Wednesday, January 22, 2014

कष्ट शान्ति के लिये मन्त्र सिद्धान्त Mantra theory for suffering peace

कष्ट शान्ति के लिये मन्त्र सिद्धान्त 
Mantra theory for suffering peace

संसार की समस्त वस्तुयें अनादि प्रकृति का ही रूप है,और वह प्रकृति नादात्मक अर्थात मन्त्रात्मक है। अतः मन्त्र का प्रकृति के रूप और उसके विकारों से घनिष्ठ सम्बन्ध है।

हमारे यहाँ मन्त्रों के दो मुख्य विभाग है!एक विभाग में वैदिक मन्त्र आते हैं और दूसरे में तान्त्रिक । इसलिये "मन्त्र"शब्द का अर्थ भी दो प्रकार का कह सकते हैं।

वैदिक विधान में "मननात् त्रायते इति मन्त्रः" जिस पर मनन करने से मनुष्य का त्राण होता है,उसके कष्टों और क्लेशों की निवृत्ति होती है उसे मन्त्र कहते हैं।

उधर तांत्रिकों ने मन्त्र की परिभाषा करते हुये कहा है कि-

" मननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसार बन्धनात् यतः करोति संसिद्धिं मन्त्र इत्युच्यते तः।"

 अर्थात् मनन से तात्पर्य विश्व भर  का ज्ञान-विज्ञान है,और त्राण का तात्पर्य सांसारिक बन्धनों से मुक्ति है। इसलिये जो ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार की सिद्धि प्रदान करे उसे मन्त्र कहते है।

जिस माया अथवा प्रकृति से इस संसार की सृष्टि होती है,उसका एक अर्थपूर्ण नाम शक्ति भी है। सभी मन्त्र शक्ति का ही रूप है। शास्त्रानुसार यही शिव रूपा शक्ति ही परिणत होकर संसार में विविध रूप धारण करती है।

जिस क्रिया को हमारे शास्र   स्पन्दन कहते है उसी की चर्चा आधुनिक विज्ञान "wave theory" के रूप में करता है। आज तो विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि जगत में जो कुछ  वृक्ष और पहाडों के रूप में नजर आता है यह सब एनर्जी अर्थात् शक्ति का ही रूपान्तर मात्र है। इस शक्ति को परिवर्तित करने का फार्मूला भी निकाल लिया गया है। सच तो यह है कि प्रचण्ड शक्तिशाली एटम बमों का निर्माण उस  फार्मूले का क्रियात्मक प्रयोग है।
अतः हम लोग यदि उसी शब्द रूपी शक्ति से लाभ उठायें और तदर्थ शब्दों में शक्ति का प्रयोग कर मन्त्रों के निर्माण द्वारा कष्टों का निवारण करेंतो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?
यदि "magnetism"में शक्ति है,विद्युत में शक्ति है तो शब्द (sound) में क्यों नहीं। जैसे चुम्बक और विद्युत शक्तिमय है ऐसे ही शब्द भी एक शब्दमय वीचि है।
मन्त्र शास्त्र में अभीष्ट दिशा में शब्द शक्ति का ही तो प्रयोग है।
वाक् या शब्द शक्ति चार विशिष्ट भूमिकाओं में कार्य करती है। इसका पूर्ण ज्ञान केवल उन्ही लोगों को होता है,जो मनन शील है और ब्रह्म को प्राप्त करने  में प्रयत्न शील है
 । इन चार भूमिकाओं में से तीन तो छुपी हुई सूक्ष्म हैं, केवल चतुर्थ भूमिका है जिसका प्रयोग मनुष्य अपनी वाणी में करते हैं।
"इन्ही चार प्रकार की वाणियों अथवा शब्दों अथवा शक्तियों के नाम हैं-
१-परा
२-पश्यन्ती
३-मध्यमा
४-वैखरी

इनमें परा सूक्ष्मतम है और वैखरी (बिखरी हुई)स्थूलतम है,जो हम साधारणतया प्रयोग में लाते हैं। ग्रह शान्ति में,प्रयोग में आने वाले तान्त्रिक मन्त्रों में जिन बीजाक्षरों का प्रयोग होता है,उनका सम्बन्ध परा,पश्यन्ती आदि सूक्ष्म भूमिकाओं से है। इसलिये वे वैखरी शब्द का विषय नहीं है।


वेद में भी कहा गया है:-
"चत्वारि वाक् परिमिता पदानि
 तानि  विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणा।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।।"(ऋग् वेद)
वाक् दृश्य जगत सृष्टि के आरम्भ में प्रजापति परमेश्वर का ही रूप था। वह वाक् या शब्द ब्रह्म है।दूसरे शब्दों में  यह समस्त जगत वाक् अथवा शब्द रूप है। और इसीलिये इसके अंगों(components) की अभिव्यक्ति हम शब्दों में कर सकते हैं,और मन्त्र का निर्माण कर सकते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थानुसार -
" प्रजापतिर्वै इदमासीत्तस्य वाग् द्वितीयः आसीत् वाग् वै परमं ब्रह्म।।" 
सृष्टि के आरम्भ में शब्द था और यह शब्द परमात्मा के साथ था और यही शब्द परमात्मा था। बाइबिल में लिखा है-"in the begening was the word and the word was with god and the word was god.
सिक्ख गुरुओं और राधास्वामी मत के आचार्यों नें " नादबिन्दू पनिषद" का सहारा लेकर सुरत शब्द योग की रचना की है। ग्रन्थ साहिब का भी वाक्य है- "शब्दरूपे घर पाइये"
अर्थात् शब्द ब्रह्म का रूप बनकर ही मनुष्य अपने घर को पाता है अर्थात अपने स्वरूप तक पहुँचकर भगवान का साक्षात्कार करता है।
दैवी शक्ति का पहला रूप वाक्, शब्द या word का था। शास्त्रानुसार यह शब्द ब्रह्म का ही रूप है। यही कारण है कि सब मन्त्रों में शब्द ब्रह्म अर्थात् "ॐ " का प्रयोग किया जाता है। यह ओउम शब्द तीनों गुणों ,तीनों संसारों,तीनों अवस्थाओं (जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति) का प्रतीक होने के साथ-साथ अर्धमात्रा द्वारा तुरीय -चतुर्थ-अमात्र असीम,अनन्त अवस्था  का भी प्रतीक है। यह एक सर्वात्मक सर्वमय शब्द है। इसीलिये यह शब्द अधिकतम शक्तिशाली है। इसके बिना कोई मन्त्र ही नहीं बन सकता।
हमारे  प्रत्येक वेद मन्त्र के पहले ओउम शब्द का उच्चारण किया जाता है। बौद्ध,सिक्ख,जैन आदि धर्मों के मन्त्र ओउम से ही शुरू होते है। इस प्रकार इस महाबीज मन्त्र का प्रयोग सार्वभौम है।
आदि बीज ओउम को सबसे पहले मन्त्र में रखकर फिर दूसरे बीज मन्त्र  ऐं, क्लीं,श्रीं, ह्रीं औं, आदि का प्रयोग किया जाता है। ये  ऐं  आदि बीज अनाहत शब्द हैं ।अर्थात्  किन्ही दो पदार्थों  के आहत होने से या टकराव से उत्पन्न नहीं हुये,बल्कि सृष्टि ज्यों-ज्यों उत्पन्न होती गई त्यों-त्यों निसर्गतः यह शब्द प्रकृति में उसी के गुणों के अनुसार उसी देवता के रूप में  बनते चले  गये। 
योगियों ने इन शब्दों को तथा इनके अर्थों अर्थात् देवताओं को  अपनी दिव्य दृष्टि से देखा और हमारे प्रयोग के लिये छोड़ गये। जैसे  " कलीं "कामबीज है  अर्थात् कामनाओं-वासनाओं, भोग-विलास, विवाह आदि सभी काम से सम्बन्धित वस्तुओं से इसका सम्बन्ध है।
जिस-जिस  वस्तु की साधक को आवश्यकता होती है,उसी वस्तु को सामूहिक रूप से  दर्शाने वाले बीज मन्त्र का प्रयोग कर वह-वह शक्ति जाग्रत कर उस वस्तु  को प्राप्त कर सकता है।इस प्रकार मन्त्र शास्त्र में प्राकृतिक शब्दों से जीवन के विभिन्न  विभागों में उस-उस विभाग से सम्बन्धित बातों,तथ्यों आदि से लाभ  उठाया जाता है। इस प्रकार हम उसी अनादि ब्रह्म के ही रुपों से मंत्रों के द्वारा लाभ उठातें हैं। क्योंकि यह समस्त अर्थ ब्रह्म का विवर्त है- " अनादि निधनं ब्रह्म शब्दतत्वं यदक्षरम् 
            विवर्त तेर्थ भावेन प्रक्रिया जगतो यतः।।"

मनुष्य के मस्तिष्क ने प्रत्येक उस साधन सामग्री से अपने अभ्युदय के लिये उपयोग में लिया है जो उसके अनुभव में आया है। जब मनुष्य ने शब्द शक्ति का अध्ययन किया तो शब्द को मन्त्र के रूप में अपने उद्धार के लिये ऐहिक और पारलौकिक दोनों दिशाओं में प्रयुक्त किया।

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