Friday, June 16, 2017

आपका लकी मोबाइल नंबर कैसे जानें how to know Your lucky mobile number

अपनी राशि के अनुसार चुने अपना मोबाइल नम्बर

अंक ज्‍योतिष  में अंको का विशेष महत्‍व होता है। चाहे वह आपके जन्‍म की तारीख हो या फिर आपके जन्म का समय। इसी तरह से आपका मोबाइल नंबर भी अंको पर ही आधारित होता है।
अब सबसे पहले आप अपने दस नंबर के मोबाइल नंबर को जांच लीजिए। मान लीजिए आपका फोन नंबर 955455**** है। अब हम आपको बता रहे हैं कि आप कैसे जाने ये नंबर आपके लिए सही है या नहीं।
सबसे पहले इस मोबाइल नंबर के सभी अंको को आपस में जोड़ लीजिए। उसके बाद जो योग प्राप्‍त हो उसे तब तक आपस में जोड़ते रहिए जब तक आपको कोई इकाई का नंबर नहीं मिल जाता। दरअसल यही इकाई का नंबर ही आपकी राशि के मुताबिक आपका लकी नंबर है।
955455**** = 9+5+5+4+5+5+*+*+*+* = अब मान लीजिए इसका योग आपको 47 मिला
47 = 4+7 = 11
अब हमें मिला 11, इसे फिर से आपस में जोड़ देंगे।
11 = 1+1 = 2
इस तरह से आपका लकी नंबर 2 आपको मिल गया। अब अंक ज्‍योतिष के मुताबिक हम आपको बता रहे हैं कि आपके मोबाइल नंबर का योग कितना आना चाहिए। अगर आपकी राशि के मुताबिक ही आपके मोबाइल नंबर का योग आपको मिल जाता है तो वह नंबर आपके लिए सही है अन्‍यथा आपको नंबर बदलने की जरूरत है।

मेष – इस राशि के जातकों के लिए 4 और 7 नंबर शुभ बताया गया है।
वृषभ – इस राशि के जातकों के लिए 5 और 8 नंबर शुभ माना जाता है।
मिथुन – इस राशि के जातकों के लिए 6 और 9 नंबर शुभ बताया गया है।
कर्क – इस राशि के जातकों के लिए 8 और 9 नंबर शुभ बताया गया है।
सिंह – इस राशि के जातकों के लिए 2 और 4 नंबर शुभ बताया गया है।
कन्या – इस राशि के जातकों के लिए 5 और 8 नंबर शुभ बताया गया है।
तुला – इस राशि के जातकों के लिए 1 और 7 नंबर शुभ बताया गया है।
वृश्चिक – इस राशि के जातकों के लिए 4 और 5 नंबर शुभ बताया गया है।
धनु – इस राशि के जातकों के लिए 9 और 8 नंबर शुभ बताया गया है।
मकर – इस राशि के जातकों के लिए 4 और 9 नंबर शुभ बताया गया है।
कुंभ – इस राशि के जातकों के लिए 2 और 7 नंबर शुभ बताया गया है।
मीन – इस राशि के जातकों के लिए 6 और 8 नंबर शुभ बताया गया है।

Wednesday, June 14, 2017

गणपति के मंगलकारी स्वरूप ganapati ke mangalakaaree svaroop

भगवान श्री गणेश के 32 मंगलकारी स्वरूप

1-श्री बाल गणपति – छ: भुजाओ और लाल रंग का शरीर ।
2-श्री तरुण गणपति – आठ भुजाओं वाला रक्तवर्ण शरीर ।
3-श्री भक्त गणपति – चार भुजाओं वाला सफेद रंग का शरीर।
4-श्री वीर गणपति – दस भुजाओं वाला रक्तवर्ण शरीर।
5-श्री शक्ति गणपति– चार भुजाओं वाला सिंदूरी रंग का शरीर।
6-श्री द्विज गणपति– चार भुजाधारी शुभ्रवर्ण शरीर।
7-श्री सिद्धि गणपति–  छ: भुजाधारी पिंगल वर्ण शरीर।
8-श्री विघ्न गणपति– दस भुजाधारी सुनहरी शरीर।
9-श्री उच्चिष्ठ गणपति– चार भुजाधारी नीले रंग का शरीर।
10-श्री हेरम्ब गणपति– आठ भुजाधारी गौर वर्ण शरीर।
11-श्री उद्ध गणपति– छ: भुजाधारी कनक यानि सोने के रंग का शरीर।
12-श्री क्षिप्र गणपति– छ: भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर।
13-श्री लक्ष्मी गणपति– आठ भुजाधारी गौर वर्ण शरीर।
14-श्री विजय गणपति– चार भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर।
15-श्री महागणपति– आठ भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर।
16-श्री नृत्य गणपति – छ: भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर।
17-श्री एकाक्षर गणपति– चार भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर।
18-श्री हरिद्रा गणपति – छ: भुजाधारी पीले रंग का शरीर।
19-श्री त्र्यैक्ष गणपति– सुनहरे शरीर, तीन नेत्रो वाले चार भुजाधारी।
20-श्री वर गणपति – छ: भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर।
21-श्री ढुण्डि गणपति– चार भुजाधारी रक्तवर्णी शरीर।
22-श्री क्षिप्र प्रसाद गणपति– छ: भुजाधारी रक्ववर्णी, त्रिनेत्र धारी ।
23-श्री ऋण मोचन गणपति– चार भुजाधारी लालवस्त्र धारी ।
24-श्री एकदन्त गणपत– छ: भुजाधारी श्याम वर्ण शरीरधारी ।
25-श्री सृष्टि गणपति– चार भुजाधारी, मूषक पर सवार रक्तवर्णी शरीरधारी ।
26-श्री द्विमुख गणपति– पीले वर्ण के चार भुजाधारी और दो मुख वाले ।
27-श्री उद्दण्ड गणपति– बारह भुजाधारी रक्तवर्णी शरीर वाले, हाथ मे कुमुदनी और अमृत का पात्र होता है।
28-श्री दुर्गा गणपति– आठ भुजाधारी रक्तवर्णी और लाल वस्त्र पहने हुए।
29-श्री त्रिमुख गणपति – तीन मुख वाले, छ: भुजाधारी, रक्तवर्ण शरीरधारी ।
30-श्री योग गणपति– योगमुद्रा में विराजित, नीले वस्त्र पहने, चार भुजाधारी ।
31-श्री सिंह गणपति–  श्वेत वर्णी आठ भुजाधारी, सिंह के मुख और हाथी की सूंड वाले ।
32-श्री संकष्ट हरण गणपति– चार भुजाधारी, रक्तवर्णी शरीर, हीरा जड़ित मुुकुुट पहने।

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गणेश अथर्वशीर्ष पाठ के लाभ Benefits of Ganesh Atharvashirsh Lesson

Tuesday, June 13, 2017

गणेश अथर्वशीर्ष पाठ के लाभ Benefits of Ganesh Atharvashirsh Lesson

जब किसी जातक की जन्मकुंडली में बुध ग्रह अशुभ भावो का स्वामी हो,अशुभ ग्रहों से द्वारा द्रष्ट हो,या शुभ भाव में होकर भी निर्बल हो,क्रूर ग्रहों के साथ युति हो रही हो,अस्त हो, जिसके प्रभाव से जीवन में धनाभाव (आर्थिक समस्या) स्वास्थ्य की समस्या, व्यापार में निरंतर हानि जैसे परिणाम मिल रहे हो तो शास्त्र में बुधग्रह के जप, दान, श्री गणेश जी की पूजा, बुधवार व गणेश चतुर्थी के व्रत का नियम है ।
प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष की चंद्रोदयव्यापिनी चतुर्थी तिथि को भगवान श्रीगणेश के लिए जो व्रत किया जाता है उसे गणेश चतुर्थी व्रत कहते हैं। भगवान गणेश बुद्धि, धन, ज्ञान, यश, सम्मान, पद और तमाम भौतिक सुखों को देने वाले देवता तथा सभी पाप व क्रूर ग्रहों के दोष को दूर करेने वाले देवता विघ्नहर्ता के रूप में पूजनीय हैं।
भगवान गणेश की प्रसन्नता के लिए शास्त्रों में अनेक  मंत्र, पूजा व आरती का महत्व बताया गया है।
गणेश पूजन में सबसे ज्यादा विशेषता श्रीगणपति अथर्वशीर्ष की मानी जाती है। यह मूलत: भगवान गणेश की वैदिक स्तुति है, इसका पाठ करने वाला किसी प्रकार के विघ्न से बाधित न होता हुआ महापातकों से मुक्त हो जाता है। जिसमें भगवान गणेश के आवाहन से लेकर ध्यान, नाम से मिलने वाले शुभ फल आदि सम्मिलित है। इस गणपति स्त्रोत का पाठ धार्मिक दृष्टि से सभी दोष से मुक्त करता है, वहीं व्यावहारिक जीवन के कष्टो, दु:खों और बाधाओं से भी रक्षा करता है। ईश्वर आपका मंगल करें।
गणेश अथर्वशीर्ष स्तोत्र का महत्व

अथर्वशीर्ष शब्द में अ+थर्व+शीर्ष इन शब्दों का समावेश है। ‘अ’ अर्थात् अभाव, ‘थर्व’ अर्थात् चंचल एवं ‘शीर्ष’ अर्थात् मस्तिष्क–चंचलता रहित मस्तिष्क अर्थात् शांत मस्तिष्क। मन बड़ा प्रबल है। मन का कार्य संकल्प-विकल्प करना है। मन ही सारे संसार-चक्र को चला रहा है। मन का समाहित हो जाना ही परम योग है। गणपति अथर्वशीर्ष मन-मस्तिष्क को शांत रखने की विद्या है।

अथर्वशीर्ष में मात्र दस ऋचाएं हैं। इसमें बताया गया है कि शरीर के मूलाधार चक्र में श्री गणेश का निवास है। मूलाधार चक्र शरीर में गुदा स्थान के पास स्थित है। मूलाधार चक्र आत्मा का भी स्थान है जो ॐकारमय है। यहां ॐकार स्वरूप गणेशजी विराजमान हैं। मूलाधार चक्र में ध्यान केन्द्रित करने से मन-मस्तिष्क शांत रहता है।

श्रीगणेश का वक्रतुण्ड-आकार ओंकार को प्रदर्शित करता है। ‘अकार’ गणेशजी के चरण हैं, ‘उकार’ उदर और ‘मकार’ मस्तक का महामण्डल है। इस प्रकार गणपति अथर्वशीर्ष में ओंकार और गणपति दोनों एक ही तत्त्व हैं। ओंकार रूप गणपति सत्ता, ज्ञान और सुख के रक्षक हैं। जीवन के कष्ट, संकट, विघ्न, शोक एवं मोह का नाश कर अथर्वशीर्ष परमार्थिक सुख भी प्रदान करता है। श्रीगणेश कष्टों का निवारण कर बिना भेदभाव के सभी का मंगल करते हैं।

अथर्वशीर्ष का सार है– ॐ गं गणपतये नम:।।

अथर्वशीर्ष के प्रतिदिन एक, पांच अथवा ग्यारह पाठ करने का विधान है। जो इसका नित्य पाठ करता है, वह  हर प्रकार से सुखी हो जाता है। वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता।

भगवान गणेश के नाम से"ॐ गं गणपतये नम:" मन्त्र को का जाप करते हुए विधिवत पूजन करें। अथर्वशीर्ष स्त्रोत पाठ से व्यक्ति के सभी दुखों का नाश होता है।

गणपति अथर्वशीर्ष का कम से कम एक पाठ नियमित करने से शरीर की आंतरिक शुद्धि होती है। इससे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ से मानसिक शांति और मानसिक मजबूती मिलती है। इससे दिमाग स्थिर रहते हुए सटीक निर्णय लेने के काबिल बनता है।

इसके नियमित पाठ से शरीर के सारे विषैले तत्व बाहर आ जाते हैं। शरीर में एक विशेष तरह की कांति पैदा होती है।

जिन लोगों की जन्मकुंडली में चंद्र के साथ पाप ग्रह राहु, केतु और शनि बैठे हों उनका जीवन संकटपूर्ण रहता है। ऐसे लोगों को हर दिन गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करना ही चाहिए।

इसके पाठ से अशुभ ग्रह शांत होते हैं और भाग्य के कारक ग्रह बलवान होते हैं।

बच्चों और युवाओं का मन यदि पढ़ाई से उचट गया है या पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें इसका पाठ रोज करना चाहिए।

आर्थिक सुख-समृद्धि और धन की प्राप्ति के लिए भी गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करना चाहिए।

गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करने के लिए प्रतिदिन अपने पूजा स्थान या किसी शुद्ध स्थान पर स्नानादि करके शांत मन से बैठ जाएं। रीढ़ एकदम सीधी रखते हुए बैठें और पाठ करें। इसका पाठ करने के लिए किसी पूजा की आवश्यकता नहीं होती। भगवान श्रीगणेश की प्रतिमा या फोटो सामने ना हो तो भी चलेगा।

इसका पाठ नियमित करना चाहिए, लेकिन प्रत्येक माह आने वाले विशेष दिन जैसे संकष्टी चतुर्थी के दिन शाम के समय 21 पाठ करना चाहिए।

गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ के साथ यदि एक माला" ॐ गं गणपतये नम:" की जपी जाए तो और भी अधिक लाभदायक होता है।

इसका पाठ महिलाओं के लिए भी बहुत लाभदायक होता है लेकिन वे अपनी माहवारी के दौरान इसका पाठ ना करें।

अगर आपकी कुंडली में बुध की स्थिति ठीक नहीं है । व्यापार में लगातार आपको हानि हो रही है और सेहत भी आपका साथ नहीं दे रही है. तो भगवान गणेश के अथर्वशीर्ष के मंत्रों के पाठ से आपकी सारी समस्याएं दूर हो जाती हैं।।


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              ◆  गणेश अथर्वशीर्ष


गणपति का आधिदैविक स्वरूप

ॐ नमस्ते गणपतये । त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि । त्वमेव केवलं कर्तासि । त्वमेव केवलं धर्तासि । त्वमेव केवलं हर्तासि ।त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि । त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ।।१।।

सत्य कथन

ऋतम् वच्मि । सत्यं (सत्यौं) वच्मि ।। २।।

रक्षण के लिये प्रार्थना

अव त्वं माम्‌ । अव वक्तारम् । अव श्रोतारम् । अव दातारम् । अव धातारम् । अवानूचानमव शिष्यम् । अव पश्चात्तात्‌ । अव पुरस्तात् । अवोत्तरात्तात् । अव दक्षिणात्तात् । अव चोर्ध्वात्तात् । अवाधरात्तात् । सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ।।३।।

गणपतिजी का आध्यात्मिक स्वरूप

त्वं वाङ्‌मयस्त्वं चिन्मय: । त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममय: । त्वं (त्वौं) सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि । त्वं (त्वौं) प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ।।४।।

गणपति का स्वरूप

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते । सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति । सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति । सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ।

त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ: । त्वं चत्वारि वाक्पदानि ।।५।।त्वं गुणत्रयातीत: । त्वं अवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीत: ।त्वं कालत्रयातीत: । त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् । त्वं (त्वौं) शक्तित्रयात्मक: । त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् । त्वं ब्रहमा त्वं विष्णुस् त्वं रुद्रस् त्वं इन्द्रस् त्वं अग्निस् त्वं (त्वौं) वायुस् त्वं सूर्यस् त्वं‌ चंद्रमास् त्वं ब्रह्मभूर्भुवः: स्वरोम् ।।६।।

गणेशविद्या

गणादिम् पूर्वमुच्चार्य वर्णादिस्‌ तदनंतरम् । अनुस्वार: परतर: । अर्धेन्दुलसितम् । तारेण ऋद्धम् । एतत्तव मनुस्वरूपम् । गकार: पूर्वरूपम् । अकारो मध्यमरूपम् । अनुस्वारश्चान्त्यरूपम् ।बिंदुरुत्तररूपम् । नादः संधानम् । संहिता (सौंहिता) संधिः । सैषा गणेशविद्या । गणक ऋषि: । निचृद्‌गायत्रीछंदः गणपतिर्देवता । ॐ गं गणपतये नम: ।।७।।

एकदंताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि । तन्नो दंती प्रचोदयात् ।। ८ ।।

एकदंतं चतुर्हस्तम् पाशमंकुशधारिणम् । रदं च वरदं (वरदौं) हस्तैर्‌बिभ्राणं मूषकध्वजम् । रक्तम् लंबोदरम् शूर्पकर्णकम् रक्तवाससम् । रक्तगंधानुलिप्तांगम् रक्तपुष्पै: सुपूजितम् ।भक्तानुकंपिनम् देवं जगत्कारणमच्युतम् । आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृते: पुरुषात्परम् । एवं ध्यायति यो नित्यम् स योगी योगिनां (उं) वर: ।।९।।

नमन

नमो व्रातपतये नमो गणपतये नम: प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नम: ।।१०।।

फलश्रुति

एतदथर्वशीर्षम्‌ योऽधीते । स ब्रह्मभूयाय कल्पते । स् सर्वविघ्नैर्न बाध्यते । स सर्वत: सुखमेधते । स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते । सायमधीयानो दिवसकृतम्‌ पापन्‌ नाशयति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतम्‌ पापन्‌ नाशयति । सायं प्रात: प्रयुंजानो अपापो भवति ।। सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति ।धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति ।। इदम्‌अथर्वशीर्षम्‌ अशिष्याय न देयम्‌। यो यदि मोहाद्दास्यति । स पापीयान्‌ भवति ।सहस्रावर्तनात्‌ यं (यैं) यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्‌।।११।।

अनेन गणपतिम्‌ अभिषिंचति । स वाग्मी भवति ।चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति । स विद्यावान्भवति । इत्यथर्वणवाक्यम्‌। ब्रह्माद्यावरणं (णौं) विद्यात्‌। न बिभेति कदाचनेति ।। १२ ।।

यो दूर्वांकुरैर्यजति । स वैश्रवणोपमो भवति । यो लाजैर्यजति । स यशोवान्भवति । स मेधावान्भवति । यो मोदकसहस्रेण यजति । स वांछितफलमवाप्नोति । यः साज्यसमिदभिर्यजति । स सर्वम् लभते स सर्वम् लभते । अष्टौ ब्राह्मणान्‌सम्यग्राहयित्वा । सूर्यवर्चस्वी भवति । सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्‌त्वा सिद्धमंत्रो भवति ।महाविघ्नात्प्रमुच्यते । महादोषात्प्रमुच्यते । महापापात्प्रमुच्यते । स सर्वविद्भवति स सर्वविद्‍भवति । य एवं वेद इत्युपनिषत्‌ ।।१३।।

अर्थ
गणपति को नमस्कार है, तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्त्व हो, तुम्हीं केवल कर्त्ता, तुम्हीं केवल धारणकर्ता और तुम्हीं केवल संहारकर्ता हो, तुम्हीं केवल समस्त विश्वरुप ब्रह्म हो और तुम्हीं साक्षात् नित्य आत्मा हो। ॥ १॥
॥ स्वरूप तत्त्व ॥
यथार्थ कहता हूँ। सत्य कहता हूँ। ॥ २॥
तुम मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। षडंग वेदविद् आचार्य की रक्षा करो। शिष्य रक्षा करो। पीछे से रक्षा करो। आगे से रक्षा करो। उत्तर (वाम भाग) की रक्षा करो। दक्षिण भाग की रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे की ओर से रक्षा करो। सर्वतोभाव से मेरी रक्षा करो। सब दिशाओं से मेरी रक्षा करो। ॥ ३॥
तुम वाङ्मय हो, तुम चिन्मय हो। तुम आनन्दमय हो। तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानन्द अद्वितीय परमात्मा हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम ज्ञानमय हो, विज्ञानमय हो। ॥ ४॥
यह सारा जगत् तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत् तुमसे सुरक्षित रहता है। यह सारा जगत् तुममें लीन होता है। यह अखिल विश्व तुममें ही प्रतीत होता है। तुम्हीं भूमि, जल, अग्नि और आकाश हो। तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चतुर्विध वाक् हो। ॥ ५॥
तुम सत्त्व-रज-तम-इन तीनों गुणों से परे हो। तुम भूत-भविष्य-वर्तमान-इन तीनों कालों से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीनों देहों से परे हो। तुम नित्य मूलाधार चक्र में स्थित हो। तुम प्रभु-शक्ति, उत्साह-शक्ति और मन्त्र-शक्ति- इन तीनों शक्तियों से संयुक्त हो। योगिजन नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो। तुम विष्णु हो। तुम रुद्र हो। तुम इन्द्र हो। तुम अग्नि हो। तुम वायु हो। तुम सूर्य हो। तुम चन्द्रमा हो। तुम (सगूण) ब्रह्म हो, तुम (निर्गुण) त्रिपाद भूः भुवः स्वः एवं प्रणव हो। ॥ ६॥
॥ गणेश मंत्र ॥
‘गण’ शब्द के आदि अक्षर गकार का पहले उच्चारण करके अनन्तर आदिवर्ण अकार का उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वार रहे। इस प्रकार अर्धचन्द्र से पहले शोभित जो ‘गं’ है, वह ओंकार के द्वारा रुद्ध हो, अर्थात् उसके पहले और पीछे भी ओंकार हो। यही तुम्हारे मन्त्र का स्वरुप (ॐ गं ॐ) है। ‘गकार’ पूर्वरुप है, ‘अकार’ मध्यमरुप है, ‘अनुस्वार’ अन्त्य रूप है। ‘बिन्दु’ उत्तररुप है। ‘नाद’ संधान है। संहिता’ संधि है। ऐसी यह गणेशविद्या है। इस विद्या के गणक ऋषि हैं। निचृद् गायत्री छन्द है और गणपति देवता है। मन्त्र है- ‘ॐ गं गणपतये नमः” ॥ ७॥
॥ गणेश गायत्री ॥
एकदन्त को हम जानते हैं, वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। दन्ती हमको उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करें। ॥ ८॥
॥ गणेश रूप (ध्यान)॥
गणपतिदेव एकदन्त और चर्तुबाहु हैं। वे अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, दन्त और वरमुद्रा धारण करते हैं। उनके ध्वज में मूषक का चिह्न है। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा रक्तवस्त्रधारी हैं। रक्तचन्दन के द्वारा उनके अंग अनुलिप्त हैं। वे रक्तवर्ण के पुष्पों द्वारा सुपूजित हैं। भक्तों की कामना पूर्ण करने वाले, ज्योतिर्मय, जगत् के कारण, अच्युत तथा प्रकृति और पुरुष से परे विद्यमान वे पुरुषोत्तम सृष्टि के आदि में आविर्भूत हुए। इनका जो इस प्रकार नित्य ध्यान करता है, वह योगी योगियों में श्रेष्ठ है। ॥ ९॥
॥ अष्ट नाम गणपति ॥
व्रातपति, गणपति, प्रमथपति, लम्बोदर, एकदन्त, विघ्ननाशक, शिवतनय तथा वरदमूर्ति को नमस्कार है। ॥ १०॥
॥ फलश्रुति ॥
इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका अध्ययन करनेवाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल पाठ करनेवाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं और प्रातःकाल पाठ करने वाला निष्पाप हो जाता है। (सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाले सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष इसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा। इसकी १००० आवृत्ति करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा। ॥ ११॥
(विविध प्रयोग)
जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् हो जाता है। यह अथर्वण-वाक्य है। जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता। ॥ १२॥
(यज्ञ प्रयोग)
जो दुर्वांकुरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान होता है। जो सहस्त्र मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है। ॥ १३॥
(अन्य प्रयोग)

जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज-सम्पन्न होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है। सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है-वह सर्वविद् हो जाता है। ॥ १४॥

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Monday, June 12, 2017

दुर्भाग्य दूर करने हेतु क्षिप्रप्रसाद गणपति Kshipraprasad Ganpati to remove misfortune

कई बार हमें लगता है कि भाग्य साथ नही दे रहा है,हम जो भी प्रयास कर रहे हैं,उतनी मात्रा मे सफलता नही मिल रही है।तो हमें क्षिप्र प्रसाद गणपति की पूजा अर्चना करनी चाहिए।
अलग-अलग शक्तियों के गण‍पति भी अलग-अलग हैं जैसे बगलामुखी के हरिद्रा गण‍पति, दुर्गा के वक्रतुंड, श्री विद्या ललिता त्रिपुर सुंदरी के क्षिप्रप्रसाद गणपति हैं। इनके बिना श्री विद्या अधूरी है। जो साधक श्री साधना करते हैं उन्हें सर्वप्रथम इनकी साधना कर इन्हें प्रसन्न करना चाहिए।
कामदेव की भस्म से उत्पन्न दैत्य से श्री ललितादेवी के युद्ध के समय देवी एवं सेना के सम्मोहित होने पर इन्होंने ही उसका वध किया था। इनकी उपासना से विघ्न, आलस्य, कलह़, दुर्भाग्य दूर होकर ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।

मंत्र:-
गं क्षिप्रप्रसादनाय नम:।
नोट :- (नमस्कार मंत्र साधारणतया अनिष्ट फल नहीं देते यानी जिनमें अंत में नम: लगा हो।)
विनियोग करते समय हाथ में जल लेकर पढ़ें तथा जल छोड़ दें।
विनियोग :-
ॐ अस्य श्री क्षिप्रप्रसाद गणपति मंत्रस्य श्री गणक ऋषि:, विराट्‍ छन्द:, श्री क्षिप्रप्रसादनाय गणपति देवता, गं बीजं, आं शक्ति: सर्वाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोग:।
करन्यास---------------- अंग न्यास
ॐ गं अंगुष्ठाभ्यां नम: -------हृदयाय नम:
ॐ गं तर्जनीभ्यां नम:-------शिरसे स्वाहा
ॐ गं मध्यमाभ्यां नम: -----शिखायै वषट्
ॐ गं अनामिकाभ्यां नम:----कवचाय हुम्
ॐ गं कनिष्ठिकाभ्यां नम:---नैत्रत्रयाय वौषट्
ॐ गं करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:--अस्त्राय फट्
निर्दिष्ट स्थानों पर अंगुलियों से स्पर्श करें।

ध्यान:-
रक्त वर्ण, पाश, अंकुश, कल्पलता हाथ में लिए वरमुद्रा देते हुए, शुण्डाग्र में बीजापुर लिए हुए, तीन नेत्र वाले, उज्ज्वल हार इत्यादि आभूषणों से सज्जित, हस्ति मुख गणेश का मैं ध्यान करता हूं।
चार लाख जप कर, चालीस हजार आहुति मोदक से तथा नित्य चार सौ चवालीस (444) तर्पण करने से अपार धन-संपत्ति प्राप्त होती है।
तर्पण में नारियल का जल या गुड़ोदक प्रयोग कर सकते हैं।
त्रिकाल (सुबह-दोपहर-संध्या) को जप का विशेष महत्व है। अंगुष्ठ बराबर प्रतिमा बनाकर श्री क्षिप्रप्रसाद गणेश यं‍त्र के ऊपर स्थापित कर पूजन करें। श्री गणेश शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता हैं।

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● गणेश अथर्वशीर्ष पाठ के लाभ Benefits of Ganesh Atharvashirsh Lesson

वीर्य - रक्षा के उपाय Semen - Measures for Defense

वीर्य - रक्षा के अमोघ उपाय


ब्रह्मचर्य पालन में निम्न प्रयोग मदद करेंगे
८० ग्राम आंवला चूर्ण
२०  ग्राम हल्दी चूर्ण का मिश्रण बना लो।
सुबह - शाम तीन - तीन ग्राम फांकने से ८-१० दिनों में ...ही शरीर में वर्ण , चेहरे में मुहासे या विस्फोट , नेत्रों के चत्रुदिक नीली रेखाएं,दुर्बलता, निद्रालुता , आलस्य ,उदासी , ह्रदय कंप ,निद्रा में मूत्र निकल जाना ,मानसिक अस्थिरता ,विचार शक्ति का अभाव ,दुश्वप्न ,स्वप्न दोष व मानसिक अशांति ।
उपरोक्त सभी रोगों को मिटाने का इलाज ब्रह्मचर्य है ।

"ॐ अर्यमाये नम:" मन्त्र ब्रह्मचर्य के लिए बड़ा महत्त्व पूर्ण है।

स्थल बस्ती- सवासन मे लेटकर स्वास बाहर निकालें और अश्विनी मुद्रा अर्थात गुदा द्वार का आकुचन -प्रसरण स्वास बाहर ही रोक कर करें ।ऐसे एक बार में ३०-३५ आकुंचन-प्रसरण करें ! तीन - चार बार स्वास रोकने में १००- १२० बार यह क्रिया हो जायेगी ।
यह ब्रह्मचर्य की रक्षा में खूब- खूब मदद करेगी ।
इससे व्यक्तित्व का विकास होगा, वात-पित्त-कफजन्य रोग भी दूर होंगे ।

किसी भी तरह की कमजोरी को दूर करने का अनुभूत प्रयोगSensible use to remove any kind of weakness


शुक्रवार के दिन पीपल के तने को दोनों हाथ से पकड़ कर कहे-" मुझे कल एक किलो छाल चाहिए मैं कल लेने आऊंगा"।।
शनिवार के दिन एक लोटा, पानी गाय का गोबर या माटी साथ में ले जाए।साथ ही कोई वस्तु जिससे छाल निकाली जा सके।
 छाल निकालें फिर पानी में गोबर या माटी सान कर कटी हुई जगह में लगा दें फिर उसी दिन 8 किलो पानी में उबालें जब 2 किलो पानी रह जाए तब इसमें 2 किलो शक्कर की चाशनी बना लें ।फिर दूध या पानी में 20 से 25 ग्राम तक यानी मीठा होने तक मिलाकर सुबह और शाम पियें।इस पेय से  हर प्रकार की कमजोरी दूर होती है और शरीर हृष्टपुष्ट होता है।
तथा शाम को एकत्रित पीपल वृक्ष के फल दूसरे दिन सूर्योदय से पहले बीनकर ले आयें।
फिर उन्हें छाया में सुखा कर आधा किलो चूर्ण में 100 ग्राम मिश्री,और 10 ग्राम कालीमिर्च पीसकर मिला लें।
इसे भी 5-10ग्राम इस पेय के साथ में लें।
इस तरह शारीरिक कमजोरी दूर हो जाती है।


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पीलिया

गला(आवाज) बैठना

आवाज बैठ जाने पर जामुन की गुठलियाँ पीसकर शहद में मिलाए और गोलियाँ बना लें । २-२ गोली नित्य ४ बार चूसें ।इससे बैठा गला खुल जाता है । आवाज़ का भारीपन ठीक हो जाता है । अधिक बोलने-गाने वालो के लिए यह प्रयोग विशेष चमत्कारी योग है,साथ ही पद्मासन पर बैठ कर ॐ का दीर्घ उच्चारण करना चाहिये।

भगवान शिव को कौन सा पुष्प चढ़ाएं? Which flower to Lord Shiva?

शिवपुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन का फूल चढ़ाया जाए तो उसका क्या फल मिलता है-
1. लाल व सफेद आंकड़े के फूल से भगवान शिव का पूजन करने पर भोग व मोक्ष की प्राप्ति होती है।
2. चमेली के फूल से पूजन करने पर वाहन सुख मिलता है।
3. अलसी के फूलों से शिव का पूजन करने से मनुष्य भगवान विष्णु को प्रिय होता है।
4. शमी पत्रों (पत्तों) से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
5. बेला के फूल से पूजन करने पर सुंदर व सुशील पत्नी मिलती है।
6. जूही के फूल से शिव का पूजन करें तो घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती।
7. कनेर के फूलों से शिव पूजन करने से नए वस्त्र मिलते हैं।
8. हरसिंगार के फूलों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।
9. धतूरे के फूल से पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशन करता है।
10. लाल डंठलवाला धतूरा पूजन में शुभ माना गया है।
11. दूर्वा से पूजन करने पर आयु बढ़ती है।
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जानिए कौन सा अनाज भगवान शिव को चढ़ाने से क्या फल मिलता है?
मनोकामना की पूर्ति हेतु शिव को विविध प्रकार की धारा चढ़ाये Offer various types of streams to Shiva for fulfillment of desire

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शिवपुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन सा रस(द्रव्य) चढ़ाने से उसका क्या फल मिलता है
1. ज्वर (बुखार) होने पर भगवान शिव को जलधारा चढ़ाने से शीघ्र लाभ मिलता है। सुख व संतान की वृद्धि के लिए भी जलधारा द्वारा शिव की पूजा उत्तम बताई गई है।
2. नपुंसक व्यक्ति अगर शुद्ध घी से भगवान शिव का अभिषेक करे, ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा सोमवार का व्रत करे तो उसकी समस्या का निदान संभव है।
3. तेज दिमाग के लिए शक्कर मिश्रित दूध भगवान शिव को चढ़ाएं।
4. सुगंधित तेल से भगवान शिव का अभिषेक करने पर समृद्धि में वृद्धि होती है।
5. शिवलिंग पर ईख (गन्ना) का रस चढ़ाया जाए तो सभी आनंदों की प्राप्ति होती है।
6. शिव को गंगाजल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
7. मधु (शहद) से भगवान शिव का अभिषेक करने से राजयक्ष्मा(टीबी) रोग में आराम मिलता है।

जानिए कौन सा अनाज भगवान शिव को चढ़ाने से क्या फल मिलता है? Know what is the result of donating the grain to Lord Shiva?

वैसे तो धान्यों मे अक्षत लगभग सभी देवी-देवताओं के पूजन मे प्रयोग किया जाता है, किन्तु भगवान शिव के पूजन मे विशेष रूप से सप्तधान्यादि चढ़ाये जाते हैं।शिवपुराण के अनुसार जानिए कौन सा अनाज भगवान शिव को चढ़ाने से क्या फल मिलता है:
1. भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है।
2. तिल चढ़ाने से पापों का नाश हो जाता है।
3. जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है।
4. गेहूं चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है।यह सभी अन्न भगवान को अर्पण करने के बाद गरीबों में वितरीत कर देना चाहिए।
5.सप्तधान्य चढाने से सभी रोगों से मुक्ति मिलती है।
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बिल्व(बेल) वृक्ष Bilva tree

1. बिल्व वृक्ष के आसपास सांप नहीं आते ।
2. अगर किसी की शव यात्रा बिल्व वृक्ष की छाया से होकर गुजरे तो उसका मोक्ष हो जाता है ।
3. वायुमंडल में व्याप्त अशुध्दियों को सोखने की क्षमता सबसे ज्यादा बिल्व वृक्ष में होती है ।
4. चार पांच छः या सात पत्तो वाले बिल्व पत्रक पाने वाला परम भाग्यशाली और शिव को अर्पण करने से अनंत गुना फल मिलता है ।
5. बेल वृक्ष को काटने से वंश का नाश होता है। और बेल वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि होती है।
6. सुबह शाम बेल वृक्ष के दर्शन मात्र से पापो का नाश होता है।
7. बेल वृक्ष को सींचने से पितर तृप्त होते है।
8. बेल वृक्ष और सफ़ेद आक् को जोड़े से लगाने पर अटूट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
9. बेल पत्र और ताम्र धातु के एक विशेष प्रयोग से ऋषि मुनि स्वर्ण धातु का उत्पादन करते थे ।
10. जीवन में सिर्फ एक बार और वो भी यदि भूल से भी शिवलिंग पर बेल पत्र चढ़ा दिया हो तो भी उसके सारे पाप मुक्त हो जाते है ।
11. बेल वृक्ष का रोपण, पोषण और संवर्धन करने से महादेव से साक्षात्कार करने का अवश्य लाभ मिलता है।
कृपया बिल्व(बेल)का पेड़ जरूर लगाये । बिल्व पत्र के लिए पेड़ को क्षति न पहुचाएं।

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भगवान शिव को कौन सा पुष्प चढ़ाएं? Which flower to Lord Shiva?

Sunday, June 11, 2017

पुरुष और नारी purush aur naaree

पुरुष और नारी purush aur naaree


जब पुरुष और नारी- कामभाव से एक-दूसरे के समीप आते है; तो परस्पर आकर्षण से दोनों के सभी ऊर्जा चक्रों से ऊर्जा उत्पादन बढ़ जाता है। उनकी गति तीव्र हो जाती है। इसकी पूर्ति के लिए स्वाभाविक रूप से अधिक हवा की ज़रूरत होती है, इससे श्वांस तेज़ हो जाती है।
इस प्रकार उत्पादित ऊर्जा को मानसिक शक्ति से रीढ़ में ऊपर खींचने से मूलाधार चक्र की नेगेटिव ऊर्जा उससे ऊपर के पॉजिटिव चक्र में पहुचती हैं। इससे शॉट-सर्किट होता है और वह चक्र अधिक तेज हो जाता है। इस तरह इस धारा को उल्टी करके के एक-एक चक्र बेधते हुए मस्तक के सहस्त्रार चक्र पर पहुँचाने से इसमें स्फुलिंग होती है और चंद्रमा (सिर का गढ़ा) का मल के कारण बंद हुआ छिद्र खुल जाता है। इससे इसमें अधिक मात्रा में अमृत तत्व का प्रवेश होने लगता है और शारीरिक चक्र कई गुणा अधिक शक्तिशाली हो जातें है। इससे रूप, यौवन, उम्र के साथ-साथ अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति होती है और अपना सारा ऊर्जा शरीर उसका व्यापार अनुभूत होता है(ध्यान में प्रत्यक्ष)। इससे अज्ञानता का मल नष्ट होता है और दिव्य तन-मन की प्राप्ति होती है।
आचरण संहिता पर विश्वास रखने वाले पंडितों और धर्माचार्यों ने इसकी कटु आलोचना की हैं। फल की नहीं; प्रक्रिया की। उन्होंने संयम, नियम, उपवास, आदि के द्वारा इन चक्रों के भेदन का रास्ता ही उपयुक्त बताया है।
पर सभी तंत्र आचार्यों ने इस आलोचना पर खुल कर ठहाका लगाया है। इन्होंने कहा है कि नियम बनाने वाले तुम कौन हो? नियम केवल परमात्मा से उत्पन्न होते है और वे ही सनातनधर्म है। मानव निर्मित कृत्रिम नियमों में बंधा मानव समाज पाशबद्ध पशु है। वह निरर्थक पाप-पुण्य के भ्रम में उलझा हुआ है। प्रकृति में जो नियम नहीं है या जो नियम उसके विपरीत है; उनको पालने का केवल नाटक किया जाता है।(साभार)

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सुयोग्य पत्नी की प्राप्ति हेतु For a suitable wife
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Saturday, June 10, 2017

बंदी मोचन मंत्र प्रयोग Use of captive mochan mantra

जब आप अपने को या अपने किसी परिजन को किसी भी तरह के बन्धन मे पाते हैं।आपके शत्रुओ ने धोखे और बेईमानी से कोर्ट कचहरी के वाद विवाद में उलझा दिया हो,या आपके किसी निर्दोष व मासूम परिजन को झूठे आरॊप लगा कर सजा दिलाई जा रही है।
तथा किसी भी तंत्र मंत्र, टोना टोटका, के प्रभाव से बचने का सरल समाधान है बंदी मोचन मंत्र प्रयोग

अक्सर ऐसा सुनने मे आता है कि किसी निर्दोष और मासूम व्यक्ति को झूठे आरोपों के चलते सजा हो गई है, जिससे सभी परिजन परेशान है, ऐसी स्थिति में बन्दी मोचन प्रयोग बेहद चमत्कारी लाभ देता है, किन्तु इसे कभी भी आप अपने मन से न करे, किसी योग्य आचार्य व गुरु की देख रेख में ही यह मंत्र किया जाना चाहिए ।

           ।।बन्दी-मोचन-स्तोत्र।।

विनियोगः- ॐ अस्य बन्दी-मोचन-स्तोत्र-मन्त्रस्य श्रीकण्व ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, श्रीबन्दी-देवी देवता, ह्रीं वीजं, हूं कीलकं, मम-बन्दी-मोचनार्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीकण्व ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीबन्दी-देवी देवतायै नमः हृदि, ह्रीं वीजाय नमः गुह्ये, हूं कीलकाय नमः नाभौ, मम-बन्दी-मोचनार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
मन्त्रः-

“ॐ ह्रीं ह्रूं बन्दी-देव्यै नमः ।” (अष्टोत्तर-शतं जप – १०८)
बन्दी देव्यै नमस्कृत्य, वरदाभय-शोभिनीम् । तदाज्ञां शरणं गच्छत्, शीघ्रं मोचं ददातु मे ।।
त्वं कमल-पत्राक्षी, लौह-श्रृङ्खला-भञ्जिनीम् । प्रसादं कुरु मे देवि ! रजनी चैव, शीघ्रं मोचं ददातु मे ।।
त्वं बन्दी त्वं महा-माया, त्वं दुर्गा त्वं सरस्वती । त्वं देवी रजनी, शीघ्रं मोचं ददातु मे ।।
संसार-तारिणी बन्दी, सर्व-काम-प्रदायिनी । सर्व-लोकेश्वरी देवी, शीघ्रं मोचं ददातु मे ।।
त्वं ह्रीं त्वमीश्वरी देवि, ब्रह्माणी ब्रह्म-वादिनी । त्वं वै कल्प-क्षयं कत्रीं, शीघ्रं मोचं ददातु मे ।।
देवी धात्री धरित्री च, धर्म-शास्त्रार्थ-भाषिणी । दुःश्वासाम्ब-रागिनी देवि, शीघ्रं मोचं ददातु मे ।।
नमोऽस्तु ते महा-लक्ष्मी, रत्न-कुण्डल-भूषिता । शिवस्यार्धाङ्गिनी चैव, शीघ्रं मोचं ददातु मे ।।
नमस्कृत्य महा-दुर्गा, भयात्तु तारिणीं शिवां । महा-दुःख-हरां चैव, शीघ्रं मोचं ददातु मे ।।

           ।। फल-श्रुति ।।

इदं स्तोत्रं महा-पुण्यं, यः पठेन्नित्यमेव च । सर्व-बन्ध-विनिर्मुक्तो, मोक्षं च लभते क्षणात् ।।

               मन्त्रः-
“ॐ ह्रीं ह्रूं बन्दी-देव्यै नमः ।”

मंगलवार से आरंभ कर लाल वस्त्र धारण कर, देवी के समक्ष 11 माल नित्य 45 दिन तक करे । लाल आसन का प्रयोग करे व लाल चन्दन की माला पर जाप करे।

हवन-विधिः- कमलगट्टा, गाय का घी, शुद्ध शहद, मिश्री, हल्दी एवं लाल-चन्दन के चूर्ण को मिश्रित कर उससे जप-संख्या का दशांश हवन करना चाहिए।
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जाने अपनी होने वाली पत्नी का व्यवहार jane apnई hone vaalee patnee ka vyavahaar

विवाह की बात चलते ही हर व्यक्ति के मन में जिज्ञासा होती है कि उसकी शादी जिस लड़की से हो रही है उसका व्यवहार कैसा होगा।
ज्योतिष शास्त्र के जरिए भी लड़कियों के स्वभाव के बारे में जाना जा सकता है।
कन्या का जन्म जिस माह में हुआ है अर्थात् जन्म मास से उसके व्यवहार के बारे में भी पता लगाया जा सकता है।

चैत्र मास:- चैत्र मास में जन्म लेने वाली स्त्री वक्ता, होशियार, क्रोधी स्वभाव वाली, सुंदर नेत्र वाली, सुंदर रूप- गोरे रंग वाली, धनवान, पुत्रवती और सभी सुखों को पाने वाली होती है।
वैशाख मास:- वैशाख मास में जन्म लेने वाली स्त्री श्रेष्ठ पतिव्रता, कोमल स्वभाव वाली, सुंदर हृदय, बड़े नेत्रों वाली, धनवान, क्रोध करने वाली तथा मितव्ययी होती है।

ज्येष्ठ मास:- ज्येष्ठ मास में पैदा होने वाली स्त्री बुद्धिमान और धनवान, तीर्थ स्थानों को जाने वाली, कार्यों में कुशल और अपने पति की प्यारी होती है।

आषाढ़ मास:- आषाढ़ मास में उत्पन्न स्त्री संतानवान, धन से हीन, सुख भोगने वाली, सरल और पति की दुलारी होती है।

श्रावण मास:- श्रावण मास में जन्म लेने वाली पवित्र , मोटे शरीर वाली, क्षमा करने वाली, सुंदर तथा धर्मयुक्त और सुखों को पाने वाली होती है।

भाद्रपद मास:- भाद्रपद मास में जन्म लेने वाली कोमल, धन पुत्रवाली, सुखी घर की वस्तुओं कि देखभाल करनेवाली, हमेशा प्रसन्न रहने वाली, सुशीला और मीठा बोलने वाली होती है।

आश्विन मास:- आश्विन मास में जन्म लेने वाली स्त्री सुखी, धनी, शुद्ध हृदय गुण और रूपवती होती है, कार्यों में कुशल तथा अधिक कार्य करने वाली होती है।

कार्तिक मास:- कार्तिक मास में जन्म लेने वाली स्त्री कुटिल स्वभाव कि, चतुर, झुठ बोलने वाली, क्रूर और धन सुख वाली होती है।
मागशीर्ष मास:- मागशीर्ष में जन्म लेने वाली पवित्र , मिठे वचनों वाली, दया, दान, धन, धर्म करने वाली, कार्य में कुशल और रक्षा करने वाली होती है।

पौष मास:- पौष मास में जन्म लेने वाली स्त्री पुरुष के समान स्वभाव वाली, पति से विमुख, समाज में गर्व तथा क्रोध रखने वाली होती है।

माघ मास:- माघ मास में जन्म लेने वाली स्त्री धनी, सौभाग्यवान, बुद्धिमान संतान से युक्त तथा कटु पर सत्य वचन बोलने वाली होती है।

फाल्गुन मास:- फाल्गुन मास में जन्म लेने वाली स्त्री सर्वगुणसंपन्न, ऐश्वर्यशाली, सुखी और संताति वाली तीर्थ यात्रापर जाने वाली तथा कल्याणकरने वाली होती है।

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श्री विश्वावसु गन्धर्व-राज कवच स्तोत्रम् Shri Vishwasu Gandharva-Raj Kavach Santrom

श्री विश्वावसु गन्धर्व-राज कवच स्तोत्रम् Shri Vishwasu Gandharva-Raj Kavach Santrom

श्री विश्वावसु गन्धर्व-राज कवच स्तोत्रम्
प्रणाम-मन्त्रः- ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।।ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।। ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।।
।। पूर्व-पीठिका ।।
ॐ नमस्कृत्य महा-देवं, सर्वज्ञं परमेश्वरम् ।।
।। श्री पार्वत्युवाच ।।
भगवन् देव-देवेश, शंकर परमेश्वर ! कथ्यतां मे परं स्तोत्रं, कवचं कामिनां प्रियम् ।।
जप-मात्रेण यद्वश्यं, कामिनी-कुल-भृत्यवत् । कन्यादि-वश्यमाप्नोति, विवाहाभीष्ट-सिद्धिदम् ।।
भग-दुःखैर्न बाध्येत, सर्वैश्वर्यमवाप्नुयात् ।।
               
                  ।। श्रीईश्वरोवाच ।।
अधुना श्रुणु देवशि ! कवचं सर्व-सिद्धिदं । विश्वावसुश्च गन्धर्वो, भक्तानां भग-भाग्यदः ।।
कवचं तस्य परमं, कन्यार्थिणां विवाहदं । जपेद् वश्यं जगत् सर्वं, स्त्री-वश्यदं क्षणात् ।।
भग-दुःखं न तं याति, भोगे रोग-भयं नहि । लिंगोत्कृष्ट-बल-प्राप्तिर्वीर्य-वृद्धि-करं परम् ।।
महदैश्वर्यमवाप्नोति, भग-भाग्यादि-सम्पदाम् । नूतन-सुभगं भुक्तवा, विश्वावसु-प्रसादतः ।।

विनियोगः- ॐ अस्यं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राज-कवच-स्तोत्र-मन्त्रस्य विश्व-सम्मोहन वाम-देव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-देवता, ऐं क्लीं बीजं, क्लीं श्रीं शक्तिः, सौः हंसः ब्लूं ग्लौं कीलकं, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-प्रसादात् भग-भाग्यादि-सिद्धि-पूर्वक-यथोक्त॒फल-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगः ।।
ऋष्यादि-न्यासः- विश्व-सम्मोहन वाम-देव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-देवतायै नमः हृदि, ऐं क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, क्लीं श्रीं शक्तये नमः पादयो, सौः हंसः ब्लूं ग्लौं कीलकाय नमः नाभौ, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-प्रसादात् भग-भाग्यादि-सिद्धि-पूर्वक-यथोक्त॒पल-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।।
षडङ्ग-न्यास - कर-न्यास – अंग-न्यास -
ॐ क्लीं ऐं क्लीं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ॐ क्लीं श्रीं गन्धर्व-राजाय क्लीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ॐ क्लीं कन्या-दान-रतोद्यमाय क्लीं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ॐ क्लीं धृत-कह्लार-मालाय क्लीं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
ॐ क्लीं भक्तानां भग-भाग्यादि-वर-प्रदानाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ क्लीं सौः हंसः ब्लूं ग्लौं क्लीं करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
                   
                         ।।मन्त्रः।।
मन्त्रः- ॐ क्लीं विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय नमः ॐ ऐं क्लीं सौः हंसः सोहं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं सौः ब्लूं ग्लौं क्लीं विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय कन्या-दान-रतोद्यमाय धृत-कह्लार-मालाय भक्तानां भग-भाग्यादि-वर-प्रदानाय सालंकारां सु-रुपां दिव्य-कन्या-रत्नं मे देहि-देहि, मद्-विवाहाभीष्टं कुरु-कुरु, सर्व-स्त्री वशमानय, मे लिंगोत्कृष्ट-बलं प्रदापय, मत्स्तोकं विवर्धय-विवर्धय, भग-लिंग-रोगान् अपहर, मे भग-भाग्यादि-महदैश्वर्यं देहि-देहि, प्रसन्नो मे वरदो भव, ऐं क्लीं सौः हंसः सोहं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं सौं ब्लूं ग्लौं क्लीं नमः स्वाहा ।। (२०० अक्षर, १२ बार जपें)
गायत्री मन्त्रः- ॐ क्लीं गन्धर्व-राजाय विद्महे कन्याभिः परिवारिताय धीमहि तन्नो विश्वावसु प्रचोदयात् क्लीं ।। (१० बार जपें)
ध्यानः- क्लीं कन्याभिः परिवारितं, सु-विलसत् कह्लार-माला-धृतन्,
स्तुष्टयाभरण-विभूषितं, सु-नयनं कन्या-प्रदानोद्यमम् ।
भक्तानन्द-करं सुरेश्वर-प्रियं मुथुनासने संस्थितम्,
स्रातुं मे मदनारविन्द-सुमदं विश्वावसुं मे गुरुम् क्लीं ।।
ध्यान के बाद, उक्त मन्त्र को १२ बार ध्यान के बाद, उक्त मन्त्र को १२ बार तथा गायत्री-मन्त्र को
                      ।। कवच मूल पाठ ।।
क्लीं कन्याभिः परिवारितं, सु-विलसत् माला-धृतन्-
स्तुष्टयाभरण-विभूषितं, सु-नयनं कन्या-प्रदानोद्यमम् ।
भक्तानन्द-करं सुरेश्वर-प्रियं मिथुनासने संस्थितं,
त्रातुं मे मदनारविन्द-सुमदं विश्वावसुं मे गुरुम् क्लीं ।। १
क्लीं विश्वावसु शिरः पातु, ललाटे कन्यकाऽधिपः ।
नेत्रौ मे खेचरो रक्षेद्, मुखे विद्या-धरं न्यसेत् क्लीं ।। २
क्लीं नासिकां मे सुगन्धांगो, कपोलौ कामिनी-प्रियः ।
हनुं हंसाननः पातु, कटौ सिंह-कटि-प्रियः क्लीं ।। ३
क्लीं स्कन्धौ महा-बलो रक्षेद्, बाहू मे पद्मिनी-प्रियः ।
करौ कामाग्रजो रक्षेत्, कराग्रे कुच-मर्दनः क्लीं ।। ४
क्लीं हृदि कामेश्वरो रक्षेत्, स्तनौ सर्व-स्त्री-काम-जित् ।
कुक्षौ द्वौ रक्षेद् गन्धर्व, ओष्ठाग्रे मघवार्चितः क्लीं ।। ५
क्लीं अमृताहार-सन्तुष्टो, उदरं मे नुदं न्यसेत् ।
नाभिं मे सततं पातु, रम्भाद्यप्सरसः प्रियः क्लीं ।। ६

क्लीं कटिं काम-प्रियो रक्षेद्, गुदं मे गन्धर्व-नायकः ।
लिंग-मूले महा-लिंगी, लिंगाग्रे भग-भाग्य-वान् क्लीं ।।७
क्लीं रेतः रेताचलः पातु, लिंगोत्कृष्ट-बल-प्रदः ।
दीर्घ-लिंगी च मे लिंगं, भोग-काले विवर्धय क्लीं ।। ८
क्लीं लिंग-मध्ये च मे पातु, स्थूल-लिंगी च वीर्यवान् ।
सदोत्तिष्ठञ्च मे लिंगो, भग-लिंगार्चन-प्रियः क्लीं ।। ९
क्लीं वृषणं सततं पातु, भगास्ये वृषण-स्थितः ।
वृषणे मे बलं रक्षेद्, बाला-जंघाधः स्थितः क्लीं ।। १०
क्लीं जंघ-मध्ये च मे पातु, रम्भादि-जघन-स्थितः ।
जानू मे रक्ष कन्दर्पो, कन्याभिः परिवारितः क्लीं ।। ११
क्लीं जानू-मध्ये च मे रक्षेन्नारी-जानु-शिरः-स्थितः ।
पादौ मे शिविकारुढ़ः, कन्यकादि-प्रपूजितः क्लीं ।। १२
क्लीं आपाद-मस्तकं पातु, धृत-कह्लार-मालिका ।
भार्यां मे सततं पातु, सर्व-स्त्रीणां सु-भोगदः क्लीं ।। १३
क्लीं पुत्रान् कामेश्वरो पातु, कन्याः मे कन्यकाऽधिपः ।
धनं गेहं च धान्यं च, दास-दासी-कुलं तथा क्लीं ।। १४
क्लीं विद्याऽऽयुः सबलं रक्षेद्, गन्धर्वाणां शिरोमणिः ।
यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, गजाश्वादि-पशून् तथा क्लीं ।। १५
क्लीं क्षेमारोग्यं च मानं च, पथिषु च बालालये ।
वाते मेघे तडित्-पतिः, रक्षेच्चित्रांगदाग्रजः क्लीं ।। १६
क्लीं पञ्च-प्राणादि-देहं च, मनादि-सकलेन्द्रियान् ।
धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, रक्षां देहि सुरेश्वर ! क्लीं ।। १७
क्लीम रक्ष मे जगतस्सर्वं, द्वीपादि-नव-खण्डकम् ।
दश-दिक्षु च मे रक्षेद्, विश्वावसुः जगतः प्रभुः क्लीं ।। १८
क्लीं साकंकारां सु-रुपां च, कन्या-रत्नं च देहि मे ।
विवाहं च प्रद क्षिप्रं, भग-भाग्यादि-सिद्धिदः क्लीं ।। १९
क्लीं रम्भादि-कामिनी-वारस्त्रियो जाति-कुलांगनाः ।
वश्यं देहि त्वं मे सिद्धिं, गन्धर्वाणां गुरुत्तमः क्लीं ।। २०
क्लीं भग-भाग्यादि-सिद्धिं मे, देहि सर्व-सुखोत्सवः ।
धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, ददेहि विश्वावसु प्रभो ! क्लीं ।। २१
         
             ।। फल-श्रुति ।।
इत्येतत् कवचं दिव्यं, साक्षाद् वज्रोपमं परम् ।
भक्तया पठति यो नित्यं, तस्य कश्चिद्भयं नहि ।। २२
एक-विंशति-श्लोकांश्च, काम-राज-पुटं जपेत् ।
वश्यं तस्य जगत् सर्वं, सर्व-स्त्री-भुवन-त्रयम् ।। २३
सालंकारां सु-रुपां च, कन्यां दिव्यां लभेन्नरः ।
विवाहं च भवेत् तस्य, दुःख-दारिद्रयं तं नहि ।। २४
पुत्र-पौत्रादि-युक्तञ्च, स गण्यः श्रीमतां भवेत् ।
भार्या-प्रीतिर्विवर्धन्ति, वर्धनं सर्व-सम्पदाम् ।। २५
गजाश्वादि-धनं-धान्यं, शिबिकां च बलं तथा ।
महाऽऽनन्दमवाप्नोति, कवचस्य पाठाद् ध्रुवम् ।। २६
देशं पुरं च दुर्गं च, भूषादि-छत्र-चामरम् ।
यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, लभेद् गन्धर्व-सेवनात् ।। २७
राज-मान्यादि-सम्मानं, बुद्धि-विद्या-विवर्धनम् ।
हेम-रत्नादि-वस्त्रं च, कोश-वृद्धिस्तु जायताम् ।। २८
यस्य गन्धर्व-सेवा वै, दैत्य-दानव-राक्षसैः ।
विद्याधरैः किंपुरुषैः, चण्डिकाद्या भयं नहि ।। २९
महा-मारी च कृत्यादि, वेतालैश्चैव भैरवैः ।
डाकिनी-शाकिनी-भूतैर्न भयं कवचं पठेत् ।। ३०
प्रयोगादि-महा-मन्त्र-सम्पदो क्रूर-योगिनाम् ।
राज-द्वारे श्मशाने च, साधकस्य भयं नहि ।। ३१
पथि दुर्गे जलेऽरण्ये, विवादे नृप-दर्शने ।
दिवा-रात्रौ गिरौ मेघे, भयं नास्ति जगत्-त्रये ।। ३२
भोजने शयने भोगे, सभायां तस्करेषु च ।
दुःस्वप्ने च भयं नास्ति, विश्वावसु-प्रसादतः ।। ३३
गजोष्ट्रादि-नखि-श्रृंगि, व्याग्रादि-वन-देवताः ।
खेचरा भूचरादीनां, न भयं कवचं पठेत् ।। ३४

रणे रोगाः न तं यान्ति, अस्त्र-शस्त्र-समाकुले ।
साधकस्य भयं नास्ति, सदेदं कवचं पठेत् ।। ३५

रक्त-द्रव्याणि सर्वाणि, लिखितं यस्तु धारयेत् ।
सभा-राज-पतिर्वश्यं, वश्याः सर्व-कुलांगनाः ।। ३६
रम्भादि-कामिनीः सर्वाः, वश्याः तस्य न संशयः ।
मदन-पुटितं जप्त्वा जप्त्वा च भग-मालिनीं ।। ३७
भग-भाग्यादि-सिद्धिश्च, वृद्धिः तस्य सदा भवेत् ।
बाला-त्रिपुर-सुन्दर्या, पुटितं च पठेन्नरः ।। ३८
सालंकारा सुरुपा च, कन्या भार्यास्तु जायतां ।
बाला प्रौढ़ा च या भार्या, सर्वा-स्त्री च पतिव्रता ।। ३९
गणिका नृप-भार्यादि, जपाद्-वश्यं च जायताम् ।
शत-द्वयोः वर्णकानां, मन्त्रं तु प्रजपेन्नरः ।। ४०
वश्यं तस्य जगत्-सर्वं, नर-नारी-स्व-भृत्य-वत् ।
ध्यानादौ च जपेद्-भानुं, ध्यानान्ते द्वादशं जपेत् ।। ४१
गायत्री दस-वारं च, जपेद् वा कवच पठेत् ।
युग्म-स्तोत्रं पठेन्नित्यं, बाला-त्रिपुरा-सुन्दरीम् ।। ४२
कामजं वंश-गोपालं, सन्तानार्थे सदा जपेत् ।
गणेशास्यालये जप्त्वा, शिवाले भैरवालये ।। ४३
तड़ागे वा सरित्-तीरे, पर्वते वा महा-वने ।
जप्त्वा पुष्प-वटी-दिव्ये, कदली-कयलालये ।। ४४
गुरोरभिमुखं जप्त्वा, न जपेत् कण्टकानने ।
मांसोच्छिष्ट-मुखे जप्त्वा, मदिरा नाग-वल्लिका ।। ४५
जप्त्वा सिद्धिमवाप्नोति, भग-भाग्यादि-सम्पदां ।
देहान्ते स्वर्गमाप्नोति, भुक्त्वा स्वर्गांगना सदा ।। ४६
कल्पान्ते मोक्षमाप्नोति, कैवलं पदवीं न्यसेत् ।
न देयं यस्य कस्यापि, कवचं दिव्यं दिव्यं पार्वति ।। ४७
गुरु-भक्ताय दातव्यं, काम-मार्ग-रताय च ।
देयं कौल-कुले देवि ! सर्व-सिद्धिस्तु जायताम् ।। ४८
भग-भाग्यादि-सिद्धिश्च, सन्तानौ सम्पदोत्सवः ।
विश्वावसु प्रसन्नो च, सिद्धि-वृद्धिर्दिनेदिने ।। ४९
।। इति श्रीरुद्र-यामले महा-तन्त्र-राजे श्रीपार्वतीश्वर-सम्वादे श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-कवच स्तोत्रम् ।।

पदोन्नति Pramotion

अगर आप भी  जॉब में पदोन्नति(प्रमोशन) की तलाश कर रहे हैं, काफी समय से आपको पदोन्नति नहीं मिल रही है,या बार-बार पदोन्नति होते-होते रह जाती है और आपके अंदर इसकी प्रबल इच्छा है तो इस समस्या का समाधान है।

शुक्ल पक्ष के सोमवार को पड़ने वाले सर्वार्थ,अमृत,सिद्ध योग*के दौरान पदोन्नति के अभिलाषी व्यक्ति को तीन गोमती चक्र को चांदी की तार में बांधकर अपने पास रखना चाहिए।

यह एक ऐसा उपाय है जो पदोन्नति की संभावना को प्रबल बनाता है। इस सरल एवं सटीक उपाय को अपनाने से शत-प्रतिशत प्रमोशन मिलेगा।

*सोमवार को रोहिणी,मृगशिरा,पुष्य, अनुराधा,और श्रवण नक्षत्र होने पर सर्वार्थ,अमृत, सिद्ध योग होता है।

     
कुंडली में कुछ ऐसे ग्रहो की युति होती है।जो सही गोचर आने पर अपना प्रभाव दिखाती है।और तभी नौकरी या व्यापार में उन्नति होती है।अगर सही समय पर उचित उपाय कर लिए जाये तो हम नुकसान से बच सकते है।
गुरु और शनि जब भी गोचर में एक साथ दशम भाव या दशमेश को प्रभावित करें तो नौकरी लगती है. अगर नौकरी पहले से लगी है तो प्रमोशन होगी. जो बिज़नस करते हैं, उनके बिज़नस में उन्नति होगी.
मंगल का गोचर अगर जनम कालीनदशम भाव में गोचर हो तो जॉब में उन्नति होती है।बिज़नेस भी अच्छा चलता है।
राहु अगर 6वे और 10वे में गोचर करे और जन्मकालीन राहु अगर बुध के नक्षत्र में होक 5वे या दसम भाव से सम्बन्ध बनाये तोह उन्नति होती है।
सूर्य यदि 11 वें हो और गोचर में छठे भाव में हो तो भी उन्नति होती है।
पर गोचर के साथ महादशा का विवेचन भी ज़रूरी है।

गणित के जरिये जानिए आपके कितने साले व साली है ?

विश्वास नहीं हो रहा है ना ??

ये मजाक नही है !
चलो प्रयोग करके देखते है !

1- सबसे पहले सालो की संख्या जितने आपके साले है !

2- अब उसमे 2 का अंक जोड ले !

3- अब उस में 2 का गुणा करिये !

4- अब उसमे 1 अंक और जोडिये !

5- अब उसमे 5 का गुणा करिये !

6- अब उस योग मे सालियों की सख्या जोड ले !

7- अब कुल योग में से 25 घटा दीजिये !

8- अब आपको 2 अंक मिलेगे पहला अंक साले का दूसरा अंक सालियों की सँख्या है।

Thursday, June 8, 2017

अष्ट स्वरूपा महालक्ष्मी Ashta Swaroopa Mahalakshmi

अष्ट स्वरूपा महालक्ष्मी 
Ashta Swaroopa Mahalakshmi

शास्त्रानुसार महालक्ष्मी के आठ स्वरुप है। लक्ष्मी जी के ये आठ स्‍वरूप जीवन की आधारशिला है। इन आठों स्वरूपों में माँ लक्ष्मी जीवन के आठ अलग-अलग वर्गों से जुड़ी हुई हैं। इन आठ लक्ष्मी की साधना करने से मानव जीवन सफल हो जाता है।
अष्ट लक्ष्मी और उनके मूल बीज मंत्र इस प्रकार है।

1-श्री आदि लक्ष्मी - ये जीवन के प्रारंभ और आयु को संबोधित करती है तथा इनका मूल मंत्र है - ॐ श्रीं।

2-श्री धान्य लक्ष्मी - ये जीवन में धन और धान्य को संबोधित करती है तथा इनका मूल मंत्र है - ॐ श्रीं क्लीं।

3-श्री धैर्य लक्ष्मी - ये जीवन में आत्मबल और धैर्य को संबोधित करती है तथा इनका मूल मंत्र है - ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं।

4-श्री गज लक्ष्मी - ये जीवन में स्वास्थ और बल को संबोधित करती है तथा इनका मूल मंत्र है - ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं।

5-श्री संतान लक्ष्मी - ये जीवन में परिवार और संतान को संबोधित करती है तथा इनका मूल मंत्र है - ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं।

6-श्री विजय लक्ष्मी  - ये जीवन में जीत और वर्चस्व को संबोधित करती है तथा इनका मूल मंत्र है - ॐ क्लीं ॐ।

7-श्री विद्या लक्ष्मी - ये जीवन में बुद्धि और ज्ञान को संबोधित करती है तथा इनका मूल मंत्र है - ॐ ऐं ॐ।

8-श्री ऐश्वर्य लक्ष्मी - ये जीवन में प्रणय और भोग को संबोधित करती है तथा इनका मूल मंत्र है - ॐ श्रीं श्रीं।

अष्ट लक्ष्मी साधना का उद्देश जीवन में धन के अभाव को मिटा देना है। इस साधना से भक्त कर्जे के चक्रव्‍यूह  से बाहर आ जाता है। आयु में वृद्धि होती है। बुद्धि कुशाग्र होती है। परिवार में खुशाली आती है। समाज में सम्मान प्राप्त होता है। प्रणय और भोग का सुख मिलता है। व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा होता है और जीवन में वैभव आता है।

अष्ट लक्ष्मी साधना विधि:

किसी भी माह मे सोमवार या शुक्रवार की रात लगभग 09:30 बजे से 11:30 बजे के बीच गुलाबी कपड़े पहने और गुलाबी आसन का प्रयोग करें। गुलाबी कपड़े पर श्रीयंत्र और अष्ट लक्ष्मी का चित्र स्थापित करें। किसी भी थाली में गाय के घी के 8 दीपक जलाएं। गुलाब की अगरबत्ती जलाएं। लाल फूलों की माला चढ़ाएं। मावे की बर्फी का भोग लगाएं। अष्टगंध से श्रीयंत्र और अष्ट लक्ष्मी के चित्र पर तिलक करें और कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का यथासंभव जाप करें।

मंत्र:
ऐं ह्रीं श्रीं अष्टलक्ष्म्यै ह्रीं सिद्धये मम गृहे आगच्छागच्छ नमः स्वाहा।

जाप पूरा होने के बाद आठों दीपक घर की आठ दिशाओं में लगा दें तथा कमलगट्टे  की माला घर की तिजोरी में स्थापित करें। इस उपाय से जीवन के आठों वर्गों में सफलता प्राप्त होगी।

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गन्धर्व-राज विश्वावसु Gandharva-Raj Vishwasu

गन्धर्व-राज विश्वावसु की पूजा पद्धति
Pooja of Gandharva-Raj Vishwasu

जब किसी पुरुष जातक के विवाह  मे अत्यधिक विलम्ब या विवाह का बार-बार टूटना आदि घटनाएं होती हैं।तब इस विद्या का प्रयोग किया जाता है।
गन्धर्व-राज विश्वावसु की उपासना मुख्यतः ‘वशीकरण’ और ‘विवाह’ के लिये ही की जाती है। स्त्री-वशीकरण और विवाह के लिये इनके प्रयोग अमोघ है।इनकी कई विधाएं शास्त्रों मे वर्णित हैं, जिनमे ये प्रमुख है।

मन्त्र-
“ॐ विश्वावसु-गन्धर्व-राज-कन्या-सहस्त्रमावृत, ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्रयच्छ स्वाहा।”

विनियोग-
ॐ अस्य श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-मन्त्रस्य श्रीरुद्र-ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजः देवता, ह्रीं बीजं, स्वाहा शक्तिः, विश्वावसु-गन्धर्व-राज प्रीति-पूर्वक ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्राप्तयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यास-
श्रीरुद्र-ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजः देवतायै नमः हृदि, ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, स्वाहा शक्तये नमः पादयोः, विश्वावसु-गन्धर्व-राज प्रीति-पूर्वक ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्राप्तयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।
कराङ्ग-न्यास-
ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः। ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः। ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
षडङ्ग-न्यास-
ॐ ह्रां हृदयाय नमः। ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा। ॐ ह्रूं शिखायै वषट्। ॐ ह्रैं कवचाय हुं। ॐ ह्रौं नेत्र-त्रयाय वौषट्। ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।
पुनः कराङ्ग-न्यास-
ॐ ह्रां ॐ विश्वावसु अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ ह्रीं गन्धर्व-राज तर्जनीभ्यां नमः। ॐ ह्रूं कन्या-सहस्त्रमावृत मध्यमाभ्यां नमः। ॐ ह्रैं ममाभिलाषितां अनामिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रौं अमुकीं कन्यां कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रः प्रयच्छ स्वाहा करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
इसी क्रम से ‘षडङ्ग-न्यास’ कर ‘दिग्-बन्धन’ करे। यथा-
दिग्-बन्धन-
‘ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ’ से ‘दिग्-बन्धन करे। “ॐ रां रं रं तेजोज्ज्वलप्रकाशाय नमः” से अपने चारों ओर तीन अग्नि-प्राकारों का ध्यान करे। फिर मूल-मन्त्र से तीन, पाँच या सात बार व्यापक न्यास करे। फिर अपने शरीर में पीठ-न्यास करे-
पीठ-न्यास-
मं मण्डूकाय नमः मूलाधारे। कां कालाग्नि-रुद्राय नमः स्वाधिष्ठाने। कं कच्छपाय नमः हृदये। आं आधार-शक्तये नमः। कं कूर्माय नमः। धं धरायै नमः। क्षीं क्षीर-सागराय नमः। श्वें श्वेत-द्वीपाय नमः। कं कल्प-वृक्षाय नमः। मं मणि-प्राकाराय नमः। हें हेम-पीठाय नमः। (कच्छप से हेम-पीठ तक का न्यास हृदय में होगा।) धं धर्माय नमः दक्ष स्कन्धे। ज्ञां ज्ञानाय नमः वाम-स्कन्धे। वैं वैराग्याय नमः दक्ष-जानुनि। ऐं ऐश्वर्याय नमः वाम-जानुनि। अं अधर्माय नमः मुखे। अं अज्ञानाय नमः वाम-पार्श्वे। अं अवैराग्याय नमः नाभौ। अं अनैश्वर्याय नमः दक्ष-पार्श्वे।

निम्न सभी मन्त्रों का हृदय में न्यास करे- अं अनन्ताय नमः। चं चतुर्विंशति-तत्त्वेभ्यो नमः। पं पद्माय नमः। आं आनन्द-कन्दाय नमः। सं सम्विन्नालाय नमः। विं विकार-मय-केसरेभ्यो नमः। प्रं प्रकृत्यात्मक-पत्रेभ्यो नमः। पञ्चाशद्-वर्णाढ्य-कर्णिकायै नमः। सं सूर्य-मण्डलाय नमः। चं चन्द्र-मण्डलाय नमः। वैं वैश्वानर-मण्डलाय नमः। सं सत्त्वाय नमः। रं रजसे नमः। तं तमसे नमः। आं आत्मने नमः। अं अन्तरात्मने नमः। पं परमात्मने नमः। ज्ञां ज्ञानात्मने नमः। मां माया-तत्त्वात्मने नमः। कं कला-तत्त्वात्मने नमः। विं विद्या-तत्त्वात्मने नमः। पं पर-तत्त्वात्मने नमः।
हृदयस्थ अष्ट-दल में प्रादक्षिण्य-क्रम से और मध्य में पीठ-शक्तियों का न्यास करे-
कां कान्त्यै नमः। प्रं प्रभायै नमः। रं रमायै नमः। विं विद्यायै नमः। मं मदनायै नमः। मं मदनातुरायै नमः। रं रंभायै नमः। मं मनोज्ञायै नमः।
कर्णिका में- ह्रीं सर्व-शक्ति-कमलासनाय नमः।
अब हृदयस्थ पीठ पर ‘ध्यान’ करे-

१॰ कन्या-समूहैर्युव-चित्त-हारारुपै परितं उप-केतु-रुपम्।
अम्भोज-ताम्बूल-करं युवानं गन्धर्व-पौढां वने स्मरामि।।
२॰ ध्याये दिव्यं वर्त्ते रम्ये, तयवानमति-सुन्दरम्।
सेवितं कन्यका-वृन्दैः सुन्दरैः भूषितां सदा।।
मुक्ता-हार-लसत्-पाणिः, पङ्जैरति-शोभनैः।
लीला-गृहित-कमलैर्मधुरालाप-कारिभिः।।
उपर्युक्त दो ध्यानों में से कोई एक ध्यान करके ‘मानसिक-पूजन’ करें। यथा-
लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय विलेपयामि नमः (अधो-मुख कनिष्ठा एवं अंगुष्ठ से)। हं आकाश- तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय समर्पयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ से)। यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय आघ्रापयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ मिलाकर वाम-स्तन पर १० बार भावना से धूम-पात्र रखे)। रं तेजस्तत्त्वात्मकं दीपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय दर्शयामि नमः (उर्ध्व-मुख मध्यमा एवं अंगुष्ठ मिलाकर, दक्ष-स्तन पर १० बार भावना से दीप-पात्र रखे)। वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय निवेदयामि नमः (उर्ध्व-मुख

उपर्युक्त दो ध्यानों में से कोई एक ध्यान करके ‘मानसिक-पूजन’ करें। यथा-
लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय विलेपयामि नमः (अधो-मुख कनिष्ठा एवं अंगुष्ठ से)। हं आकाश- तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय समर्पयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ से)। यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय आघ्रापयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ मिलाकर वाम-स्तन पर १० बार भावना से धूम-पात्र रखे)। रं तेजस्तत्त्वात्मकं दीपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय दर्शयामि नमः (उर्ध्व-मुख मध्यमा एवं अंगुष्ठ मिलाकर, दक्ष-स्तन पर १० बार भावना से दीप-पात्र रखे)। वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय निवेदयामि नमः (उर्ध्व-मुख अनामिका एवं अंगुष्ठ से)। शं शक्त्यात्मकं ताम्बूलादिकं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय निवेदयामि नमः (उर्ध्व-मुख सभी अँगुलियों से)।
इस प्रकार पूजन करके कमल (पद्म), ताम्बूल और योनि-मुद्रा दिखाकर, यथा शक्ति जप करके ‘गुह्याति-गुह्य’ आदि मन्त्र से जप-फल का समर्पण करे।
पुरश्चरण-
१ लाख जप। अयुत (१०,०००) हवन घृत-मिश्रित लाजा से। सहस्त्र (१०००) तर्पण। शत (१००) मार्जन। दश ब्राह्मण भोजन।
प्रयोग-
१॰ कल्पतरु के नीचे मणि-मण्डप में सिंहासन पर बैठे हुए, गन्धर्व-राज-विश्वावसु का ध्यान करते हुए जलाञ्जलि देकर, नित्य १०८ जप करने से एक मास में उत्तम आभूषणों से सुसज्जित ‘कन्या’ की प्राप्ति होती है।
२॰ जल के किनारे, इक्षु-क्षेत्र (गन्ने के खेत) अथवा कदली (केला) वन में मन्त्र का यथा-शक्ति जप तथा दशांश हवन-तिल और पायस से करने पर अभीष्ट कन्या प्राप्त होती है। यह १ मास का प्रयोग है।
३॰ शाल-वृक्ष(साखू) की लकड़ी की ११ अंगुल की कील १००८ बार अभिमन्त्रित कर, अभीष्ट कन्या के घर में रखने से वह कन्या प्राप्त होती है।
४॰ मन्त्र में से ‘अमुकी’ पद अलग करके ‘जप’ करने से सबका आकर्षण होता है।

नोट- यह साधना केवल पुरुषों के लिये है।

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सुयोग्य पत्नी की प्राप्ति हेतु For a suitable wife

         सुयोग्य पत्नी की प्राप्ति हेतु


"ॐ विश्वावसुर्नामगंधर्वो कन्यानामधिपतिः।
सुरूपां सालंकृतां कन्या देहि में नमस्तस्मै॥
विश्वावस्वे स्वाहा॥"

इस मन्त्र से विश्वावसु नामक गंधर्व को सात अंजली जल अर्पित करके उपरोक्त मंत्र/विद्या का जप करने से एक माह के अंदर अलंकारों से सुसज्जित श्रेष्ठ पत्नी की प्राप्ति होती है।

शास्त्रों के वचनानुसार
According to the scriptures

पानीयस्यान्जलीन सप्त दत्वा, विद्यामिमां जपेत्।
सालंकारां वरां कन्यां, लभते मास मात्रतः॥

जब ग्रह स्थिति के कारण या बहुत प्रयास के बाद भी किसी पुरूष प्रधान जातक का विवाह न हो पा रहा हो तो निश्चित रूप से इसका प्रयोग करना चाहिए।

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Saturday, June 3, 2017

गंगा दशहरा Ganga dashehra

गंगा दशहरा Ganga dashehra


श्री गंगा दशहरा हमारे हिंदू धर्म का एक प्रमुख पर्व है। जो ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है। इस रोज माँ गंगा का स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरण हुआ था इसलिए इस दिन को गंगा दशहरा कहा जाता है। गंगा दशहरा के दिन ब्रह्म मुहूर्त में सूर्योदय के समय गंगा स्नान विशेष फलदायी रहेगा। अगर किसी वजह से गंगा में स्नान संभव नहीं हो तो आसपास की नदी व सरोवर में गंगाजल युक्त जल से स्नान करें।
इस दिन गंगा या किसी भी पवित्र नदी में स्नान कर मां गंगा स्त्रोत का पाठ करने से दश तरह के पाप(3,कायिक,4,वाचिक,3,मानसिक) का नाश होता है। इस स्तोत्र का श्रद्धापूर्वक पढ़ना-सुनना, मन वाणी और शरीर द्वारा होने वाले पूर्वोक्त दस प्रकार के पापों से मुक्त कर देता है। यह स्तोत्र जिसके घर लिखकर रखा हुआ होता है, उसे कभी अग्नि, चोर, सर्प आदि का भय नहीं रहता।

            ॥ गंगा दशहरा स्तोत्रम् ॥


ॐ नमः शिवायै गङ्गायै शिवदायै नमो नमः।
नमस्ते विष्णुरुपिण्यै, ब्रह्ममूर्त्यै नमोऽस्तु ते॥
नमस्ते रुद्ररुपिण्यै शाङ्कर्यै ते नमो नमः।
सर्वदेवस्वरुपिण्यै नमो भेषजमूर्त्तये॥
सर्वस्य सर्वव्याधीनां, भिषक्श्रेष्ठ्यै नमोऽस्तु ते।
स्थास्नु जङ्गम सम्भूत विषहन्त्र्यै नमोऽस्तु ते॥
संसारविषनाशिन्यै,जीवनायै नमोऽस्तु ते।
तापत्रितयसंहन्त्र्यै,प्राणेश्यै ते नमो नमः॥
शांतिसन्तानकारिण्यै नमस्ते शुद्धमूर्त्तये।
सर्वसंशुद्धिकारिण्यै नमः पापारिमूर्त्तये॥
भुक्तिमुक्तिप्रदायिन्यै भद्रदायै नमो नमः।
भोगोपभोगदायिन्यै भोगवत्यै नमोऽस्तु ते॥
मन्दाकिन्यै नमस्तेऽस्तु स्वर्गदायै नमो नमः।
नमस्त्रैलोक्यभूषायै त्रिपथायै नमो नमः॥
नमस्त्रिशुक्लसंस्थायै क्षमावत्यै नमो नमः।
त्रिहुताशनसंस्थायै तेजोवत्यै नमो नमः॥
नन्दायै लिंगधारिण्यै सुधाधारात्मने नमः।
नमस्ते विश्वमुख्यायै रेवत्यै ते नमो नमः॥
बृहत्यै ते नमस्तेऽस्तु लोकधात्र्यै नमोऽस्तु ते।
नमस्ते विश्वमित्रायै नन्दिन्यै ते नमो नमः॥
पृथ्व्यै शिवामृतायै च सुवृषायै नमो नमः।
परापरशताढ्यायै तारायै ते नमो नमः॥
पाशजालनिकृन्तिन्यै अभिन्नायै नमोऽस्तुते।
शान्तायै च वरिष्ठायै वरदायै नमो नमः॥
उग्रायै सुखजग्ध्यै च सञ्जीवन्यै नमोऽस्तु ते।
ब्रह्मिष्ठायै ब्रह्मदायै, दुरितघ्न्यै नमो नमः॥
प्रणतार्तिप्रभञ्जिन्यै जग्मात्रे नमोऽस्तु ते।
सर्वापत्प्रतिपक्षायै मङ्गलायै नमो नमः॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्ति हरे देवि! नारायणि ! नमोऽस्तु ते॥
निर्लेपायै दुर्गहन्त्र्यै दक्षायै ते नमो नमः।
परापरपरायै च गङ्गे निर्वाणदायिनि॥
गङ्गे ममाऽग्रतो भूया गङ्गे मे तिष्ठ पृष्ठतः।
गङ्गे मे पार्श्वयोरेधि गंङ्गे त्वय्यस्तु मे स्थितिः॥
आदौ त्वमन्ते मध्ये च सर्वं त्वं गाङ्गते शिवे!
त्वमेव मूलप्रकृतिस्त्वं पुमान् पर एव हि।
गङ्गे त्वं परमात्मा च शिवस्तुभ्यं नमः शिवे।।

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