Monday, July 5, 2021

श्रीसूक्त साधना Sri Sukta Sadhana

 श्रीसूक्त साधना

(धन की अधिष्ठात्री देवी मां लक्ष्मी जी की कृपा प्राप्ति के लिए एक प्रभावशाली साधना)


धन की अधिष्ठात्री देवी मां लक्ष्मी जी की शीघ्र कृपा प्राप्ति के लिए ऋग्वेद में वर्णित श्रीसूक्त का पाठ एक ऐसा अनुष्ठान है जो कभी व्यर्थ नहीं जाता है माता महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए ही शास्त्रों में नवरात्रि, दीपावली,कोजागरी पूर्णिमा, शुक्रवार या सामान्य दिनों में भी श्रीसूक्त के पाठ का महत्व और विधान बताया गया है।

दरिद्रता और आर्थिंक तंगी से छुटकारा पाने के लिए यह अत्यंत प्रभावशाली माना गया है।

श्री सूक्त का पाठ करते समय ध्यान माता लक्ष्मी के चरणों में होना चाहिए ।


दीपावली पर्व पांच पर्वों का महोत्सव है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी (धनतेरस) से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल द्वितीया (भैयादूज) तक पांच दिन चलने वाला दीपावली पर्व धन एवं समृद्धि प्राप्ति, व्यापार वृद्धि ऋण मुक्ति आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मनाया जाता है। श्रीसूक्त का पाठ धन त्रयोदशी से भैयादूज तक पांच दिन संध्या समय अवश्य किया जाना चाहिए।


गोधूलि वेला में साधक स्वच्छ होकर पूर्वाभिमुख होकर सफेद/पीले आसन पर बैठें। अपने सामने लकड़ी की पटरी पर लाल अथवा पीला कपड़ा बिछाएं। उस पर एक कांसे/फूल की थाली में अष्टगंध अथवा कुमकुम (रोली) से स्वस्तिक चिह्न बनाएं। गुलाब/कमल के पुष्प की पत्तियों से थाली सजाएं/सुसज्जित करें। उस गुलाब की पत्तियों से भरी थाली में मां लक्ष्मी एवं विष्णु भगवान का चित्र अथवा मूर्ति रखें। साथ ही श्रीयंत्र, दक्षिणावर्ती शंख अथवा शालिग्राम में से जो भी वस्तु आपके पास उपलब्ध हो रक्खे।शुद्ध धूप और गौघृत का दीपक जलाएं। खीर अथवा मिश्री और फल/शरीफा, अनार आदि का भोग/नैवेद्य लगाएं।। तत्पश्चात् निम्नलिखित विधि से श्री सूक्त की ऋचाओं का पाठ करें।


आपके जीवन में सदैव मंगल हो इस दृष्टि से जो

ऋग्वेद में बताया गया है कि यदि इन ऋचाओं का पाठ करते हुए शुद्ध गौघृत से होम/हवन भी किया जाए तो इसका फल द्विगुणित हो जाता है।


सर्वप्रथम दाएं हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र से पूजन सामग्री एवं स्वयं पर छिड़कें।


मंत्र- ¬


अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा |

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यान्तरः शुचिः।।


अर्थ- पवित्र हो या अपवित्र अथवा किसी भी अवस्था में हे जो पुंडरीकाक्ष (विष्णु भगवान) का स्मरण करता है वह अंदर और बाहर से पवित्र हो जाता है।


उसके बाद निम्न मंत्रों से तीन बार आचमन करें-


1-श्री महालक्ष्म्यै नमः ऐं आत्मा तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा।


अर्थ- श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन। मैं आत्मा तत्व को शुद्ध करता हूं। 


2-श्री महालक्ष्म्यै नमः ह्रीं विद्या तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा 

अर्थ- श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन। मैं विद्या तत्व को शुद्ध करता हूं। 


3-श्री महालक्ष्म्यै नमः क्लीं शिव तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा 

अर्थ-श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन। मैं शिव तत्व को शुद्ध करता हूं। 


विनियोग करें (दाएं हाथ में जल लें।)


मंत्र:


हिरण्यवर्णामिति पंषदषर्चस्य सूक्तस्य, श्री आनन्द, कर्दमचिक्लीत, इन्दिरासुता महाऋषयः। श्रीरग्निदेवता। आद्यस्तिस्तोनुष्टुभः चतुर्थी वृहती।

पंचमी षष्ठ्यो त्रिष्टुभो, ततो अष्टावनुष्टुभः अन्त्याः प्रस्तारपंक्तिः।

हिरण्यवर्णमिति बीजं, ताम् आवह जातवेद इति शक्तिः,

कीर्ति ऋद्धि ददातु में इति कीलकम्।

श्री महालक्ष्मी प्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। (जल भूमि पर छोड़ दें।)


अर्थ-


इस पंद्रह ऋचाओं वाले श्री सूक्त के कर्दम और चिक्लीत ऋषि हैं अर्थात् प्रथम तंत्र की इंदिरा ऋषि है, आनंद कर्दम और चिक्लीत इंदिरा पुंज है और शेष चैदह मंत्रों के द्रष्टा हैं। प्रथम तीन ऋचाओं का अनुष्टुप, चतुर्थ ऋचा का वहती, पंचम व षष्ठ ऋचा का त्रिष्टुप एवं सातवीं से चैदहवीं ऋचा का अनुष्टुप् छंद है।

पंद्रह व सोलहवीं ऋचा का प्रसार भक्ति छंद है। श्री और अग्नि देवता हैं। ’हिरण्यवर्णा’ प्रथम ऋचा बीज और ’कां सोस्मितां’ चतुर्थ ऋचा शक्ति है।


धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति के लिए विनियोग है।

(हाथ जोड़ कर लक्ष्मीजी एवं विष्णुजी का ध्यान करें।) गुलाबी कमल दल पर बैठी हुई, पराग राशि के समान पीतवर्णा, हाथों में कमल पुष्प धारण किए हुए, मणियों युक्त अलंकारों को धारण किए हुए, समस्त लोकों की जननी माँ श्रीमहालक्ष्मी को हम वंदना करते हैं।


इस सूक्त की ऋचाओं में से १५ ऋचाएँ मूल ‘श्री-सूक्त’ माना जाता है यह सूक्त ऋग्वेद संहिता के अष्टक ४ अध्याय ४ के अन्तिम मण्डल ५ के अन्त में ‘परिशिष्ट’ के रुप में आया है । इसी को ‘खिल-सूक्त’ भी कहते हैं । मूलतः यह ऋग्वेद में आनंदकर्दम ऋषि द्वारा श्री देवता को समर्पित काव्यांश है। निरुक्त एवं शौनक आदि ने भी इसका उल्लेख किया है । इस सूक्त की सोलहवीं ऋचा फलश्रुति स्वरुप है। इसके पश्चात् १७ से २५ वीं ऋचाएँ फल-स्तुति रुप ही हैं, जिन्हें ‘लक्ष्मी-सूक्त’ कहते हैं । सोलहवीं ऋचा के अनुसार श्रीसूक्त की प्रारम्भिक १५ ऋचाएँ कर्म-काण्ड-उपासना के लिए प्रयोज्य है। अतः ये १५ ऋचाएं ही लक्ष्मी-प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के आगम-तन्त्रानुसार साधना में प्रयुक्त होती हैं ।


श्रीसूक्त के मन्त्रों का विषय इस प्रकार है


१-भगवान से लक्ष्मी को अभिमुख करने की प्रार्थना


२-भगवान् से लक्ष्मी को अभिमुख रखने की प्रार्थना


३-लक्ष्मी से सान्निध्य के लिये प्रार्थना


४-लक्ष्मी का आवाहन


५-लक्ष्मी की शरणागति एवं अलक्ष्मीनाश की प्रार्थना


६-अलक्ष्मी और उसके सहचारियों के नाश की प्रार्थना


७-माङ्गल्यप्राप्ति की प्रार्थना


८-अलक्ष्मी और उसके कार्यों का विवरण देकर उसके नाश की प्रार्थना


९-लक्ष्मी का आवाहन


१०-मन, वाणी आदि की अमोघता तथा समृद्धि की स्थिरता के लिये प्रार्थना


११-कर्दम प्रजापति से प्रार्थना


१२-लक्ष्मी के परिकर से प्रार्थना


१३- लक्ष्मी के नित्य सान्निध्य के लिये पुनः भगवान से प्रार्थना


१४-पुनः लक्ष्मी के नित्य सान्निध्य के लिये भगवान से प्रार्थना


१५-भगवान से लक्ष्मी के आभिमुख्य की प्रार्थना


१६-फलश्रुति



परिशिष्ट (लक्ष्मीसूक्त) के मन्त्रों के विषय हैं


१-सौख्य की याचना


२-समस्त कामनाओं की पूर्ति की याचना


३-सान्निध्य की याचना


४-समृद्धि के स्थायित्व के लिये प्रार्थना


५-देवताओं में लक्ष्मी के वैभव का विस्तार


६-सोम की याचना


७-मनोविकारों का निषेध


८-लक्ष्मी की प्रसन्नता के लिये प्रार्थना


९-लक्ष्मी की वन्दना


१०-लक्ष्मीगायत्री


११-अभ्युदय के लिये प्रार्थना



श्रीदेवी के नाम- श्रीसूक्त के १५ मन्त्रों में श्री लक्ष्मी के ये नाम मिलते हैं-


१-हिरण्यवर्णा, हरिणी, सुवर्णरजतस्रजा, चन्द्रा, हिरण्मयी, लक्ष्मी। २-अनपगामिनी। ३-अश्वपूर्वा, रथमध्या, हस्तिनादप्रयोधिनी, श्री, देवी। ४- का, सोस्मिता, हिरण्यप्राकारा, आर्द्रा, ज्वलन्ती, तृप्ता, तर्पयन्ती, पद्मे स्थिता, पद्मवर्णा। ५-प्रभासा, यशसा ज्वलन्ती, देवजुष्टा, उदारा, पद्मनेमि। ६-आदित्यवर्णा । ७-८-९-गन्धद्वारा, दुराधर्षा, नित्यपुष्टा, करीषिणी, ईश्वरी। १०-११-माता, पद्ममालिनी। १२-१३-पुष्करिणी, यष्टि, पिङ्गला, १४-१५-१६-पुष्टि, सुवर्णा, हेममालिनी, सूर्या।


परिशिष्ट के ११ मन्त्रों में ये नाम और मिलते हैं


१-पद्मानना, पद्मोरू, पद्माक्षी, पद्मसम्भवा। २-अश्वदायी, गोदायी, धनदायी, महाधना, ३-पद्मविपद्मपत्रा, पद्मप्रिया, पद्मदलायताक्षी, विश्वप्रिया, विश्वमनोनुकूला ६-७-८-सरसिजनिलया, सरोजहस्ता, धवलतरांशुकगन्धमाल्यशोभा, भगवती, हरिवल्लभा, मनोज्ञा, त्रिभुवनभूतिकारी ९-विष्णुपत्नी, क्षमा, माधवी, माधवप्रिया, प्रियसखी, अच्युत वल्लभा १०- महादेवी, ११-विष्णुपत्नी।


श्रीसूक्तानुष्ठान पद्धति


अनेक आचार्यों ने श्रीसूक्त के नित्य २८, १०८ अथवा १००० पाठ के विधान बतलाये हैं। एक दिन में एक हजार पाठ करने से संकल्प-सिद्धि होती है।


प्रातः-काल स्नान सन्ध्या आदि करके पवित्रता पूर्वक महालक्ष्मी जी की प्रतिमा अथवा चित्र के सामने पूर्व की ओर मुंह करके आचमन, प्राणायाम और संकल्प करे। फिर चित्र में विराजमान महालक्ष्मी का ध्यान करके षोडशोपचार पूजा करे। धूप-दीप करें, खोये की मिठाई का नैवेद्य लगाये। नमस्कार और प्रदक्षिणा समर्पण करे। यह नित्य-पूजा का क्रम है। इसमें आवाहन और विसर्जन की आवश्यकता नहीं है। नित्य पूजा में ‘ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै नमः’ इस मन्त्र से पूजा करें। तदनन्तर संकल्प से अनुसार श्रीसूक्त की आवृति करें। श्रीसूक्त वेदोक्त है। अतः इसे शुद्ध पाठ के रुप में अभ्यास कर लेना चाहिए।


पुरश्चरण विधानः- श्रीसूक्त के पाठ विधान में मुख्यतः एक-एक ऋचा का जप अथवा पूरे सूक्त के पाठों का जप होता है। किसी भी मन्त्र की सिद्धि के लिए पहले मन्त्र का पुरश्चरण अवश्य करना चाहिए। श्रीसूक्त के बारह हजार पाठ का पुरश्चरण सर्वोत्तम माना गया है।



॥ श्रीसूक्त (ऋग्वेद) ॥


ॐ ॥ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् । चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥ १॥ तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥ २॥ अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् । श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मादेवीर्जुषताम् ॥ ३॥ कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् । पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥ ४॥ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् । तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥ ५॥ आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः । तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥ ६॥ उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह । प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥ ७॥ क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् । अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात् ॥ ८॥ गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् । ईश्वरीꣳ सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥ ९॥ मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि । पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥ १०॥ कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम । श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥ ११॥ आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे । नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥ १२॥ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम् । चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥ १३॥ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् । सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥ १४॥ तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान्विन्देयं पुरुषानहम् ॥ १५॥ यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्य मन्वहम् । श्रियः पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥ १६॥


फलश्रुति


पद्मानने पद्म ऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे ।

 त्वं मां भजस्व पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम् ॥ 

अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने । 

धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे ॥ पुत्रपौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम् । प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु माम् ॥ धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः ।

 धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमश्नु ते ॥

 वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा ।

 सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः ॥

 न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः ॥ भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्सदा ॥ 

वर्षन्तु ते विभावरि दिवो अभ्रस्य विद्युतः । रोहन्तु सर्वबीजान्यव ब्रह्म द्विषो जहि ॥

 पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि ।

 विश्वप्रिये विष्णु मनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व ॥

 या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी ।

 गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनभर नमिता शुभ्र वस्त्रोत्तरीया । 

लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रैर्मणिगण खचितैस्स्नापिता हेमकुम्भैः । 

नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमाङ्गल्ययुक्ता ॥ 

लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीम् । दासीभूतसमस्त देव वनितां लोकैक दीपाङ्कुराम् ।

 श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध विभव ब्रह्मेन्द्रगङ्गाधरां । त्वां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम् ॥ सिद्धलक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीर्जयलक्ष्मीस्सरस्वती । श्रीलक्ष्मीर्वरलक्ष्मीश्च प्रसन्ना मम सर्वदा ॥ वराङ्कुशौ पाशमभीतिमुद्रां करैर्वहन्तीं कमलासनस्थाम् । 

बालार्क कोटि प्रतिभां त्रिणेत्रां भजेहमाद्यां जगदीश्वरीं ताम् ॥

 सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्धमाल्यशोभे ।

 भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरिप्रसीद मह्यम् ॥

 विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम् । विष्णोः प्रियसखींम् देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम् ॥ महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमही । तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥ (आनन्दः कर्दमः श्रीदश्चिक्लीत इति विश्रुताः । ऋषयः श्रियः पुत्राश्च श्रीर्देवीर्देवता मताः (स्वयम् श्रीरेव देवता ॥ )

(चन्द्रभां लक्ष्मीमीशानाम् सुर्यभां श्रियमीश्वरीम् । चन्द्र सूर्यग्नि सर्वाभाम् श्रीमहालक्ष्मीमुपास्महे ॥ श्रीवर्चस्यमायुष्यमारोग्यमाविधात् पवमानं महीयते । धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ॥ ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः । भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥ श्रिये जात श्रिय आनिर्याय श्रियं वयो जनितृभ्यो दधातु । श्रियं वसाना अमृतत्वमायन् भजन्ति सद्यः सविता विदध्यून् ॥ श्रिय एवैनं तच्छ्रियामादधाति । सन्ततमृचा वषट्‍कृत्यं सन्धत्तं सन्धीयते प्रजया पशुभिः । य एवं वेद । ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि । तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥ ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

(साभार- विकिपीडिया व अन्य)

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