूजन के साथ-साथ मंगल और शनि का भी उपाय करना चाहिए।
5. दारिद्रय योग
यदि किसी जन्म कुंडली में 11वें घर का स्वामी ग्रह कुंडली के 6, 8 अथवा 12वें घर में स्थित हो जाए तो ऐसी कुंडली में दारिद्रय योग बन जाता है।
दारिद्रय योग के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातकों की आर्थिक स्थिति जीवनभर खराब ही रहती है तथा ऐसे जातकों को अपने जीवन में अनेक बार आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है।
इन्हें नियमित रूप से "कनकधारा स्तोत्र" का प्रयोग करना चाहिए।
6. षड्यंत्र योग
यदि लग्नेश 8वें घर में बैठा हो और उसके साथ कोई शुभ ग्रह न हो तो षड्यंत्र योग का निर्माण होता है।
जिस स्त्री-पुरुष की कुंडली में यह योग होता है वह अपने किसी करीबी के षड्यंत्र का शिकार होता है। इससे उसे धन-संपत्ति व मान-सम्मान आदि का नुकसान उठाना पड़ सकता है।
इस दोष को शांत करने के लिए प्रत्येक सोमवार भगवान शिव और शिव परिवार की पूजा करनी चाहिए। प्रतिदिन हनुमान चालीसा का पाठ करते रहना चाहिए।
7. कुज योग
यदि किसी कुंडली में मंगल लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव में हो तो कुज योग बनता है। इसे मांगलिक दोष भी कहते हैं।
जिस स्त्री या पुरुष की कुंडली में कुज दोष हो, उनका वैवाहिक जीवन कष्टप्रद रहता है इसीलिए विवाह से पूर्व भावी वर-वधू की कुंडली मिलाना आवश्यक है। यदि दोनों की कुंडली में मांगलिक दोष है तो ही विवाह किया जाना चाहिए।
विवाह होने के बाद इस योग का पता चला है तो पीपल और वटवृक्ष में नियमित जल अर्पित करें। मंगल के जाप व ग्रह शान्ति करवाएं। प्रतिदिन हनुमान चालीसा का पाठ करें।
8. केमद्रुम योग
यदि किसी कुंडली में चन्द्रमा के अगले और पिछले दोनों ही घरों में कोई ग्रह न हो तो या कुंडली में जब चन्द्रमा द्वितीय या द्वादश भाव में हो और चन्द्र के आगे और पीछे के भावों में कोई  ग्रह न हो तो केमद्रुम योग का निर्माण होता है।
इस योग के चलते जातक जीवनभर धन की कमी, रोग, संकट, वैवाहिक जीवन में भीषण कठिनाई आदि समस्याओं से जूझता रहता है।
इस योग के निदान हेतु प्रति शुक्रवार को लाल गुलाब के पुष्प से गणेश और महालक्ष्मी का पूजन करें। मिश्री का भोग लगाएं। चन्द्र से संबंधित वस्तुओं का दान करें।
10 रत्ती सोना,12 रत्ती चाँदी, और 16 रत्ती ताँबा इन तीनो को पुष्यनक्षत्र में अँगूठी बनवाकर अनामिका अंगुली में धारण करें।यह इस योग के निवारण और दारिद्र्य नाश हेतु शक्तिशाली प्रयोग है।
9. अंगारक योग
यदि किसी कुंडली में मंगल का राहु या केतु में से किसी के साथ स्थान अथवा दृष्टि से संबंध स्थापित हो जाए तो अंगारक योग का निर्माण हो जाता है।
इस योग के कारण जातक का स्वभाव आक्रामक, हिंसक तथा नकारात्मक हो जाता है तथा ऐसा जातक अपने भाई, मित्रों तथा अन्य रिश्तेदारों के साथ कभी भी अच्छे संबंध नहीं रखता। उसका कोई कार्य शांतिपूर्वक नहीं निपटता।
इसके निदान हेतु प्रतिदिन हनुमानजी की उपासना करें। मंगलवार के दिन लाल गाय को गुड़ और प्रतिदिन पक्षियों को गेहूं या दाना आदि डालें। अंगारक दोष निवारण यंत्र पूजाघर में स्थापित करें ।
10.विष योग
शनि और चंद्र की युति या शनि की चंद्र पर दृष्टि से विष योग बनता है। कर्क राशि में शनि पुष्य नक्षत्र में हो और चंद्रमा मकर राशि में श्रवण नक्षत्र में हो अथवा चन्द्र और शनि विपरीत स्थिति में हों और दोनों अपने-अपने स्थान से एक दूसरे को देख रहे हों तो तब भी विष योग बनता है। यदि 8वें स्थान पर राहु मौजूद हो और शनि मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक लग्न में हो तो भी यह योग बनता है।
इस योग से जातक को जिंदगीभर कई प्रकार की विष के समान कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। पूर्ण विष योग माता को भी पीड़ित करता है।
इस योग के निदान हेतु संकटमोचक हनुमानजी की उपासना करें और प्रति शनिवार को छाया दान करते रहें। सोमवार को शिव की आराधना करें या महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें।

11. बन्धुभीसत्यकता योग
bandhubheesatyakata yog

जब जन्मपत्रिका में, चतुर्थेश नीच या शत्रु राशि में स्थित हो,या एक नैसर्गिक अशुभ ग्रह के साथ में स्थित हो या एक बुरे षष्ठ्यांश में स्थित हो तो बन्धुभीसत्यकता योग बनता है। यह एक बहुत प्रतिकूल युति है।
यदि कुछ बली संशोधनकारी प्रभाव आपकी कुण्डली में नहीं हैं, तो इस युति की उपस्थिति के कारण, आपके अपने सम्बन्धी और मित्र जीवन में कभी भी आपको त्याग सकते हैं, यद्यपि आपकी किसी छोटी सी गलती या बिना किसी वास्तविक दोष के कारण।
शिव परिवार की आराधना करें।

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गुरु चाण्डाल योग Guru chandal yoga


गुरु चाण्डाल योग Guru chandal yoga

जन्म पत्रिका में किसी भी भाव में जब गुरु के साथ राहु या केतु की युति होती है तब गुरु चाण्डाल योग /दोष की सृष्टि होती है।  यदि किसी की जन्मकुंडली में गुरु  के साथ राहु या केतु की युति है अथवा गुरु का राहु या केतु के साथ दृष्टि आदि से कोई संबंध बन रहा हो तो ऐसी स्थिति में कुंडली में गुरु चाण्डाल योग का निर्माण होता है।
ऐसी स्थिति में गुरु राहु या केतु से दूषित हो जाता है।
ज्योतिष में राहु और केतु को चाण्डाल, अशुभ तथा पाप ग्रह माना गया है तथा बृहस्पति नौ ग्रहों में सबसे शुभ एवं सात्विक ग्रह  माना जाता है । दोनों ग्रहों का स्वभाव एक दूसरे से एकदम विपरीत होने के कारण “गुरु चाण्डाल योग” का निर्माण होता है यही विपरीत स्वभाव होने के कारण कुंडली में यह योग “दोष” के रूप में प्रख्यात है। इस योग के बनने से जातक भ्रष्ट कार्यो में सलग्न हो सकता है। इसका चारित्रिक पतन हो सकता है ऐसा व्यक्ति अनैतिक अथवा अवैध कार्यों में अधिक रूचि लेता है वा उसमे लिप्त होता है।
यद्यपि वर्तमान समय  में यह दोष कई मामलो में अच्छा भी माना जाता है। आज अर्थप्रधान समय में धन के सम्बन्ध में यह योग ज्यादातर अच्छा ही फल प्रदान करता है, किन्तु नैतिकता और चारित्रिक दोष जातक में आ जाते हैं।

गुरु चांडाल योग / दोष का जातक के ऊपर प्रभाव
Guru Chadal Yoga / Impact on the person of Dosh
किसी की कुंडली में यदि राहु का गुरु के साथ संबंध बन रहा है तो वह व्यक्ति बहुत अधिक भौतिकवादी  होता है  जिसके कारण ऐसा व्यक्ति अपनी प्रत्येक इच्छा को पूरा करने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार होता है। वह अधिक से अधिक धन कमाकर अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना चाहता है और इसके लिए वह अनैतिक अथवा अवैध कार्यों का भी सहारा लेता है।
राहु केतु का किसी कुंडली में गुरु के साथ संबंध स्थापित होने पर व्यक्ति  के चरित्र में अमर्यादित विकृतिया आ जातीं हैं जिसके कारण वह पाखंडी, अहंकारी, हिंसक, धार्मिक कट्टरवादी बन जाता है जो परिवार तथा समाज के लिए ठीक नहीं माना जा सकता है। परन्तु  इस बात का भी जरूर ध्यान रखना चाहिए कि गुरु चांडाल योग प्रत्येक व्यक्ति को अशुभ प्रभाव नहीं देता बल्कि कई बार यह भी देखा गया है व्यक्ति बहुत अच्छे चरित्र तथा उत्तम मानवीय गुणों से युक्त होते है तथा इन्हें सामाजिक पद और प्रतिष्ठा की भी प्रप्ति होती है।
इस दोष के सम्बन्ध में फलादेश करने से पूर्व 
इस बात का जरूर ख्याल रखना चाहिए कि यह योग किस स्थान में बन रहा है और कौन सा ग्रह शुभ है तथा कौन सा ग्रह अशुभ है या दोनों अशुभ है परिणाम इसके ऊपर निर्भर करता है।

अशुभ राहु तथा अशुभ गुरु का फल
The result of inauspicious rahu and inauspicious guru

यदि दोनों ग्रह अशुभ अवस्था में है तो अवश्य ही अशुभ फल प्रदान करेगा वैसी स्थिति में गुरु चाण्डाल योग जातक को एक घृणित व्यक्ति बना सकता है जिस स्थान /भाव में यह योग बनेगा उस स्थान विशेष के फल को खराब करेगा  तथा ऐसा जातक धर्म ,जाति, समुदाय के आधार पर लोगों को हानि अथवा  कष्ट पहुंचा सकता है।

शुभ गुरु तथा शुभ केतु का फल
The auspicious guru and the fruit of auspicious Ketu

यदि शुभ गुरु तथा शुभ केतु के संयोग से गुरु कि चाण्डाल योग बन रहा है तो वैसा जातक सामजिक तथा आध्यात्मिक होता है। समाज सेवा ही अपना धर्म समझकर कार्य करता है। जातक में मानवीय गुण कूट-कूट कर भरा होता है और कभी कभी तो मानव कल्याण में ही अपना पूरा जीवन निकाल देता है।
शुभ गुरु तथा शुभ राहु का फल
The good guru and the auspicious Rahu's fruit
यदि शुभ गुरु और शुभ राहु द्वारा गुरु चाण्डाल योग बन रहा है तो व्यक्ति को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में शुभ फल प्रदान की प्रप्ति होगी।
गुरु चाण्डाल योग का जातक के जीवन पर जो भी दुष्प्रभाव पड़ रहा हो उसे नियंत्रित करने के लिए जातक को भगवान शिव की आराधना करनी चाहिए। एक अच्छा ज्योतिषी कुण्डली देख कर यह बता सकता है कि हमे गुरु को शांत करना उचित रहेगा या राहु के उपाय जातक से करवाने पड़ेंगे। 
● चाण्डाल दोष गुरु या गुरु के मित्र की राशि या गुरु की उच्च राशि में बने तो उस स्थिति में हमे  राहु देवता के उपाय करके उनको ही शांत करना पड़ेगा ताकि गुरु हमे अच्छे प्रभाव दे सके।  राहु देवता की शांति के लिए मंत्र-जाप पूरे होने के बाद हवन  करवाना चाहिए तत्पश्चात दान इत्यादि करने का विधान बताया गया है। 
● अगर ये दोष गुरु की शत्रु राशि में बन रहा हो तो हमे गुरु और राहु  देवता दोनों के उपाय करने चाहिए गुरु-राहु से संबंधित मंत्र-जाप, पूजा, हवन तथा दोनों से सम्बंधित वस्तुओं का दान करना चाहिए।
द्वादश भावों में गुरु चाण्डाल योग का प्रभाव
Impact of Guru Chandal Yoga in Dwadash Bhavas
1- लग्न में गुरू चाण्डाल योग बन रहा है तो व्यक्ति का नैतिक चरित्र संदिग्ध रहेगा। धन के मामलें में भाग्यशाली रहेगा। धर्म को ज्यादा महत्व न देने वाला ऐसा जातक आत्म केन्द्रित नहीं होता है।
2- यदि द्वितीय भाव में गुरू चाण्डाल योग बन रहा है और गुरू बलवान है तो व्यक्ति धनवान होगा। यदि गुरू कमजोर है तो जातक धूम्रपान व मदिरापान में ज्यादा आशक्त होगा। धन हानि होगी और परिवार में मानसिक तनाव रहेंगे।
3- तृतीय भाव में गुरू व राहु के स्थित होने से ऐसा जातक साहसी व पराक्रमी होती है। गुरू के बलवान होने पर जातक लेखन कार्य में प्रसिद्ध पाता है और राहु के बलवान होने पर व्यक्ति गलत कार्यो में कुख्यात हो जाता है।
4-चतुर्थ घर में गुरू चाण्डाल योग बनने से व्यक्ति बुद्धिमान व समझदार होता है। किन्तु यदि गुरू बलहीन हो तो परिवार साथ नहीं देता और माता को कष्ट होता है।
5-यदि पंचम भाव में गुरू चाण्डाल योग बन रहा है और बृहस्पति नीच का है तो सन्तान को कष्ट होगा या सन्तान गलत राह पकड़ लेगा। शिक्षा में रूकावटें आयेंगी। राहु के ताकतवर होने से व्यक्ति मन असंतुलित रहेगा।
6- षष्ठम भाव में बनने वाले गुरू चाण्डाल योग में यदि गुरू बलवान है तो स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और राहु के बलवान होने से शारीरिक दिक्कतें खासकर कमर से सम्बन्धित दिक्कतें रहेंगी एंव शत्रुओं से व्यक्ति पीडि़त रह सकता है।
7- सप्तम भाव में बनने वाले गुरू चाण्डाल योग में यदि गुरू पाप ग्रहों से पीडि़त है तो वैवाहिक जीवन कष्टकर साबित होगा। राहु के बलवान होने से जीवन साथी दुष्ट स्वभाव का होता है।
8- यदि अष्टम भाव में गुरू चाण्डाल योग बन रहा है और गुरू दुर्बल है तो आकस्मिक दुर्घटनायें, चोट, आपरेशन व विषपान आदि की आशंका रहती है। ससुराल पक्ष से तनाव भी बना रहता है। इस योग के कारण अचानक समस्यायें उत्पन्न होती है।
9- नवम भाव में बनने वाले गुरू चाण्डाल योग में गुरू के क्षीण होने से धार्मिक कार्यो में कम रूचि होती है एंव पिता से वैचारिक सम्बन्ध अच्छे नहीं रहते है। पिता के लिए भी यह योग कष्टकारी साबित होता है।
10-दशम भाव में बनने वाले गुरू चाण्डाल योग में व्यक्ति में नैतिक साहस की कमी होती, पद, प्रतिष्ठा पाने में बाधायें आती है। व्यवसाय व करियर में समस्यायें आती है। यदि गुरू बलवान है तो आने वाली बाधायें कम हो जाती है।और व्यापार के क्षेत्र में अवश्य ही वृद्धि होती है।
11-एकादश भाव में बनने वाले गुरू चाण्डाल योग में राहु के बलवान होने से धन गलत तरीके से भी आता है। दुष्ट मित्रों की संगति में पड़कर व्यक्ति गलत रास्ते पर भी चल पड़ता है। यदि गुरू बलवान है तो राहु के अशुभ प्रभावों को कुछ कम कर देगा।
12-द्वादश भाव में बन रहेे गुरू चाण्डाल योग में आध्यात्मिक आकांक्षाओं की प्राप्ति भी गलत मार्ग से होती है। राहु के बलवान होने से शयन सुख में कमी रहती है। आमदनी अठन्नी खर्चा रूपया रहता है। गुरू यदि बलवान है तो चाण्डाल योग का दुष्प्रभाव कम रहता है।
शांति के सामान्य उपाय
General measures of peace
प्रतिदिन  गुरु मंत्र का जाप करें अथवा अपने गुरु की सेवा करने से सभी दोषों को शांति स्वतः ही हो जाती है।
भगवान विष्णु के सहस्र नाम का पाठ करें।
भैरव स्त्रोत व चालीसा का नित्य पाठ करें।
गुरू को बलवान करने के लिए केसर व हल्दी का तिलक लगाए एवं भोजन में  प्रयोग करें।
गुरूवार व शनिवार को मदिरा एंव धूम्रपान का सेंवन कदापि न करें।
गुरूवार के दिन पीपल पेड़ के सेवा करें एंव वृद्धजनों को भोजन करायें।  
भगवान शिव की परिवार के साथ आराधना करें।


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Tuesday, June 18, 2019

जानें खोई हुई वस्तु के बारे में Learn about lost things


जानें खोई हुई वस्तु के बारे में Learn about lost things


अक्सर हम अपनी कोई वस्तु कहीं रखकर भूल जाते हैं या उसे कोई चुरा लेता है, अथवा अनजाने में ही वो वस्तु कहीं खो जाती है।ऐसे में मनुष्य बहुत ही परेशान हो जाता है। और इस तरह की परेशानी से बचने के ज्योतिष में कई तरह के उपाय हैं।
खोई हुई वस्तु के सम्बन्ध में अंक-ज्योतिष की एक विधि का उल्लेख किया गया है । वस्तुतः यह विधि मूक-प्रश्न की भाँति है । इस विधि में पृच्छक से 0 से 9 अंको को 9 बार पूछकर लिखने हैं और उन अंकों के योगफल में 3 जोड़ना है । इस प्रकार जो योगफल आए उसके आधार पर निम्नलिखित विवरण से खोई हुई वस्तु की जानकारी प्राप्त की जा सकती है ।
संख्याओं पर आधारित इस प्रकार  भविष्यकथन सुस्पष्ट एवं विशेष बिन्दु की ओर संकेत करता है ।
अंकों का फलकथन इस प्रकार है:-
अंक 3 : वस्तु रास्ते में अथवा कागजातों के बीच है ।
अंक 4 : वस्तु प्रश्नकर्ता के ही कब्जे में है, खोई नहीं है ।
अंक 5 : अपने आप मिल जाएगी । टोपी, पगड़ी अथवा सिर पर धारण करने वाली किसी वस्तु में ढूँढे ।
अंक 6 : उस स्थान पर, जहाँ जूते-चप्पल रखे जाते हैं । सम्भव है कि ताख, स्टेंड अथवा रैक में वस्तु हो ।
अंक 7 : नौकर से पूछताछ करें । घर की सफाई करने वाली नौकरानी से पूछे ।
अंक 8 : वस्तु किसी अलमारी अथवा लम्बवत् कगार पर, किसी नौकर अथवा काम करने वाले को मिलेगी ।
अंक 9 : वस्तु किसी बच्चे के पास है, जिसने कुछ कपड़ों के साथ इसे रखा है ।
अंक 10 : वस्तु वापस मिलेगी । मुख्य कक्ष में ही है ।
अंक 11 : ताल, पोखरा अथवा जलाशय के आस-पास छानबीन करें ।
अंक 12 : वस्तु खोई नहीं है, मगर मिल नहीं रही है । भूल गई है, जो कार्यस्थल, दफ्तर, किताबों अथवा कागजातों में कहीं है और सुरक्षित है ।
अंक 13 : घड़ी रखने के स्थान पर ढूँढे । शाल अथवा उत्तरीय रखने के स्थान पर भी हो सकती है ।
अंक 14 : वस्तु पगड़ी अथवा टोपी के भीतर होनी चाहिए । अगर बाहर खोई है, तो शौचालय, सीवर अथवा नाले में ढूँढना चाहिए । वस्तु का मिलना संदिग्ध है ।
अंक 15 : पति या पत्नी से पूछे, यदि उससे वस्तु का पता नहीं लगता है, तो घोड़ों के बाँधने की जगह अथवा अस्तबल में ढूँढे ।
अंक 16 : आपका रसोइया खोई वस्तु ढूँढ निकालेगा । वस्तु अवश्य मिलेगी ।
अंक 17 : किसी ताख अथवा कैबिनेट के किसी भाग पर वस्तु रखी होनी चाहिए । जहाँ कला सम्बन्धी वस्तुएँ या कीमती वस्तुएँ रखी जाती हैं ।
अंक 18 : घर ही में वह वस्तु खोई है तथा वस्त्रों के बीच में पड़ी मिलेगी ।
अंक 19 : किसी निर्जल, सूखे अथवा रेतीले रास्ते के आस-पास खोई वस्तु मिलेगी ।
अंक 20 : वस्तु खोई नहीं है, मगर भूली गई है । यह जल में मिलेगी अथवा किसी महीन कपड़े के करीब मिलेगी ।
अंक 21 : वस्तु प्रश्नकर्ता के पास ही है । यह किसी बक्से अथवा खाने में दो भागों में मोडकर रखी है ।
अंक 22 : वस्तु घर में किसी ताख पर रखी है तथा जल्दी ही मिल जाएगी ।
अंक 23 : वस्तु थोड़ी ही दूर है । दूसरे कमरे में तलाश करें, जहाँ कपड़े रखे जाते हैं ।
अंक 24 : वस्तु प्रश्नकर्ता के पास ही है । खोने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता ।
अंक 25 : प्रश्नकर्ता के व्यक्तिगत प्रभावों से वस्तु शीघ्र मिल जाएगी । किसी गोल एवं सफेद चीज की तलाश करें, वस्तु वहीं होगी।
अंक 26 : घर के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति से खोई वस्तु के सम्बन्ध में पूछताछ करें ।
अंक 27 : खोई वस्तु को अस्तबल में ढूंढे तथा गाड़ीवान या कोचवान से पूछताछ करें ।
अंक 28 : वस्तु पूरी तरह खो गई है । खुद को ढूँढने की मशक्कत से अलग रखें ।
अंक 29 : वस्तु के बारे में किसी पुराने नौकर या ड्राइवर से पता चल सकता है । वस्तु वापस की जा चुकी है ।
अंक 30 : बच्चों अथवा विद्यार्थियों से पूछताछ करने पर वस्तु वापस मिलेगी । वस्तु खेल में कहीं खो गई है ।
अंक 31 : वस्तु शौचालय अथवा घर की नाली में है । यदि भाग्य अच्छा होगा, तभी वस्तु वापस मिलेगी ।
अंक 32 : वस्तु निकट के बरामदे अथवा किसी कगार पर रखी मिलेगी ।
अंक 33 : वस्तु प्रश्नकर्ता के पास ही है । अपने ही प्रयासों से मिलेगी । वस्तु सम्भवतः धोती या वस्त्रों में है ।
अंक 34 : वस्तु आग के पास होनी चाहिए अथवा फायर प्लेस वाले किसी मुख्य कक्ष में । वस्तु नजदीक ही है तथा शीघ्र मिल जाएगी।
अंक 35 : वस्तु जल के निकट किसी गुप्त स्थान पर है अथवा दम्पती के निजी कक्ष में भी हो सकती है ‘वाशिंग स्टेंड’ के आस-पास भी ढूँढे ।
अंक 36 : वस्तु आया अथवा बच्चों की दाई के पास है, वापस आ जाएगी ।
अंक 37 : वस्तु पूजागृह अथवा निजी कक्ष में, परिसर में ही मिल जाएगी ।
अंक 38 : उस स्थान पर जाने के बाद वस्तु मिल जाएगी, जहाँ प्रश्नकर्ता ने स्नान किया था।
अंक 39 : वस्तु गुम नहीं हुई है, परन्तु ताख के किनारे दबी पड़ी है ।
अंक 40 : वस्तु प्रश्नकर्ता की धोती अथवा अन्य परिधानों में है । पगड़ी या लंगोटी में भी होना सम्भव है ।
अंक 41 : जहाँ पर प्रश्नकर्ता के (पति/पत्नी के) जूते, चप्पल रखे जाते हों, वहाँ पर वस्तु होने की सम्भावना है ।
अंक 42 : वस्तु बावर्ची या खानसामे के घर में है अथवा जल या घड़े के पास है ।
अंक 43 : वस्तु दूर नहीं है, वस्तु को गाड़ीवान् के पंडाल या अस्तबल में ढूँढे, वस्तु वापस मिल जाएगी ।
अंक 44 : वस्तु प्रश्नकर्ता के पास ही हैं । इसे तेल के बर्तन अथवा दीपक में ढूँढे । वस्तु को शुद्ध करने की जरूरत पड़ेगी ।
अंक 45 : वस्तु एकदम ठीक-ठाक हालत में है । किसी ताख में ढूँढे ।
अंक 46 : प्रश्नकर्ता के पार्टनर ने वस्तु को सुरक्षित रख दिया है ।
अंक 47 : काम कर रहे दो नौकरों से पूछताछ करें । जो असहज दिखे, उससे ही जानकारी मिलेगी ।
अंक 48 : जहाँ पर पेयजल रखा जाता है, वस्तु वहीं पड़ी है ।
अंक 49 : वस्तु की सुन्दरता नष्ट हो चुकी है तथा यह वस्तुतः गायब हो चुकी है । यदि मिलती भी है, तो बुरी तरह क्षतिग्रस्त प्राप्त होगी ।
अंक 50 : वस्तु खोई नहीं है, बल्कि किसी बक्से में है । प्रश्नकर्ता के पास ही है ।
अंक 51 : वस्तु नहाने के स्थान, हमाम या स्नानगृह से मिल जाएगी ।
अंक 52 : खोई वस्तु के सम्बन्ध में अपने पार्टनर या गृहस्वामी से पूछताछ करें । इसके सम्बन्धी से मदद मिल सकती है । यह दूसरे हाथ में जा चुकी है ।
अंक 53 : वस्तु नौकर के कब्जे में है । वह उसे वापस लाएगा ।
अंक 54 : वस्तु परिवार के ही किसी व्यक्ति के पास है । बच्चों के कमरे में देखें ।
अंक 55 : वस्तु उस स्थान पर है, जहाँ बरसात का पानी बहने के लिए नाली बनी हो अथवा जहाँ पानी हो ।
अंक 56 : वस्तु निकट ही है । जहाँ पर प्रश्नकर्ता अन्तिम बार ठहरा था, वहाँ से सूचना प्राप्त करें, तो वस्तु मिल जाएगी ।
अंक 57 : वस्तु प्रश्नकर्ता के पास ही है । सैंडल बैग, हिप पॉकेट अथवा जहाँ खेल का सामान रखा जाता है, वहाँ हो सकती है । 
अंक 58 : वस्तु दो व्यक्तियों के हाथ में है, अतः मुश्किल से मिलेगी । वस्तु का इस्तेमाल कर लिया गया है ।
अंक 59 : किसी वृद्ध नौकर ने वस्तु को रखा है । यह रोटी अथवा केक या आटे में मिलेगी । 
अंक 60 : ऐसा प्रतीत होता है कि वस्तु इस तरह गायब हुई है कि मिलना मुश्किल है । 
अंक 61 : वस्तु घर के निचले हिस्से में मौजूद, जूते, चप्पलों के नीचे होने की सम्भावना है । 
अंक 62 : ढूँढना छोड़ दें, वस्तु मिलेगी नहीं । 
अंक 63 : वस्तु प्रश्नकर्ता के पास ही है तथा वह किसी पुराने एवं अँधेरे स्थान पर अथवा पुराने सामानों के बीच है ।
अंक 64 : वस्तु प्रश्नकर्ता के ही कब्जे में है । यह कहीं गुम हो गई है तथा भूल गई है । उचित समय पर मिल जाएगी । घर के अँधेरे कोनों तथा ऊँचे स्थानों पर तलाश करें ।
अंक 65 : वस्तु प्रश्नकर्ता के कब्जे से बाहर जा चुकी है तथा यह किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से ही मिलेगी ।
अंक 66 : वस्तु दो नौकरों के षड्यंत्र के द्वारा गायब हुई है, मिलना मुश्किल है । अपंग व्यक्ति से पूछताछ करें ।
अंक 67 : वस्तु का पता किसी युवा अथवा बच्चे द्वारा चलेगा ।
अंक 68 : वस्तु घर की छत पर है । नौकर उसे तलाशेगा ।
अंक 69 : वस्तु बहुत दूर उस स्थान पर है, जहाँ प्रश्नकर्ता अन्तिम बार रुका था । किसी रिश्तेदार के प्रवेश द्वार के पास ।
अंक 70 : वस्तु प्रश्नकर्ता के पास, वहाँ है जहाँ पानी रखा जाता है ।
अंक 71 : वस्तु खोई नहीं है, बल्कि प्रश्नकर्ता के कब्जे में है । जल्दी ही नजर आ जाएगी । 
अंक 72 : प्रश्नकर्ता के ही कब्जे में किसी घड़े अथवा जलपात्र के पास वस्तु मौजूद है ।
अंक 73 : विभागीय जाँच द्वारा वस्तु की प्राप्ति होगी ।
अंक 74 : विश्वासपात्र नौकर वस्तु ले आएगा ।
अंक 75 : वस्तु युवकों के हाथों में पड़ गई है । वह मिलेगी, परन्तु विकृत दशा में अथवा मूल्यहीन होकर ।
अंक 76 : वस्तु घर में ही है, जहाँ अनाज अथवा रोटी रखी जाती है ।
अंक 77 : वस्तु थोड़ी दूरी पर ही स्थित हैं । एक नौकर उसे ढूँढ कर लाएगा ।
अंक 78 : किसी अनजान जगह में वस्तु है तथा बड़ी मुश्किल में है ।
अंक 79 : वस्तु आपके स्थान में है । वस्तु किसी लोहे या स्टील के सामान के निकट मिलेगी ।
अंक 80 : वस्तु प्रश्नकर्ता के कब्जे में दो हिस्से वाली किसी वस्तु बक्से अथवा किसी केस में है ।
अंक 81 : कपड़ों के बीच ढूँढे । यदि वह मिल जाए, तो वस्तुतः आप भाग्यशाली हैं ।
अंक 82 : चौके अथवा रसोई के स्थान में खानसामे से पूछताछ करें ।
अंक 83 : वस्तु युवा लड़की ढूँढेगी । यह तालाब अथवा पोखरे के किनारे है ।
अंक 84 : वस्तु घर में ही है । यह बॉक्स अथवा खाने में है ।
साभार

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विरह-ज्वर-विनाशकं ब्रह्म-शक्ति स्तोत्रम् ।। Virah-fever-destroyer Brahma-Shakti stotrama ..

विरह-ज्वर-विनाशकं ब्रह्म-शक्ति स्तोत्रम् ।।
Virah-fever-destroyer Brahma-Shakti stotrama ..




                      ।।श्री शिव उवाच।। 

ब्राह्मि ब्रह्म-स्वरूपे त्वं, मां प्रसीद सनातनि ! परमात्म-स्वरूपे च, परमानन्द-रूपिणि !।। 
ॐ प्रकृत्यै नमो भद्रे, मां प्रसीद भवार्णवे। सर्व-मंगल-रूपे च, प्रसीद सर्व-मंगले !।। 
विजये शिवदे देवि ! मां प्रसीद जय-प्रदे। वेद-वेदांग-रूपे च, वेद-मातः ! प्रसीद मे।। 
शोकघ्ने ज्ञान-रूपे च, प्रसीद भक्त वत्सले। सर्व-सम्पत्-प्रदे माये, प्रसीद जगदम्बिके!।। लक्ष्मीर्नारायण-क्रोडे, स्रष्टुर्वक्षसि भारती। 
मम क्रोडे महा-माया, विष्णु-माये प्रसीद मे।। काल-रूपे कार्य-रूपे, प्रसीद दीन-वत्सले। कृष्णस्य राधिके भद्रे, प्रसीद कृष्ण पूजिते!।। समस्त-कामिनीरूपे, कलांशेन प्रसीद मे। 
सर्व-सम्पत्-स्वरूपे त्वं, प्रसीद सम्पदां प्रदे!।। यशस्विभिः पूजिते त्वं, प्रसीद यशसां निधेः। चराचर-स्वरूपे च, प्रसीद मम मा चिरम्।। 
मम योग-प्रदे देवि ! प्रसीद सिद्ध-योगिनि। सर्व-सिद्धि-स्वरूपे च, प्रसीद सिद्धि-दायिनि।। अधुना रक्ष मामीशे, प्रदग्धं विरहाग्निना। स्वात्म-दर्शन-पुण्येन, क्रीणीहि परमेश्वरि !।।

                ।।फल-श्रुति।।

 एतत् पठेच्छृणुयाच्चन, वियोग-ज्वरो भवेत्। न भवेत् कामिनीभेदस्तस्य जन्मनि जन्मनि।। इस स्तोत्र का पाठ करने अथवा सुनने वाले को वियोग-पीड़ा नहीं होती और जन्म जन्मान्तर तक कामिनी-भेद नहीं होता।पारिवारिक कलह, रोग या अकाल-मृत्यु आदि की सम्भावना होने पर इसका पाठ करना चाहिये।
प्रणय सम्बन्धों में बाधाएँ या पति-पत्नी के बीच सामन्जस्य का अभाव होने पर  इसका पाठ अभीष्ट फलदायक होगा।
अपनी इष्ट-देवता या भगवती गौरी का षोडषोपचार या पञ्चोपचार आदि विविध उपचारों से पूजन करके उक्त स्तोत्र का पाठ करें। अभीष्ट-प्राप्ति के लिये एकाग्रता के साथ कातरता और समर्पण आवश्यक है।

Monday, June 17, 2019

जानें लड़की के विवाह से संबंधित सभी जानकारी Know all information related to the girl's wedding

कन्या के विवाह, पति, ससुराल से संबंधित सभी जानकारियों को ज्ञात करने के ज्योतिषीय सूत्र
Astrological sources of knowing all the information related to the marriage of the girl, husband, in-laws

कन्या के विवाह से पहले मेलापक के आधार पर केवल गुण मिलान करना ही ज्योतिष में पर्याप्त नहीं होता, अगर कन्या की जन्मपत्रिका को शूक्ष्मता से देखें तो ससुराल की समस्त जानकारी  विवाह के पूर्व ही ज्ञात की जा सकती है । अपनी कन्या का विवाह करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति  वर-वधू की कुंडली का गुण मिलान करते हैं।  किंतु इसके पूर्व उन्हें यह देखना चाहिए कि लड़की का विवाह किस उम्र में, किस दिशा में तथा कैसे घर में होगा? तथा उसके पति का स्वभाव कैसा होगा? किस सामाजिक स्तर का तथा कितने भाई-बहनों वाला होगा? लड़की की जन्म  कुंडली से उसके होने वाले पति एवं ससुराल के विषय में सब कुछ स्पष्ट रूप से पता किया जा सकता है।

ज्योतिषके अनुसार लड़की की जन्म  कुंडली में लग्न से सप्तम भाव उसके जीवन, पति, दाम्पत्य जीवन तथा वैवाहिक संबंधों का भाव है। इस भाव से उसके होने वाले पति का कद, रंग, रूप, चरित्र, स्वभाव, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय या कार्यक्षेत्र, परिवार से संबंध आदि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। 

कन्या की कुंंडली के तृतीय और नवम भाव के आधार पर देवर, जेठ, ननदों के स्वभाव आदि के बारे में जानकारी की जाती है।

इसी तरह दशम भाव से सास, चतुर्थ भाव से स्वसुर, एवं अष्टम भाव से उनके कुटुम्ब परिवार की स्थिति और स्वभाव को जाना जा सकता है ।

कितनी दूरी पर होगी ससुराल?How far will be the in-laws?

सप्तम भाव में अगर वृष, सिंह, वृश्चिक या कुंभ राशि स्थित हो, तो लड़की की शादी उसके जन्म स्थान से 90 किलोमीटर के अंदर ही होगी।
यदि सप्तम भाव में चंद्र, शुक्र तथा गुरु हों, तो लड़की की शादी जन्म स्थान के समीप होगी। यदि सप्तम भाव में चर राशि मेष, कर्क, तुला या मकर हो, तो विवाह उसके जन्म स्थान से 200 किलोमीटर के अंदर होगा। 
अगर सप्तम भाव में द्विस्वभाव राशि मिथुन, कन्या, धनु या मीन राशि स्थित हो, तो विवाह जन्म स्थान से 80 से 100 किलोमीटर की दूरी पर होगा। 
यदि सप्तमेश सप्तम भाव से द्वादश भाव के मध्य हो, तो विवाह विदेश में होगा या लड़का शादी करके लड़की को अपने साथ लेकर विदेश चला जाएगा।

 विवाह कब होगा? When will the wedding

यदि जातक या जातका की जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में सप्तमेश बुध हो और वह पाप ग्रह से प्रभावित न हो, तो शादी 13 से 18 वर्ष की आयु सीमा में होता है। सप्तम भाव में सप्तमेश मंगल पापी ग्रह से प्रभावित हो, तो शादी 18 वर्ष के अंदर होगी। शुक्र ग्रह युवा अवस्था का द्योतक है। सप्तमेश शुक्र पापी ग्रह से प्रभावित हो, तो 25 वर्ष की आयु में विवाह होगा। चंद्रमा सप्तमेश होकर पापी ग्रह से प्रभावित हो, तो विवाह 22 वर्ष की आयु में होगा। बृहस्पति सप्तम भाव में सप्तमेश होकर पापी ग्रहों से प्रभावित न हो, तो शादी 27-28 वें वर्ष में होगी। सप्तम भाव को सभी ग्रह पूर्ण दृष्टि से देखते हैं तथा सप्तम भाव में शुभ ग्रह से युक्त हो कर चर राशि हो, तो जातिका का विवाह दी गई आयु में संपन्न हो जाता है। यदि किसी लड़की या लड़के की जन्मकुंडली में बुध स्वराशि मिथुन या कन्या का होकर सप्तम भाव में बैठा हो, तो विवाह बाल्यावस्था में होगा।

आयु के जिस वर्ष में गोचरस्थ गुरु लग्न, तृतीय, पंचम, नवम या एकादश भाव में आता है, उस वर्ष शादी होना निश्चित समझना चाहिए। परंतु शनि की दृष्टि सप्तम भाव या लग्न पर नहीं होनी चाहिए। अनुभव में देखा गया है कि लग्न या सप्तम में बृहस्पति की स्थिति होने पर उस वर्ष शादी हुई है।


जानें विवाह कब होगा ?When will marriage happen?

यह जानने की दो विधियां यहां प्रस्तुत हैं। जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में स्थित राशि अंक में 10 जोड़ दें। योगफल विवाह का वर्ष होगा। 
सप्तम भाव पर जितने पापी ग्रहों की दृष्टि हो, उनमें प्रत्येक की दृष्टि के लिए 4-4 वर्ष जोड़ योगफल विवाह का वर्ष होगा।

किस दिशा में करें शादी?In what direction do marriage?

ज्योतिष के अनुसार गणना करके इसकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। जन्मांग में सप्तम भाव में स्थित राशि के आधार पर शादी की दिशा ज्ञात की जाती है। उक्त भाव में मेष, सिंह या धनु राशि एवं सूर्य और शुक्र ग्रह होने पर पूर्व दिशा, वृष, कन्या या मकर राशि और चंद्र, शनि ग्रह होने पर दक्षिण दिशा, मिथुन, तुला या कुंभ राशि और मंगल, राहु, केतु ग्रह होने पर पश्चिम दिशा, कर्क, वृश्चिक, मीन या राशि और बुध और गुरु ग्रह होने पर उत्तर दिशा की तरफ शादी होगी। 
अगर जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में कोई ग्रह न हो और उस भाव पर अन्य ग्रह की दृष्टि न हो, तो बलवान ग्रह की स्थिति राशि में शादी की दिशा समझनी चाहिए।

अन्य नियम के अनुसार शुक्र जन्म लग्न कुंडली में जहां कहीं भी हो, वहां से सप्तम भाव तक गिनें। उस सप्तम भाव की राशि के स्वामी की दिशा में विवाह होना चाहिए। जैसे अगर किसी कुंडली में शुक्र नवम भाव में स्थित है, तो उस नवम भाव से सप्तम भाव तक गिनें तो वहां से सप्तम भाव वृश्चिक राशि हुई। इस राशि का स्वामी मंगल हुआ। मंगल ग्रह की दिशा दक्षिण है। अतः शादी दक्षिण दिशा में होनी चाहिए।

जीवनसाथी कैसा होगा ?How will a life partner be?

कुंंडली में सप्तमेश अगर शुभ ग्रह (चंद्रमा, बुध, गुरु या शुक्र) हो या सप्तम भाव में स्थित हो या सप्तम भाव को देख रहा हो, तो लड़की का पति सम आयु या दो-चार वर्ष के अंतर का, गौरांग और सुंदर होना चाहिए। 

अगर सप्तम भाव पर या सप्तम भाव में पापी ग्रह सूर्य, मंगल, शनि, राहु या केतु का प्रभाव हो, तो बड़ी आयु वाला अर्थात लड़की की उम्र से 5 वर्ष बड़ी आयु का होगा। सूर्य का प्रभाव हो, तो गौरांग, आकर्षक चेहरे वाला, मंगल का प्रभाव हो, तो लाल चेहरे वाला होगा। शनि अगर अपनी राशि का उच्च न हो, तो वर काला या कुरूप तथा लड़की की उम्र से काफी बड़ी आयु वाला होगा। अगर शनि उच्च राशि का हो, तो, पतले शरीर वाला गोरा तथा उम्र में लड़की से 12 वर्ष बड़ा होगा।

सप्तमेश अगर सूर्य हो, तो पति गोल मुख तथा तेज ललाट वाला, आकर्षक, गोरा सुंदर, यशस्वी एवं राजकर्मचारी होगा। 
चंद्रमा अगर सप्तमेश हो, तो पति शांत चित्त वाला गौर वर्ण का, मध्यम कद तथा, सुडौल शरीर वाला होगा। 
मंगल सप्तमेश हो, तो पति का शरीर बलवान होगा। वह क्रोधी स्वभाव वाला, नियम का पालन करने वाला, सत्यवादी, छोटे कद वाला, शूरवीर, विद्वान तथा भ्रातृ-प्रेमी होगा तथा सेना, पुलिस या सरकारी सेवा में कार्यरत होगा।

देवर, जेठ और ननदें Dewar, Jeth and Nandeen

लड़की की जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव से तृतीय भाव अर्थात नवम भाव उसके पति के भाई-बहन का स्थान होता है। उक्त भाव में स्थित ग्रह तथा उस पर दृष्टि डालने वाले ग्रह की संख्या से 2 बहन, मंगल से 1 भाई व 2 बहन, बुध से 2 भाई 2 बहन वाला कहना चाहिए। 
लड़की की जन्मकुंडली में पंचम भाव उसके पति के बड़े भाई-बहन का स्थान है। पंचम भाव में स्थित ग्रह तथा दृष्टि डालने वाले ग्रहों की कुल संख्या उसके पति के बड़े भाई-बहन की संख्या होगी। पुरुष ग्रह से भाई तथा स्त्री ग्रह से बहन समझना चाहिए।

पति का घर कैसा है
How is  husband's house

लड़की की जन्म लग्न कुंडली में उसके लग्न भाव से तृतीय भाव पति का भाग्य स्थान होता है। इसके स्वामी के स्वक्षेत्री या मित्रक्षेत्री होने से पंचम और राशि वृद्धि से या तृतीयेश से पंचम जो राशि हो, उसी राशि का श्वसुर का गांव या नगर होगा। प्रत्येक राशि में 9 अक्षर होते हैं। राशि स्वामी यदि शत्रुक्षेत्री हो, तो प्रथम, द्वितीय अक्षर, सम राशि का हो, तो तृतीय, चतुर्थ अक्षर मित्रक्षेत्री हो, तो पंचम, षष्ठम अक्षर, अपनी ही राशि का हो तो सप्तम, अष्टम अक्षर, उच्च क्षेत्री हो, तो नवम अक्षर प्रसिद्ध नाम होगा। तृतीयेश के शत्रुक्षेत्री होने से जिस राशि में हो उससे चतुर्थ राशि ससुराल या भवन की होगी। यदि तृतीय से शत्रु राशि में हो और तृतीय भाव में शत्रु राशि में पड़ रहा हो ,तो दसवी राशि ससुर के गांव की होगी। लड़की की कुंडली में दसवां भाव उसके पति का भाव होता है। दशम भाव अगर शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो, या दशमेश से युक्त या दृष्ट हो, तो पति का अपना मकान होता है। राहु, केतु, शनि, से भवन बहुत पुराना होगा। मंगल ग्रह में मकान टूटा होगा। सूर्य, चंद्रमा, बुध, गुरु एवं शुक्र से भवन सुंदर, मजबूत व बहुमंजिला होगा। अगर दशम स्थान में शनि बलवान हो, तो मकान भव्य मिलेगा।

पति की नौकरी Husband's job

लड़की की जन्म लग्न कुंडली में चतुर्थ भाव पति का राज्य भाव होता है। अगर चतुर्थ भाव बलयुक्त हो और चतुर्थेश की स्थिति या दृष्टि से युक्त सूर्य, मंगल, गुरु, शुक्र की स्थिति या चंद्रमा की स्थिति उत्तम हो, तो अच्छी नौकरी का संयोग बनता है।

पति की आयु Husband's age

लड़की के जन्म लग्न में द्वितीय भाव उसके पति की आयु भाव है। अगर द्वितीयेश शुभ स्थिति में हो या अपने स्थान से द्वितीय स्थान को देख रहा हो, तो पति दीर्घायु होता है। अगर द्वितीय भाव में शनि स्थित हो या गुरु सप्तम भाव, द्वितीय भाव को देख रहा हो, तो भी पति की आयु 75 वर्ष की होती है।।

इन सभी ज्योतिष सिद्धातों के शूक्ष्म परीक्षण एवं षोडशवर्गीय कुंंडली के गहन विष्लेषण से पति, ससुराल और वैवाहिक जीवन के प्रत्येक पहलू को  जाना जा सकता है।

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ग्रह गोचर फलम् Planetary transit

ग्रहों का राशि से गोचर भ्रमण का शुभाशुभ फल
         
सूर्य फलम्

1.जब सूर्य जन्मराशि में गोचर में भर्मण करता है तब वैभव की हानि,यात्रा,रोग,पीड़ा आदि फल होता है।
2.गोचर में जन्मराशि से द्वितीय सूर्य वित्त की हानि,धोखा होने से हानि,जल सम्बन्धी रोग आदि होते हैं।
3.गोचर में जन्मराशि से तीसरा सूर्य स्थानलाभ(भूमि भवन पद आदि की प्राप्ति),शत्रुनाश,अर्थलाभ एवं स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
4.गोचर में जन्म राशि से चतुर्थ सूर्य से नारिभोग में बाधा तथा रोगपीड़ा होती है।
5.गोचर में पंचमस्थ सूर्य हो तो जातक को शत्रुओं तथा रोग से पीड़ा होती है।
6.गोचर में षष्ठस्थ सूर्य रोग रिपुओं की वृद्धि तथा व्यर्थ चिंता देता है।
7.सप्तमस्थ सूर्य दीनता,दूर की यात्रा एवम् उदर रोग उतपन्न करता है।
8.अष्टमस्थ सूर्य से स्त्रियों में वैमनस्य राजभय एवम् रोग होता है।
9.नवमस्थ गोचर सूर्य महान बिमारी दीनता भयानक आपत्ति तथा कारोबार की हानि होती है।
10.दशम में सूर्य हो तो सर्वत्र जय एवम् कार्यों में सफलता मिलती है।
11.एकादश सूर्य से पदप्राप्ति वैभवलाभ तथा निरोगिता रहती है।
12.द्वादश सूर्य व्यापार में शुभ फल देता है ।

चन्द्र फलम्

1.जन्म राशिगत चन्द्र गोचर में संचार होने पर मिष्ठान्न शय्या भोजन वस्त्रादि की प्राप्ति होती है।
2.द्वितीय होंने पर सभी कार्यों में बाधा आती है मान तथा अर्थ का नाश होता है।
3.तृतीय होने पर नारी-वस्त्र सुख एवम् धन का लाभ मिलता है तथा विजय होती है।
4.चतुर्थ होने पे भी उत्तम होता है।
5.पंचमस्थ होने से बहुत माया(छल कपट) से शोक प्राप्त होता है विघ्न उतपन्न होते हैं।
6.षष्ठस्थ चन्द्र से सुख तथा धन प्राप्त होता है शत्रु रोग आदि का नाश होता है।
7. सप्तमस्थ होने पर अच्छा भोजन सम्मान शयनसुख आदि मिलता है एवम् आज्ञा का पालन होता है।
8.अष्टमस्थ चन्द्र से भय प्राप्त होता है।
9.नवम होने पर भाग्य वृद्धि होती है
10.दशम होने पर कर्म क्षेत्र में लाभ पिता से नजदीकी बढ़ती है।
11.एकादश में होने पर व्यापार में लाभ होता है।
12.द्वादश में होने पर मान हानि अकारण व्यय होता है ।।

मंगल फलम्

1.जन्म राशि में मंगल गोचर में  भृमण करता है तो सभी कार्यों में अवरोध उतपन्न होता है तथा चोट लगती है।
2.द्वितीयगत मंगल गोचर में राज्य शासन,चोर अग्नि तथा शत्रुओं से पीड़ा होती है। रोगों के कारण शरीर में दौर्बल्य तथा चिंता उतपन्न होती है।
3.तृतीयस्थ भौम धन की प्राप्ति होती है तथा स्वामी कार्तिकेय की कृपा प्राप्त होती है।
4.चतुर्थ के मंगल से दुष्ट लोगों के संग,उदररोग,ज्वर तथा शरीर से रक्तस्त्राव होता है।
5.पंचम स्थान के मंगल से शत्रुभय व्याधिभय तथा पुत्र द्वारा शोक होता है।
6.षष्ठस्थ मंगल से बहुमूल्य धातुओं का संग्रह होता है कलह भय आदि होता है तथा प्रियजनो का वियोग होता है।
7.सप्तमस्थ मंगल होने पर पेट रोग नेत्र रोग तथा पत्नी से कलह होती है।
8.अष्टमस्थ मंगल से शरीर से रक्तस्त्राव रक्तचाप अंगभंग मन में निराशा उतपन्न होती है और सम्मान को ठेस पहुंचती है।
9.नवमस्थ मंगल से धनवान पराजय तथा व्याधि होती है।
10.यदि दशम में मंगल हो तो सभी प्रकार से लाभ है
11.एकादश का मंगल जनपद का अधिकार जैसे विधायकादि को प्राप्त होता है
12.यदि मंगल व्ययस्थान में हो तो अनेक अनर्थों की उत्पत्ति तथा अनेक प्रकार की फिजूलखर्ची होती है।पित्त रोग तथा नेत्रविकार होता है।

बुध फलम्

1.जन्म राशि का बुध गोचर में अपने बन्धु बांधवों से कलह कराता है दुर्वचन कहने की प्रवृत्ति होती है।
2.द्वितीयस्थ बुध धन सम्पदा देता है
3.तृतीयस्थ बुध राजा तथा शत्रु से भय देता है
4.चतुर्थ होने से धनागम मित्र एवम् कुटुंब की वृद्धि होती है
5.पंचमस्थ बुध के कारण स्त्री तथा सन्तान से कलह
6.छठे बुध उन्नति विजय एवम् सौभाग्य
7.सप्तमस्थ बुध विग्रह कारक  होता है
8.अस्टम्स्थ बुध विजयी पुत्र धन वस्त्र एवम् कुशलता की प्राप्ति
9.गोचर में नवम का बुध रपग पीड़ा कारक
10.दशमस्थ बुध शत्रुनष्ट,धनलाभ,स्त्रिभोग,मधुरवाणी शुभ तथा उन्नति होति है।
11.एकादश भाव का बुध पत्नी पुत्र एवम् मित्रों का मिलन होता है तथा तुष्टि प्राप्त होती है।
12.बारहवे भाव का बुध शत्रुओं से पराजय तथा रोगों से पीड़ा देता है।
      
गुरु फलम्

1.यदि गोचरस्थ गुरु किसी को जन्म राशि का हो तो स्थानभ्रंश अर्थात या तो महत्वपूर्ण पद छिन जाता है निलम्बन हो जाता है या स्थानांतर हो जाता है। धन की हानि कलह बुद्धि की जड़ता आदि फल होते हैं
2.द्वितीयस्थ गुरु से धन का लाभ शत्रुओं का नाश रमणीय पदार्थों का भोग प्राप्त होता है।
3.तीसरे गुरु पदभ्रंश(व्यवसाय परिवर्तन) तथा कार्यबाधा होती है।
4.चतुर्थ गुरु के कारण मित्र एवम् बांधवों रिश्तेदारों से क्लेश प्राप्त होता है।
5.पंचमस्थ गुरु अश्व वाहन धन सन्तति स्वर्ण महंगी धातुएँ स्त्रीसुख तथा आवास की प्राप्ति होती है।
6.छठे गुरु से सुखप्राप्ति के साधन से भू सुख की प्राप्ति नही होती अर्थात अतृप्ति तथा असन्तुष्टि रहती है।
7.सप्तमभावस्थ गुरु गोचर में हो तो बुद्धि एवम् वाणी का प्रयोग चातुर्यपूर्वक होता है आर्थिक उन्नति होती है
कारोबार में सफलता मिलती है और स्त्री सुख मिलता है।
8.गोचरभ्रमण में स्वराशि से अष्टम राशि का गुरु तीव्र दुःख रोग पराधीनता तथा निरन्तर भटकना पड़ता है।
9.नवमस्थ गुरु से स्त्री पुत्र धन आदि का सुख प्राप्त होता है बुद्धि की प्रखरता रहती है कही हुई बातों का पालन होता है एवम् आज्ञा का उलंघन नही होता है।
10.जब गोचर में गुरु दशम में हो तो स्थाननाश तथा धननाश होता है।
11.गुरु ग्यारहवें होने पर इच्छाएं पूरी होती हैं धनलाभ होता है सभी कार्यों में सफलता मिलती है तथा नया स्थानादि प्राप्त होता है।
12.बारहवें होने पर दूर स्थानों की यात्रा बहुत दिनों तक करनी पड़ती है तथा उग्र दुःख प्राप्त होते हैं

शुक्र फलम्

1.जन्म राशि पर शुक्र का गोचर भर्मण हो तब मिष्ठान्न भोजन प्रेयसि की संगति कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थों की प्राप्ति शयनसुख सामग्री सुंदर वस्त्रादि का भोग मिलता है और आनन्दाभूति होती है।
2.द्वितीयस्थ शुक्र धन-धान्य आभूषण वस्त्र भूषा गन्धमाल्य तथा सम्मान देता है परिवार में आज्ञा का पालन होता है,शासन पक्ष से सहयोग मिलता है परिवार के लोग प्रसन्न रहते है तथा पर्याप्त सुख मिलता है।
3.तृतीय स्थान पर शुक्र होने पर आदेश की अवज्ञा होती है धन सम्मान भौतिक सामग्री वस्त्रादि का नाश होता है एवम् शत्रु नष्ट होते हैं।
4.जन्मराशि से चतुर्थ होने पर बंधुजनों का सुख स्त्री सुख तथा इंद्र के समान वैभव प्राप्त होता है।
5.पंचम राशिगत गोचर का शुक्र धन मित्र तथा गुरुजनो द्वारा तुष्टि प्रदान करता है।
6.जन्मराशि से 6ठे शुक्र मुकदमे तथा विवाद में पराजित कराता है दबे दबे में कमी होती है।
7.सप्तम में शुक्र स्त्री से भय या स्त्री के कारण कष्ट होता है।
8.अष्टम का शुक्र गृहस्थी का सुख देता है घरेलू उपकरणों का संग्रह होता है घर में साजसज्जा आदि का सामान एकत्रित होता है और स्त्री तथा रत्नादि भोग प्राप्त होते हैं।
9.जन्मराशि से नवम राशि में गोचर का शुक्र धन की प्राप्ति तथा व्यय धर्मकार्य(दान परोपकार आदि)में होता है पत्नी का सुख एवं सहयोग मिलता है।
10.दशवें शुक्र जातक की जन्मराशि से हो तो लड़ाई झगड़ा मुकदमेबाजी आदि में उलझना पड़ता है एवम् अपमान झेलना पड़ता है।
11.यदि गोचर भर्मण करता हुआ शुक्र जन्मराशि से लाभस्थान में हो तो सुगन्धित एवम् मनोहारी पदार्थ मिलते हैं तथा बन्धुओं का सुख मिलता है।
12.जन्मराशि से बारहवें स्थान पर शुक्र का गोचर धन वाहन वस्त्र आदि से सुखी करता है।

शनि फलम्

1.गोचर में जन्मराशि का शनि विष तथा अग्नि विजली आदि से भय होता है बन्धुजनों की हानि होती है तथा स्थान छोड़ना पड़ता है पुत्र एवम् परिवारजनो जो दूर जाना पड़ता है।
2.दुसरे शनि धन सौख्य शरीर की कांति तथा सम्भोग शक्ति कमजोर होती है इन तत्वों की हानि होती है।
3.तीसरे शनि होने पर शुभ फल होता है भैंस आदि तथा भारी वाहनों का सुख ट्रैक्टर ट्रक हाथी मिलता है और धन आरोग्य की प्राप्ति एवम् मनोकामना की पूर्ति होती है
4.चौथे शनि मन में कुटिलता रहती है पत्नी तथा प्रियजनों का वियोग होता है यह शनि की ढैया कहलाती है।
5.पंचमस्थ शनि से सभी से लड़ाई झगड़ा तथा पुत्र से वियोग होता है।
6.छठे शनि के गोचर में होने पर शत्रु शांत हो जाते हैं तथा रोग भी शांत होते हैं
7.सातवें शनि दूर की यात्रा कराता है तथा स्त्रीजनो से निकटता बढ़ाता है।
8.आठवें स्थान पर गोचर का शनि हो तो अपने लोगों से मनमुटाव होता है और दीनता आती है।
9.नवम भाव के शनि लोगों से अकारण वैर हो जाता है बन्धन होता है अर्थात कारावास या अन्य प्रकार से पराधीनता होती तथा अपना नियम धर्म आदि छूट जाता है।
10.दशम भाव में स्वराशि से गोचर शनि के भर्मण करने पर विद्या कीर्ति धन की हानि होती है एवम् नवीन कारोबार प्रारम्भ होता है।
11.एकादश भाव के शनि से परस्त्री का सान्निध्य प्राप्त होता है वाहन का सुख मिलता है प्रताप रौब दाब दबदबा बढ़ता है तथा अधिकार प्राप्त होता है।
12.द्वादश भाव के शनि से निरन्तर एक के बाद एक दुःख प्राप्त होता रहता है तथा जलराशि में डूबने या विपत्तियों के सागर में मग्न होने का भय रहता है।।

नोट-जन्मराशि से चौथे तथा आठवें भाव मे शनि का गोचर ढैय्या शनि कहलाता है इसी प्रकार द्वादश भाव जन्मलग्न तथा द्वितीयभाव में शनि का गोचर शनि साढ़ेसाती कहलाता है।

इस प्रकार सूर्यादि ग्रह जन्मराशि से अनेक भावों में गोचर भ्रमण करते हुए उपरोक्त फल प्रदान करते हैं।

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मौली/कलावा का धार्मिक महत्व Religious importance of Mauli / Kalava

मौली का धार्मिक महत्व
Religious importance of Mauli 


मौली हमारे वैदिक पूजन परम्परा का हिस्सा है। यज्ञ के दौरान इसे बांधे जाने की परम्परा तो पहले से ही रही है, लेकिन इसको संकल्प सूत्र के साथ ही रक्षा-सूत्र के रूप में तब से बांधा जाने लगा, जबसे देवी लक्ष्मी ने राजा बलि को भाई बनाकर उसके हाथों में अपने पति भगवान विष्णु की मुक्ति के लिए यह बंधन बांधा था(यह वामन अवतार की कथा है)। मौली को हर हिन्दू बांधता है। इसे मूलत: रक्षा सूत्र कहते हैं।इसे रक्षाबंधन का भी प्रतीक माना जाता है।

मौली का अर्थ Meaning of Molly


'मौली' का शाब्दिक अर्थ है 'सबसे ऊपर'। मौली का तात्पर्य सिर से भी है।
मौली को कलाई में बांधने के कारण इसे कलावा भी कहते हैं। इसका वैदिक नाम उप मणिबंध भी है। मौली के भी कई प्रकार हैं। शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा विराजमान है इसीलिए उन्हें चंद्रमौली भी कहा जाता है।

मौली बांधने का मंत्र Molly mantra


"येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।"


मौली का स्वरूप Form of mauli


मौली कच्चे धागे (सूत) से बनाई जाती है जिसमें मूलत: 3 रंग के धागे होते हैं- लाल, पीला और हरा, लेकिन कभी-कभी यह 5 धागों की भी बनती है जिसमें नीला और सफेद भी होता है। 3 का अर्थ है त्रिदेव और 5 का मतलब पंचदेव।

कहां-कहां बांधते हैं मौली?Where do you bind Molly?


मौली को हाथ की कलाई, गले और कमर में बांधा जाता है। इसके अलावा मन्नत के लिए किसी देवी-देवता के स्थान पर भी बांधा जाता है और जब मन्नत पूरी हो जाती है तो इसे खोल दिया जाता है। इसे घर में लाई गई नई वस्तु में भी बांधा जाता है।

मौली बांधने के नियम Rule of tying Molly 


● शास्त्रों के अनुसार पुरुषों एवं अविवाहित कन्याओं को दाएं हाथ में कलावा बांधना चाहिए। विवाहित स्त्रियों के लिए बाएं हाथ में कलावा बांधने का नियम है।

● कलावा बंधवाते समय जिस हाथ में कलावा बंधवा रहे हों, उसकी मुट्ठी बंधी होनी चाहिए और सिर ढका होना चाहिए।

● मौली कहीं पर भी बांधें, एक बात का हमेशा ध्यान रहे कि इस सूत्र को केवल 3 बार ही लपेटना चाहिए व इसके बांधने में वैदिक विधि व मन्त्र का प्रयोग करना चाहिए।

मौली को किन अवसरों पर बांधा जाता है?
On what occasions are Molly tied?


● पर्व-त्योहार के अलावा किसी अन्य दिन कलावा बांधने के लिए  रविवार मंगलवार और शनिवार का दिन शुभ माना जाता है।

● हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है। उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल के वृक्ष के पास रख दें या किसी बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें।

● प्रतिवर्ष की संक्रांति के दिन, यज्ञ की शुरुआत में, कोई इच्छित कार्य के प्रारंभ में, मांगलिक कार्य, विवाह आदि हिन्दू संस्कारों के दौरान मौली बांधी जाती है।

● मौली को धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है। 

● किसी अच्छे कार्य की शुरुआत में संकल्प के लिए भी बांधते हैं।

● किसी देवी या देवता के मंदिर में मन्नत के लिए भी बांधते हैं।

● मौली बांधने के 3 कारण हैं- पहला आध्यात्मिक, दूसरा चिकित्सीय और तीसरा मनोवैज्ञानिक।

● किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करते समय या नई वस्तु खरीदने पर हम उसे मौली बांधते हैं ताकि वह हमारे जीवन में शुभता प्रदान करे।

● हिन्दू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानी पूजा-पाठ, उद्घाटन, यज्ञ, हवन, संस्कार आदि के पूर्व पुरोहितों द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली बांधी जाती है।

● इसके अलावा पालतू पशुओं में हमारे गाय, बैल और भैंस को भी पड़वा, गोवर्धन और होली के दिन मौली बांधी जाती है।

संकटों से रक्षा करती है मौली Molly protects from crisis


मौली को कलाई में बांधने पर कलावा या उप मणिबंध करते हैं। हाथ के मूल में 3 रेखाएं होती हैं जिनको मणिबंध कहते हैं। भाग्य व जीवनरेखा का उद्गम स्थल भी मणिबंध ही है। इन तीनों रेखाओं में दैहिक, दैविक व भौतिक जैसे त्रिविध तापों को देने व मुक्त करने की शक्ति रहती है। 

इन मणिबंधों के नाम शिव, विष्णु व ब्रह्मा हैं। इसी तरह शक्ति, लक्ष्मी व सरस्वती का भी यहां साक्षात वास रहता है। जब हम कलावा का मंत्र रक्षा हेतु पढ़कर कलाई में बांधते हैं तो यह तीन धागों का सूत्र त्रिदेवों व त्रिशक्तियों को समर्पित हो जाता है, जिससे रक्षा-सूत्र धारण करने वाले प्राणी की सब प्रकार से रक्षा होती है।

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Saturday, June 15, 2019

त्राटक Tratak

त्राटक Tratak


कहा गया है कि त्राटक साधना सिद्धियों का द्वार है,भौतिक जगत की सभी उपलब्धियों की प्राप्ति इसके माध्यम से की जा सकती है।
त्राटक का अर्थ है किसी वस्तु पर मन और मस्तिष्क को एकाग्र करना। त्राटक का लाभ केवल एकाग्रता बढ़ाने में ही नहीं मिलता बल्कि इससे मनुष्य के नेत्रों में आकर्षण शक्ति  बढ़ जाती है।
क्योंकि इससे दृष्टि स्थिर होती है और मस्तिष्क विचारशून्य हो जाता है जिससे उसकी क्षमता में वृद्धि होती है। त्राटक को सम्मोहन की प्रारंभिक क्रिया भी कहा जाता है, क्योंकि सम्मोहन में सबसे पहले त्राटक का ही अभ्यास किया जाता है।
हठयोग प्रदीपिका में त्राटक को योग के छह कर्मों में से एक कहा गया है। ये कर्म हैं वस्ति, द्योति, नौलि, नेति, कपालभाति और त्राटक। इन षटकर्मों में त्राटक को सर्वोपरि स्थान दिया गया है ।

निकट त्राटक Nikat Tratak


इसके लिए किसी शांत कमरे या शांत वातावरण में सुखासन में बैठें। नेत्रों को दाएं-बाएं, उपर-नीचे चलाकर आंखों का हल्का व्यायाम करें। त्राटक के लिए सबसे अच्छा समय प्रातः 4 बजे से सूर्योदय तक होता है। अब सुखासन में बैठकर अपने सामने दो फुट की दूरी पर स्फटिक का शिवलिंग या सफेद पत्थर का गोल टुकड़ा रखकर उस पर ध्यान केंद्रित करें। एकटक उसे देखें। जितनी देर हो सकते पलक न झपकाएं। प्रारंभ में परेशानी होती लेकिन धीरे-धीरे अभ्यास हो जाएगा। आंसू निकलने लगे तो आंखें बंद कर लें। कुछ समय बाद दोबारा ऐसा ही करें। कुछ दिनों तक ऐसा करते रहें इससे अभ्यास होने लगेगा। फिर समय बढ़ाते जाएं।
शिवलिंग पर दृष्टि स्थिर होने के बाद मोमबत्ती की लौ से अभ्यास करें। जब लौ पर दृष्टि स्थिर हो जाए तो अपनी नाक पर दृष्टि जमाएं।
इसके बाद दोनों भौंहों के बीच में दृष्टि स्थिर करें। इस प्रयास में कई महीने का समय भी लग सकता है। इससे साधक को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है।

दूरस्थ त्राटक Doorasth Tratak


जब निकट त्राटक का अच्छे से अभ्यास हो जाए तो साधक किसी पहाड़ की चोटी, मंदिर का गुंबद या पेड़ की टहनी पर दृष्टि जमाने का अभ्यास करे।
इन चीजों पर दृष्टि स्थिर हो जाए तो चंद्रमा पर दृष्टि जमाने का अभ्यास करे। इसके बाद तारे और फिर सूर्य पर दृष्टि जमाने क प्रयास करे।
प्रारंभ में सूर्य पर दृष्टि जमाना कठिन होता है इसलिए पानी में सूर्य के प्रतिबिंब पर दृष्टि जमाए। उसके बाद दर्पण पर सूर्य के प्रतिबिंब पर और फिर सूर्य पर। इस तरह जब 32 मिनट से अधिक दृष्टि स्थिर हो जाए तो व्यक्ति दूर त्राटक में माहिर जो जाता है।

अन्तः त्राटक Antah Tratak


परोक्त दोनों त्राटक बाह्य पदार्थों पर त्राटक है। अंतर त्राटक में साधक को आंखें बंद कर अपने मनोबल पर ध्यान लगाना पड़ता है। इसके लिए साधक आंखें बंद कर भौहों के बीच में ध्यान लगाए। अभ्यास के बाद धीरे-धीरे साधक को आंखें बंद करने पर तीन, पांच सा सात बिंदु दिखाई देंगे। जो सफेद, नीले, पीले रंग के हो सकते हैं। कुछ समय बाद ये बिंदु दिखाई नहीं देंगे और ज्योति से जगमग नेत्र दिखाई देगा। प्रारंभ में यह नेत्र हिलता हुआ नजर आएगा। इसके बाद सूर्य, चंद्र, तारे आदि दिखने का अनुभव होगा। इसके बाद आकाश के मध्य तीसरा नेत्र दिखाई देगा। यही पूर्ण अवस्था है।

नोट:- सर्वप्रथम त्राटक की क्रिया किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही करें। सिर्फ पढ़कर या अपने मन से कुछ न करें।

Friday, June 14, 2019

घर मे अलमारी रखने का सही स्थान The right place to keep the cupboard in the house

घर मे कहाँ रखें अलमारी?
Where to keep a cupboard in the house?
वास्तु के अनुसार आलमारी को रखने की सही दिशा कौन सी है?
According to Vastu, what is the right direction to keep the cupboard?


अलमारी हमारे घर का एक अंग होती है।घर चाहे जैसा भी हो,छोटा हो या बड़ा उसमे अलमारी होती ही है।
आप ने अलमारी को घर के किस कोने में रखा हैं, अलमारी के अन्दर कौन कौन सा सामान हैं, अलमारी का रंग कौन सा हैं, इन सभी बातों का असर पड़ता हैं. आसान शब्दों में कहा जाय तो अलमारी को वास्तु के हिसाब से रखने पर आपके घर धन की वर्षा हो सकती हैं लेकिन यदि आप ने  वास्तु नियमों का पालन नहीं किया तो आपके घर दरिद्रता प्रवेश कर सकती हैं।

1. घर की अलमारी के दरवाजे कभी भी दक्षिण दिशा में नहीं खुलने चाहिए. जिन अलमारियों के दरवाजे दक्षिण दिशा की ओर खुलते हैं वो पैसो के मामले में हमेशा खाली ही रहती हैं।

2. अलमारी को कभी भी सीधे जमीन पर नहीं रखना चाहिए. उसके नीचे लकड़ी के पटिए या स्टैंड लगा देना चाहिए।
चाहे तो अलमारी के नीचे पेपर, पन्नी या कपड़ा भी बिछा सकते हैं।

3. घर के उत्तर- पूर्वी कोने में भूलकर भी अलमारी ना रखे. इस कोने में अलमारी रखना अशुभ माना जाता हैं।

4. घर के दक्षिण पश्चिम का कोना या सिर्फ पश्चिम दिशा में अलमारी को रखना शुभ होता हैं. इस जगह रखी गई अलमारी में कभी भी धन की कमी नहीं होती हैं।

5. अलमारी के अन्दर बनी तिजोरी को कभी खाली ना रखे. इसके अन्दर कुछ ना कुछ पैसे और गहने अवश्य रखे. इस तरह घर में बढ़ोत्तरी होती रहती हैं।

6. अलमारी के अन्दर गणेश जी और लक्ष्मी जी की तस्वीर जरूर रखे. इसे आप अलमारी के अंदरूनी या बाहरी हिस्से में चिपका सकते हैं. ऐसा करने से अलमारी के अन्दर धन की वृद्धि होती हैं।

7. अलमारी के अन्दर 5 या 7 चांदी के सिक्के जरूर रखे. ऐसा करने से घर में अचानक धन लाभ के आसार बढ़ जाते हैं।

8. घर के अन्दर रखी अलमारी का रंग क्रीम या हल्का पीला होना चाहिए. भूलकर भी घर में हरे या लाल रंग की अलमारी ना रखे।

9. घर के दक्षिण पश्चिम कोने या पश्चिम दिशा में अलमारी रखने से पहले उस स्थान पर यानी अलमारी के ठीक नीचे स्वस्तिक का निशान बना दे. एक स्वस्तिक का चिह्न आप अलमारी के ऊपर भी बना सकते हैं. ऐसा करने से घर में धन चोरी होने का खतरा टल जाता हैं।

10. अलमारी के उपर धूल की परत ना जमने दे. इसकी साफ़ सफाई का ध्यान रखे,तभी लक्ष्मी इसके अन्दर आएगी।

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Thursday, June 13, 2019

माँ कात्यायनी देवी ma katyayani devi

आजकल कन्या के विवाह की समस्या प्रायः प्रत्येक गृहस्थ के समक्ष उपस्थित होती है।इसके लिए माता-पिता को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
शास्त्रों में वर्णित 'कात्यायनी देवी' का अनुष्ठान बड़ा ही अनुभूत व सिद्धिप्रद है।जनसाधारण की जानकारी व जनहित में इस मंत्र के अनुष्ठान की विधि दी जा रही है।इसके नियम व श्रद्धा पूर्वक करने या कराने से कन्या के विवाह में आने वाले विघ्न दूर होते हैं व विवाह सकुशल सम्पन्न हो जाता है।

                            माँ कात्यायनी

"चन्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलावरवाहना।

कात्यायनी शुभं दद्यादेवी दानव घातिनी॥"

श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है। इनकी आराधना से भक्त का हर काम सरल एवं सुगम होता है।

इनकी चार भुजाओं मैं अस्त्र शस्त्र और कमल का पुष्प है । इनका वाहन सिंह है।
ये बृजमंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं, गोपियों ने कृष्ण की प्राप्ति के लिए इनकी पूजा की थी। विवाह सम्बन्धी मामलों के लिए इनकी पूजा अचूक होती है , योग्य और मनचाहा पति इनकी कृपा से प्राप्त होता है।
इनकी पूजा से इन मनोकामनाओं की पूर्ति होती है?
कन्याओं के शीघ्र विवाह के लिए इनकी पूजा अद्भुत मानी जाती है
मनचाहे विवाह और प्रेम विवाह के लिए भी इनकी उपासना की जाती है
वैवाहिक जीवन के लिए भी इनकी पूजा फलदायी होती है
अगर कुंडली में विवाह के योग क्षीण हों तो भी विवाह हो जाता है
महिलाओं के विवाह से सम्बन्ध होने के कारण इनका भी सम्बन्ध बृहस्पति से है
दाम्पत्य जीवन से सम्बन्ध होने के कारण इनका आंशिक सम्बन्ध शुक्र से भी है
शुक्र और बृहस्पति , दोनों देवत्व प्राप्त तेजस्वी ग्रह हैं , इसलिए माता का तेज भी अद्भुत और सम्पूर्ण है
माता का सम्बन्ध कृष्ण और उनकी गोपिकाओं से रहा है , और ये बृज मंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं।

विवाह के बाद भी वैवाहिक जीवन में समस्या कई कारणों से हो सकती है ,
Even after marriage, there can be a problem in marital life for many reasons,
जैसे –
गुण मिलान किये बगैर विवाह करना
मांगलिक दोष का निवारण किये बिना विवाह करना
सप्तमेश की स्थिति कुंडली में ख़राब हो और उसका निदान ना करना
सप्तम भाव में शनि , राहू जैसे क्रूर ग्रह या किसी शुभ ग्रह का पाप भाव में होकर बैठना इत्यादि
यदि आपकी शादी में आ रही देरी, या रिश्ते टूट जाना
विवाह के बाद की समस्याएं, पति-पत्नी के रिश्ते में समस्या के कारण वैवाहिक जीवन यदि सुखमय नहीं है तो जीवन अत्यंत ही कठिन हो जाता है , इससे केवल पति – पत्नी ही परेशान नहीं होते बल्कि उनका पूरा परिवार इस समस्या से प्रभावित हो जाता है ।
कई बार देखा जाता है कि कुंडली में एक से अधिक दोष उपस्थित हैं तो ऐसे में एक ही प्रश्न सामने आता है कि क्या समाधान किया जाए?
यदि विवाह से पूर्व दोष की जानकारी हो जाये तो जिस ग्रह के कारण समस्या उत्पन्न हो उसकी शांति कराना पर्याप्त होता है , परन्तु यदि विवाह हो चुका है या एक से अधिक कारण हों तो माँ कात्यायनी का अनुष्ठान , विवाह बाधा को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय है।

माँ कात्यायनी का अनुष्ठान कब प्रारम्भ करें?
When to start the Mother Katyayani ritual

माँ कात्यायनी का अनुष्ठान किसी भी माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से लेकर नवमी तिथि के बीच प्रारम्भ किया जा सकता है इसके अलावा प्रत्येक षष्ठी तिथि व शुक्रवार के दिन से भी अनुष्ठान प्रारंभ कर सकते हैं तथा नवरात्र का समय भी उत्तम होता है ।

शीघ्र विवाह के लिए करें माँ कात्यायनी की पूजा/अनुष्ठान?
Do the worship / ritual of Mother Katyayani for prompt marriage?

जिसे यह अनुष्ठान संपन्न करना है उसे पीला या लाल रंग का वस्त्र पहनकर 21 दिन अर्थात् जपकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
यह जप केले के सूखे पत्ते की आसनी पर बैठ कर कमलगट्टे की माला से किया जाता है।जप के मध्य में सरसों के तेल का दीपक जलते रहना चाहिए।
गोधूलि वेला के समय यानी जब सूर्यास्त हो रहा हो, तब इनकी पूजा करना सबसे अच्छा होता है
इस मंत्र का जप जपकर्ता को पान खाते हुए करना चाहिए।
इस जप का पुरश्चरण 41000 है।प्रथम दिन 1000 जाप करें व उसके बाद 20 दिनों तक प्रतिदिन 2000 मंत्र का जाप करें।
जपकाल में प्रतिदिन केले के पेड़ का पूजन पञ्चोपचार विधि से करें।साथ ही गाय के साथ में वंशी बजाते हुए भगवान श्री कृष्ण के चित्र का भी पूजन करें।
पूजन और भोग  में पीली वस्तुओं का प्रयोग  करना चाहिए।यथा-पीला चन्दन, पीला चावल, पीला फूल,पीली मिठाई आदि।
इसके बाद 3 गाँठ हल्दी की भी चढ़ाएं
माँ कात्यायनी के मन्त्र का जाप करें

माँ कात्यायनी मन्त्र Maa Katyayani Mantra

"कात्यायनी महामाये , महायोगिन्यधीश्वरी।
नन्दगोपसुतं देवी, पति मे कुरु ते नमः।।"

अनुष्ठान सम्पन्न होने पर हल्दी की गांठों को अपने पास सुरक्षित रख लें
माँ कात्यायनी को चांदी या मिटटी के पात्र में शहद अर्पित करें,इससे आपका प्रभाव बढेगा और आकर्षण क्षमता में वृद्धि होगी
अनुष्ठान के अन्त में दशांश हवन, तर्पण, मार्जन तथा ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।भोजन में पीली वस्तुओं का प्रयोग करें।

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निर्जला एकादशी NIRJALA EKADASHI


ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को निर्जला एकादशी कहते हैं।ये सभी एकादशी तिथियों में महत्वपूर्ण है।
इस दिन सबसे पहले  प्रातः काल उठकर स्नान आदि करने के बाद सूर्य नारायण को जल अर्पित करना चाहिए । उसके बाद पीले वस्त्रों को धारण करके भगवान विष्णु की  पीले फूल अर्पित करके पूजा करनी चाहिए । पंचामृत तैयार करके उसका भोग लगाना चाहिए ।
तत्पश्चात भगवान विष्णु और माता  लक्ष्मी के मंत्रों का जाप करना चाहिए ।कोई भी निर्धन व्यक्ति दिखे तो उसको भोजन कराना चाहिए | यदि उसके पास वस्त्र न हो तो वस्त्रो का दान करना चाहिए । हो सके तो इस दिन निर्जल उपवास रखना चाहिए और केवल जरूरत पड़ने पर ही जल ग्रहण करना चाहिये ।
इस दिन केवल जल और फल ग्रहण करके ही उपवास रखना चाहिए और पूरे दिन भर भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए और रात में भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के मंत्रों का जाप करना चाहिए । इस दिन जल और जल डालने वाले पात्रों(घट और सुराही आदि) का दान भी किया जाता है जो बहुत ही लाभकारी होता है।
निर्जला एकादशी व्रत कथा 
एक बार भीमसेन जी व्यास जी से कहने लगे कि हे पितामह! भ्राता युधिष्ठिर, माता कुंती, द्रोपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव आदि सब एकादशी का व्रत करने को कहते हैं, परंतु मैं भोजन के बिना नहीं रह सकता।
इस पर व्यासजी ने कहा कि हे भीमसेन! यदि तुम नरक को बुरा और स्वर्ग को अच्छा समझते हो तो प्रति मास की दोनों एकादशियों को अन्न मत खाया करो। भीम कहने लगे कि हे पितामह! मैं तो पहले ही कह चुका हूँ कि मैं भूख सहन नहीं कर सकता। यदि वर्षभर में कोई एक ही व्रत हो तो वह मैं रख सकता हूँ, क्योंकि मेरे पेट में वृक नाम वाली अग्नि है सो मैं भोजन किए बिना नहीं रह सकता। भोजन करने से वह शांत रहती है, इसलिए पूरा उपवास तो क्या एक समय भी बिना भोजन किए रहना कठिन है।
अत: आप मुझे कोई ऐसा व्रत बताइए जो वर्ष में केवल एक बार ही करना पड़े और मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो जाए।
व्यासजी ने कहा  कि हे पुत्र! बड़े-बड़े ऋषियों ने बहुत शास्त्र आदि बनाए हैं जिनसे बिना धन के थोड़े परिश्रम से ही स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। इसी प्रकार शास्त्रों में दोनों पक्षों की एका‍दशी का व्रत मुक्ति के लिए रखा जाता है।
व्यासजी के ऐसे वाक्य सुनकर भीमसेन नरक  जाने के नाम से भयभीत हो गए और काँपकर कहने लगे कि अब क्या करूँ ? मास में दो व्रत तो मैं कर नहीं सकता, हाँ वर्ष में एक व्रत करने का प्रयत्न अवश्य कर सकता हूँ। अत: वर्ष में एक दिन व्रत करने से यदि मेरी मुक्ति हो जाए तो ऐसा कोई व्रत बताइए।
यह सुनकर व्यासजी कहने लगे कि वृष और मिथुन की संक्रां‍‍ति के बीच ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की जो एकादशी आती है, उसका नाम निर्जला है। तुम उस एकादशी का व्रत करो। इस एकादशी के व्रत में स्नान और आचमन के सिवा जल वर्जित है। आचमन में छ: मासे से अधिक जल नहीं होना चाहिए अन्यथा वह मद्यपान के सदृश हो जाता है। इस दिन भोजन नहीं करना चाहिए, क्योंकि भोजन करने से व्रत नष्ट हो जाता है।
यदि एकादशी को सूर्योदय से लेकर द्वादशी के सूर्योदय तक जल ग्रहण न करे तो उसे सारी एकादशियों के व्रत का फल प्राप्त होता है। द्वादशी को सूर्योदय से पहले उठकर स्नान आदि करके ब्राह्मणों का दान आदि देना चाहिए। इसके पश्चात भूखे और सत्पात्र ब्राह्मण को भोजन कराकर फिर आप भोजन कर लेना चाहिए। इसका फल पूरे एक वर्ष की संपूर्ण एकादशियों के बराबर होता है।
व्यासजी कहने लगे कि हे भीमसेन! यह मुझको स्वयं भगवान ने बताया है। इस एकादशी का पुण्य समस्त तीर्थों और दानों से अधिक है। केवल एक दिन मनुष्य निर्जल रहने से पापों से मुक्त हो जाता है।
जो मनुष्य निर्जला एकादशी का व्रत करते हैं उनकी मृत्यु के समय यमदूत आकर नहीं घेरते वरन भगवान के पार्षद उसे  विमान में बैठाकर स्वर्ग को ले जाते हैं। अत: संसार में सबसे श्रेष्ठ निर्जला एकादशी का व्रत है। इसलिए यत्न के साथ इस व्रत को करना चाहिए। उस दिन “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का उच्चारण करना चाहिए और गौदान करना चाहिए।
इस प्रकार व्यासजी की आज्ञानुसार भीमसेन ने इस व्रत को किया। इसलिए इस एकादशी को भीमसेनी एकादशी भी कहते हैं।
निर्जला व्रत करने से पूर्व भगवान से प्रार्थना करें कि हे भगवन! आज मैं निर्जला व्रत करता हूँ, दूसरे दिन भोजन करूँगा। मैं इस व्रत को श्रद्धापूर्वक करूँगा, अत: आपकी कृपा से मेरे सब पाप नष्ट हो जाएँ। इस दिन जल से भरा हुआ एक घड़ा वस्त्र से ढँक कर स्वर्ण सहित दान करना चाहिए।
जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं उनको करोड़ पल सोने के दान का फल मिलता है और जो इस दिन यज्ञादिक करते हैं उनका फल तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। इस एकादशी के व्रत से मनुष्य विष्णुलोक को प्राप्त होता है। जो मनुष्य इस दिन अन्न खाते हैं, ‍वे चांडाल के समान हैं। वे अंत में नरक में जाते हैं। जिसने निर्जला एकादशी का व्रत किया है वह चाहे ब्रह्म हत्यारा हो, मद्यपान करता हो, चोरी की हो या गुरु के साथ द्वेष किया हो मगर इस व्रत के प्रभाव से स्वर्ग को प्राप्त होता है।
हे कुंतीपुत्र! जो पुरुष या स्त्री श्रद्धापूर्वक इस व्रत को करते हैं उन्हें अग्रलिखित कर्म करने चाहिए। प्रथम भगवान का पूजन, फिर गौदान, ब्राह्मणों को मिष्ठान्न व दक्षिणा देनी चाहिए तथा जल से भरे कलश का दान अवश्य करना चाहिए। निर्जला के दिन अन्न, वस्त्र, उपाहन (जूती) आदि का दान भी करना चाहिए। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस कथा को पढ़ते या सुनते हैं, उन्हें निश्चय ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है ।

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Wednesday, June 12, 2019

महामृत्युञ्जय मन्त्र जप विधि Mahamrityunjaya mantra chanting method


कृतनित्यक्रियो जपकर्ता स्वासने पांगमुख उदहमुखो वा उपविश्य धृतरुद्राक्षभस्मत्रिपुण्ड्रः । आचम्य । प्राणानायाम्य। देशकालौ संकीर्त्य मम वा यजमानस्य अमुक कामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजय मंत्रस्य अमुक संख्यापरिमितं जपमहंकरिष्ये वा कारयिष्ये। 
॥ इति प्रात्यहिकसंकल्पः ॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॐ गुरवे नमः।
ॐ गणपतये नमः। ॐ इष्टदेवतायै नमः।
इति नत्वा यथोक्तविधिना भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कुर्यात्‌। 
भूतशुद्धिः
विनियोगः 
ॐ तत्सदद्येत्यादि मम अमुक प्रयोगसिद्धयर्थ भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च करिष्ये। ॐ आधारशक्ति कमलासनायनमः। इत्यासनं सम्पूज्य। पृथ्वीति मंत्रस्य। मेरुपृष्ठ ऋषि;, सुतलं छंदः कूर्मो देवता, आसने विनियोगः।
आसनः
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय माँ देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌।
गन्धपुष्पादिना पृथ्वीं सम्पूज्य कमलासने भूतशुद्धिं कुर्यात्‌।
अन्यत्र कामनाभेदेन। अन्यासनेऽपि कुर्यात्‌।
तत्र क्रमः
पादादिजानुपर्यंतं पृथ्वीस्थानं तच्चतुरस्त्रं पीतवर्ण ब्रह्मदैवतं वमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। जान्वादिना भिपर्यन्तमसत्स्थानं तच्चार्द्धचंद्राकारं शुक्लवर्ण पद्मलांछितं विष्णुदैवतं लमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌।
नाभ्यादिकंठपर्यन्तमग्निस्थानं त्रिकोणाकारं रक्तवर्ण स्वस्तिकलान्छितं रुद्रदैवतं रमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। कण्ठादि भूपर्यन्तं वायुस्थानं षट्कोणाकारं षड्बिंदुलान्छितं कृष्णवर्णमीश्वर दैवतं यमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। भूमध्यादिब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त माकाशस्थानं वृत्ताकारं ध्वजलांछितं सदाशिवदैवतं हमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। एवं स्वशरीरे पंचमहाभूतानि ध्यात्वा प्रविलापनं कुर्यात्‌। यद्यथा-पृथ्वीमप्सु। अपोऽग्नौअग्निवायौ वायुमाकाशे। आकाशं तन्मात्राऽहंकारमहदात्मिकायाँ मातृकासंज्ञक शब्द ब्रह्मस्वरूपायो हृल्लेखार्द्धभूतायाँ प्रकृत्ति मायायाँ प्रविलापयामि, तथा त्रिवियाँ मायाँ च नित्यशुद्ध बुद्धमुक्तस्वभावे स्वात्मप्रकाश रूपसत्यज्ञानाँनन्तानन्दलक्षणे परकारणे परमार्थभूते परब्रह्मणि प्रविलापयामि।
तच्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सच्चिादानन्दस्वरूपं परिपूर्ण ब्रह्मैवाहमस्मीति भावयेत्‌। एवं ध्यात्वा यथोक्तस्वरूपात्‌ ॐ कारात्मककात्‌ परब्रह्मणः सकाशात्‌ हृल्लेखार्द्धभूता सर्वमंत्रमयी मातृकासंज्ञिका शब्द ब्रह्मात्मिका महद्हंकारादिप-न्चतन्मात्रादिसमस्त प्रपंचकारणभूता प्रकृतिरूपा माया रज्जुसर्पवत्‌ विवर्त्तरूपेण प्रादुर्भूता इति ध्यात्वा। तस्या मायायाः सकाशात्‌ आकाशमुत्पन्नम्‌, आकाशाद्वासु;, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अदभ्यः पृथ्वी समजायत इति ध्यात्वा।तेभ्यः पंचमहाभूतेभ्यः सकाशात्‌ स्वशरीरं तेजः पुँजात्मकं पुरुषार्थसाधनदेवयोग्यमुत्पन्नमिति ध्यात्वा। तस्मिन्‌ देहे सर्वात्मकं सर्वज्ञं सर्वशक्तिसंयुक्त समस्तदेवतामयं सच्चिदानंदस्वरूपं ब्रह्मात्मरूपेणानुप्रविष्टमिति भावयेत्‌ ॥
॥ इति भूतशुद्धिः ॥
अथ प्राण-प्रतिष्ठा
विनियोगः
अस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामंत्रस्य ब्रह्माविष्णुरुद्रा ऋषयः ऋग्यजुः सामानि छन्दाँसि, परा प्राणशक्तिर्देवता, ॐ बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, क्रौं कीलकं प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः।
डं. कं खं गं घं नमो वाय्वग्निजलभूम्यात्मने हृदयाय नमः।
ञँ चं छं जं झं शब्द स्पर्श रूपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा।
णं टं ठं डं ढं श्रीत्रत्वड़ नयनजिह्वाघ्राणात्मने शिखायै वषट्।
नं तं थं धं दं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम्‌।
मं पं फं भं बं वक्तव्यादानगमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।
शं यं रं लं हं षं क्षं सं बुद्धिमानाऽहंकार-चित्तात्मने अस्राय फट्।
एवं करन्यासं कृत्वा ततो नाभितः पादपर्यन्तम्‌ आँ नमः।
हृदयतो नाभिपर्यन्तं ह्रीं नमः।
मूर्द्धा द्विहृदयपर्यन्तं क्रौं नमः।
ततो हृदयकमले न्यसेत्‌।
यं त्वगात्मने नमः वायुकोणे।
रं रक्तात्मने नमः अग्निकोणे।
लं मांसात्मने नमः पूर्वे ।
वं मेदसात्मने नमः पश्चिमे ।
शं अस्थ्यात्मने नमः नैऋत्ये।
ओंषं शुक्रात्मने नमः उत्तरे।
सं प्राणात्मने नमः दक्षिणे।
हे जीवात्मने नमः मध्ये। एवं हदयकमले।
अथ ध्यानम्‌
रक्ताम्भास्थिपोतोल्लसदरुणसरोजाङ घ्रिरूढा कराब्जैः
पाशं कोदण्डमिक्षूदभवमथगुणमप्यड़ कुशं पंचबाणान्‌।
विभ्राणसृक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरुहाढया
देवी बालार्कवणां भवतुशु भकरो प्राणशक्तिः परा नः ॥
॥ इति प्राण-प्रतिष्ठा ॥
अथ महामृत्युञ्जय जप विधि
संकल्प
तत्र संध्योपासनादिनित्यकर्मानन्तरं भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कृत्वा प्रतिज्ञासंकल्प कुर्यात ॐ तत्सदद्येत्यादि सर्वमुच्चार्य मासोत्तमे मासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रो अमुकशर्मा/वर्मा/गुप्ता मम शरीरे ज्वरादि-रोगनिवृत्तिपूर्वकमायुरारोग्यलाभार्थं वा धनपुत्रयश सौख्यादिकिकामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजयदेव प्रीमिकामनया यथासंख्यापरिमितं महामृत्युंजयजपमहं करिष्ये।
विनियोग
अस्य श्री महामृत्युंजयमंत्रस्य वशिष्ठ ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः श्री त्र्यम्बकरुद्रो देवता, श्री बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
अथ यष्यादिन्यासः
ॐ वसिष्ठऋषये नमः शिरसि।
अनुष्ठुछन्दसे नमो मुखे।
श्री त्र्यम्बकरुद्र देवतायै नमो हृदि।
श्री बीजाय नमोगुह्ये।
ह्रीं शक्तये नमोः पादयोः।
॥ इति यष्यादिन्यासः ॥
अथ करन्यासः
ॐ ह्रौँ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा अंगुष्ठाभ्याम नमः।
ॐ ह्रौँ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ओं नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने स्वाहा मध्यामाभ्यां वषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय हां ह्रीं अनामिकाभ्यां हुम्‌।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुः साममन्त्राय कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृताम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्निवयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघारास्त्राय करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् ।
॥ इति करन्यासः ॥
अथांगन्यासः
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः।
ॐ ह्रौं ओं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय शिरसि स्वाहा।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय चंद्रशिरसे जटिने स्वाहा शिखायै वषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरांतकाय ह्रां ह्रीं कवचाय हुम्‌।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्यार्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजु: साममंत्रयाय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृतात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल ज्वालाय माँ रक्ष रक्ष अघोरास्त्राय फट्।
॥ इत्यंगन्यासः ॥
अथाक्षरन्यासः
त्र्यं नमः दक्षिणचरणाग्रे।
बं नमः,
कं नमः,
यं नमः,
जां नमः दक्षिणचरणसन्धिचतुष्केषु ।
मं नमः वामचरणाग्रे ।
हें नमः,
सुं नमः,
गं नमः,
धिं नम, वामचरणसन्धिचतुष्केषु ।
पुं नमः, गुह्ये।
ष्टिं नमः, आधारे।
वं नमः, जठरे।
र्द्धं नमः, हृदये।
नं नमः, कण्ठे।
उं नमः, दक्षिणकराग्रे।
वां नमः,
रुं नमः,
कं नमः,
मिं नमः, दक्षिणकरसन्धिचतुष्केषु।
वं नमः, बामकराग्रे।
बं नमः,
धं नमः,
नां नमः,
मृं नमः वामकरसन्धिचतुष्केषु।
त्यों नमः, वदने।
मुं नमः, ओष्ठयोः।
क्षीं नमः, घ्राणयोः।
यं नमः, दृशोः।
माँ नमः श्रवणयोः ।
मृं नमः भ्रवोः ।
तां नमः, शिरसि।
॥ इत्यक्षरन्यास ॥
अथ पदन्यासः
त्र्यम्बकं शरसि।
यजामहे भ्रुवोः।
सुगन्धिं (दृशोः)नेत्रयोः।
पुष्टिवर्धनं मुखे।
उर्वारुकं कण्ठे।
मिव हृदये।
बन्धनात्‌ उदरे।
मृत्योः लिङ्गे।
मुक्षीय उर्वों: ।
माँ जान्वोः ।
अमृतात्‌ पादयोः।
॥ इति पदन्यास ॥
महामृत्युञ्जय ध्यानम्
हस्ताभ्याँ कलशद्वयामृतसैराप्लावयन्तं शिरो,
द्वाभ्याँ तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्याँ वहन्तं परम्‌ ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकाँतं शिवं,
स्वच्छाम्भोगतं नवेन्दुमुकुटाभातं त्रिनेत्रभजे ॥
मृत्युंजय महादेव त्राहि माँ शरणागतम्‌,
जन्ममत्युजरारोगैः पीड़ित कर्मबन्धनैः ॥
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड,
इति विज्ञाप्य देवेशं जपेन्मृत्युंजय मनुम्‌ ॥
अथ मन्त्रः
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूः भुवः स्वः। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्‌। उर्व्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌। स्वः भुवः भू ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥
समर्पण
एतद यथासंख्यं जपित्वा पुनर्न्यासं कृत्वा जपं भगन्महामृत्युंजयदेवताय समर्पयेत।
गुह्यातिगुह्यगोपता त्व गृहाणास्मत्कृतं जपम्‌।
सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर ॥


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अमोघ शिव कवच

अमोघ शिव कवच के शुद्ध सत्य अनुष्ठान से भयंकर से भयंकर विपत्ति से छुटकारा मिल जाता है और भगवान आशुतोष की कृपा हो जाती है ।

विनियोग:

ॐ अस्य श्री शिव कवच स्त्रोत्र मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप छंद:, श्री सदाशिव रुद्रो देवता, ह्रीं शक्ति:, रं कीलकम, श्रीं ह्रीं क्लीं बीजं, श्री सदाशिव प्रीत्यर्थे शिवकवच स्त्रोत्र जपे विनियोग: ।

अथ न्यास: ( पहले सभी मंत्रो को बोलकर क्रम से करन्यास करे ।
तदुपरांत इन्ही मंत्रो से अंगन्यास करे| )

करन्यास

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ ह्रां सर्वशक्तिधाम्ने इशानात्मने अन्गुष्ठाभ्याम नम: ।

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषातमने तर्जनीभ्याम नम: ।

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ मं रूं अनादिशक्तिधाम्ने अधोरात्मने मध्यमाभ्याम नम:।

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने अनामिकाभ्याम नम: ।

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कनिष्ठिकाभ्याम नम: ।

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ यं र: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने करतल करपृष्ठाभ्याम नम:।

अंगन्यास

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ ह्रां सर्वशक्तिधाम्ने इशानात्मने हृदयाय नम: ।

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषातमने शिरसे स्वाहा ।

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ मं रूं अनादिशक्तिधाम्ने अधोरात्मने शिखायै वषट ।

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने नेत्रत्रयाय वौषट ।

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कवचाय हुम


ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ यं र: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट ।

अथ दिग्बन्धन:

ॐ भूर्भुव: स्व: ।
चारो दिशाओं में चुटकी बजाएं।

ध्यानम

कर्पुरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम ।

सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ।।

श्री शिव कवचम्

ॐ नमो भगवते सदाशिवाय, सकलतत्वात्मकाय, सर्वमंत्रस्वरूपाय, सर्वमंत्राधिष्ठिताय, सर्वतंत्रस्वरूपाय, सर्वतत्वविदूराय, ब्रह्मरुद्रावतारिणे, नीलकंठाय, पार्वतीमनोहरप्रियाय, सोमसुर्याग्नीलोचनाय, भस्मोधूलितविग्रहाय, महामणिमुकुटधारणाय, माणिक्यभूषणाय, सृष्टिस्थितिप्रलयकालरौद्रावताराय, दक्षाध्वरध्वन्सकाय, महाकालभेदनाय, मुलाधारैकनिलयाय, तत्वातीताय, गंगाधराय, सर्वदेवाधिदेवाय, षडाश्रयाय, वेदांतसाराय, त्रिवर्गसाधनाया, नेक्कोटीब्रहमांडनायकायानन्त्वासुकीतक्षककर्कोटकशंखकुलिकपद्ममहापद्मेत्यष्टनागकुलभूषणाय, प्रणवरूपाय, चिदाकाशायाकाशदिकस्वरूपाय, ग्रहनक्षत्रमालिने, सकलायकलंकरहिताय, सकललोकैककर्त्रे, सकललोकैकसंहर्त्रे, सकललोकैकगुरवे, सकललोकैकभर्त्रे, सकललोकैकसाक्षीणे, सकलनिगमगुह्याय, सकलवेदांतपारगाय, सकललोकैकवरप्रदाय, सकललोकैकशंकराय, शशांकशेखराय, शाश्वतनिजावासाय, निराभासाय, निरामयाय, निर्मलाय, निर्लोभाय, निर्मोहाय, निर्मदाय, निश्चिन्ताय, निर्हंकाराय, निराकुलाय, निष्कलन्काय, निर्गुणाय, निष्कामाय, निरुप्लवाय, नीवद्याय, निरन्तराय, निष्कारणाय, निरातंकाय, निष्प्रपंचाय, नि:संगाय, निर्द्वंदाय, निराधाराय, नीरोगाय, निष्क्रोधाय, निर्गमाय, निष्पापाय, निर्भयाय, निर्विकल्पाय, निर्भेदाय, निष्क्रियाय, निस्तुल्याय, निस्संशयाय, निरंजनाय, निरुपम विभवाय, नित्यशुद्धबुद्धपरिपूर्णसच्चिदानंदाद्वयाय, परमशांतस्वरूपाय, तेजोरूपाय, तेजोमयाय, जयजय रूद्रमहारौद्र, भद्रावतार, महाभैरव, कालभैरव, कल्पान्तभैरव, कपाल मालाधर, खट्वांगखंगचर्मपाशांकुशडमरूकरत्रिशूल चापबाणगदाशक्तिभिन्दिपालतोमरमुसलमुदगरप्रासपरिघभुशुण्डीशतघ्नीचक्रद्यायुद्धभीषणकर, सहस्रमुख, दंष्ट्रा कराल वदन, विक्टाट हास विस्फारित ब्रहमांड मंडल, नागेन्द्र कुंडल, नागेन्द्रहार, नागेन्द्र वलय, नागेन्द्र चर्मधर, मृत्युंजय, त्रयम्बक, त्रिपुरान्तक, विश्वरूप, विरूपाक्ष, विश्वेश्वर, वृषवाहन, विश्वतोमुख सर्वतो रक्ष रक्ष माम ।

ज्वल ज्वल महामृत्युअपमृत्युभयं नाशय नाशय चौर भयंमुत्सारयोत्सारय: विष सर्प भयं शमय शमय: चौरान मारय मारय: मम शत्रून उच्चाटयोच्चाटय: त्रिशुलेंन विदारय विदारय: कुठारेण भिन्धि भिन्धि: खंगेन छिन्धि छिन्धि: खट्वांगेन विपोथय विपोथय: मूसलेन निष्पेषय निष्पेषय: बाणे: संताडय संताडय: रक्षांसि भीषय भीषयाशेष्भूतानी विद्रावय विद्रावय: कुष्मांडवेतालमारीचब्रहमराक्षसगणान संत्रासय संत्रासय: माम अभयं कुरु कुरु: वित्रस्तं माम अश्वास्याश्वसय: नरक भयान माम उद्धरौद्धर: संजीवय संजीवय: क्षुत्रिडभ्यां माम आप्यापय आप्यापय: दु:खातुरं माम आनंदय आनंदय : शिव कवचे न माम आच्छादय आच्छादय: मृत्युंजय! त्रयम्बक! सदाशिव!!! नमस्ते नमस्ते ।।

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Tuesday, June 11, 2019

गंगा स्तोत्र Ganga Stotra

माँ गंगा का पुण्य स्तोत्र जिसका गंगा दशहरा आदि पर्वों पर पाठ करना विशेष फलदायी होता है।

देवि! सुरेश्वरि! भगवति! गंगे त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे ।
शंकरमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥ 1 ॥
भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥
हरिपदपाद्यतरंगिणि गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥
तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।
मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥
पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खंडित गिरिवरमंडित भंगे ।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ 5 ॥
कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवति कृततरलापांगे ॥ 6 ॥
तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे ॥ 7 ॥
पुनरसदंगे पुण्यतरंगे जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।
इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ 8 ॥
रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ 9 ॥
अलकानंदे परमानंदे कुरु करुणामयि कातरवंद्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥ 10 ॥
वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥
भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गंगास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥
येषां हृदये गंगा भक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकंता पंझटिकाभिः परमानंदकलितललिताभिः ॥ 13 ॥
गंगास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शंकरसेवक शंकर रचितं पठति सुखीः तव इति ॥ 14 ॥
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