Tuesday, June 28, 2022

विष्णु सहस्त्रनाम Vishnu Sahasranamam

 

विष्णु सहस्त्रनाम

Vishnu Sahasranamam

विष्णु सहस्रनाम अर्थात् भगवान श्री हरी विष्णु के1000 नाम। जिनका उल्लेख महाभारत के काल में हुआ था। कहा जाता है की विष्णु सहस्रनाम के श्लोकों का वर्णन भीष्म पितामह ने सर्वप्रथम युधिष्ठिर के समक्ष किया था।

भगवान विष्णु हर युग में हर समय अपने भक्तों की रक्षा करते हैं तथा उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। और भगवान श्रीहरि के सहस्रनाम के उच्चारण ही नहीं अपितु श्रवण मात्र से भी श्रीहरि उस व्यक्ति की मनोकामनाएं पूरी कर देते हैं।

विष्णु सहस्रनाम पाठ करने के फायदे Benefits of Vishnu Sahasranama

आज के समय में हर किसी को मान-सम्मान और धन चाहिए। विष्णु सहस्रनाम का पाठ करने वाले जातक की यह मनकामनाएं पूरी होने लगती है। अगर वो पूरी निष्ठा से भगवान विष्णु की सहस्रनाम का जाप करता है तो उस जातक के सभी मार्ग खुलने लगते है।

उसे नये-नये अवसर मिलने लगते है तथा कम मेहनत से ही उसे उसका अच्छा फल मिलने लगता है। और उसके घर में कभी भी धन-धान्य की कमी नहीं रहती क्योंकि धन की देवी माँ लक्ष्मी  भगवान श्री हरी की अर्धांगनी है और वह भगवान विष्णु के भक्तों से माता हमेशा प्रसन्न रहती है तथा अपनी कृपा दृष्टि उनपर बनाये रखती है। भगवान विष्णु के सहस्रनाम का पाठ पूरी निष्ठा से करना चाहिए।

विष्णु सहस्त्रनाम Vishnu Sahasranamam

विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥ १ ॥

विश्वम् – जो स्वयं में ब्रह्मांड हो जो हर जगह विद्यमान हो, जो सृष्टि के कारणभूत हैं
विष्णु – जो हर जगह विद्यमान हो,जो सबमें व्याप्त हैं
वषट्कार – जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता हो, जो यज्ञ रूप हैं
भूतभव्यभवत्प्रभु – भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी
भूतकृत् – सब जीवों का निर्माता ,जो रजो और तमो गुण के आधार पर सृष्टि की संरचना और संहार करने वाले ब्रह्मा और रूद्र रूप हैं
भूतभृत् – सब जीवों का पालनकर्ता ,जो सतो गुण से सृष्टि के धारक व पोषण करता और विश्व रूप हैं
भाव – भावना ,जो भाव रूप हैं
भूतात्मा – सब जीवों का परमात्मा, जो जीवों के ह्रदय में आत्मा रूप से रहते हैं
भूतभावन – सब जीवों उत्पत्ति और पालना का आधार, जो जीवों के उत्पत्ति करता हैं

पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः ।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥ २ ॥

पूतात्मा – अत्यंत पवित्र सुगंधियों वाला, जो पवित्र आत्मरूप हैं
परमात्मा – परम आत्मा,जो मुक्त स्वभाव से युक्त हैं
मुक्तानां परमा गति – सभी आत्माओं के लिए पहुँचने वाला अंतिम लक्ष्य, जो संसार बंधन से मुक्त हैं , जीवों के लिए जो अंतिम आश्रय हैं
अव्यय – जो अविनाशी हैं
पुरुष पुरुषोत्तम , जो पुरुष रूप हैं
साक्षी बिना किसी व्यवधान के अपने स्वरुपभूत ज्ञान से सब कुछ देखने वाला ,अर्थात सृष्टि के क्रिया कलापों से साक्षी रूप हैं
क्षेत्रज्ञः क्षेत्र अर्थात शरीर; शरीर को जानने वाला, या शरीर के ज्ञाता
अक्षरः कभी क्षीण न होने वाला, जिनका कभी क्षय या नाश नहीं होता या जो अक्षर ( ब्रह्म ) रूप हैं

योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः ॥ ३ ॥

योग जिसे योग द्वारा पाया जा सके,जो योग रूप हैं अर्थात जो ज्ञान , इन्द्रिय और मन से जीवात्मा परमात्मा में समान भाव रखते हैं
योगविदां नेता योग को जानने वाले योगवेत्ताओं का नेता, जो योग को जानने वालों में श्रेष्ठ योगी हैं
प्रधानपुरुषेश्वर प्रधान अर्थात प्रकृति; पुरुष अर्थात जीव; इन दोनों का स्वामी
नारसिंहवपु नर और सिंह दोनों के अवयव जिसमे दिखाई दें ऐसे शरीर वाला, या जो मनुष्यों में सिंह रूप हैं
श्रीमान् जिसके वक्ष स्थल में सदा श्री बसती हैं,या जो लक्ष्मी से संपन्न हैं
केशव जिसके केश सुन्दर हों, या जिन्होंने केशी नामक दैत्य का वध किया था
पुरुषोत्तम पुरुषों में उत्तम ,या जो शुद्ध ब्रह्म स्वरुप हैं

सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः ।
संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥ ४ ॥

सर्व सर्वदा सब कुछ जानने वाला
शर्व विनाशकारी या पवित्र,कल्पांत में जो सृष्टि का अंत करने वाले हैं
शिव सदा शुद्ध या कल्याण रूप हैं
स्थाणु स्थिर सत्य,जो सदैव स्थिर भाव से सृष्टि में विद्यमान हैं
भूतादि पंच तत्वों के आधार,जो जीवों के उत्पत्ति कारक हैं
निधिरव्यय अविनाशी निधि, जो अक्षय निधि हैं
सम्भव अपनी इच्छा से उत्पन्न होने वाले, जो प्रत्येक युग या काल में अवतरित होते हैं
भावन समस्त भोक्ताओं के फलों को उत्पन्न करने वाले, जो सभी जीवों को फल प्रदान करने वाले हैं
भर्ता समस्त संसार का पालन करने वाले , जो सृष्टि के पोषणकर्ता हैं
प्रभव पंच महाभूतों को उत्पन्न करने वाले, जिनसे जगत की उत्पत्ति होती हैं
प्रभु सर्वशक्तिमान भगवान्, जो सर्व समर्थ हैं
ईश्वर जो बिना किसी के सहायता के कुछ भी कर पाए, जो सबके स्वामी हैं

स्वयम्भूः शम्भुरदित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥ ५ ॥

स्वयम्भू जो सबके ऊपर है और स्वयं होते हैं, जो स्वयमेव प्रकट होते हैं
शम्भु भक्तों के लिए सुख की भावना की उत्पत्ति करने वाले हैं, भक्तों के लिए जो सुखरूप हैं
आदित्य अदिति के पुत्र (वामन), जो सूर्य के समान हैं
पुष्कराक्ष जिनके नेत्र पुष्कर (कमल) समान हैं
महास्वन अति महान स्वर या घोष वाले, जो महान वेद रूप शब्द करने वाले हैं
अनादि-निधन जिनका आदि और निधन दोनों ही नहीं हैं, जो जन्म मरण से रहित हैं
धाता शेषनाग के रूप में विश्व को धारण करने वाले, जो अनंत रूप से जगत के धारण कर्ता हैं
विधाता जो जगत के जीवों के लिए कर्म और उसके फलों की रचना करने वाले या निर्धारक हैं
धातुरुत्तम अनंतादि अथवा सबको धारण करने वाले हैं, जो ब्रह्म से भी श्रेष्ठ हैं

अप्रमेयो हृशीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥ ६ ॥

अप्रमेय जिन्हें जाना न जा सके , जो ज्ञान के विषय नहीं हैं
हृषीकेश इन्द्रियों के स्वामी, जिन्होंने इन्द्रियों को वशीभूत कर रखा है
पद्मनाभ जिसकी नाभि में जगत का कारण रूप पद्म स्थित है
अमरप्रभु देवता जो अमर हैं उनके स्वामी
विश्वकर्मा विश्व जिसका कर्म अर्थात क्रिया है, जो जगत के क्रिया रूप है
मनु मनन करने वाले
त्वष्टा संहार के समय सब प्राणियों को क्षीण करने वाले, प्रलय काल में जो सृष्टि को सूक्ष्म रूप कर देते हैं
स्थविष्ठ अतिशय या अत्यधिक स्थूल
स्थविरो ध्रुव जो विकार हीन , प्राचीन एवं स्थिर हैं

अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥ ७ ॥

अग्राह्य जो कर्मेन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते , जो शब्द और मन से ग्रहणीय नहीं है
शाश्वत जो सब काल में हो, जो तीनो कालों में स्थिर रहने वाले हैं
कृष्ण जिसका वर्ण श्याम हो, जो कर्षण अर्थात आकर्षित करने का गुण होने के कारण कृष्ण हैं
लोहिताक्ष जिनके नेत्र लाल हों या लालिमा युक्त हैं
प्रतर्दन जो प्रलयकाल में प्राणियों का संहार या नाश करने वाले हैं
प्रभूतस् जो ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों से संपन्न हैं
त्रिकाकुब्धाम ऊपर, नीचे और मध्य तीनो दिशाओं के धाम हैं
पवित्रम् जो पवित्र करे
मंगलं-परम् जो सबसे उत्तम है या जो समस्त शुभों में श्रेष्ठ है और समस्त अशुभों को दूर करता है

ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥ ८ ॥

ईशान सर्वभूतों के नियंता, जो समस्त प्राणियों के स्वामी हैं
प्राणद प्राणो को देने वाले , जो प्राणो के दाता हैं
प्राण जो सदा जीवित है, जो जीवो के प्राण रूप हैं
ज्येष्ठ सबसे अधिक वृद्ध या या बड़ा, जो आदि कारण होने से सब से बड़े हैं
श्रेष्ठ सबसे प्रशंसनीय, जो उत्तम हैं
प्रजापति ईश्वररूप से सब प्रजाओं के पति, जो प्रजा पति रूप हैं
हिरण्यगर्भ ब्रह्माण्डरूप सुवर्ण मय अंडे के भीतर व्याप्त होने वाले या निवास करने वाले, जो ब्रह्म रूप हैं
भूगर्भ पृश्वी जिनके गर्भ में स्थित है
माधव माँ अर्थात लक्ष्मी के धव अर्थात पति
मधुसूदन मधु नामक दैत्य को मारने वाले

ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञ कृतिरात्मवान् ॥ ९ ॥

ईश्वर सर्वशक्तिमान
विक्रम शूरवीर
धन्वी शारंग नामक धनुष धारण करने वाला
मेधावी बहुत से ग्रंथों को धारण करने के सामर्थ्य वाला, बुद्धिमान
विक्रम जगत को लांघ जाने वाला या गरुड़ पक्षी द्वारा गमन करने वाला
क्रम क्रमण (लांघना, विस्तार) करने वाला , जो वामन रूप धारण कर विराट रूप से सृष्टि को नापने वाले हैं
अनुत्तम जिससे उत्तम और कोई न हो, जो सर्व श्रेष्ठ हैं
दुराधर्ष जो दैत्यादिकों से दबाया न जा सके, जो शत्रुओ को वशीभूत करने वाले हैं
कृतज्ञ प्राणियों के किये हुए पाप पुण्यों को जानने वाले
कृति सर्वात्मक
आत्मवान् अपनी ही महिमा में स्थित होने वाले, जो स्वयं में ही एक भाव से स्थित हैं

सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ॥ १० ॥

सुरेश देवताओं के ईश
शरणम् दीनों का दुःख दूर करने वाले
शर्म परमानन्दस्वरूप
विश्वरेता विश्व के कारण
प्रजाभव जिनसे सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न होती है
अह प्रकाशस्वरूप
संवत्सर कालस्वरूप से स्थित हुए
व्याल (सर्प) के समान ग्रहण करने में न आ सकने वाले
प्रत्यय प्रतीति रूप होने के कारण
सर्वदर्शन सर्वरूप होने के कारण सभी के नेत्र हैं, जो सभी सभीान रूप से देखते हैं

अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः ।
वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः ॥ ११ ॥

अज अजन्मा, जिनका जन्म नहीं होता
सर्वेश्वर ईश्वरों का भी ईश्वर, जो सबके स्वामी हैं
सिद्ध नित्य सिद्ध, जो सिद्ध रूप हैं
सिद्धि सबसे श्रेष्ठ, जो चैतन्य रूप हैं
सर्वादि सर्व भूतों के आदि कारण, जो सभी जीवों के उत्पत्ति रूप हैं
अच्युत अपनी स्वरुप शक्ति से च्युत न होने वाले, जो स्थिर रुप हैं
वृषाकपि वृष (धर्म) रूप और कपि (वराह) रूप
अमेयात्मा जिनके आत्मा का माप परिच्छेद न किया जा सके
सर्वयोगविनिसृत सम्पूर्ण संबंधों से रहित

वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्माऽसम्मितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥ १२ ॥

वसु जो सब भूतों में समान भाव से बसते हैं और जिनमे सब भूत बसते हैं
वसुमना जिनका मन पवित्र (श्रेष्ठ) है
सत्य जो सत्य स्वरुप हैं
समात्मा जो राग द्वेषादि से दूर हैं, जो एकात्म रूप हैं
सम्मित समस्त पदार्थों से परिच्छिन्न , जो शास्त्र सम्मत हैं
सम सदा समस्त विकारों से रहित, जो सत्य संकल्प रूप हैं
अमोघ जो स्मरण किये जाने पर सदा फल देते हैं
पुण्डरीकाक्ष हृदयस्थ कमल में व्याप्त होते हैं , जिनके नेत्र कमल के समान हैं
वृषकर्मा जिनके कर्म धर्मरूप हैं
वृषाकृति जिन्होंने धर्म के लिए ही शरीर धारण किया है, जो धर्मावतारी हैं

रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः ।
अमृतः शाश्वत स्थाणुर्वरारोहो महातपाः ॥ १३ ॥

रुद्र दुःख को दूर भगाने वाले, प्रलयकाल में जो रूद्र बन जाते हैं
बहुशिर बहुत से सिरों वाले
बभ्रु जो सभी लोकों का भरण पोषण करने वाले हैं
विश्वयोनि जो विश्व या सृष्टि की उत्पत्ति के कारण हैं
शुचिश्रवा जिनके नाम सुनने योग्य
अमृत जिनका मृत अर्थात मरण नहीं होता, जो अमर हैं
शाश्वत-स्थाणु शाश्वत (नित्य) और स्थाणु (स्थिर), जो सब कालों में विद्यमान रहते हैं
वरारोह जिनका आरोह (गोद) वर (श्रेष्ठ) है, जो वरण करने योग्य हैं या ग्रहणीय हैं
महातप जिनका तप महान है, जो महान तपस्वी हैं या जिन्हे सृष्टि के विषय में पूर्ण ज्ञान है

सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः ॥ १४ ॥

सर्वग जो सर्वत्र व्याप्त है
सर्वविद्भानु जो सर्ववित् है और भानु भी है, जो सबको जानने वाले है, अपने सत्य स्वरुप से देदीप्यमान हैं
विष्वक्सेन जिनके सामने कोई सेना नहीं टिक सकती
जनार्दन दुष्टजनों को नरकादि लोकों में भेजने वाले या संहार करने वाले हैं
वेद वेद रूप, जो तत्त्व ज्ञान ( आत्मा ) के ज्ञाता हैं
वेदविद् वेद जानने वाले
अव्यंग जो किसी प्रकार ज्ञान से अधूरा न हो
वेदांग वेद जिनके अंगरूप हैं
वेदविद् वेदों को विचारने वाले
कवि सबको देखने वाले, जो कवि रूप हैं

लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ॥ १५ ॥

लोकाध्यक्ष समस्त लोकों का निरीक्षण करने वाले, जो सभी लोकों के स्वामी हैं
सुराध्यक्ष सुरों (देवताओं) के अध्यक्ष
धर्माध्यक्ष धर्म और अधर्म को साक्षात देखने वाले, जो धर्म के अध्यक्ष हैं
कृताकृत कार्य रूप से कृत और कारणरूप से अकृत, जो जगत के कार्य कारण रूप हैं
चतुरात्मा चार पृथक विभूतियों वाले, जो पृथक पृथक कालों में स्वरुप धारण करने वाले हैं
चतुर्व्यूह चार व्यूहों वाले, जो चार रूपों ( वासुदेव , प्रद्युम्न , अनिरुद्ध, संकर्षण ) से सृष्टि की रचना करने वाले हैं
चतुर्दंष्ट्र चार दाढ़ों या सींगों वाले, नरसिंह रूप से चार दांत धारण करने वाले हैं
चतुर्भुज चार भुजाओं वाले

भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ॥ १६ ॥

भ्राजिष्णु एकरस प्रकाशस्वरूप
भोजनम् प्रकृति रूप भोज्य माया, जो भोजन रूप हैं
भोक्ता पुरुष रूप से प्रकृति को भोगने वाले, जो भोग्य रूप हैं
सहिष्णु दैत्यों को भी सहन करने वाले, जो सहन शील हैं
जगदादिज जगत के आदि में उत्पन्न होने वाले
अनघ जिनमे अघ (पाप) न हो
विजय ज्ञान, वैराग्य व् ऐश्वर्य से विश्व को जीतने वाले, ज्ञान, वैराग्य व् ऐश्वर्य को जीतने वाले
जेता समस्त भूतों को जीतने वाले, जो विष्णुरूप है
विश्वयोनि विश्व और योनि दोनों वही हैं, जो कार्य कारण रूप है
पुनर्वसु बार बार शरीरों में बसने वाले, जो युगों के अनुरूप मनुष्य रूप धारण करते है

उपेन्द्रो वामनः प्रंशुरमोघः शुचिरूर्जितः ।
अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ॥ १७ ॥

उपेन्द्र अनुजरूप से इंद्र के पास रहने वाले
वामन भली प्रकार भजने योग्य हैं, जिन्होंने वामन रूप धारण कर बलि से तीन पग भूमि की याचना की थी
प्रांशु तीनो लोकों को लांघने के कारण प्रांशु (ऊंचे) हो गए, जिन्होंने विराट रूप धारण कर तीनो लोकों को अपने पैरो से माप लिया था
अमोघ जिनकी चेष्टा मोघ (व्यर्थ) नहीं होती, जो कभी भी व्यय नहीं होने वाले हैं अर्थात अविनाशी हैं
शुचि स्मरण करने वालों को पवित्र करने वाले, जो पवित्र रूप हैं
ऊर्जित अत्यंत बलशाली
अतीन्द्र जो बल और ऐश्वर्य में इंद्र से भी आगे हो
संग्रह प्रलय के समय सबका संग्रह करने वाले
सर्ग जगत रूप और जगत का कारण
धृतात्मा जो अनेक रूपों से आत्मा को धारण करते है या जो अनेक रूप धारण करते है
नियम प्रजा को नियमित करने वाले
यम अन्तः करण में स्थित होकर नियमन करने वाले

वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।
अतीन्द्रयो महामायो महोत्साहो महाबलः ॥ १८ ॥

वेद्यो कल्याण की इच्छा वालों द्वारा जानने योग्य
वैद्य सब विद्याओं के जानने वाले
सदायोगी सदा प्रत्यक्ष रूप होने के कारण, जो करता होकर भी अकर्ता हैं
वीरहा धर्म की रक्षा के लिए असुर योद्धाओं को मारते हैं
माधव विद्या के पति, जो माधव रूप है
मधु मधु (शहद) के समान प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले
अतीन्द्रिय इन्द्रियों से परे, जो इन्द्रियों के द्वारा जानने योग्य नहीं हैं
महामाय मायावियों के भी स्वामी, जो महा मायावी हैं
महोत्साह जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिए तत्पर रहने वाले, जो अति उत्साह वाले है
महाबल सर्वशक्तिमान

महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः ।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् ॥ १९ ॥

महाबुद्धि सर्वबुद्धिमान
महावीर्य संसार के उत्पत्ति की कारणरूप, महापराक्रमी
महाशक्ति अति महान शक्ति और सामर्थ्य के स्वामी , अति शक्तिशाली
महाद्युति जिनकी बाह्य और अंतर दयुति (ज्योति) महान है, जो अति शोभाशाली हैं
अनिर्देश्यवपु जिसे बताया न जा सके, जो निर्देश देने के योग्य नहीं हैं, जो किसी के आधीन नहीं हैं
श्रीमान् जिनमे श्री है, जो ऐश्वर्य से युक्त है
अमेयात्मा जिनकी आत्मा समस्त प्राणियों से अमेय(अनुमान न की जा सकने योग्य) है
महाद्रिधृक् मंदराचल और गोवर्धन पर्वतों को धारण करने वाले

महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ॥ २० ॥

महेष्वास जिनका धनुष महान है, जिन्होंने रामावतार में भगवान् शिव का धनुष उठाया था
महीभर्ता प्रलयकालीन जल में डूबी हुई पृथ्वी को धारण करने वाले, जो सृष्टि के पोषण और धारण कर्ता हैं
श्रीनिवास श्री के निवास स्थान
सतां गति संतजनों के पुरुषार्थसाधन हेतु, जिनके बारे में सत्पुरुषों से ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है
अनिरुद्ध प्रादुर्भाव के समय किसी से निरुद्ध न होने वाले, जो शत्रुओ के रोकने पर भी रुकने वाले नहीं हैं
सुरानन्द सुरों (देवताओं) को आनंदित करने वाले
गोविन्द वाणी (गौ) को प्राप्त कराने वाले
गोविदां-पति गौ (वाणी) पति, जो वेद वाणी के ज्ञाता और उसकी रक्षा करने वाले हैं

मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः॥ २१ ॥

मरीचि तेजस्वियों के परम
दमन राक्षसों और दुष्प्रवृत्ति के लोगों का दमन या संहार करने वाले हैं
हंस संसार भय को नष्ट करने वाले, जो सत्य और असत्य का निर्णय करने में हंस के समान हैं
सुपर्ण धर्म और अधर्मरूप सुन्दर पंखों वाले, जो गरुण रूप हैं
भुजगोत्तम भुजाओं से चलने वालों में उत्तम, जो शेष रूप हैं
हिरण्यनाभ हिरण्य (स्वर्ण) के समान नाभि वाले, जिन की नाभि में सुवर्ण मय ब्रह्माण्ड है
सुतपा सुन्दर तप करने वाले, जो श्रेष्ठ तपस्वी हैं
पद्मनाभ पद्म के समान सुन्दर नाभि वाले
प्रजापति प्रजाओं के पिता, जो प्रजा पति रूप हैं

अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान् स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा॥ २२ ॥

अमृत्यु जिसकी मृत्यु न हो, जो अमर हैं
सर्वदृक् प्राणियों के सब कर्म-अकर्मादि को देखने वाले
सिंह हनन करने वाले हैं, जो सिंह के समान पराक्रमशाली है
सन्धाता मनुष्यों को उनके कर्मों के फल देते हैं, जो युधिष्ठिर के दूत रूप में संधि कराने वाले हैं
सन्धिमान् फलों के भोगनेवाले हैं
स्थिर सदा एकरूप हैं, जो भक्तो के ह्रदय में रहते हैं
अज असुरों का संहार करने वाले
दुर्मषण दानव आदि के द्वारा सहन नहीं किये जा सकते, युद्ध में जिन का पराक्रम असहनीय होता है
शास्ता श्रुति स्मृति से सबका अनुशासन करते हैं, जो दुष्टो को दंड देने वाले हैं
विश्रुतात्मा सत्यज्ञानादि रूप आत्मा का विशेषरूप से श्रवण करने वाले, जो विराट देह वाले हैं
सुरारिहा सुरों (देवताओं) के शत्रुओं को मारने वाले

गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधिः॥ २३ ॥

गुरु सब विद्याओं के उपदेष्टा और सबके जन्मदाता, जो उपदेशको में सर्वश्रेष्ठ उपदेशक हैं
गुरुतम ब्रह्मा आदिको भी ब्रह्मविद्या प्रदान करने वाले
धाम परम ज्योति
सत्य सत्य-भाषणरूप, धर्मस्वरूप
सत्यपराक्रम जिनका पराक्रम सत्य अर्थात अमोघ है
निमिष जिनके नेत्र योगनिद्रा में मुंदे हुए हैं
अनिमिष मत्स्यरूप या आत्मारूप
स्रग्वी वैजयंती माला धारण करने वाले
वाचस्पति-उदारधी विद्या के पति,सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाले, वेद वाणी के स्वामी और उदार बुद्धि वाले हैं

अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान् न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात्॥ २४ ॥

अग्रणी मुमुक्षुओं को उत्तम पद पर ले जाने वाले, जो सब से पहले पूजने योग्य हैं
ग्रामणी भूतग्राम का नेतृत्व करने वाले
श्रीमान् जिनकी श्री अर्थात कांति सबसे बढ़ी चढ़ी है
न्याय न्यायस्वरूप
नेता जगतरूप यन्त्र को चलाने वाले
समीरण श्वासरूप से प्राणियों से चेष्टा करवाने वाले
सहस्रमूर्धा सहस्र मूर्धा (सिर) वाले
विश्वात्मा विश्व के आत्मा
सहस्राक्ष सहस्र आँखों या इन्द्रियों वाले
सहस्रपात् सहस्र पाद (चरण) वाले

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः संप्रमर्दनः ।
अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः॥ २५ ॥

आवर्तन संसार चक्र का आवर्तन करने वाले हैं, धर्म की रक्षार्थ जो कालानुसार पृथ्वी पर अवतरित होते हैं
निवृत्तात्मा संसार बंधन से निवृत्त (छूटे हुए) हैं
संवृत आच्छादन करनेवाली अविद्या से संवृत्त (ढके हुए) हैं, जो योगमाया से घिरे हैं
संप्रमर्दन अपने रूद्र और काल रूपों से सबका मर्दन करने वाले हैं, जो दैत्यों का घमंड चूर चूर करने वाले हैं
अहः संवर्तक दिन के प्रवर्तक हैं, जो सूर्य रूप से जगत को प्रकाशित करने वाले हैं
वह्नि हवि का वहन करने वाले हैं
अनिल अनादि, जो वायु रूप हैं
धरणीधर वराहरूप से पृथ्वी को धारण करने वाले हैं

सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः ।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः॥ २६ ॥

सुप्रसाद जिनकी कृपा अति सुन्दर है, प्रसन्न होने पर जो सब कुछ देने वाले हैं
प्रसन्नात्मा जिनका अन्तः करण रज और तम से दूषित नहीं है, प्रसन्न होने पर जो अपने भक्तो के अपराधों को क्षमा करने वाले है
विश्वधृक् विश्व को धारण करने वाले हैं
विश्वभुक् विश्व का पालन करने वाले हैं
विभु हिरण्यगर्भादिरूप से विविध होते हैं, जो अनेक रूप धारण करने वाले हैं
सत्कर्ता सत्कार करते अर्थात पूजते हैं, जो सत्कर्म करने वाले हैं
सत्कृत पूजितों से भी पूजित
साधु साध्यमात्र के साधक हैं, जो दूसरों के कार्यसाधक है जैसा कि साधु का स्वभाव परोपकार करना होता है
जह्नु अज्ञानियों को त्यागते और भक्तो को परमपद पर ले जाने वाले
नारायण नर से उत्पन्न हुए तत्व नार हैं जो भगवान् के अयन (घर) थे, जल ही जिनका अयन अर्थात घर है
नर नयन कर्ता है इसलिए सनातन परमात्मा नर कहलाता है, जो नर रूप हैं

असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः॥ २७ ॥

असंख्येय जिनमे संख्या अर्थात नाम रूप भेदादि नहीं हो
अप्रमेयात्मा जिनका आत्मा अर्थात स्वरुप अप्रमेय है, जिनको मन और वाणी से जानना कठिन है
विशिष्ट जो सबसे अतिशय (बढे चढ़े) हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं
शिष्टकृत् जो शासन करते हैं, जो आचरण हीनो को भी आचरण सिखाते हैं
शुचि जो मलहीन है, जो पवित्र हैं
सिद्धार्थ जिनका अर्थ सिद्ध हो, जो सिद्ध मनोरथी हैं
सिद्धसंकल्प जिनका संकल्प सिद्ध हो, जो संकल्प सिद्ध करने वाले हैं
सिद्धिद कर्ताओं को अधिकारानुसार फल देने वाले, जो सिद्धि दाता है
सिद्धिसाधन सिद्धि के साधक, जो चाा पदाार्थों ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) को देने वााले है

वृषाहि वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः॥ २८ ॥

वृषाही जिनमे वृष (धर्म) जो कि अहः (दिन) है वो स्थित है
वृषभ जो भक्तों के लिए इच्छित वस्तुओं की वर्षा करते हैं
विष्णु सब और व्याप्त रहने वाले, जो विष्णु रूप है
वृषपर्वा धर्म की तरफ जाने वाली सीढ़ी
वृषोदर जिनका उदर मानो प्रजा की वर्षा करता है, जो धर्म को उदर में धारण किये रहते हैं
वर्धन बढ़ाने और पालना करने वाले,
वर्धमान जो प्रपंचरूप से बढ़ते हैं, भक्तों द्वारा दी गई वस्तु को अपनी माया से बढाने वाले हैं
विविक्त बढ़ते हुए भी पृथक ही रहते हैं
श्रुतिसागर जिनमे समुद्र के सामान श्रुतियाँ रखी हुई हैं

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः ।
नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः॥ २९ ॥

सुभुज जिनकी जगत की रक्षा करने वाली भुजाएं अति सुन्दर हैं
दुर्धर जो मुमुक्षुओं के ह्रदय में अति कठिनता से धारण किये जाते हैं
वाग्मी जिनसे वेदमयी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ है
महेन्द्र ईश्वरों के भी इश्वर, जो महान इन्द्र है
वसुद वसु अर्थात धन देते हैं
वसु दिया जाने वाला वसु (धन) भी वही हैं, जो स्वयं धन रूप हैैं
नैकरूप जिनके अनेक रूप हों
बृहद्रूप जिनके वराह आदि बृहत् (बड़े-बड़े) रूप हैं
शिपिविष्ट जो शिपि (पशु) में यज्ञ रूप में स्थित होते हैं
प्रकाशन सबको प्रकाशित करने वाले, जिनसे सारी सृष्टि प्रकाशित होती है

ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः॥ ३० ॥

ओजस्तेजोद्युतिधर ओज, प्राण और बल को धारण करने वाले हैं
प्रकाशात्मा जिनकी आत्मा प्रकाश स्वरुप है
प्रतापन जो अपनी किरणों से धरती को तप्त करते हैं
ऋद्ध जो धर्म, ज्ञान और वैराग्य से संपन्न हैं
स्पष्टाक्षर जिनका ओंकाररूप अक्षर स्पष्ट है
मन्त्र मन्त्रों से जानने योग्य
चन्द्रांशु मनुष्यों को चन्द्रमा की किरणों के समान आह्लादित करने वाले हैं
भास्करद्युति सूर्य के तेज के समान धर्म वाले या शोभा वाले

अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः॥ ३१ ॥

अमृतांशोद्भव समुद्र मंथन के समय जिनके कारण चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई
भानु भासित होने वााले, सूर्य
शशबिन्दु चन्द्रमा के समान प्रजा और औषधियों का पालन करने वाले
सुरेश्वर देवताओं के इश्वर
औषधम् संसार रोग के औषध
जगत सेतु लोकों के पारस्परिक असंभेद के लिए इनको धारण करने वाला सेतु
सत्यधर्मपराक्रम जिनके धर्म-ज्ञान और पराक्रमादि गुण सत्य है

युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित्॥ ३३ ॥

युगादिकृत् युगादि का आरम्भ करने वाले हैं
युगावर्त सतयुग आदि युगों का आवर्तन करने वाले हैं
नैकमाय अनेकों मायाओं को धारण करने वाले हैं
महाशन कल्पांत में संसार रुपी अशन (भोजन) को ग्रसने वाले
अदृश्य समस्त ज्ञानेन्द्रियों के अविषय हैं
व्यक्तरूप स्थूल रूप से जिनका स्वरुप व्यक्त है
सहस्रजित् युद्ध में सहस्रों देवशत्रुओं को जीतने वाले
अनन्तजित् अचिन्त्य शक्ति से समस्त भूतों को जीतने वाले

इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः॥ ३४ ॥

इष्ट यज्ञ द्वारा पूजे जाने वाले
विशिष्ट अन्तर्यामी
शिष्टेष्ट विद्वानों के ईष्ट
शिखण्डी शिखण्ड (मयूरपिच्छ) जिनका शिरोभूषण है
नहुष भूतों को या प्राणियों को अपनी माया से संसार के बंधनो से बाँधने वाले
वृष कामनाओं की वर्षा करने वाले या पूर्ति करने वाले
क्रोधहा साधुओं का क्रोध नष्ट करने वाले
क्रोधकृत्कर्ता क्रोध करने वाले दैत्यादिकों के कर्तन करने वाले हैं
विश्वबाहु जिनके बाहु सब और हैं
महीधर महि (पृथ्वी) को धारण करते हैं

अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपांनिधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ॥ ३५ ॥

अच्युत छः भावविकारों से रहित रहने वाले, सृष्टि में सदा विद्यमान रहने वाले
प्रथित जगत की उत्पत्ति आदि कर्मो से प्रसिद्ध, जो अनेक प्रकार की लीलाएं करके प्रसिद्द हैं
प्राण हिरण्यगर्भ रूप से प्रजा को जीवन देने वाले, जो प्राण रूप है
प्राणद देवताओं और दैत्यों को प्राण देने या नष्ट करने वाले हैं, जो भक्त की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं
वासवानुज वासव (इंद्र) के अनुज (वामन अवतार)
अपां-निधि जिसमें अप (जल) एकत्रित रहता है वो सागर हैं, जो समुद्र रूप हैं
अधिष्ठानम् जिनमें सब भूत स्थित हैं , जो सृष्टि के नियामक हैं
अप्रमत्त कर्मानुसार फल देते हुए कभी चूकते नहीं हैं
प्रतिष्ठित जो अपनी महिमा में स्थित हैं , जो अपनी ही लीला में लीन रहते हैं

स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वसुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ॥ ३६ ॥

स्कन्द स्कंदन करने वाले हैं
स्कन्दधर स्कन्द अर्थात धर्ममार्ग को धारण करने वाले हैं
धूर्य समस्त भूतों के जन्मादिरूप धुर (बोझे) या सृष्टि को धारण करने वाले हैं
वरद इच्छित वर देने वाले हैं
वायुवाहन आवह आदि सात वायुओं को चलाने वाले हैं
वासुदेव जो वासु हैं और देव भी हैं
बृहद्भानु अति बृहत् किरणों से संसार को प्रकाशित करने वाले, जो सूर्य चंद्र रूप से किरणों को धारण करते हैं
आदिदेव सबके आदि हैं और देव भी हैं। प्रथम देव
पुरन्दर देवशत्रुओं के पूरों (नगर)का ध्वंस करने वाले हैं

अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ॥ ३७ ॥

अशोक शोकादि छः उर्मियों से रहित हैं, जिन्हे किसी प्रकार का शोक नहीं है
तारण जो प्रिय भक्तो को संसार सागर से तारने वाले हैं
तार भय से तारने वाले हैं
शूर पुरुषार्थ करने वाले हैं, जो पराक्रमी हैं
शौरि वासुदेव की संतान, जो शूरवीर हैं
जनेश्वर जन अर्थात सृष्टि के सभी जीवों के इश्वर
अनुकूल सबके आत्मारूप हैं, आत्मारूप से सभी जीवो में व्याप्त हैं
शतावर्त जिनके धर्म रक्षा के लिए सैंकड़ों अवतार हुए हैं
पद्मी जिनके हाथ में पद्म अर्थात कमल है
पद्मनिभेक्षण जिनके नेत्र पद्म अर्थात कमल के समान हैं

पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत् ।
महर्द्धिरृद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ॥ ३८ ॥

पद्मनाभ हृदयरूप पद्म की नाभि के बीच में स्थित हैं, जिनकी नाभि कमल नाल के सामान है
अरविन्दाक्ष जिनकी आँख अरविन्द (कमल) के समान है
पद्मगर्भ हृदयरूप पद्म में मध्य में उपासना करने वाले हैं
शरीरभृत् अपनी माया से शरीर धारण करने वाले हैं
महर्द्धि जिनकी विभूति महान है, जो महान सिद्धियों वाले हैं
ऋद्ध प्रपंचरूप, जो माया से विराट हैं
वृद्धात्मा जिनकी देह वृद्ध या पुरातन है, जो पुरातन आत्मा वाले हैं
महाक्ष जिनकी अनेको महान आँखें (अक्षि) हैं
गरुडध्वज जिनकी ध्वजा गरुड़ के चिन्ह वाली है

अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिञ्जयः ॥ ३९ ॥

अतुल जिनकी कोई तुलना नहीं है, जो उपमारहित हैं
शरभ जो नाशवान शरीर में आत्मा रूप से भासते हैं, जो शोभायमान हैं
भीम जिनसे सब डरते हैं , जो दुष्टो के लिए भयरूप हैं
समयज्ञ समस्त भूतों में जो समभाव रखते हैं
हविर्हरि यज्ञों में अग्निरूप से हवि ( हवन सामग्री ) का भाग हरण करते हैं
सर्वलक्षणलक्षण्य परमार्थस्वरूप, जो सब गुणों से युक्त हैं
लक्ष्मीवान् जिनके वक्ष स्थल में लक्ष्मी जी निवास करती हैं, जो लक्ष्मी से युक्त हैं
समितिञ्जय समिति अर्थात युद्ध को जीतते हैं

विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ॥ ४० ॥

विक्षर जिनका क्षर ( क्षय ) ,अर्थात नाश नहीं होता
रोहित अपनी इच्छा से रोहितवर्ण मूर्ति का स्वरुप धारण करने वाले, जिन्होंने मत्स्यावतार धारण किया था
मार्ग जिनसे परमानंद प्राप्त होता है, जो श्रुति आदि के द्वारा ही जाने जा सकते हैं
हेतु संसार के निमित्त और उपादान कारण हैं, जो कारण रूप हैं
दामोदर दाम लोकों का नाम है जिसके वे उदर में हैं, एक बार यशोदा जी ने जिनको रस्सी द्वारा कमर से बाँध दिया था
सह सबको सहन करने वाले हैं, सहनशील हैं
महीधर पर्वतरूप होकर मही ( पृथ्वी ) को धारण करते हैं
महाभाग हर यज्ञ में जिन्हे सबसे बड़ा भाग मिले
वेगवान् तीव्र गति वाले हैं, जो मन के समान गति वाले हैं
अमिताशन संहार के समय सारे विश्व को खा जाने वाले हैं

उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ॥ ४१ ॥

उद्भव भव यानी संसार से ऊपर हैं, जो सृष्टि के परे हैं
क्षोभण जगत की उत्पत्ति के समय प्रकृति और पुरुष में प्रविष्ट होकर क्षुब्ध करने वाले
देव जो स्तुत्य पुरुषों से स्तवन किये जाते हैं और सर्वत्र जाते हैं, जो देवस्वरूप हैं
श्रीगर्भ जिनके उदर में संसार रुपी श्री स्थित है
परमेश्वर जो परम है और ईशनशील हैं, महान ईश्वर हैं
करणम् संसार की उत्पत्ति के सबसे बड़े साधन हैं
कारणम् जगत के उपादान और निमित्त, जो कारण रूप हैं
कर्ता स्वतन्त्र, जो कर्ता रूप हैं
विकर्ता विचित्र भुवनों की रचना करने वाले हैं, जो विशेष कार्यो को करने वाले हैं
गहन जिनका स्वरुप, सामर्थ्य या कृत्य नहीं जाना जा सकता , जो अंतर्मुखता के विषय हैं
गुह अपनी माया से स्वरुप को ढक लेने वाले, जो ह्रदय में गुप्त रूप से निवास करने वाले हैं

व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।
परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ॥ ४२ ॥

व्यवसाय ज्ञानमात्रस्वरूप, जो क्रियारूप हैं
व्यवस्थान जिनमें सबकी व्यवस्था है, जो सर्वाश्रय हैं
संस्थान परम सत्ता, प्रलय काल में जो सब जीवो के आश्रय कारण हैं
स्थानद ध्रुवादिकों को उनके कर्मों के अनुसार स्थान देते हैं, जो मुक्ति धाम की प्राप्ति कराने वाले हैं
ध्रुव अविनाशी, जो करता होकर भी स्वरुप में स्थिर रहते हैं
परर्धि जिनकी विभूति श्रेष्ठ है, जो श्रेष्ठ सिद्धियों के स्वामी हैं
परमस्पष्ट परम और स्पष्ट हैं, जो मलरहित और महान हैं
तुष्ट परमानन्दस्वरूप, जो आनंदरूप हैं
पुष्ट सर्वत्र परिपूर्ण, जो पूर्णब्रह्म हैं
शुभेक्षण जिनका दर्शन सर्वदा शुभ है, जो सबका शुभ चाहने वाले हैं

रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः ।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ॥ ४३ ॥

राम अपनी इच्छा से रमणीय शरीर धारण करने वाले, योगीजन जिस परब्रह्म में रमन करते हैं
विराम जिनमें प्राणियों का विराम (अंत) होता है, जिनमे जगत का विलय होता है
विरज विषय सेवन में जिनका राग नहीं रहा है, जो रजोगुण से रहित हैं
मार्ग जिन्हें जानकार मुमुक्षुजन अमर हो जाते हैं, जो ब्रह्ममार्ग को बताने वाले हैं
नेय ज्ञान से जीव को परमात्वभाव की तरफ ले जाने वाले, जिनका भक्तो के ह्रदय में निवास होता है
नय नेता, जो भक्तों से प्राप्त अल्पवस्तु भी ग्रहण कर लेते हैं
अनय जिनका कोई और नेता नहीं है, जो अभक्तों से प्राप्त अधिक वस्तु भी ग्रहण नहीं करते
वीर विक्रमशाली, जो पराक्रमी हैं
शक्तिमतां श्रेष्ठ सभी शक्तिमानों में श्रेष्ठ
धर्म समस्त भूतों को धारण करने वाले, जो धर्मस्वरूप हैं
धर्मविदुत्तम श्रुतियाँ और स्मृतियाँ जिनकी आज्ञास्वरूप है, धर्म के जानकारों में जो श्रेष्ठ हैं

वैकुन्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ॥ ४४ ॥

वैकुण्ठ जगत के आरम्भ में बिखरे हुए भूतों को परस्पर मिलाकर उनकी गति रोकने वाले, जो वैकुण्ठ धाम रूप हैं
पुरुष सबसे पहले होने वाले, जो पूर्ण पुरुष हैं
प्राण प्राणवायुरूप होकर चेष्टा करने वाले हैं, जो वेदों के प्राण स्वरुप हैं
प्राणद प्रलय के समय प्राणियों के प्राणों का खंडन करते हैं, जिन्होंने ब्रह्मा को वेद प्रदान किये थे
प्रणव जिन्हें वेद प्रणाम करते हैं, जो प्रणव रूप हैं
पृथु प्रपंचरूप से विस्तृत हैं, जो राजा पृथु के समान हैं
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की उत्पत्ति के कारण, जो श्रेष्ठ बाल रूप हैं
शत्रुघ्न देवताओं के शत्रुओं को मारने वाले हैं, जो शत्रुओ के संहार कर्ता हैं
व्याप्त सब कार्यों को व्याप्त करने वाले हैं, जो सर्व व्यापी हैं
वायु गंध वाले हैं, जो वायु रूप हैं
अधोक्षज जो कभी अपने स्वरुप से नीचे न हो, जो इन्द्रियों के विषय नहीं हैं

ऋतुः सुदर्शणः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ॥ ४५ ॥

ऋतु ऋतु शब्द द्वारा कालरूप से लक्षित होते हैं, जो ऋतुओ में बसंत ऋतुरूप हैं
सुदर्शन उनके नेत्र अति सुन्दर हैं, जो श्रेष्ठ और दर्शनीय हैं
काल सबकी गणना करने वाले हैं, जो कालरूप हैं
परमेष्ठी हृदयाकाश के भीतर परम महिमा में स्थित रहने के स्वभाव वाले, जो अपने ही धाम में रहने वाले हैं
परिग्रह भक्तों के अर्पण किये जाने वाले पुष्पादि को ग्रहण करने वाले, जो मुमुक्षुओं ( जिज्ञासुओ ) के द्वारा जाने जाते हैं
उग्र जिनके भय से सूर्य भी निकलता है, जो रूद्र रूप हैं
संवत्सर जिनमें सब भूत बसते हैं, जो काल रूप से भली प्रकार व्याप्त है
दक्ष जो सब कार्य बड़ी शीघ्रता से करते हैं, जो निपुण है
विश्राम मोक्ष देने वाले हैं, जो कल्पांत में अंतिम आश्रय हैं
विश्वदक्षिण जो समस्त कार्यों में कुशल हैं, जो प्राणियों के प्रति उदार हैं

विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् ।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ॥ ४६ ॥

विस्तार जिनमें समस्त लोक विस्तार पाते हैं, जिनमे जगत का विस्तार होता है
स्थावरस्स्थाणु स्थावर और स्थाणु हैं, जो पंचतत्वों ( जल , वायु , धरती , आकाश , अग्नि ) रूप में स्थायी रूप में स्थित हैं
प्रमाणम् संवितस्वरूप, जो प्रमाण रूप है या जो सत्य हैं
बीजमव्ययम् बिना अन्यथाभाव के ही संसार के कारण हैं, जो बीजरूप हैं
अर्थ सबसे प्रार्थना किये जाने वाले हैं, जो प्रार्थना योग्य हैं
अनर्थ जिनका कोई प्रयोजन नहीं है, जो परमार्थी हैं
महाकोश जिन्हें महान कोष ढकने वाले हैं, जो आनंदमय कोष रूप हैं
महाभोग जिनका सुखरूप महान भोग है, जो सुख राशि हैं
महाधन जिनका भोगसाधनरूप महान धन है, जो भक्त प्रिय हैं

अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः ।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ॥ ४७ ॥

अनिर्विण्ण जिन्हें कोई निर्वेद (उदासीनता) नहीं है, जो भक्त हित के लिए सदैव सजग रहते हैं
स्थविष्ठ वैराजरूप से स्थित होने वाले हैं, जो अति स्थूल रूप हैं
अभू अजन्मा, जो सत्तात्मक हैं
धर्मयूप धर्म स्वरुप यूप में जिन्हें बाँधा जाता है, जो धर्म यज्ञ के स्तम्भ हैं
महामख जिनको अर्पित किये हुए मख (यज्ञ) महान हो जाते हैं, जो अनेक यज्ञो के कर्ता हैं
नक्षत्रनेमि सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डल के केंद्र हैं, जो चन्द्रमा के समान आनंददायी हैं
नक्षत्री चन्द्ररूप, जो शुभ नक्षत्र में देह धारण करने वाले हैं
क्षम समस्त कार्यों में समर्थ, जो क्षमा शील हैं
क्षाम जो समस्त विकारों के क्षीण हो जाने पर आत्मभाव से स्थित रहते हैं, दुखकाल में जो भक्तो के द्वारा स्मरण किए जाते हैं
समीहन सृष्टि आदि के लिए सम्यक चेष्टा करते हैं, जो श्रेष्ठ कार्य साधक हैं

यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ॥ ४८ ॥

यज्ञ सर्वयज्ञस्वरूप, जो यज्ञरूप हैं
इज्य जो पूज्य हैं, पूजनीय हैं
महेज्य मोक्षरूप फल देने वाले सबसे अधिक पूजनीय, जो महान पूजनीय हैं
क्रतु तद्रूप, जो एक साथ कई क्रियाओं के कर्ता हैं
सत्रम् जो विधिरूप धर्म को प्राप्त करता है, जो सत्पुरुषों के रक्षक हैं
सतां-गति जिनके अलावा कोई और गति नहीं है, जो सज्जनो या साधुजनो के द्वारा जानने के विषय हैं
सर्वदर्शी जो प्राणियों के सम्पूर्ण कर्मों को देखते हैं, जो सबको समान भाव से देखते हैं
विमुक्तात्मा स्वभाव से ही जिनकी आत्मा मुक्त है, जो बंधन रहित हैं
सर्वज्ञ जो सर्व है और ज्ञानरूप है, जो सब कुछ जान ने वाले हैं
ज्ञानमुत्तमम् जो प्रकृष्ट, अजन्य, और सबसे बड़ा साधक ज्ञान है, ज्ञानियों में जो श्रेष्ठ ज्ञानी हैं

सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत् ।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ॥ ४९ ॥

सुव्रत जिन्होंने शुभ व्रत लिया है, जो श्रेष्ठ व्रत धारी हैं
सुमुख जिनका मुख सुन्दर है
सूक्ष्म शब्दादि स्थूल कारणों से रहित हैं, जो सूक्ष्मस्वरूप हैं
सुघोष मेघ के समान गंभीर घोष वाले हैं, जो श्रेष्ठ वाणी युक्त हैं
सुखद सदाचारियों को सुख देने वाले हैं, जो श्रेष्ठ सुखदायी हैं
सुहृत् बिना प्रत्युपकार की इच्छा के ही उपकार करने वाले हैं, जो श्रेष्ठ उपकारकर्ता हैं
मनोहर मन को हरने वाले हैं, जो मन को मोहने वाले हैं
जितक्रोध क्रोध को जीतने वाले, जिन्होंने क्रोध को वशीभूत कर लिया है
वीरबाहु अति विक्रमशालिनी बाहु के स्वामी, जो समर्थ भुजाओ वाले हैं
विदारण अधार्मिकों को विदीर्ण करने वाले हैं , जो नरसिंह रूप से हिरण्यकशिपु का वध करने वाले हैं

स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत् ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ॥ ५० ॥

स्वापन जीवों को माया से आत्मज्ञानरूप जाग्रति से रहित करने वाले हैं, जो निज भक्तों के लिए धन प्रदाता हैं
स्ववश जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण हैं, जो स्वजनों ( भक्तों) के वशीभूत रहते हैं
व्यापी सर्वव्यापी, जो सर्व व्यापक हैं
नैकात्मा जो विभिन्न विभूतियों के द्वारा नाना प्रकार से स्थित हैं, जो सभी जीवों में प्रतिबिम्ब रूप से निवास करते हैं
नैककर्मकृत् जो संसार की उत्पत्ति, उन्नति और विपत्ति आदि अनेक कर्म करते हैं, जो अनेक कर्मों के करने वाले हैं
वत्सर जिनमें सब कुछ बसा हुआ है, जो पुत्र प्रदाता है
वत्सल भक्तों के स्नेही, जो भक्तों से प्रेम करने वाले हैं
वत्सी वत्सों का पालन करने वाले, जो सबको स्नेह करने वाले हैं
रत्नगर्भ रत्न जिनके गर्भरूप हैं, जो गर्भ में रत्न धारण करने वाले हैं या समुद्र रूप हैं
धनेश्वर जो धनों के स्वामी हैं, जो ऐश्वर्यशाली हैं

धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम् ।
अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ॥ ५१ ॥

धर्मगुब् धर्म का गोपन (रक्षा) करने वाले हैं
धर्मकृत् धर्म की मर्यादा के अनुसार आचरण वाले हैं
धर्मी धर्मों को धारण करने वाले हैं
सत् सत्यस्वरूप परब्रह्म
असत् प्रपंचरूप अपर ब्रह्म
क्षरम् सर्व भूत, जो प्रलय काल में विनाश करता हैं , दुःख और कष्टों का विनाश करने वाले हैं
अक्षरम् कूटस्थ, जो अविनाशी हैं
अविज्ञाता वासना को न जानने वाला, जो ज्ञान स्वरुप हैं
सहस्रांशु जिनके तेज से प्रज्वल्लित होकर सूर्य तपता है , जो हजारों किरणों के धारण कर्ता या सूर्य के समान हैं
विधाता समस्त भूतों और पर्वतों को धारण करने वाले, जो धारण पोषण करने वाले हैं या जो भाग्य लिखने वाले हैं
कृतलक्षण नित्यसिद्ध चैतन्यस्वरूप, जो चेतन स्वरुप हैं

गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ॥ ५२ ॥

गभस्तिनेमि जो गभस्तियों (किरणों) के बीच में सूर्यरूप से स्थित हैं, जो सूर्य रूप हैं
सत्त्वस्थ जो समस्त प्राणियों में स्थित हैं, जो सतोगुणों से युक्त हैं
सिंह जो सिंह के समान पराक्रमी हैं
भूतमहेश्वर भूतों के महान इश्वर हैं, जो जीवों के स्वामी हैं
आदिदेव जो सब भूतों का ग्रहण करते हैं और देव भी हैं, जो प्रथम देवरूप हैं
महादेव जो अपने महान ज्ञानयोग और ऐश्वर्य से महिमान्वित हैं, जो महान देव स्वरुप हैं
देवेश देवों के ईश हैं
देवभृद्गुरु देवताओं के पालक इन्द्र के भी शासक हैं, जो देवराज इंद्र के भी उपदेशक हैं

उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ॥ ५३ ॥

उत्तर जो संसारबंधन से मुक्त हैं, जो सर्वश्रेष्ठ हैं
गोपति गौओं के पालक, जो गायों के स्वामी हैं
गोप्ता समस्त भूतों के पालक और जगत के रक्षक, जो गायों के रक्षक हैं
ज्ञानगम्य जो केवल ज्ञान से ही जाने जाते हैं, जो ज्ञान के विषय हैं
पुरातन जो काल से भी पहले रहते हैं, जो अति प्राचीन हैं और जो सदैव स्थिर रहने वाले हैं
शरीरभूतभृत् शरीर की रचना करने वाले भूतों के पालक, जो सृष्टि के जीवों का भरण पोषण करने वाले हैं
भोक्ता पालन करने वाले
कपीन्द्र वानरों के स्वामी, सुग्रीव को जिन्होंने वानरों का राजा बनाया था
भूरिदक्षिण जिनकी बहुत सी दक्षिणाएँ रहती हैं, जो सरल स्वभाव वाले हैं

सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्त्वतांपतिः ॥ ५४ ॥

सोमप जो समस्त यज्ञों में देवतारूप से सोमपान करते हैं, जो सोमलता रस का पान करने वाले हैं
अमृतप आत्मारूप अमृतरस का पान करने वाले, रामावतार में जिन्होंने यज्ञों के द्वारा देवताओं को तृप्त किया था
सोम चन्द्रमा (सोम) रूप से औषधियों का पोषण करने वाले, जो चन्द्रमा के समान आनंद दायी हैं
पुरुजित् पुरु अर्थात बहुतों को जीतने वाले, जो अर्जुन के मामा राजा कुन्तिभोज को पराजित करने वाले हैं
पुरुसत्तम विश्वरूप अर्थात पुरु और उत्कृष्ट अर्थात सत्तम हैं, जो पुरुषों में उत्तम हैं
विनय दुष्ट प्रजा को विनय अर्थात दंड देने वाले हैं, जो विनम्र हैं या जो विशेष नीतियों के जानकार हैं
जय सब भूतों को जीतने वाले हैं, जो जयरूप हैं
सत्यसन्ध जिनकी संधा अर्थात संकल्प सत्य हैं, जो सत्य प्रतिज्ञा वाले हैं
दाशार्ह जो दशार्ह कुल में उत्पन्न हुए, जिन्होंने दर्शाह वंश में जन्म लिया था
सात्त्वतां पति सात्वतों (वैष्णवों) के स्वामी, जो वैष्णवों का योगक्षेम करने वाले हैं

अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ॥ ५६ ॥

अज अजन्मा, जो अविनाशी हैं अर्थात जो अनादि काल से ही सृष्टि में व्याप्त हैं
महार्ह मह (पूजा) के योग्य, जो श्रेष्ठ पूजनीय हैं
स्वाभाव्य नित्यसिद्ध होने के कारण स्वभाव से ही उत्पन्न नहीं होते, जो भक्तों के चिंतन योग्य हैं
जितामित्र जो शत्रुओं को जीतने वाले है
प्रमोदन जो अपने ध्यानमात्र से ध्यानियों को प्रमुदित करते हैं, जो सबको प्रमुदित करने वाले हैं
आनन्द आनंदस्वरूप , जो सुखराशि हैं
नन्दन आनंदित करने वाले हैं, जो सबको सुख देने वाले हैं
नन्द सब प्रकार की सिद्धियों से संपन्न, जो ऐश्वर्य शाली हैं
सत्यधर्मा जिनके धर्म ज्ञानादि गुण सत्य हैं, जो सत्यधर्मी हैं
त्रिविक्रम जिनके तीन विक्रम (डग) तीनों लोकों में क्रान्त (व्याप्त) हो गए, जो तीनों लोकों को समभाव से देखते हैं

महर्षिः कमिलाचार्यः कृत्ज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत् ॥ ५७ ॥

महर्षि कपिलाचार्य जो ऋषि रूप से उत्पन्न हुए कपिल हैं, जो महर्षि कपिल रूपधारी हैं
कृतज्ञ कृत (जगत) और ज्ञ (आत्मा) हैं, जो किये हुए को जानने वाले हैं
मेदिनीपति मेदिनी (पृथ्वी) के पति या स्वामी
त्रिपद जिनके तीन पद या चरण हैं
त्रिदशाध्यक्ष जागृत , स्वप्न और सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं के अध्यक्ष, जो देवों के अधिष्ठाता हैं
महाशृंग मत्स्य अवतार, जो महाप्रभुत्व वाले हैं
कृतान्तकृत् कृत (जगत) का अंत करने वाले हैं, जो दुष्कृत्यों का शमन करने वाले हैं

महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी ।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ॥ ५८ ॥

महावराह महान हैं और वराह रूप धारी हैं
गोविन्द गो अर्थात वाणी से प्राप्त होने वाले हैं, जो गायों को चराने वाले अर्थात ग्वालरूप हैं
सुषेण जिनकी पार्षदरूप सुन्दर सेना है, जो श्रेष्ठ सेना नायक हैं
कनकांगदी जिनके कनकमय (सोने के) अंगद(भुजबन्द) हैं
गुह्य गुहा यानि हृदयाकाश में छिपे हुए हैं, जो परम रहस्यमयी होने के कारण गोपनीय हैं
गभीर जो गंभीर हैं या गंभीर स्वभाव के हैं
गहन कठिनता से प्रवेश किये जाने योग्य हैं, जो गूढ़ ज्ञान के द्वारा ही जाने जाते हैं
गुप्त जो वाणी और मन के अविषय हैं, जो मन और वाणी के विषय नहीं है
चक्रगदाधर मन रुपी चक्र और बुद्धि रुपी गदा को लोक रक्षा हेतु धारण करने वाले, जो सुदर्शन चक्र और कौमोदकी नामक गदा को धारण करते हैं

वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणोऽच्युतः ।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनः ॥ ५९ ॥

वेधा विधान करने वाले हैं, जो प्रियजनों के हित साधक हैं
स्वांग कार्य करने में स्वयं ही अंग हैं, भक्तों को जो अपने समान समझते हैं
अजित अपने अवतारों में किसी से नहीं जीते गए, जो शत्रुओ द्वारा जीते नहीं जा सकते
कृष्ण कृष्णद्वैपायन, जिनमें कर्षण ( आकर्षण ) गुण है या जो कृष्णा वर्ण के हैं
दृढ जिनके स्वरुप सामर्थ्यादि की कभी च्युति नहीं होती, जो स्थिर हैं
संकर्षणोऽच्युत जो एक साथ ही आकर्षण करते हैं और पद च्युत नहीं होते , जो भक्तों के कष्टों को दूर करते हैं और जो अविनाशी हैं
वरुण अपनी किरणों का संवरण करने वाले सूर्य हैं, जो वरुण रूप हैं
वारुण वरुण के पुत्र वसिष्ठ या अगस्त्य, जो नन्द को वरुण लोक से लाने वाले हैं
वृक्ष वृक्ष के समान अचल भाव से स्थित, जो सहृदय जनो के लिए कल्प वृक्ष के समान हैं
पुष्कराक्ष हृदय कमल में चिंतन किये जाते हैं, जो यशोदा द्वारा धमकाए जाने पर नेत्रों में नीर भर लेते हैं
महामन सृष्टि,स्थिति और अंत ये तीनों कर्म मन से करने वाले, जो उन्नत मन वाले हैं

भगवान् भगहाऽऽनन्दी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ॥ ६० ॥

भगवान् सम्पूर्ण छह ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य जिनमें है
भगहा संहार के समय ऐश्वर्यादि का हनन करने वाले हैं
आनन्दी सुखस्वरूप, जो आत्मानंद में लीन रहने वाले हैं
वनमाली वैजयंती नाम की वनमाला धारण करने वाले हैं
हलायुध जो हल को शस्त्र के रूप में धारण करने वाले हैं
आदित्य अदिति के गर्भ से उत्पन्न होने वाले, जो अदिति के पुत्र वामन रूप हैं
ज्योतिरादित्य सूर्यमण्डलान्तर्गत ज्योति में स्थित, जो ज्योतिमान सूर्य से भी अधिक प्रकाश वाले हैं
सहिष्णु शीतोष्णादि द्वंद्वों को सहन करने वाले, जो शरणागत रक्षको में सर्वश्रेष्ठ हैं , सहनशील हैं
गतिसत्तम गति हैं और सर्वश्रेष्ठ हैं

सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिवःस्पृक् सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ॥ ६१ ॥

सुधन्वा जो इन्द्रियादिमय सुन्दर शारंग धनुष धारण करते हैं
खण्डपरशु जिनका परशु अखंड है, जो परशु नामक अस्त्र धारण करने के कारण परशुराम भी कहलाते हैं
दारुण सन्मार्ग के विरोधियों या दुष्टों के लिए दुखदायी और दारुण (कठोर) हैं
द्रविणप्रद भक्तों को द्रविण (इच्छित धन) देने वाले हैं
दिवःस्पृक् दिव (स्वर्ग) का स्पर्श करने वाले हैं, जिन्होंने वामनावतार में विराट रूप से स्वर्ग को भी नाप लिया था
सर्वदृग्व्यास सम्पूर्ण ज्ञानों का विस्तार करने वाले हैं, जो व्यासरूप से सर्वदर्शी हैं
वाचस्पतिरयोनिज विद्या के पति और जननी से जन्म न लेने वाले हैं

त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक् ।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ॥ ६२ ॥

त्रिसामा तीन सामों द्वारा सामगान करने वालों से स्तुति किये जाने वाले हैं
सामग जो ब्रह्मा रूप से सामगान या सामवेद का गान करने वाले हैं
साम जो सामवेद रूप ही हैं
निर्वाणम् परमानंदस्वरूप ब्रह्म, जो मोक्ष रूप हैं
भेषजम् संसार रूप रोग की औषध, जो औषधि रूप हैं
भृषक् संसाररूप रोग या भव सागर से छुड़ाने वाली विद्या अर्थात आत्म तत्त्व का उपदेश देने वाले हैं,
संन्यासकृत् मोक्ष के लिए संन्यास की रचना करने वाले हैं
सम सन्यासियों को ज्ञान के साधन शम का उपदेश देने वाले, जो ज्ञान के साधन रूप हैं
शान्त विषयसुखों में अनासक्त रहने वाले, जो सुखों के प्रति उदासीन हैं अर्थात शांत स्वरुप हैं
निष्ठा प्रलयकाल में प्राणी सर्वथा जिनमे वास करते हैं
शान्ति सम्पूर्ण अविद्या की निवृत्ति
परायणम् पुनरावृत्ति की शंका से रहित परम उत्कृष्ट स्थान हैं, जो मोक्ष धाम हैं

शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ॥ ६३ ॥

शुभांग सुन्दर शरीर धारण करने वाले हैं, जिनके अंग सुन्दर हैं
शान्तिद शान्ति देने वाले हैं
स्रष्टा आरम्भ में सब भूतों को रचने वाले हैं, जो सृष्टि के सृजन कर्ता हैं
कुमुद कु अर्थात पृथ्वी में मुदित होने वाले हैं, जो कमल के समान हैं
कुवलेशय कु अर्थात पृथ्वी के वलन करने से जल कुवल कहलाता है उसमे शयन करने वाले हैं,जल में शयन करने वाले
गोहित गौओं के हितकारी हैं
गोपति गो अर्थात भूमि के पति या स्वामी हैं
गोप्ता जगत और भक्तों के रक्षक हैं
वृषभाक्ष वृष अर्थात धर्म जिनकी दृष्टि है, जो धर्मरूप नेत्र वाले हैं
वृषप्रिय जिन्हें वृष अर्थात धर्म प्रिय है

अनिर्वर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतांवरः ॥ ६४ ॥

अनिवर्ती देवासुरसंग्राम से पीछे न हटने वाले हैं, जो कर्मशील हैं
निवृतात्मा जिनकी आत्मा स्वभाव से ही विषयों से निवृत्त है, जो विषयों से परे हैं
संक्षेप्ता संहार के समय विस्तृत जगत को सूक्ष्मरूप से संक्षिप्त करने वाले हैं, जिन्होंने वेद को संक्षिप्त कर गीता ग्रन्थ में स्थान दिया है
क्षेमकृत् प्राप्त हुए पदार्थ की रक्षा करने वाले हैं, जो सृष्टि के कल्याणकर्ता हैं
शिव अपने नामस्मरणमात्र से पवित्र और कल्याण करने वाले हैं
श्रीवत्सवक्षा जिनके वक्षस्थल में श्रीवत्स नामक चिन्ह है
श्रीवास जिनके वक्षस्थल में कभी नष्ट न होने वाली श्री वास करती हैं
श्रीपति श्री के पति
श्रीमतां वर ब्रह्मादि श्रीमानों में प्रधान हैं, जो देवो में श्रेष्ठहैं

श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः ॥ ६५ ॥

श्रीद भक्तों को श्री देते हैं इसलिए श्रीद हैं, जो श्री ( ऐश्वर्य ) प्रदाता हैं
श्रीश जो श्री के ईश हैं
श्रीनिवास जो श्रीमानों में निवास करते हैं, जो शोभा के भण्डार हैं
श्रीनिधि जिनमें सम्पूर्ण श्रियां एकत्रित हैं, जो अतुलित ऐश्वर्य के स्वामी हैं
श्रीविभावन जो समस्त भूतों को विविध प्रकार की श्री देते हैं , जो कर्मानुसार प्राणियों को फल प्रदान करते हैं
श्रीधर जिन्होंने श्री को छाती में धारण किया हुआ हैं
श्रीकर जो स्मरण कर्ता या भक्तों को श्रीयुक्त करने वाले हैं और ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं
श्रेय जिनका स्वरुप कभी न नष्ट होने वाले सुख को प्राप्त कराता है, जो श्रिया रूप हैं
श्रीमान् जिनमे श्रियां हैं, जो लक्ष्मी से युक्त हैं
लोकत्रयाश्रय जो तीनों लोकों के एकमात्र आश्रय हैं

स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः ।
विजितात्माऽविधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ॥ ६६ ॥

स्वक्ष जिनकी आँखें कमल के समान सुन्दर हैं
स्वङ्ग जिनके अंग सुन्दर हैं
शतानन्द जो परमानंद स्वरुप उपाधि भेद से सैंकड़ों प्रकार के हो जाते हैं, जो आनंदमय हैं
नन्दि परमानन्दस्वरूप , जो आनंद प्रदाता है
ज्योतिर्गणेश्वर ज्योतिर्गणों के इश्वर या स्वामी हैं
विजितात्मा जिन्होंने आत्मा अर्थात मन को जीत लिया है
विधेयात्मा जिनका स्वरुप किसी के द्वारा विधिरूप से नहीं कहा जा सकता, जो किसी के अधीन नहीं हैं
सत्कीर्ति जिनकी कीर्ति सत्य है, जो श्रेष्ठ यशश्वी हैं
छिन्नसंशय जिन्हें कोई संशय नहीं है, जो संशय हीन हैं

उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ॥ ६७ ॥

उदीर्ण जो सब प्राणियों से उदार है
सर्वतश्चक्षु जो अपने चैतन्यरूप से सबको देखते हैं, जो सब जगह देखने वाले हैं
अनीश जिनका कोई ईश या स्वामी नहीं है
शाश्वत-स्थिर जो नित्य होने पर भी कभी विकार को प्राप्त नहीं होते, जो देश काल आदि में सदा स्थिर भाव से रहते हैं
भूशय लंका जाते समय समुद्रतट पर भूमि पर सोये थे, जो भूमि पर शयन करने वाले हैं
भूषण जो अपने अवतारों से पृथ्वी को भूषित करते रहे हैं, जो जगत के भूषन रूप हैं
भूति समस्त विभूतियों के कारण हैं, जो सत्ता रूप हैं
विशोक जो शोक से परे हैं, जिन्हें किसी प्रकार का शोक नहीं होता
शोकनाशन जो स्मरणमात्र से भक्तों का शोक नष्ट कर दे, जो दुःखो के हर्ता हैं

अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ॥ ६८ ॥

अर्चिष्मान् जिनकी अर्चियों (किरणों) से सूर्य, चन्द्रादि अर्चिष्मान हो रहे हैं , जो सूर्यरूप हैं
अर्चित जो सम्पूर्ण लोकों में सबके द्वारा अर्चित (पूजित) हैं
कुम्भ कुम्भ(घड़े) के समान जिनके उदर में सब वस्तुएं और सम्पूर्ण सृष्टि स्थित हैं
विशुद्धात्मा तीनों गुणों से अतीत होने के कारण विशुद्ध आत्मा हैं, जिनकी आत्मा निर्विकार हैं
विशोधन अपने स्मरण मात्र से पापों का नाश करने वाले हैं
अनिरुद्ध शत्रुओं द्वारा कभी रोके न जाने वाले, जिनको किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं हैं, जो बाधा रहित हैं
अप्रतिरथ जिनका कोई विरुद्ध पक्ष नहीं है, युद्ध में जिनके सामने कोई नहीं टिकता
प्रद्युम्न जिनका दयुम्न (धन) श्रेष्ठ है, जो प्रद्युम्नरूप हैं
अमितविक्रम जिनका विक्रम या पराक्रम अपरिमित है

कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ॥ ६९ ॥

कालनेमीनिहा कालनेमि नामक असुर का वध या हनन करने वाले
वीर जो शूर हैं , वीर हैं
शौरी जो शूरकुल में उत्पन्न हुए हैं
शूरजनेश्वर इंद्र आदि शूरवीरों के भी शासक, जो श्रेष्ठ योद्धाओ के नायक हैं
त्रिलोकात्मा तीनों लोकों की आत्मा हैं
त्रिलोकेश जिनकी आज्ञा से तीनों लोक अपना कार्य करते हैं, जो तीनों लोकों के स्वामी हैं
केशव ब्रह्मा,विष्णु और शिव नाम की शक्तियां केश हैं उनसे युक्त होने वाले, केशी दैत्य को मारने वाले
केशिहा केशी नामक असुर को मारने वाले
हरि अविद्यारूप कारण सहित संसार को हर लेते हैं, जो पापों को हरने वाले हैं

कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनञ्जयः ॥ ७० ॥

कामदेव कामना किये जाते हैं इसलिए काम हैं और देव भी हैं
कामपाल कामियों की कामनाओं का पालन करने वाले हैं, जो कामनाओ को पूरा करने वाले हैं
कामी पूर्णकाम हैं, जो कामना रूप हैं
कान्त परम सुन्दर देह वाले हैं, जो ब्रह्म का भी अंत करने वाले हैं
कृतागम जिन्होंने श्रुति,स्मृति आदि आगम(शास्त्र) रचे हैं, जो वेदों के प्रादुर्भाव के कारण हैं
अनिर्देश्यवपु जिनका रूप निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता, जो जाति व चिह्न से रहित देह वाले हैं
विष्णु जिनकी प्रचुर कांति या तेज़ पृथ्वी और आकाश को व्याप्त करके स्थित है
वीर गति आदि से युक्त हैं, जो श्रेष्ठ वीर हैं
अनन्त देश, काल, वस्तु, सर्वात्मा आदि से अपरिच्छिन्न , जो अनेक गुणों वाले हैं
धनञ्जय अर्जुन के रूप में जिन्होंने दिग्विजय के समय बहुत सा धन जीता था, जो अर्जुन रूप हैं

ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद् ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ॥ ७१ ॥

ब्रह्मण्य जो तप,वेद,ब्राह्मण और ज्ञान के हितकारी हैं, जो ब्रह्म निष्ठ हैं
ब्रह्मकृत् तपादि के करने वाले हैं, हयग्रीव दैत्य का वध कर जिन्होंने वेदों को उस से प्राप्त किया था
ब्रह्मा ब्रह्मरूप से सबकी रचना करने वाले हैं, जो सृष्टि के रचयिता रूप हैं
ब्रहम बड़े तथा बढ़ानेवाले हैं, जो आत्मज्ञान रूप हैं
ब्रह्मविवर्धन तपादि को बढ़ाने वाले हैं
ब्रह्मविद् वेद तथा वेद के अर्थ को यथावत जानने वाले हैं, जो तत्व या आत्म तत्व के ज्ञाता हैं
ब्राह्मण ब्राह्मण रूप, जो वैदिक धर्म के ज्ञाता और प्रवर्तक हैं
ब्रह्मी ब्रह्म के शेषभूत जिनमे हैं, जो ब्रह्म ज्ञान या तत्व के जानकार हैं
ब्रह्मज्ञ जो अपने आत्मभूत वेदों को जानते हैं, जो जीव रूप से ब्रह्मा को जानने वाले हैं
ब्राह्मणप्रिय जो ब्राह्मणों को प्रिय हैं, ब्राह्मण जिन्हें प्रिय हैं

महाक्रमो महाकर्मा महातेजो महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ॥ ७२ ॥

महाक्रम जिनका डग महान है, जो पाद विन्यास ( पैरों को बढ़ाने वाले ) हैं
महाकर्मा जगत की उत्पत्ति जैसे जिनके कर्म महान हैं, जो वृहद धर्म के कर्ता हैं
महातेजा जिनका तेज महान है, जो महान तेजस्वी हैं
महोरग जो महान उरग (वासुकि सर्परूप) है
महाक्रतु जो महान क्रतु (यज्ञ रूप ) है, जो महान यज्ञ करने वाले हैं
महायज्वा महान हैं और लोक संग्रह के लिए यज्ञानुष्ठान करने से यज्वा भी हैं
महायज्ञ महान हैं और यज्ञ हैं, जो महान जप यज्ञ करने वाले हैं
महाहवि महान हैं और हवि हैं, जो महान हवि रूप हैं

स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ॥ ७३ ॥

स्तव्य जिनकी सब स्तुति करते हैं लेकिन ये स्वयं किसी की स्तुति नहीं करते, जो स्तुति करने योग्य हैं
स्तवप्रिय जिनकी सभी स्तुति करते हैं, जिन्हें स्तुति ( वंदना ) प्रिय है
स्तोत्रम् वह गुण कीर्तन हैं जिससे उन्ही की स्तुति की जाती है, जो स्तोत्र रूप हैं
स्तुति स्तवन क्रिया, जो गुण कीर्तन करने योग्य हैं
स्तोता सर्वरूप होने के कारण स्तुति करने वाले भी स्वयं हैं
रणप्रिय जिन्हें रण प्रिय है
पूर्ण जो समस्त कामनाओं और शक्तियों से संपन्न हैं, जो पूर्ण कलाओं से युक्त हैं
पूरयिता जो केवल पूर्ण ही नहीं हैं बल्कि सबको संपत्ति से पूर्ण करने भी वाले हैं , जो भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं
पुण्य स्मरण मात्र से पापों का क्षय करने वाले हैं, जो पुण्य रूप हैं
पुण्यकीर्ति जिनकी कीर्ति मनुष्यों को पुण्य प्रदान करने वाली है, जो कीर्तिवान हैं
अनामय जो व्याधियों से पीड़ित नहीं होते, जो रोग रहित हैं

मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ॥ ७४ ॥

मनोजव जिनका वेग मन के समान तीव्र है , जो मन की गति के समान वेगवान हैं
तीर्थकर जो चौदह विद्याओं और वेद विद्याओं के कर्ता तथा वक्ता हैं, जो विष्णुरूप हैं
वसुरेता जो सुवर्ण प्रिय ( तेज़ ) वाले हैं
वसुप्रद जो खुले हाथ से धन देते हैं
वसुप्रदो जो भक्तों को मोक्षरूप उत्कृष्ट फल देते हैं
वासुदेव वासुदेवजी के पुत्र
वसु जिनमें सब भूत बसते हैं, जो वसुरूप हैं
वसुमना जो समस्त पदार्थों में और सर्वत्र सामान्य भाव और समान रूप से वास करने वाले हैं
हवि जो ब्रह्म को अर्पण किया जाता है, जो हवन रूप हैं

सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ॥ ७५ ॥

सद्गति जिनकी गति यानी बुद्धि श्रेष्ठ है, जो सद्गति ( मोक्ष ) रूप हैं
सत्कृति जिनकी जगत की उत्पत्ति आदि कृति श्रेष्ठ है, जो उत्तम क्रिया वाले हैं
सत्ता सजातीय, विजातीय भेद से रहित अनुभूति हैं, जो अधिष्ठान रूप हैं
सद्भूति जो अबाधित और बहुत प्रकार से भासित हैं, जो सद्पुरुषों को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं
सत्परायण सत्पुरुषों के श्रेष्ठ स्थान हैं, सत्य के प्रति जिनकी निष्ठा है
शूरसेन जिनकी सेना शूरवीर है और हनुमान जैसे शूरवीर उनकी सेना में हैं, जो श्रेष्ठ सेना से युक्त हैं
यदुश्रेष्ठ यदुवंशियों में प्रधान हैं, श्रेष्ठ हैं
सन्निवास विद्वानों के आश्रय है , सत्पुरुषों में जो आवास रूप हैं
सुयामुन जिनके यमुना सम्बन्धी सुन्दर हैं, यमुना के सुन्दर तट पर गोप सखाओं के मध्य विद्यमान रहने वाले

भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्ढरोऽथापराजितः ॥ ७६ ॥

भूतावास जिनमें सर्व भूत मुख्य रूप से निवास करते हैं, जो जीवों में आत्मा रूप से निवास करते हैं
वासुदेव जगत को माया से आच्छादित करते हैं और देव भी हैं, जो वसुदेव के पुत्र हैं
सर्वासुनिलय सम्पूर्ण प्राण जिस जीवरूप आश्रय में लीन हो जाते हैं, जो जीवों के अंतिम आश्रय हैं
अनल जिनकी शक्ति और संपत्ति की समाप्ति नहीं है, जो अग्निरूप हैं
दर्पहा धर्मविरुद्ध मार्ग में रहने वालों का दर्प नष्ट करते हैं, प्रतिद्वंदियों के घमंड को समाप्त करने वाले
दर्पद धर्म मार्ग में रहने वालों को दर्प (गर्व) देते हैं
दृप्त अपने आत्मारूप अमृत का आस्वादन करने के कारण नित्य प्रमुदित रहते हैं, स्वात्मानन्द में लीन रहने वाले
दुर्धर जिन्हें बड़ी कठिनता से ह्रदय में धारण किया जा सकता है
अथापराजित जो किसी से पराजित नहीं होते

विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ॥ ७७ ॥

विश्वमूर्ति विश्व जिनकी मूर्ति है, जो विश्व रूप हैं
महामूर्ति जिनकी मूर्ति बहुत बड़ी है, जो सत चित आनंद रूप वाले हैं
दीप्तमूर्ति जिनकी मूर्ति दीप्तमति है, जो प्रकाश रूप हैं
अमूर्तिमान् जिनकी कोई कर्मजन्य मूर्ति नहीं है , जो विग्रह रहित हैं
अनेकमूर्ति अवतारों में लोकों का उपकार करने वाली अनेकों मूर्तियां धारण करते हैं , जो अनेक रूपों वाले हैं
अव्यक्त जो व्यक्त नहीं होते, जो प्रत्यक्ष नहीं होते
शतमूर्ति जिनकी विकल्पजन्य अनेक मूर्तियां हैं, जो सैंकड़ो रूपों वाले हैं
शतानन जो सैंकड़ों मुख वाले है

एको नैकः सवः कः किं यत् तत्पदमनुत्तमम् ।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ॥ ७८ ॥

एक जो सजातीय, विजातीय और बाकी भेदों से शून्य हैं, जो एक रूप हैं
नैक जिनके माया से अनेक रूप हैं
सव वो यज्ञ हैं जिससे सोम निकाला जाता है, जो यज्ञ में सोम रस का पान करने वाले हैं
क सुखस्वरूप, जो ब्रह्मरूप हैं
किम् जो विचार करने योग्य है, जो पुरुषार्थ रूप हैं
यत् जिनसे सब भूत उत्पन्न होते हैं, जो भक्तों के हितार्थ सर्वत्र विचरण करने वाले हैं
तत् जो विस्तार करता है, लीला रचने वाले हैं
पदमनुत्तमम् वह पद हैं और उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं है इसलिए अनुत्तम भी हैं, जो श्रेष्ठ स्थल कहे जाते हैं
लोकबन्धु जिनमें सब लोक बंधे रहते हैं, जो लोगों को हित अहित का ज्ञान कराने वाले हैं
लोकनाथ जो लोकों से याचना किये जाते हैं और उनपर शासन करते हैं, जो सृष्टिवासियों के स्वामी हैं
माधव मधुवंश में उत्पन्न होने वाले हैं, जो लक्ष्मी के पति हैं
भक्तवत्सल जो भक्तों के प्रति स्नेहयुक्त हैं और दया भाव रखने वाले हैं

सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ॥ ७९ ॥

सुवर्णवर्ण जिनका वर्ण सुवर्ण के समान है
हेमांग जिनका शरीर हेम(सुवर्ण) के समान कांतिमान है
वरांग जिनके अंग वर अर्थात सुन्दर और श्रेष्ठ हैं
चन्दनांगदी जो चंदनों और अंगदों (भुजबन्द) से विभूषित हैं
वीरहा धर्म की रक्षा के लिए दैत्यवीरों का हनन करने वाले हैं
विषम जिनके समान कोई नहीं है
शून्य जो समस्त विशेषों से रहित होने के कारण शून्य के समान हैं, जो धर्मो से रहित हैं
घृताशी जिनकी आशिष घृत यानी विगलित हैं, जो आशीषों से रहित हैं
अचल जो किसी भी तरह से विचलित नहीं होते, जो चलायमान नहीं हैं
चल जो वायुरूप से चलते हैं, जो प्राणी रूप से चलायमान हैं

अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक् ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ॥ ८० ॥

अमानी जिन्हें अनात्म वस्तुओं में आत्माभिमान नहीं है, जो अभिमान रहित हैं
मानद जो भक्तों को आदर मान देते हैं, जो भक्तों में अभिमान नहीं आने देते
मान्य जो सबके माननीय पूजनीय हैं, जो सबमे पूजित हैं
लोकस्वामी चौदहों लोकों के स्वामी हैं
त्रिलोकधृक् तीनों लोकों को धारण करने वाले हैं
सुमेधा जिनकी मेधा ( बुद्धि ) सुन्दर और श्रेष्ठ है
मेधज मेध अर्थात यज्ञ में अन्न ग्रहण करने के लिए उत्पन्न या प्रकट होने वाले हैं
धन्य कृतार्थ हैं, जो पुण्यवान हैं
सत्यमेध जिनकी मेधा सत्य है
धराधर जो अपने सम्पूर्ण अंशों से या शेष रूप से पृथ्वी को धारण करते हैं

तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः ॥ ८१ ॥

तेजोवृषः आदित्यरूप से सदा तेज की वर्षा करते हैं
द्युतिधरः द्युति या कांति को धारण करने वाले हैं
सर्वशस्त्रभृतां वरः समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ
प्रग्रहः भक्तों द्वारा समर्पित किये हुए पुष्पादि या पूजा को भली प्रकार ग्रहण करने वाले हैं
निग्रहः अपने अधीन करके सबका निग्रह करते हैं, जो दुष्टों का संहार करने वाले हैं
व्यग्रः जिनका नाश नहीं होता, जो भक्तों के प्रति तत्पर रहते हैं
नैकशृंगः चार सींगवाले हैं
गदाग्रजः मंत्र से पहले ही प्रकट होते हैं

चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ॥ ८२ ॥

चतुर्मूर्तिः जिनकी चार मूर्तियां हैं, जो चार मूर्तिरूप ( विराट , हिरण्यगर्भ , तुरीय, ब्रह्म ) हैं
चतुर्बाहुः जिनकी चार भुजाएं हैं, जो चार भुजाओं में शंख , चक्र , गदा , पद्म धारण किये हैं
चतुर्व्यूहः जिनके चार व्यूह ( शरीर पुरुष , छंद पुरुष , वेद पुरुष व महापुरुष ) हैं
चतुर्गतिः जिनके चार आश्रम, चार वर्णों और चारों वेदों ( साम , अथर्व , यजुर , ऋग ) की गति है
चतुरात्मा जिनका मन चतुर है,जो चार अन्तः करण वाले हैं अर्थात जिनके(मन ,बुद्धि ,अहंकार,चित्त)राग द्वेष से रहित हैं
चतुर्भावः जिनसे धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष पैदा होते हैं,जो चार अवस्थाओं ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ,संन्यास)में निमग्न हैं
चतुर्वेदविद् चारों वेदों को जानने वाले
एकपात् जिनका एक पाद है, जो जगत रुपी एक पैर वाले हैं

समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ॥ ८३ ॥

समावर्तः संसार चक्र को भली प्रकार घुमाने वाले हैं, जो सृष्टि क्रम को चलाने वाले है
निवृत्तात्मा जिनका मन विषयों से निवृत्त है, जो विषयों से परे हैं
दुर्जयः जो किसी से जीते नहीं जा सकते
दुरतिक्रमः जिनकी आज्ञा का उल्लंघन सूर्यादि भी नहीं कर सकते , जिनको भेद पाना दुर्लभ है
दुर्लभः दुर्लभ भक्ति से प्राप्त होने वाले हैं, जो कठिन भक्ति से ही मिल पाते हैं
दुर्गमः कठिनता से जाने जाते हैं
दुर्गः कई विघ्नों से आहत हुए पुरुषों द्वारा और विघ्नों को दूर करने पर भी जो कठिनता से प्राप्त हो पाते हैं
दुरावासः जिन्हे बड़ी कठिनता से चित्त में बसाया जाता है, जो ह्रदय में कठिनता से व्यापते हैं
दुरारिहा दुष्ट मार्ग में चलने वालों को और दुष्प्रवृत्ति वाले लोगों का का विनाश करने वाले हैं

शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ॥ ८४ ॥

शुभांगः जो शुभ अंगों वाले हैं
लोकसारंगः लोकों के सार हैं
सुतन्तुः जिनका तंतु ( माया, प्रपंच ) – यह विस्तृत जगत सुन्दर हैं
तन्तुवर्धनः उसी तंतु ( माया, प्रपंच ) की वृद्धि करने वाले हैं
इन्द्रकर्मा जिनका कर्म इंद्र के कर्म के समान ही है
महाकर्मा जिनके कर्म महान हैं
कृतकर्मा जिन्होंने धर्म रूप कर्म किया है
कृतागमः जिन्होंने वेदरूप आगम बनाया है

उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः शृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ॥ ८५ ॥

उद्भवः जिनका जन्म नहीं होता,आविर्भाव या अवतरण होता है,जो प्रकट होते हैं, जो सृष्टि की उत्पत्ति के कारण हैं
सुन्दरः विश्व से बढ़कर सौभाग्यशाली हैं , जो शोभनीय हैं , अति सुन्दर
सुन्दः शुभ उंदन (आर्द्रभाव) करते हैं, जो करुणाकर हैं
रत्ननाभः जिनकी नाभि रत्न के समान सुन्दर है
सुलोचनः जिनके लोचन ( नेत्र ) सुन्दर हैं
अर्कः ब्रह्मा आदि पूजनीयों के भी पूजनीय हैं
वाजसनः याचकों को वाज (अन्न) देते हैं
शृंगी प्रलय समुद्र में सींगवाले मत्स्यविशेष का रूप ले कर पृथ्वी को धारण किया था
जयन्तः शत्रुओं को अतिशय से जीतने वाले हैं, जो विजयशील हैं
सर्वविज्जयी जो सर्ववित हैं और जयी हैं , जो सबको जीतने वाले हैं

सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ॥ ८६ ॥

सुवर्णबिन्दुः जिनके अवयव ( अंग ) सुवर्ण के समान हैं
अक्षोभ्यः जो राग द्वेषादि विषय विकारोंऔर देवशत्रुओं से क्षोभित नहीं होते
सर्ववागीश्वरेश्वरः ब्रह्मादि समस्त वागीश्वरों के भी इश्वर हैं
महाहृदः एक बड़े सरोवर समान हैं, जो महान तीर्थ रूप हैं
महागर्तः जिनकी माया गर्त (गड्ढे) के समान दुस्तर है
महाभूतः तीनों काल से अनवच्छिन्न (विभाग रहित) स्वरुप हैं,जो जीवों में सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण रूप हैं
महानिधिः जो महान हैं और निधि भी हैं, जो श्रेष्ठ सम्पत्तिवान हैं

कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।
अमृतांशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ॥ ८७ ॥

कुमुदः कु (पृथ्वी) को उसका भार उतारते हुए उसे मुदित ( आनंदित ) करते हैं
कुन्दरः कुंद या कुंदरू पुष्प के समान शुद्ध या श्रेष्ठ फल देते हैं
कुन्दः कुंद के समान सुन्दर अंगवाले हैं, जो कुंद मालाधारी हैं
पर्जन्यः पर्जन्य (मेघ) के समान कामनाओं को वर्षा करने वाले और तापनाशक हैं
पावनः स्मरणमात्र से पवित्र करने वाले हैं
अनिलः जो इल (प्रेरणा करने वाला)से रहित हैं,जिसे किसी प्रेरणा की कोई आवश्यकता नहीं,वायु के समान वेग वाले
अमृतांशः अमृत का भोग या पान करने वाले हैं
अमृतवपुः जिनका शरीर मरण से रहित है, जो अमर हैं
सर्वज्ञः जो सब कुछ जानते हैं
सर्वतोमुखः सब ओर नेत्र, शिर और मुख वाले हैं

सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।
न्यग्रोधोऽदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ॥ ८८ ॥

सुलभः केवल समर्पित भक्ति से सुखपूर्वक मिल जाने वाले हैं
सुव्रतः जो सुन्दर व्रत(भोजन) करते हैं, श्रेष्ठ व्रतधारी
सिद्धः जिनकी सिद्धि दूसरे के अधीन नहीं है, जो सिद्ध रूप हैं
शत्रुजित् देवताओं के शत्रुओं को जीतने वाले,जिन्होंने षड्विकारों (काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मात्सर्य) को जीत लिया है
शत्रुतापनः देवताओं के शत्रुओं को तपानेवाले हैं
न्यग्रोधः जो नीचे की ओर उगते हैं और सबके ऊपर विराजमान हैं
उदुम्बरः अम्बर से भी ऊपर हैं
अश्वत्थः श्व अर्थात कल भी रहनेवाला नहीं है, पीपल स्वरुप
चाणूरान्ध्रनिषूदनः चाणूर नामक अन्ध्र जाति के वीर को मारने वाले हैं

सहस्रर्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनधोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ॥ ८९ ॥

सहस्रार्चिः जिनकी सहस्र अर्चियाँ (किरणें) हैं
सप्तजिह्वः उनकी अग्निरूपी सात जिह्वाएँ (काली,कराली,मनोजवा,सुलोहिता,सुधूम्रवर्ण,स्फुर्लिंगिनी,विश्वरूचि)हैं
सप्तैधाः जिनकी सात ऐधाएँ हैं अर्थात दीप्तियाँ या समिधाएं हैं
सप्तवाहनः सात घोड़े(सूर्य की सात किरणें)जिनके वाहन हैं
अमूर्तिः जो मूर्तिहीन हैं , जो निराकार हैं
अनघः जिनमें अघ (दुःख) या पाप नहीं है , पापरहित हैं
अचिन्त्यः सब प्रमाणों के अविषय हैं, जो चिंतन से भी परे के विषय हैं
भयकृत् भक्तों का भय काटने वाले हैं, जो दुष्टों के लिए भय रूप हैं
भयनाशनः धर्म का पालन करने वालों और भक्तजनो का भय नष्ट करने वाले हैं

अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ॥ ९० ॥

अणु जो अत्यंत सूक्ष्म हैं
बृहत् जो महान से भी अत्यंत महान हैं, जो वर्धमान हैं अर्थात वृद्धि को प्राप्त होने वाले हैं
कृश जो अस्थूल हैं, जो कृश रूप हैं
स्थूल जो सर्वात्मक हैं, जो अविद्या आदि में स्थूल रूप हैं
गुणभृत् जो सत्व, रज और तम गुणों के अधिष्ठाता हैं
निर्गुण जो गुणधर्म से रहित हैं , जो सतोगुण आदि से परे हैं
महान् जो अंग, शब्द, शरीर और स्पर्श से रहित हैं और महान हैं, जो सबके द्वारा पूजित हैं
अधृत जो किसी से भी धारण नहीं किये जाते
स्वधृत जो स्वयं अपने आपसे ही धारण किये जाते हैं
स्वास्य जिनका ताम्रवर्ण मुख अत्यंत सुन्दर है, जो वेद रुपी श्वास से शोभित मुख वाले हैं
प्राग्वंश जिनका वंश सबसे पहले हुआ है, जिनकी प्रथम उत्पत्ति हुई है
वंशवर्धन अपने वंशरूप प्रपंच को बढ़ाने अथवा नष्ट करने वाले हैं

भारभृत् कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥ ९१ ॥

भारभृत् अनंतादिरूप ( शेष नागावतार) से पृथ्वी का भार उठाने वाले हैं
कथित सम्पूर्ण वेदों में जिनका कथन है, जो सर्वश्रेष्ठ कहे गए हैं
योगी जो योग विद्या में पारंगत हैं
योगीश जो योगियों के भी ईश्वर( स्वामी ) हैं
सर्वकामद जो सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाले हैं
आश्रम जो संसार रुपी जंगल में भ्रमण करने वाले जीवों के लिए आश्रम के समान हैं
श्रमण जो समस्त अविवेकियों और भक्त विरोधियों को को दुःख देने वाले हैं
क्षाम जो कल्प के अंत में सम्पूर्ण प्रजा ( सृष्टि जीवों )को क्षाम अर्थात क्षीण ( स्वयं में लीन )कर लेते हैं
सुपर्ण जो संसारवृक्षरूप हैं और जिनके छंद रूप सुन्दर पत्ते हैं, जो वेदरूपी श्रेष्ठ पत्तों के समान हैं
वायुवाहन जिनके भय से वायु चलती है, जो वायु के भी प्रेरक हैं

धनुर्धरो धर्नुवेदो दण्डो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियन्ताऽनियमोऽयमः ॥ ९२ ॥

धनुर्धरः जिन्होंने राम के रूप में महान धनुष धारण किया था
धनुर्वेदः जो दशरथकुमार धनुर्वेद जानते हैं
दण्डः जो दमन करनेवालों के लिए दंड हैं , जो दंड देने वाले हैं
दमयिता जो यम और राजा के रूप में प्रजा का दमन करते हैं
दमः दण्डकार्य और उसका फल दम, जो दम रूप हैं
अपराजितः जो शत्रुओं से पराजित नहीं होते
सर्वसहः समस्त कर्मों में समर्थ हैं, जो सबको सहने वाले हैं
नियन्ता सबको अपने अपने कार्य में नियुक्त करते हैं , जो सृष्टि के नियमनकर्ता हैं
अनियमः जिनके लिए कोई नियम नहीं है, जो नियम आदि से आबद्ध नहीं हैं
अयमः जिनके लिए कोई यम अर्थात मृत्यु नहीं है, जो अविनाशी हैं या मृत्यु धर्म से रहित हैं

सत्त्ववान् सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत् प्रीतिवर्धनः ॥ ९३ ॥

सत्त्ववान् जिनमें शूरता-पराक्रम आदि सत्व हैं
सात्त्विकः जिनमें सत्वगुण प्रधानता से स्थित है, जो शुद्ध सात्विक रूप हैं
सत्यः जो सत्य स्वरुप हैं
सत्यधर्मपरायणः जो सत्य हैं और धर्मपरायण भी हैं , जो सत्य धर्म में तत्पर रहने वाले हैं
अभिप्रायः प्रलय के समय संसार जिनके सम्मुख जाता है जो पुरुषार्थ की कामना वालों द्वारा अभिलिषित हैं
प्रियार्हः जो प्रिय ईष्ट वस्तु निवेदन करने योग्य है
अर्हः जो पूजा के साधनों से पूजनीय हैं, जो पूजने के योग्य हैं
प्रियकृत् जो स्तुतिआदि के द्वारा भजने वालों का प्रिय करते हैं, जो भक्तो के लिए सुखकारी हैं
प्रीतिवर्धनः जो भजने वालों की प्रीति भी बढ़ाते हैं, जो अपने प्रति भक्तों का प्रेम वर्धन करने वाले हैं

विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ॥ ९४ ॥

विहायसगतिः जिनकी गति अर्थात आश्रय आकाश है, जिनकी आकाश में गमन करने की शक्ति हैं
ज्योतिः जो स्वयं ही प्रकाशित होते हैं, जो ज्योति स्वरुप हैं
सुरुचिः जिनकी रुचि सुन्दर है, जो कांति युक्त हैं
हुतभुक् जो अग्नि रूप से यज्ञ की आहुतियों को भोगते हैं
विभुः जो सर्वत्र विराजमान हैं और तीनों लोकों के प्रभु हैं, जो सर्व व्यापक हैं
रविः जो शृंगारादि रसों को ग्रहण करते हैं
विरोचनः जो विविध प्रकार या विशेष प्रकार से सुशोभित होते हैं
सूर्यः जो श्री(शोभा) को जन्म देते हैं, जो आकाश चारी सूर्य रूप हैं
सविता सम्पूर्ण जगत की (उत्पत्ति) करने वाले हैं या जगतोत्पत्ति के कारणरूप हैं
रविलोचनः रवि या सूर्यदेव जिनका लोचन अर्थात नेत्र रूप हैं

अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ॥ ९५ ॥

अनन्तः जिनमें नित्य,सर्वगत और देशकालपरिच्छेद का अभाव है, जो विभूतियों से व्याप्त हैं
हुतभुक् जो हवन में आहुति रूप से प्राप्य पदार्थो को भोगने वाले या सेवन करने वाले हैं
भोक्ता जो जगत का पालन करते हैं, जो खाद्य पदार्थो का सेवन करने वाले हैं
सुखदः जो भक्तों को मोक्षरूप सुख देते हैं, सुख दाता हैं
नैकजः जो धर्मरक्षा के लिए बारबार जन्म लेते हैं , जो भक्तों से सुशोभित हैं
अग्रजः जो सबसे आगे ( पहले )उत्पन्न होता है, हिरण्यगर्भ रूप से जो सृष्टि में प्रथम आये
अनिर्विण्णः जिन्हें सर्वकामनाएँ प्राप्त होने के कारण अप्राप्ति का खेद नहीं है
सदामर्षी साधुओं और सहृदय लोगो को के लिए क्षमा शील हैं
लोकाधिष्ठानम् जिनके आश्रय से तीनों लोक स्थित हैं, जो तीनों लोकों के अधिष्ठाता हैं
अद्भुतः जो अपने स्वरुप, शक्ति, व्यापार और कार्य में अद्भुत है

सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ॥ ९६ ॥

सनात् काल भी जिनका एक विकल्प ही है, सृष्टि में जो सनातन काल से व्याप्त हैं
सनातनतमः जो ब्रह्मादि से भी अत्यंत सनातन हैं, ब्रह्मादि देवताओं के भी आदि कारण हैं
कपिलः जो देवहूति के पुत्र कपिल मुनि के रूप में जन्म लेने वाले हैं
कपिः जो सूर्यरूप में जल को अपनी किरणों से पीते हैं
अव्ययः प्रलयकाल में जगत में विलीन होते हैं, जो अविनाशी हैं
स्वस्तिदः भक्तों को स्वस्ति अर्थात मंगल देते हैं, जो कल्याण रूप हैं
स्वस्तिकृत् जो स्वस्ति ( मंगल )ही करते हैं
स्वस्ति जो परमानन्दस्वरूप हैं
स्वस्तिभुक् जो स्वस्ति भोगते हैं और भक्तों की स्वस्ति की रक्षा करते हैं, जो सहृदजनो के पालनकर्ता हैं
स्वस्तिदक्षिणः जो स्वस्ति करने में समर्थ हैं, जो शीघ्र कल्याण करने वाले हैं

अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ॥ ९७ ॥

अरौद्रः कर्म, राग और कोप जिनमे ये तीनों रौद्र नहीं हैं, जो अरौद्र रूप हैं
कुण्डली सूर्यमण्डल के समान कुण्डल धारण किये हुए हैं, जो कुंडली के धारण करता हैं
चक्री सम्पूर्ण लोकों की रक्षा के लिए मनस्तत्त्वरूप सुदर्शन चक्र धारण किया है
विक्रमी जिनका डग तथा शूरवीरता समस्त पुरुषों से विलक्षण है, जो पराक्रमी हैं
ऊर्जितशासनः जिनका श्रुति-स्मृतिस्वरूप शासन अत्यंत उत्कृष्ट है
शब्दातिगः जो शब्द से कहे नहीं कहे जा सकते
शब्दसहः समस्त वेद तात्पर्यरूप से जिनका वर्णन करते हैं
शिशिरः जो तापत्रय से तपे हुओं के लिए विश्राम का स्थान हैं, सृष्टि के सन्तापनाशक हैं
शर्वरीकरः ज्ञानी-अज्ञानी दोनों की शर्वरीयों (रात्रि) के करने वाले हैं, मुक्ति और भोग पदार्थो के प्रदाता हैं

अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणांवरः ।
विद्धत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥ ९८ ॥

अक्रूरः जिनमे क्रूरता नहीं है, जो सहज प्रकृति के हैं
पेशलः जो कर्म, मन, वाणी और शरीर से सुन्दर हैं
दक्षः बढ़ा-चढ़ा,शक्तिमान तथा शीघ्र कार्य करने वाला ये तीनों दक्ष जिनमे है, जो कार्य करने में कुशल हैं
दक्षिणः जो सहृदय हैं
क्षमिणांवरः जो क्षमा करने वाले योगियों आदि में श्रेष्ठ हैं, क्षमावानों में जो श्रेष्ठ हैं
विद्वत्तमः जिन्हे सब प्रकार का ज्ञान है और किसी को नहीं है , विद्वानों में जो श्रेष्ठ हैं
वीतभयः जिनका संसारिकरूप भय बीत(निवृत्त हो) गया है, जो भय रहित हैं
पुण्यश्रवणकीर्तनः जिनका श्रवण और कीर्तन पुण्यकारक है,जो नाम सुमिरन और गुणगान से पुण्य वृद्धि करने वाले हैं

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ॥ ९९ ॥

उत्तारणः संसार सागर से पार उतारने वाले हैं, जो मुक्तिदाता हैं
दुष्कृतिहा पापनाम की दुष्क्रितयों का हनन करने वाले हैं, जो दुष्टों का विनाश करने वाले हैं
पुण्यः अपनी स्मृतिरूप वाणी से सबको पुण्य का उपदेश देने वाले हैं
दुःस्वप्ननाशनः दुःस्वप्नों को नष्ट करने वाले हैं
वीरहा संसारियों को मुक्ति देकर उनकी गतियों का हनन करने वाले हैं
रक्षणः तीनों लोकों की रक्षा करने वाले हैं, जो भक्तों के रक्षक हैं
सन्तः सन्मार्ग पर चलने वाले संतरूप हैं
जीवनः प्राणरूप से समस्त प्रजा को जीवित रखने वाले हैं, जो जीवन दाता हैं
पर्यवस्थितः विश्व को सब ओर से व्याप्त करके स्थित है, जो सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त हैं

अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।
चतुरश्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ॥ १०० ॥

अनन्तरूपः जिनके रूप अनंत हैं, जो अनेक रूपों से सृष्टि में व्याप्त हैं
अनन्तश्रीः जिनकी श्री अपरिमित है , जो अपार संपत्ति से युक्त हैं
जितमन्युः जिन्होंने मन्यु (मन) को वशीभूत कर क्रोध आदि को जीता है
भयापहः पुरुषों का संस्कारजन्य भय नष्ट करने वाले हैं, भय को नष्ट करने वाले
चतुरश्रः न्याययुक्त , जो कर्मानुसार फल प्रदान करते हैं
गभीरात्मा जिनका मन गंभीर है , जो गंभीर स्वभाव वाले हैं
विदिशः जो विविध प्रकार के फल देते हैं, जो प्रिय भक्तों को फल प्रदान करते हैं
व्यादिशः इन्द्रादि को विविध प्रकार की आज्ञा देने वाले हैं
दिशः सबको उनके कर्मों का फल देने वाले हैं

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः ।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ॥ १०१ ॥

अनादिः जिनका कोई आदि नहीं है
भूर्भूवः भूमि के भी आधार है
लक्ष्मीः पृथ्वी की लक्ष्मी अर्थात शोभा हैं
सुवीरः जो विविध प्रकार से सुन्दर स्फुरण करते हैं, जो श्रेष्ठ वीर हैं
रुचिरांगदः जिनकी अंगद(भुजबन्द) कल्याणस्वरूप हैं, सुन्दर बाजूबंद आदि के धारण करता
जननः जीवों को उत्पन्न करने वाले हैं
जनजन्मादिः जन्म लेनेवाले जीवों की उत्पत्ति के आदि कारण हैं
भीमः भय के कारण स्वरुप हैं, जो भीम रूप हैं
भीमपराक्रमः जिनका पराक्रम असुरों के भय का कारण होता है, जो भीषण पराक्रमी हैं

आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ॥ १०२ ॥

आधारनिलयः जो पंचभूतों (पृथ्वी,आकाश,वायु,जल,अग्नि) के भी आधार हैं
अधाता जिनका कोई धाता(बनाने वाला) नहीं है, कोई आधार नहीं हैं
पुष्पहासः पुष्पों के हास (खिलने)के समान जिनका प्रपंचरूप से विकास होता है
प्रजागरः प्रकर्षरूप से जागने वाले हैं, जो सब विषयों के ज्ञाता हैं
ऊर्ध्वगः सबसे ऊपर हैं, जो वैकुण्ठ धाम में गमन करने वाले हैं
सत्पथाचारः जो स्वयं भी सत्य मार्ग या सत्पथ का अनुसरण करते हैं
प्राणदः जो मरे हुओं को जीवित कर सकते हैं, जो प्राण दाता हैं
प्रणवः जिनके वाचक ॐ कार का नाम प्रणव है, जो प्रणव स्वरुप हैं
पणः जो व्यवहार करने वाले हैं, जो भक्तों से व्यवहारशील हैं

प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः ।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ॥ १०३ ॥

प्रमाणम् जो स्वयं प्रमाणरूप हैं, जो साक्षीरूप हैं
प्राणनिलयः जिनमे प्राण अर्थात इन्द्रियां लीन होती है, जो जीवमात्र के प्राण रूप हैं
प्राणभृत् जो अन्नरूप से प्राणों का पोषण करते हैं, जगत के जीवों की प्राण रक्षा करते हैं
प्राणजीवनः प्राण नामक वायु से प्राणियों को जीवित रखते हैं , जो जीवो के जीवनधार हैं
तत्त्वम् तथ्य, अमृत, सत्य ये सब शब्द जिनके वाचक हैं , जो तत्त्व रूप हैं
तत्त्वविद् तत्व ( आत्म तत्त्व ) अर्थात स्वरुप को यथावत जानने वाले हैं
एकात्मा जो एक आत्मा हैं
जन्ममृत्युजरातिगः जो न जन्म लेते हैं न मरते हैं, जो जन्म , मृत्यु , ज़रा आदि विकारों से परे हैं

भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ॥ १०४ ॥

भूर्भुवःस्वस्तरुः भू,भुवः और स्वः जिनका सार है उनका होमादि करके प्रजा तरती है
तारः संसार सागर से तारने वाले हैं, जो भक्तों के उद्धार कर्ता हैं
सविताः सम्पूर्ण लोक के उत्पन्न करने वाले हैं, जो जीवों के पिता स्वरुप हैं
प्रपितामहः पितामह ब्रह्मा के भी पिता है
यज्ञः यज्ञरूप हैं
यज्ञपतिः यज्ञों के स्वामी हैं
यज्वा जो यजमान रूप से स्थित हैं, जो यज्ञकर्ता हैं
यज्ञांगः यज्ञ जिनके अंग हैं
यज्ञवाहनः फल हेतु यज्ञों का वहन करने वाले हैं, जो यज्ञों के फलदाता हैं

यज्ञभृद् यज्ञकृद् यज्ञी यज्ञभुग् यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृद् यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ॥ १०५ ॥

यज्ञभृद् यज्ञ को धारण कर उसकी रक्षा करने वाले हैं
यज्ञकृत् जगत के आरम्भ और अंत में यज्ञ करते हैं
यज्ञी अपने आराधनात्मक यज्ञों के शेषी हैं, यज्ञ कर्ताओं में जो मुख्य हैं
यज्ञभुक् यज्ञ को भोगने वाले हैं
यज्ञसाधनः यज्ञ जिनकी प्राप्ति का साधन है
यज्ञान्तकृत् यज्ञ के फल की प्राप्ति कराने वाले हैं
यज्ञगुह्यम् यज्ञ द्वारा प्राप्त होने वाले, यज्ञ में जिन्हें फलरूप से विद्वान ही जान पाते हैं
अन्नम् जो अनन्तस्वरूप हैं
अन्नादः अन्न को खाने वाले हैं, जो अन्न प्रदान कर्ता हैं

आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ॥ १०६ ॥

आत्मयोनिः आत्मा ही योनि है इसलिए वे आत्मयोनि है, जो आत्मरूप से सृष्टि के कारण रूप हैं
स्वयंजातः निमित्त कारण भी वही हैं
वैखानः जिन्होंने वराह रूप धारण करके पृथ्वी को खोदा था
सामगायनः सामगान करने वाले है, जो सामवेद के गायक हैं
देवकीनन्दनः देवकी के पुत्र
स्रष्टा सम्पूर्ण लोकों के रचयिता हैं
क्षितीशः क्षिति अर्थात पृथ्वी के ईश (स्वामी) हैं
पापनाशनः पापों का नाश करने वाले हैं

शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ॥ १०७ ॥

शंखभृत् जिन्होंने पांचजन्य नामक शंख धारण किया हुआ है
नन्दकी जो नन्दक नामक तलवार धारण करते हैं
चक्री जिनकी आज्ञा से संसारचक्र चल रहा है
शार्ङ्गधन्वा जिन्होंने शारंग नामक धनुष धारण किया है
गदाधरः जिन्होंने कौमोदकी नामक गदा धारण किया हुआ है
रथांगपाणिः जिनके हाथ में रथांग अर्थात चक्र है
अक्षोभ्यः जिन्हे क्षोभित नहीं किया जा सकता
सर्वप्रहरणायुधः जो सभी आयुधों के धारण कर्ता हैं

हरि:ॐ तत्सत्।।

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