Thursday, September 23, 2021

tarpan vidhi (प्राकृत देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणम्)

 तर्पण विधि 

tarpan vidhi

(प्राकृत देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणम्)

पितृ पक्ष का महत्व



शास्त्र मान्यता के अनुसार हमारे पूर्वज अपनी देह का त्याग कर देते है, उनकी आत्मा की शांति के लिए पितृ पक्ष में तर्पण किया जाता है, इस क्रिया को श्राद्ध भी कहा जाता है, श्राद्ध का अर्थ होता है, श्रद्धा पूर्वक, माना जाता है कि पितृ पक्ष यानि श्राद्ध के दिनों में मृत्युलोक के देवता यमराज पूर्वजों की आत्मा को मुक्त देते हैं, ताकि वे अपने परिजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें, ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पितृ पक्ष में पितरों का तर्पण करने से पितृ दोष दूर होता है, जिस व्यक्ति की जन्म कुंडली में पितृ दोष होता है उसे जीवन में परेशानियों का सामना करना पड़ता है, यश अर्थात् मान सम्मान प्राप्त नहीं होता है, धन संग्रह नही हो पाता है, रोग और बाधाएं निरन्तर बने रहते हैं, इसलिए पितृ पक्ष में पितरों का तर्पण करने से पितृ दोष दूर होता है और परेशानियों से मुक्ति मिलती है,इससे पितर प्रसन्न होकर धन-धान्य, और सुख शांति का आशीर्वाद देते हैं। पितृ पक्ष में पितृगायत्री, त्रिपिंडी श्राद्ध,नारायणबलि, पित्रदोष शान्ति पूजा-दान यह कार्य शुभ रहते है।

देव, ऋषि और पितृ सम्पूर्ण तर्पण विधि:-

पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारंबार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।

सबसे पहले जानते हैं क्या है तर्पण?

पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को यव तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं।

तर्पण के प्रकार:-

देवतर्पण
ऋषितर्पण
दिव्य पितृ तर्पण
यमतर्पण
मनुष्य पितृ तर्पण

तर्पण विधि:-

सर्वप्रथम पूर्व दिशा की और मुँह कर,दाहिना घुटना जमीन पर लगाकर,सव्य होकर(जनेऊ व अंगोछे को बांया कंधे पर रखें) गायत्री मंत्र से शिखा बांध कर, तिलक लगाकर, दोनों हाथ की अनामिका अँगुली में कुशों का  पवित्री (पैंती) धारण करें । फिर हाथ में त्रिकुशा ,जौ, अक्षत और जल लेकर संकल्प पढें—

ॐ विष्णवे नम: ३। हरि: ॐ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्न: अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्त:) अहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्पिमनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये ।

तीन कुश ग्रहण कर निम्न मंत्र को तीन बार कहें-

ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमोनमः।

तदनन्तर एक ताम्र(तांबे) अथवा चाँदी के पात्र में श्वेत चन्दन, जौ, तिल, चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस पात्र में तर्पण के लिये गंगाजल/जल भर दें । फिर त्रिकुशा को सम्पुटाकार दायें हाथ में लेकर बायें हाथ से उसे ढक लें और  देवताओं का आवाहन करें ।

आवाहन मंत्र : ॐ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता म ऽइम, हवम् । एदं वर्हिनिषीदत ॥

"आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबला:।
ये तर्पणे¿त्र विहिता: सावधाना भवन्तु ते।।"

‘हे विश्वेदेवगण  ! आप लोग यहाँ पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किये हुए इस आवाहन को सुनें और इस कुश के आसन पर विराजे ।

इस प्रकार आवाहन कर कुश का आसन दें और त्रिकुशा द्वारा दायें हाथ की समस्त अङ्गुलियों के अग्रभाग अर्थात् देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिये पूर्वोक्त पात्र में से एक-एक अञ्जलि चावल-मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्र में गिरावें और निम्नाङ्कित रूप से उन-उन देवताओं के नाममन्त्र पढते रहें—

देवतर्पण:-

ॐ ब्रह्मास्तृप्यताम् ।
ॐ विष्णुस्तृप्यताम् ।
ॐ रुद्रस्तृप्यताम् ।
ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् ।
ॐ देवास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् ।
ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ संवत्सर: सावयवस्तृप्यताम् ।
ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ नागास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् ।
ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ भूतादितृप्यन्ताम् ।
ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ औषधयस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् ।

मरिच्यादि दश ऋषितर्पण:-

इसी प्रकार निम्नाङ्कित मन्त्रवाक्यों से मरीचि आदि ऋषियों को भी एक-एक अञ्जलि जल दें—

1-ॐ मरीचिस्तृप्यताम् ।
2-ॐ अत्रिस्तृप्यताम् ।
3-ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम् ।
4-ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् ।
5-ॐ पुलहस्तृप्यताम् ।
6-ॐ क्रतुस्तृप्यताम् ।
7-ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् ।
8-ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् ।
9-ॐ भृगुस्तृप्यताम् ।
10-ॐ नारदस्तृप्यताम् ॥

सप्त दिव्य मनुष्यतर्पण:-

उत्तर दिशा की ओर मुँह कर, जनेऊ व गमछे को माला की भाँति गले में धारण कर, सीधा बैठ कर  निम्नाङ्कित मन्त्रों को दो-दो बार पढते हुए दिव्य मनुष्यों के लिये प्रत्येक को दो-दो अञ्जलि जौ(यव) सहित जल प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिका के मूलभाग) से अर्पण करें—

ॐ सनकस्तृप्यताम् -2
ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् – 2
ॐ सनातनस्तृप्यताम् -2
ॐ कपिलस्तृप्यताम् -2
ॐ आसुरिस्तृप्यताम् -2
ॐ वोढुस्तृप्यताम् -2
ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् -2

सप्त दिव्य पितृ तर्पण:-

अब दोनों हाथ की तर्जनी अंगुली में मोटक के कुशा के मूल और अग्रभाग को दक्षिण की ओर करके  अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे, स्वयं दक्षिण की ओर मुँह करे, बायें घुटने को जमीन पर लगाकर अपसव्यभाव से (जनेऊ को दायें कंधेपर रखकर बाँये हाथ से नीचे ले जायें ) पात्रस्थ जल में काला तिल मिलाकर पितृतीर्थ से (अंगुठा और तर्जनी के मध्यभाग से ) दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्कित मन्त्र-वाक्यों को पढते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें—

1-ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् – 3

2-ॐ सोमस्तृप्यताम् – 3

3-ॐ यमस्तृप्यताम् – 3

4-ॐ अर्यमा तृप्यताम् – 3

5-ॐ अग्निष्वात्ता: पितरस्तृप्यन्ताम् – 3

6-ॐ सोमपा: पितरस्तृप्यन्ताम् – 3

7-ॐ बर्हिषद: पितरस्तृप्यन्ताम् – 3

चतुर्दश यम तर्पण:-

इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्रो को पढते हुए चौदह यमों के लिये भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल सहित जल दें—

1-ॐ यमाय नम: – 3
2-ॐ धर्मराजाय नम: – 3
3-ॐ मृत्यवे नम: – 3
4-ॐ अन्तकाय नम: – 3
5-ॐ वैवस्वताय नमः – 3
6-ॐ कालाय नम: – 3
7-ॐ सर्वभूतक्षयाय नम: – 3
8-ॐ औदुम्बराय नम: – 3
9-ॐ दध्नाय नम: – 3
10-ॐ नीलाय नम: – 3
11-ॐ परमेष्ठिने नम: – 3
12-ॐ वृकोदराय नम: – 3
13-ॐ चित्राय नम: – 3
14-ॐ चित्रगुप्ताय नम: – 3

(जीवतपितृक एतावदेव तर्पणं कुर्यात् मृतपितृकस्तु)

मनुष्यपितृतर्पण:-

इसके पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्र से पितरों का आवाहन करें—

ॐ आगच्छन्तु मे पितरं एवं ग्रहणन्तु जलान्जलिम्।।
ॐ हे पितरों! पधारिये तथा जलांजलि ग्रहण कीजिए।।

तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें—

अमुक गोत्र: अस्मत्पिता अमुकशर्मा  वसुरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अमुक गोत्र: अस्मत्पितामह: (दादा) अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अमुक गोत्र: अस्मत्प्रपितामह: (परदादा) अमुकशर्मा आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अमुक गोत्रा अस्मन्माता अमुकी देवी गायत्री स्वरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3

अमुक गोत्रा अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी  सावित्री स्वरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3

अमुक गोत्रा अस्मत्प्रपितामही (परदादी) अमुकी देवी सरस्वती स्वरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: – 3

इसके बाद नौ बार पितृतीर्थ से जल छोड़े।

पुनः

अमुक गोत्र: अस्मन्मातामह:(नाना)अमुकशर्मा  अग्निस्वरूप:सपत्नीकस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अमुक गोत्र: अस्मत्प्रमातामह: (परनाना)) अमुकशर्मा विष्णुस्वरूप:सपत्नीकस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अमुक गोत्र: अस्मत्वृद्धप्रमातामह: (वृद्धपरनाना) अमुकशर्मा वरुण स्वरूप:सपत्नीकस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

(ततः स्त्री, पुत्र,कन्या, भ्रातृ, पितृव्य,आचार्य:,गुरु,शिष्य,मातुल:, श्वसुर:,मित्रादिभ्य: एकैकांजलिं दद्यात्।।)

अञ्जलि दानम्:-

इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढते हुए जल गिरावे—

देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसा: । 
पिशाचा गुह्यका: सिद्धा: कूष्माण्डास्तरव: खगा: ॥

जलेचरा भूमिचराः वाय्वाधाराश्च जन्तव: ।
प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला: ॥

नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिता: । तेषामाप्ययनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥

येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा: ।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु ये चास्मत्तोयकाङ्क्षिण: ॥

अर्थ : ‘देवता, असुर , यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्मक, सिद्ध, कूष्माण्ड, वृक्षवर्ग, पक्षी, जलचर जीव और वायु के आधार पर रहनेवाले जन्तु-ये सभी मेरे दिये हुए जल से शीघ्र तृप्त हों । जो समस्त नरकों तथा वहाँ की यातनाओं में पङ हुए दुख भोग रहे हैं, उनको पुष्ट तथा शान्त करने की इच्छा से मैं यह जल देता हूँ । जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में बान्धव रहे हों, अथवा किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सब तथा इनके अतिरिक्त भी जो मुझसे जल पाने की इच्छा रखते हों, वे भी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हों ।’

ॐ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवषिंपितृमानवा: ।
तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय: ॥

अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् ।
आ ब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम् ॥

येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा:।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मया दत्तेन वारिणा ॥

अर्थ : ‘ब्रह्माजी  से लेकर कीटों तक जितने जीव हैं, वे तथा देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और माता, नाना आदि पितृगण-ये सभी तृप्त हों मेरे कुल की बीती हुई करोडों पीढियों में उत्पन्न हुए जो-जो पितर ब्रह्मलोकपर्यम्त सात द्वीपों के भीतर कहीं भी निवास करते हों, उनकी तृप्ति के लिये मेरा दिया हुआ यह तिलमिश्रित जल उन्हें प्राप्त हो जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में या किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सभी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हो जायँ ।

वस्त्र-निष्पीडनकरे:-

तत्पश्चात् वस्त्र को चार आवृत्ति लपेटकर जल में डुबावे और बाहर ले आकर निम्नाङ्कित मन्त्र :
“ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृतारू । ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम् ”

को पढते हुए अपसव्य होकर अपने बाएँ भाग में भूमिपर उस वस्त्र को निचोड़े ।
(मान्यता है कि यदि घर में किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध आदि कर्म हो तो उस दिन वस्त्र-निष्पीडन नहीं करना चाहिये ।)

दर्भ त्याग:-
पवित्रक को तर्पण किये हुए जल मे छोड दे ।

ॐ एषां पिता न च भ्राता न पुत्रो नान्यगोत्रिणः।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मयोत्सृष्टै: कुशै:सदा।।।

भीष्मतर्पण:-

इसके बाद सव्य हो  करके निम्न मन्त्र पढ़ते हुए बालब्रह्मचारी भक्तप्रवर भीष्म के लिये जलांजलि अर्पण करे:-

“वैयाघ्रपदगोत्राय  सांकृत्य प्रवराय च ।
अपुत्राय ददाम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे ॥”

अर्घ्य दान:-

फिर एक पात्र में शुद्ध जल भरकर उसमे श्वेत चन्दन, अक्षत, पुष्प तथा तुलसीदल छोड दे । फिर दूसरे पात्र में चन्दन् से षडदल-कमल बनाकर उसमें पूर्वादि दिशा के क्रम से ब्रह्मादि देवताओं का आवाहन-पूजन करे तथा पहले पात्र के जल से उन पूजित देवताओं के लिये अर्ध्य अर्पण करे यथा:-

ॐ ब्रह्मणे नम:। ब्रह्माणं पूजयामि ॥

ॐ विष्णवे नम: । विष्णुं पूजयामि ॥

ॐ रुद्राय नम: । रुद्रं पूजयामि ॥

ॐ सवित्रे नम: । सवितारं पूजयामि ॥

ॐ मित्राय नम:। मित्रं पूजयामि ॥

ॐ वरुणाय नम: । वरूणं पूजयामि ॥

फिर भगवान सूर्य को अघ्र्य दें:-

"ॐ एहि सूर्य सहस्त्राशों तेजो राशि जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्य दिवाकरः।।"

हाथों को उपर कर उपस्थान मंत्र पढ़ें –

ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरूणस्याग्नेः। आप्राद्यावा पृथ्वी अन्तरिक्ष¢ सूर्यआत्माजगतस्तस्थुषश्च।।

नामस्कारः-
फिर परिक्रमा करते हुए दशों दिशाओं को नमस्कार करें।

ॐ प्राच्यै इन्द्राय नमः। ॐ आग्नेय्यै अग्नये नमः। ॐ दक्षिणायै यमाय नमः। ॐ नैऋत्यै निऋतये नमः। ॐ पश्चिमायै वरूणाय नमः। ॐ वायव्यै वायवे नमः। ॐ उदीच्यै कुवेराय नमः। ॐ ऐशान्यै ईशानाय नमः। ॐ ऊर्ध्वायै ब्रह्मणै नमः। ॐ अवाच्यै अनन्ताय नमः।

इस तरह दिशाओं और देवताओं को नमस्कार कर बैठकर नीचे लिखे मन्त्र से पुनः देवतीर्थ से तर्पण करें।

ॐ ब्रह्मणै नमः। ॐ अग्नयै नमः। ॐ पृथिव्यै नमः। ॐ औषधिभ्यो नमः। ॐ वाचे नमः। ॐ वाचस्पतये नमः। ॐ महद्भ्यो नमः। ॐ विष्णवे नमः। ॐ अद्भ्यो नमः। ॐ अपांपतये नमः। ॐ वरूणाय नमः।

मुखविमार्जनम्:-

फिर तर्पण के जल को मुख पर लगायें और तीन बार ॐ अच्युताय नमः मंत्र का जप करें।

विसर्जनम्:-
इस मन्त्र को पढ़कर विसर्जन करें-
"ॐ देवागातु विदोगातुंव्वित्वागातुमितं।
मनसस्पत इमं देवयज्ञ¢स्वाहा व्वातेधा:।।

समर्पणम्:-
उपरोक्त समस्त तर्पण कर्म भगवान को समर्पित करें।
ॐ कृतेनानेन तर्पणाख्येन कर्मणः पितृस्वरूपी जनार्दन वासुदेव:प्रीयताम्।।

ततः करसम्पुटं कृत्वा:-
ॐ यस्य स्मृत्या च नमोक्त्या तपोयज्ञ क्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।

ॐ विष्णवे नमः।ॐ विष्णवे नमः।ॐ विष्णवे नमः।।

नोट- यदि नदी में तर्पण किया जाय तो दोनों हाथों को मिलाकर जल से भरकर गौ माता की सींग जितना ऊँचा उठाकर जल में ही अंजलि डाल दे।प्रदक्षिणा करें।(ततः तीर्थं नमस्कृत्य तीरं प्रक्षाल्य प्रदक्षिणं कृत्वा गृहमागत्य)।

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