Thursday, September 22, 2011

कर्म सिद्धान्त Work theory


                           कर्म सिद्धान्त 


कर्म मुख्यतः तीन प्रकार के माने गए हैं, यथा:-
(१)-संचित कर्म 
(२)-क्रियमाण 
(३)-प्रारब्ध 


(१)-संचित कर्म- प्रत्येक जन्म में किये गये संस्कार एवं उसके फल भाव का संचित कोष तैयार हो जाता है.यह उस जीव की व्यक्तिगत पूँजी है जो अच्छी या बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है यही संचित कोष संचित कर्म कहा जाता है, और मनुष्य इसे हर जन्म में नये रूप में अर्जित करता रहता है.
संचित कर्म में विशेषता यह है की किसी कर्म को बार-बार करने की आदतों का निर्माण होता है अथवा कुछ कर्म या घटनायें ऐसी होती है जिनकी जीवन में स्मृति पर अमिट छाप हो जाये तो वे मन का भाग हो जाया करती है जिन्हें संस्कार कहा जाता है.
इस तरह संचित कर्म का सम्बन्ध मानसिक कर्म से भी होता है जैसे ईर्ष्या,क्रोध,बदला लेने की भावना अथवा क्षमा,दया इत्यादि की भावना मनुष्य में संचित कर्मों के आधार पर ही पायी जती है अशुभ चिंतन में अशुभ संचित कर्म व शुभ चिन्तन में शुभ संचित कर्म बनते हैं.
जीवन में तीन चीजों का संयोग होता है -आत्मा,मन,और शरीर .
शरीर और आत्मा के मध्य सेतु है मन.यदि मन किसी प्रकार के संस्कार निर्मित न करे और पूर्व संस्कारों को क्षय करे टो वह मन अपना अस्तित्व ही खो देगा और मनुष्य का जन्म नहीं होगा .
संचित कर्मों का प्रभाव -प्रत्येक मनुष्य अपने पूर्व जन्मों में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में पैदा हुआ था.जिससे उसके कर्म भी भिन्न-भिन्न प्रकार के रहे,उसकी प्रतिभा का विकास भी भिन्न-भिन्न प्रकार से हुआ होगा.
इन्ही पिछले संस्कारों के कारण कोई व्यक्ति कर्मठ या आलसी स्वाभाव का होता है,यह संचित कोष ही पाप और पुण्य का ढेर होता है. इसी ढेर के अनुसार वासनायें,इच्छायें,कामनायें,ईर्ष्या,द्वेष,क्रोध,क्षमा इत्यादि होते हैं. ये संस्कार बुद्धि को उसी दिशा की ओर प्रेरित करते हैं जैसा की उसमे संग्रहीत हों.

(२)-क्रियमाण -तात्कालिक किये जाने वाले कर्म.


(३)-प्रारब्ध -कर्मों के फल अंश का कुछ हिस्सा इस जन्म के भोग के लिये निश्चित होता है या इस जन्म में जिन संचित कर्मों का भोग आरम्भ हो चुका है वही प्रारब्ध है.इसी प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य को अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में जन्म लेना पड़ता है.
इसका भोग तीन प्रकार से होता है -
अनिच्छा से -वे बातें जिन पर मनुष्य का वश नहीं और न ही विचार किया हो जैसे भूकंप आदि.
परेच्छा से -दूसरों के द्वारा दिया गया सुख दुःख .
स्वेच्छा से -इस समय मनुष्य की बुद्धि ही वैसी हो जाया करती है, जिससे वह प्रारब्ध के वशीभूत अपने भोग के लिये स्वयं कारक बन जाता है ;किसी विशेष समय में विशेष प्रकार की बुद्धि हो जाया करती है तथा उसके अनुसार निर्णय लेना प्रारब्ध है.

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Tuesday, September 20, 2011

श्री कूष्माण्डा चालीसा shree kooshmaanda chaaleesa


                          श्री कूष्माण्डा   चालीसा 
                                     दोहा 
              अम्बे पद चित लाय करि विनय करहुँ कर जोरि,
              बरनऊ तव मै विशद यश करहु विमल मति मोरि.
              दीन  हीन  मुझ अधम  को  आप  उबारो आय,
             तुम  मेरी   मनकामना   पूर्ण   करो   सरसाय. 
                                    चौपाई
जय जय जय कुड़हा महरानी, त्रिविध ताप नाशक तिमुहानी. १.
आदि शक्ति अम्बिके  भवानी, तुम्हरी महिमा अकथ कहानी .२.
रवि सम तेज तपै चहुँ  ओरा, करहु कृपा जनि होंहि निहोरा .३.
धवल धाम मंह वास तुम्हारो,  सब मंह सुन्दर लागत न्यारो .४.
तिनकै रचना बरनि न जाई,    सुन्दरता लखि मन ठग जाई.५.
सोहत  इहां  चारि दरवाजा, विविध भॉंति चित्रित छवि छाजा.६.
चवँर घंट बहु भॉंति विराजहिं,मठ पर ध्वजा अलौकिक लागहिं.७.
शीश मुकुट अरु कानन कुण्डल,अरुण बदन से प्रगटै तव बल.८.
रूप   अठ्भुजी   अद्भुत  सोहे,    होय  सुखी  जो  मन से जोहै.९. 
तन पर शुभ्र वसन हैं राजत, कर कंकन पद नूपुर छाजत.१०.
विविध भॉंति मन्दिर चहुँ ओरा, चूमत गगन हवै सब ओरा.११.
शंकर महावीर  को  वासा,  औरहु  सुर  सुख पावहिं पासा.१२.
सरवर सुन्दर जहाँ सुहाई,    तेहि कै महिमा बरनि न जाई.१३.
घाट  मनोहर  सुन्दर  सोहैं,      पडत दृष्टि तुरतै मन मोहैं.१४.      
नीर मोति अस निर्मल तासू , अमृत आनि कपूर सुवासू .१५.
पीपल नीम आछि अमराई,        औरहु तरुवर इहां सुहाई .१६.  
बहु भांतिन ध्यावैं नर नारी, मन वांछित फल पावहिं चारी.१७.
तुम्हरो ध्यान करहिं जे प्रानी,  होहिं मुक्त रहि जाइ कहानी.१८.
जोगी जती ध्यान जो लावें,      तुरतै सिद्ध पुरुष होई जावै.१९.
नेत्र हीन तव आवहिं पासा,       पूजा करहिं होइ तम नासा.२०.
दिव्य दृष्टि तिनकै होइ जाई,     होहिं सुखी जब होउ सहाई.२१.
पुत्रहीन  कहुं  ध्यान  लगावै,  तुरतै  पुत्रवान  होइ  जावै.२२.
रंक आइ सब नावहिं माथा,   पावहिं धन अरु होंहिं सनाथा.२३.
नाम लेत दुःख दरिद नसाहीं, अक्षत से अरिगन हटी जाहीं.२४.
नित प्रति आइ करहिं जो दर्शन,मनवांछित फल पावै सो जन.२५.
जो सरवर मंह मज्जन करहीं, कलुष  नसाइ  जात  हैं सबहीं.२६.
जो जन मन से ध्यावहिं तुमही,सब विपत्ति से छूटहिं  तबहीं.२७.
सोम  शुक्र  दिन  आवहिं प्रानी,    पूजा करहिं प्रेम रस सानी.२८.
कार्तिक माह पूर्णिमा आवत,     तेहि दिन मेला सुन्दर लागत.२९.
लेत नाम भव भय मिटि जाई,          भूत प्रेत सब भजै पराई.३०.   
पूजा जो जन मन से करहीं,        होहिं सुखी मुद मंगल भरहीं.३१.  
दूर दूर से आवहिं प्रानी,            करहिं सुदर्शन मन सुख मानी.३२.
तुम्हरी कीर्ति रही जग छाई,         तेहिते सब जन आवत भाई.३३.  
दरश परश कर मन हरषाहीं,     जग दुर्लभ तिनकहु कछु नाहीं.३४.  
जो ध्यावें पद मातु तुम्हारे,       भव बन्धन मिटि जाइ सकारे.३५.
बालक प्रमुदित करहिं जो ध्याना, आइ करहिं बहु विनती नाना.३६.
तिन कहँ अवसि सफलता देहू,         बुद्धि बढ़ाइ सुखी करि देहू.३७.
आवहिं नर अरु नावहिं शीशा,           होहिं सुखी पावहिं आशीषा.३८. 
जो यह पाठ करै मन लाई,               अम्बे ता कहूँ होहिं सहाई.३९.
'सन्त' सदा चरनन तव दासा,       आय करहु मम ह्रदय निवासा.४०.
                                           दोहा
                  मातु तुम्हारी भक्ति से सुख उपजै मन माहि.
                 करहु कृपा हम दीन पर आयहु चरनन माहि..
                 मंगलमय तुम मातु हो सदा करहु कल्यान.
                 गावहिं सुनहिं जे प्रेम से पावहिं सुन्दर ज्ञान..

नवरात्र - प्रकार एवं पूजन विधान


नव रात्रियों तक व्रत करने से 'नवरात्र' व्रत पूर्ण होता है.वैसे तो वासंती नवरात्रों में विष्णु की  और शारदीय नवरात्रों में शक्ति की उपासना का प्राधान्य है;किन्तु ये दोनों बहुत ही व्यापक है,अतः दोनों में दोनों की उपासना होती है इनमे किसी वर्ण,विधान या देवादि की भिन्नता नहीं है;सभी वर्ण अपने अभीष्ट की उपासना करते है.
यदि नवरात्र पर्यन्त व्रत रखने की सामर्थ्य न हो तो-
 (१) प्रतिपदा से सप्तमी पर्यन्त 'सप्तरात्र' ; 
 (२) पञ्चमी से नवमी पर्यन्त 'पञ्चरात्र' ;
 (३) सप्तमी से नवमी पर्यन्त 'त्रिरात्र'
 (४) आरम्भ और समाप्ति के दो व्रतों से 'युग्मरात्र' 
 (५) आरम्भ या समाप्ति के एक व्रत से 'एकरात्र' के रूप में जो भी किये जायें, उन्ही से अभीष्ट की  सिद्धि होती है.


दुर्गा पूजा में- प्रतिपदा को केश संस्कार द्रव्य,आँवला आदि,
द्वितीया को बाल बांधने के लिये रेशमी डोरी; 
तृतीया को सिन्दूर और दर्पण;
चतुर्थी को मधुपर्क,तिलक और नेत्रांजन;
पंचमी को अंगराग और अलंकार;
षष्ठी को फूल आदि 
सप्तमी को गृह मध्य पूजा;
अष्टमी  को उपवास पूर्वक पूजन;
नवमी को महापूजा और कुमारी पूजा तथा दशमी को नीराजन और विसर्जन करें. 

Sunday, September 18, 2011

शान्ति पाठ Consolation lesson


                          शान्ति पाठ

जै जै अम्बे जय जगदम्बे        जय कुशले कल्याण करो,
जय कूष्माण्डा जय कल्याणी        सदबुद्धि का दान करो.
उग्रवाद  आतंकवाद  का       माँ  समूल  तुम नाश करो ,
पुत्र  पुकारें  जय  जगदम्बे      जग का माँ उत्थान करो.
नैतिकता  का  पाठ  पढ़ाकर     माँ  चरित्र निर्माण करो,
साहस शील शिष्टता संयम से      मानव का उत्थान करो.
दैहिकादि त्रिविध तापों से  माँ    जग का तुम उद्धार करो,
शान्ति-शान्ति माँ शान्त रूप से जग को शान्ति प्रदान करो..
   

शिव शतनाम shiv shatanaam


                     शिव शतनाम
     
                     शिव दर्शन

जय महादेव शिव शंकर शम्भो उमाकान्त त्रिपुरारी,
चंद्रमौलि गंगाधर सोमेश्वर भूतनाथ कामारी ..१..
हर-हर शूलपाणि गिरिजापति बाघाम्बर धारी,
पंचानन कालेश्वर नागेश्वर आशुतोष प्रलयंकारी..२..
तीननेत्र भुजगेन्द्र्हार कर्पूरगौर करुणावतार,
केदारनाथ देवाधिदेव गिरिईश रूद्र संसार सार..३..
घुष्मेश जटाधर विश्वरूप श्री विरूपाक्ष श्री शिवाधार,
सर्वशक्ति श्मशानवास पशुपति भोला तन लसित छार..४..
नीलकंठ वृषकेतु महेश्वर विश्वनाथ अवढर दानी,
कैलाशनाथ डमरूधर गौरी पति गुणातीत गुणखानी..५..
वेधषे दिगम्बर वेदगीत गोपत कपोत मंगलदानी,
लिंगरूप परमार्थरूप अव्यय त्रिदेव सर्वज्ञानी ..६..
लालाबन्ध सरूप सिंह अज्ञात ज्ञात विज्ञानी,
लोहित नील व्याघ्र गर्वकित श्री सुरेश परमात्म बखानी..७..
भीमशंकर मल्लिकार्जुन हे कपर्दिन मुण्डमाली,
सिद्धिदा परमेष्टिने हे महीधर मरीचिमाली..८..
हे व्यालप्रिय मृत्युंजयी हे दीर्घरूप हे दीर्घनाम,
हे बुद्धिनाथ हे जगत्पिता हे व्योमकेश करते प्रणाम..९..
रंगदेव रामेश्वर जागेश्वर हे अजगव धारी,
त्र्यम्बक प्रभाव हे अर्थरूप श्री महेश प्रतिवास बिहारी..१०..
हे चन्द्रचूड शशि-शेखर नन्दीश्वर अवलेश्वर ललाम,
हे तपोरूप दुर्गा दुर्गेश्वर करते चरणों में शत-शत प्रणाम..११..


  श्री कूष्माण्डा   चालीसा
            दोहा
अम्बे पद चित लाय करि विनय करहुँ कर जोरि,
बरनऊ तव मै विशद यश करहु विमल मति मोरि.
दीन  हीन  मुझ अधम  को  आप  उबारो आय,
तुम  मेरी   मनकामना   पूर्ण   करो   सरसाय.
            चौपाई
जय जय जय कुड़हा महरानी, त्रिविध ताप नाशक तिमुहानी. १.
आदि शक्ति अम्बिके  भवानी, तुम्हरी महिमा अकथ कहानी .२.
रवि सम तेज तपै चहुँ  ओरा, करहु कृपा जनि होंहि निहोरा .३.
धवल धाम मंह वास तुम्हारो,  सब मंह सुन्दर लागत न्यारो .४.
तिनकै रचना बरनि न जाई,    सुन्दरता लखि मन ठग जाई.५.
सोहत  इहां  चारि दरवाजा, विविध भॉंति चित्रित छवि छाजा.६.
चवँर घंट बहु भॉंति विराजहिं,मठ पर ध्वजा अलौकिक लागहिं.७.
शीश मुकुट अरु कानन कुण्डल,अरुण बदन से प्रगटै तव बल.८.
रूप   अठ्भुजी   अद्भुत  सोहे,    होय  सुखी  जो  मन से जोहै.९.
तन पर शुभ्र वसन हैं राजत, कर कंकन पद नूपुर छाजत.१०.
विविध भॉंति मन्दिर चहुँ ओरा, चूमत गगन हवै सब ओरा.११.
शंकर महावीर  को  वासा,  औरहु  सुर  सुख पावहिं पासा.१२.
सरवर सुन्दर जहाँ सुहाई,    तेहि कै महिमा बरनि न जाई.१३.
घाट  मनोहर  सुन्दर  सोहैं,      पडत दृष्टि तुरतै मन मोहैं.१४.    
नीर मोति अस निर्मल तासू , अमृत आनि कपूर सुवासू .१५.
पीपल नीम आछि अमराई,        औरहु तरुवर इहां सुहाई .१६.
बहु भांतिन ध्यावैं नर नारी, मन वांछित फल पावहिं चारी.१७.
तुम्हरो ध्यान करहिं जे प्रानी,  होहिं मुक्त रहि जाइ कहानी.१८.
जोगी जती ध्यान जो लावें,      तुरतै सिद्ध पुरुष होई जावै.१९.
नेत्र हीन तव आवहिं पासा,       पूजा करहिं होइ तम नासा.२०.
दिव्य दृष्टि तिनकै होइ जाई,     होहिं सुखी जब होउ सहाई.२१.
पुत्रहीन  कहुं  ध्यान  लगावै,  तुरतै  पुत्रवान  होइ  जावै.२२.
रंक आइ सब नावहिं माथा,   पावहिं धन अरु होंहिं सनाथा.२३.
नाम लेत दुःख दरिद नसाहीं, अक्षत से अरिगन हटी जाहीं.२४.
नित प्रति आइ करहिं जो दर्शन,मनवांछित फल पावै सो जन.२५.
जो सरवर मंह मज्जन करहीं, कलुष  नसाइ  जात  हैं सबहीं.२६.
जो जन मन से ध्यावहिं तुमही,सब विपत्ति से छूटहिं  तबहीं.२७.
सोम  शुक्र  दिन  आवहिं प्रानी,    पूजा करहिं प्रेम रस सानी.२८.
कार्तिक माह पूर्णिमा आवत,     तेहि दिन मेला सुन्दर लागत.२९.
लेत नाम भव भय मिटि जाई,          भूत प्रेत सब भजै पराई.३०.  
पूजा जो जन मन से करहीं,        होहिं सुखी मुद मंगल भरहीं.३१.
दूर दूर से आवहिं प्रानी,            करहिं सुदर्शन मन सुख मानी.३२.
तुम्हरी कीर्ति रही जग छाई,         तेहिते सब जन आवत भाई.३३.
दरश परश कर मन हरषाहीं,     जग दुर्लभ तिनकहु कछु नाहीं.३४.
जो ध्यावें पद मातु तुम्हारे,       भव बन्धन मिटि जाइ सकारे.३५.
बालक प्रमुदित करहिं जो ध्याना, आइ करहिं बहु विनती नाना.३६.
तिन कहँ अवसि सफलता देहू,         बुद्धि बढ़ाइ सुखी करि देहू.३७.
आवहिं नर अरु नावहिं शीशा,           होहिं सुखी पावहिं आशीषा.३८.
जो यह पाठ करै मन लाई,               अम्बे ता कहूँ होहिं सहाई.३९.
'सन्त' सदा चरनन तव दासा,       आय करहु मम ह्रदय निवासा.४०.
                दोहा
      मातु तुम्हारी भक्ति से सुख उपजै मन माहि.
      करहु कृपा हम दीन पर आयहु चरनन माहि..
      मंगलमय तुम मातु हो सदा करहु कल्यान.
      गावहिं सुनहिं जे प्रेम से पावहिं सुन्दर ज्ञान..

कूष्माण्डा माहात्म्य kushmanda mahatmya


                     कूष्माण्डा माहात्म्य 


           या    देवी   सर्व  भूतेषु   मात्र  रूपेण  संस्थिता.
          नमस्तस्यै   नमस्तस्यै  नमस्तस्यै  नमो नमः.
          सुरा    सम्पूर्ण    कलशं     रूधिराप्लुतमेव    च .
          दधाना हस्त पद्माभ्याम कूष्माण्डा शुभदास्तुमे.


माँ भगवती दुर्गा के चौथे स्वरुप का नाम कूष्माण्डा हैं.अपनी मंद हल्की हँसी द्वारा अंड अर्थात ब्रम्हाण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है.
जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था चारो ओर अन्धकार ही अन्धकार परिव्याप्त था  तब इन्ही देवी ने अपने ईषत हास्य से ब्रम्हाण्ड की रचना की थी.अतः यही सृष्टि की आदि स्वरूपा शक्ति है.
इनका निवास सूर्य मण्डल के भीतर के लोक में है सूर्य लोक में निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्ही में है,इनके शरीर की कान्ति और प्रभा भी सूर्य के समान ही देदीप्यमान और भास्वर है,इनके तेज की तुलना इन्ही से की जा सकती है.
इनकी आठ भुजायें है,अतः यह अष्टभुजी देवी के नाम से भी विख्यात है,इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डलु,धनुष,बाण,कमल-पूष्प,अमृत पूर्ण कलश,चक्र,तथा गदा है आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है,इनका वाहन सिंह है,बलियों में इन्हें कुम्हड़े की बलि सर्वाधिक प्रिय है इसलिये भी इन्हें कूष्माण्डा कहा जाता है.
नवरात्र पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरुप की पूजा की जाती है,इस दिन साधक का मन 'अनाहत चक्र' में अवस्थित होता है,इनकी भक्ति से आयु,यश,बल,और आरोग्य की वृद्धि होकर समस्त रोग-शोक विनष्ट हो जाते है,यदि मनुष्य सच्चे ह्रदय से माँ के शरणागत हो जाये तो उसे अत्यन्त सुगमता से परमपद की प्राप्ति हो जाती है,अतः लौकिक,पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिये.

Saturday, September 17, 2011

श्री सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय 'सन्त'


                            प्राक्कथन 
श्री कूष्माण्डा चालीसा का प्रणयन संवत् २०१९ कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को पं.-श्री सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय 'संत'(जन्म 01/01/1938 एवं प्रयाण 10/04/2014) द्वारा हुआ.

यह वही समय है जब विश्व पर अष्टग्रही योग का प्रभाव व्याप्त था और भारत पर चीन का आक्रमण हुआ था.उस समय ये परास्नातक (हिन्दी) के विद्यार्थी थे.ये बचपन से ही शान्त एवं अध्यात्मिक विचारधारा के व्यक्ति रहे हैं.
उस समय तीन वर्ष घाटमपुर में प्रवास करने के दौरान माँ कूड़हा (कूष्माण्डा) देवी के प्रति लगन एवं उनके आशीर्वाद से इनके ह्रदय में ऐसी प्रेरणा हुई कि अपने कृतित्व द्वारा माँ के चरणों में कुछ श्रद्धा सुमन अर्पित किये जायें.
इसी सन्दर्भ में माँ की चालीसा की रचना का विचार उत्पन्न हुआ,उस समय अपने जेब खर्च से इन्होंने इसकी रचना कर एक हजार प्रतियाँ छपवा कर वितरित की,इस क्रम से आज तक इसकी रचना का प्रसाद भक्तों में वितरित होता रहा.
उम्र के अनुभव और अंतर्मन की प्रेरणा से जीवन के उत्तरार्ध में इन्हें पुनः यह विचार आया कि इस रचना को वह पुनः प्रसाद रूप में वितरित करे,किन्तु आज की प्रति में संशोधन एवं कुछ और प्रकरण जो मूल प्रति में थे परन्तु बाद के संस्करणों में उनका अभाव देखा गया,इसलिये रचयिता द्वारा अन्य प्रतियो में छोड़े गये अंशो को पुनः प्रकाशित करना आवश्यक समझा गया साथ ही इसमें कूष्माण्डा पंचामृत,शिव शतनाम को जोड़ा गया है.
इस प्रकार यह संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण पुनः आपके सम्मुख माँ के प्रसाद के रूप में प्रस्तुत है.
इनकी अन्य रचनायें- रानी सारन्धा(खण्ड काव्य), गुलहाये अक़ीदत आदि भी हैं।
      -:निवेदक:- 
 विजय कुमार शुक्ल (आचार्य)
 कानपुर (उत्तर प्रदेश ) 
 मो_9936816114
 vijay.shukla003@gmail.com   

Thursday, September 15, 2011

दान daan


दान के कुछ प्रकार 
१.धन दान 
२.अन्न दान 
३.स्वर्ण दान 
४.भूमि दान 
५.तिल दान 
६.लवण दान 
७.रजत दान 
८.धेनु दान 
९.वृषभ दान 
१०.कन्या दान 
११.दीप दान 
१२.अर्घ्य दान 
१३.सक्तु दान 
१४.कालपुरुदान ष 
१५.गृह दान 
१६.महिष दान 
१७.घृत दान 
१८.शैया  दान 
१९.श्वेताश्व दान 
२०.छत्र दान 
२१.शंख दान 
२२.वस्त्र दान 
२३.अपूप दान 
२४.सौभाग्य वायन दान  
२५.आसन दान 
२६.कलश दान 
२७.पात्र दान 
२८.मुद्रिकादान 
२९.गुप्त दान 
३०.तुला दान 
३१.आरोग्य दान 
३२.प्राण दान 
३३.रक्त दान 
३४.पिण्ड दान 
३५.धर्मोपदेश दान 
३६.प्रेम दान 
३७.क्षमा दान 
३८. अभय दान 
३९.ज्ञान दान 
४०.आत्म दान 
४१.विद्या दान 
४२.जल दान 
४३.सेवा दान 

श्राद्ध shraddh


श्राद्ध शब्द का अर्थ जुड़ा है, श्रद्धा से.
जब तक श्रद्धा नहीं है,श्राद्ध का कोई मतलब नहीं होता है.पितृ पक्ष में पहला दिन पूर्णिमा और अंतिम दिन अमावस्या का होता है,इस तरह सोलह दिन का पितृ पक्ष होता है.
श्राद्ध करने से पितृ गण तृप्त होते है ,साथ ही ब्राम्हण,सूर्य,अश्विनी कुमार,मानव,पशु-पक्षी,तथा सभी प्राणियों की आत्माएं भी तृप्त होती है.
जो व्यक्ति श्राद्ध करते है,उनके परिवार में दुःख नहीं रहता, पर जहां श्राद्ध नहीं होता,वहां वीर पुरुष,निरोगी,शतायु,व्यक्तियों का जन्म नहीं होता.
आपके मन में प्रश्न उठता होगा की आश्विन मास में ही श्राद्ध क्यों?
मान्यता है की अश्विन माह में यमराज अपने पाश से सभी पितृ गणों को मुक्त कर देते है.ताकि वह अपनी-अपनी संतान से श्राद्ध के निमित्त भोजन ग्रहण कार सके.
इस लिये हर किसी को अपने कल्याण मार्ग के लिये अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिये.
श्राद्ध करने का अधिकार पुत्र को दिया गया है.पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है पत्नी न हो तो,पुत्री का पुत्र भी अपने नाना-नानी का श्राद्ध करने का हक़दार मन जाता है.  
श्राद्ध के तीन अंग माने गए हैं-तर्पण,भोजन,और त्याग.
इसमें तर्पण की प्रधानता है तथा जिसकी जितनी श्रद्धा हो,वह उतना भोजन बना कार श्रद्धा से सबको कराये.
तीसरा अंग है त्याग.
इसी अंग के तहत श्राद्ध पक्ष में बनने वाले भोजन को छह भागों में विभाजित किया गया है,गाय,कौवा,बिल्ली,कुत्ता,और ब्राह्मण को भोजन कराकर पितरों को खुश करने की बात शास्त्रों में लिखी गयी है शास्त्रानुसार इन्ही के द्वारा पितरों तक भोजन पहुंचता है.
अतः श्राद्ध संपन्न करते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिये.

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Saturday, September 3, 2011

भगवान श्री कृष्ण bhagavaan shree krishna


भगवान कृष्ण की याद आते ही हाथ में वंशी और मोर-मुकुट आँखों में बस जाते हैं :
कान्हा की असली पहचान उनके प्रतीकों में छिपी हुई है..........
मुरली के बिना कृष्ण की कल्पना नहीं की जा सकती है,इसी तरह मोर-मुकुट,गायेंमाखनऔर दूध से बने खाद्यों के प्रति उनका लगाव,नृत्य और रास उनके व्यक्तित्व से अभिन्न रूप से जुड़े  हुए हैं;इन्ही प्रतीकों के कारण उनका स्वरुप उभर कार आतता है.आइये उनके सौंदर्य औरर मर्म पर थोड़ा विचार करें.
मुरली
अत्यंत सहज, इसे बनाने में किसी तकनीक की आवश्यकता नही पड़ती है इसमें कोई गांठ नहीं होती,एक बार गोपियों ने बांसुरी से कहा,'हे बांसुरी! तुमने ऐसी कौन सी तपस्या की है,जो तुम कृष्ण के होठों पर सहज ही स्थान पाती हो.
वंशी ने कहा,'हे गोपिकाओं!मैंने अपना तन कटवाया,अंग-अंग छिदवाया.
मैंने अपने आपको इस तरह स्थिर किया कि श्री कृष्ण ने जो तान छेड़नी चाही,मैंने उसे ही अपनाया.
मोरपंख
मोरमुकुट धारण करने के पीछे अनेक कथाएं प्रचिलित हैं;
जैसे कि नृत्य-क्रिया में मोर की आँखों से आँसू गिरने लगते है,इन आंसुओं से मोरनी को गर्भ धारण होता है;
इस प्रक्रिया में अंशमात्र भी वासना का भाव नहीं होता;मोर को चिर-ब्रह्मचर्य युक्त प्राणी समझा जाता है,अतः प्रेम में ब्रह्यचर्य की महान भावना को समाहित करने के प्रतीक के रूप में कृष्ण मोरपंख धारण करते है;
इसका गहरा रंग दुःख और कठिनाइयाँ,हल्का रंग सुख,  शान्ति और समृद्धि का प्रतीक मना जाता है;
इस प्रकार श्री कृष्ण ने विरोधाभासों को स्वयं में सम्मिलित कर उच्चतर जीवन मूल्य  की अवधारणा स्थापित की है    

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