Saturday, August 31, 2019

शिवलिङ्ग का महत्व Importance of Shivling

            शिवलिङ्ग का महत्व


शिवोपासना की महिमा का वर्णन शास्त्रों में सर्वत्र मिलता है। लिङ्ग शब्द का साधारण अर्थ चिह्न अथवा लक्षण है। देव-चिह्न के अर्थ में लिङ्ग शब्द शिवजी के ही लिङ्ग के लिए आता है।

पुराण में लयनालिंगमुच्यते कहा गया है अर्थात् लय या प्रलय से लिंग कहते हैं। प्रलय की अग्नि में सब कुछ भस्म होकर शिव में समा जाता है। वेद-शास्त्रादि भी शिव में लीन हो जाते हैं। फिर सृष्टि के आदि में सब कुछ लिङ्ग से ही प्रकट होता है।

 शिव मंदिरों में पाषाण निर्मित शिवलिंगों की
 अपेक्षा बाणलिंगों की विशेषता ही अधिक है। अधिकांश उपासक मृण्मय शिवलिंग अर्थात बाणलिंग की उपासना करते हैं। गरुड़ पुराण तथा अन्य शास्त्रों में अनेक प्रकार के शिवलिंगों के निर्माण का विधान है। उसका संक्षिप्त वर्णन भी पाठकों के ज्ञानार्थ यहां प्रस्तुत है।

दो भाग कस्तूरी, चार भाग चंदन तथा तीन भाग कुंकुम से ‘गंधलिंग’ बनाया जाता है। इसकी यथाविधि पूजा करने से शिव सायुज्य का लाभ मिलता है।

 ‘रजोमय लिंग’ के पूजन से सरस्वती की कृपा मिलती है। व्यक्ति शिव सायुज्य पाता है। जौ, गेहूं, चावल के आटे से बने लिंग को ‘यव गोधूमशालिज लिंग’ कहते हैं।

 इसकी उपासना से स्त्री, पुत्र तथा श्री सुख की प्राप्ति होती है। आरोग्य लाभ के लिए मिश्री से ‘सिता खण्डमय लिंग’ का निर्माण किया जाता है।

 हरताल, त्रिकटु को लवण में मिलाकर लवज लिंग बनाया जाता है। यह उत्तम वशीकरण कारक और सौभाग्य सूचक होता है। पार्थिव लिंग से कार्य की सिद्धि होती है।

 भस्ममय लिंग सर्वफल प्रदायक माना गया है। गुडोत्थ लिंग प्रीति में बढ़ोतरी करता है। वंशांकुर निर्मित लिंग से वंश बढ़ता है। केशास्थि लिंग शत्रुओं का शमन करता है। दुग्धोद्भव लिंग से कीर्ति, लक्ष्मी और सुख प्राप्त होता है।

 धात्रीफल लिंग मुक्ति लाभ और नवनीत निर्मित लिंग कीर्ति तथा स्वास्थ्य प्रदायक होता है। स्वर्णमय लिंग से महाभुक्ति तथा रजत लिंग से विभूति मिलती है। कांस्य और पीतल के लिंग मोक्ष कारक होते हैं। 

पारद शिवलिंग महान ऐश्वर्य प्रदायक माना गया है। लिंग साधारणतया अंगुष्ठ प्रमाण का बनाना चाहिए। पाषाणादि से बने लिंग मोटे और बड़े होते हैं। लिंग से दोगुनी वेदी और उसका आधा योनिपीठ करने का विधान है।

लिंग की लंबाई उचित प्रमाण में न होने से शत्रुओं की संख्या में वृद्धि होती है। योनिपीठ बिना या मस्तकादि अंग बिना लिंग बनाना अशुभ है। 

पार्थिव लिंग अपने अंगूठे के एक पोर के बराबर बनाना चाहिए। इसके निर्माण का विशेष नियम आचरण है जिसका पालन नहीं करने पर वांछित फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। 

लिंगार्चन में बाणलिंग का अपना अलग ही महत्व है। वह हर प्रकार से शुभ, सौम्य और श्रेयस्कर होता है। प्रतिष्ठा में भी पाषाण की अपेक्षा बाण लिंग की स्थापना सरल व सुगम है। 

नर्मदा नदी के सभी कंकर ‘शंकर’ माने गए हैं। इन्हें नर्मदेश्वर भी कहते हैं। नर्मदा में आधा तोला से लेकर मनों तक के कंकर मिलते हैं। यह सब स्वतः प्राप्त और स्वतः संघटित होते हैं। उनमें कई लिंग तो बड़े ही अद्भुत, मनोहर, विलक्षण और सुंदर होते हैं। उनके पूजन-अर्चन से महाफल की प्राप्ति होती है। 

मिट्टी, पाषाण या नर्मदा की जिस किसी मूर्ति का पूजन करना हो, उसकी विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा, स्थापना आदि की विधियां अनेक ग्रंथों मे वर्णित है |

पवित्र मनुष्य सदा ही उत्तराभिमुख होकर शिवार्चन करें।

-मृत्तिका, भस्म, गोबर, आटा, ताँबा और कांस का शिवलिङ्ग बानाकर जो मनुष्य एकबार भी पूजन करता है वह अयुतकल्प तक स्वर्ग में वास करता है।

शिवलिङ्ग की माप

नौ, आठ, और सात अँगुल का शिवलिङ्ग उत्तम होता है। तीन, छः, पाँच तथा चार अँगुल का शिवलिङ्ग मध्यम होता है। तीन, दो, और एक अँगुल का शिवलिङ्ग कनिष्ठ होता है। इस प्रकार यथा क्रम से चर प्रतिष्ठित शिवलिङ्ग नौ प्रकार का कहा गया है।

शूद्र, जिसका उपनयन सँस्कार नहीं हुआ है, स्त्री और पतित ये लोग केशव या शिव का स्पर्श करते हैं तो नरक प्राप्त करते हैं। (स्कन्द पुराण)

स्वयं प्रदुर्भूत बाणलिंग में, रत्नलिंग में, रसनिर्मित लिंग में और प्रतिष्ठित लिंग में चण्ड का अधिकार नहीं होता।

जहाँ पर चण्डाधिकार होता है वहाँ पर मनुष्यों को उसका भोजन नहीं करना चाहिये। जहाँ चण्डाधिकार नहीं होता है वहाँ भक्ति से भोजन करें। (नि.सि.पृ.सं.७२ॉ)

 पृथिवी, सुवर्ण, गौ, रत्न, ताँबा, चाँदी, वस्त्रादि को छोड़कर चण्डेश के लिये निवेदन करें। अन्य अन्न आदि, जल, ताम्बूल, गन्ध और पुष्प, भगवान् शंकर को निवेदित किया हुआ सब चण्डेश को दे देना चाहिये।(नि.सि.पृ.सं.७१९)

विल्वपत्र तीन दिन और कमल पाँच दिन वासी नहीं होता और तुलसी वासी नहीं होती। (नि.सि.पृ.सं.७१८) 

अँगुष्ठ, मध्यमा और अनामिका से पुष्प चढ़ाना चाहिये एवं अँगुष्ठ-तर्जनी से निर्माल्य को हटाना चाहिये।

‘अहं शिवः शिवश्चार्य, त्वं चापि शिव एव हि।
सर्व शिवमयं ब्रह्म, शिवात्परं न किञचन।।

मैं शिव, तू शिव सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। इसीलिए कहा गया है- ‘शिवोदाता, शिवोभोक्ता शिवं सर्वमिदं जगत्।

शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं। सब चाहते हैं अखण्ड आनंद को। शिव का अर्थ है आनंद। शिव का अर्थ है-परम मंगल, परम कल्याण।

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शनि वज्रपिञ्जर-कवच स्तोत्रम् Shani Vajrapinger-Kavach Stotram


           शनि वज्रपिञ्जर-कवच स्तोत्रम्


नीलाम्बरो नीलवपुः कीरीटी गृधस्थितस्त्रासकरो धनुष्मान्।
चतुर्भुजः सूर्यसुतः प्रसन्न: सदा ममता स्याद् वरदः प्रशान्तः।।१।।
                  ब्रह्मा उवाच
श्रृणुध्वमृषयः सर्वे शनिपीड़ाहरं महत्।
 कवचं शनिराजस्य सौरेरिदमुत्तमम्।।२।।
कवचं देवतावासं वज्रपञ्जरसंज्ञकम्। 
शनैश्चरप्रीतिकरं सर्वसौभाग्यदायकम्।।३ ।।
ॐ श्रीशनैश्चरः पातु भालं मे सूर्यनन्दनः। 
नेत्रे छायात्मजः पातु पातु कर्णौ यमानुजः।। ४ ।।
नासां वैवस्वतः पातु मुखं मे भास्करः सदा। 
स्निग्धकण्ठश्च मे कण्ठं भुजौ पातु महाभुजः।।५।।
स्कन्धौ पातु शनिश्चैव करौ पातु शुभप्रदः। 
वक्षः पातु यमभ्राता कुक्षिं पात्वसितस्तथा।।६ ।।
नाभिं गृहपतिः पातु मन्दः पातु कटिं तथा। 
ऊरू ममाऽन्तकः पातु यमो जानायुगं तथा।।७ ।।
पदौ मन्दगतिः पातु सर्वांङ्ग पातु पिप्पलः। 
अंङ्गोपांङ्गानि सर्वाणि रक्षेन् मे सूर्नयन्दनः।।८ ।।
इत्येतत् कवचं दिव्यं पठेत् सूर्यसुतस्य यः। 
न तस्य जायते पीड़ा प्रीतो भवति सूर्यजः।। ९ ।।
व्यय-जन्म-द्वितीयस्थो मृत्युस्थानगतोऽपि वा। 
कलत्रस्थो गतो वाऽपि सुप्रीतस्तु सदा शनिः।।१०।।अष्टमस्थे सूर्यसुते व्यये जन्मद्वितीयगे। 
कवचं पठते नित्यं न पीड़ा जायते क्वचित्।।११।।
इत्येतत् कवचं दिव्यं सौरेर्यन्निर्मितं पुरा। 
द्वादशा-ऽष्टम-जन्मस्थ-दोषान्नशायते सदा। जन्मलग्नस्थितान दोषान् सर्वान्नाशयते प्रभुः।।१२।।

इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे ब्रह्म-नारदसंवादे शनिवज्रपिञ्जर-कवचं सम्पूर्णम् ।।

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रुद्राभिषेक सम्पूर्ण जानकारी। Rudrabhishek complete information

                 रुद्राभिषेक सम्पूर्ण जानकारी


शिव शब्द स्वयं कल्याणवाचक है। भगवान शिव तो विश्वरूप हैं।उनका न कोई स्वरूप है न कोई चिन्ह है।ऐसी अवस्था में उनका पूजन कहाँ और कैसे किया जाए?
चारों वेदों में यजुर्वेद यजन का प्रतीक है।इसी से प्रायः सभी वैदिक उपासनाएँ-सम्पन्न होती हैं।शिव पूजन में प्रायः रुद्राष्टाध्यायी का ही प्रयोग होता है।
हमारे शास्त्रों और पुराणो में पूजन के कई प्रकार बताये गए है लेकिन जब हम शिव लिङ्ग स्वरुप महादेव का अभिषेक करते है तो उस जैसा पुण्य अश्वमेघ यज्ञ से भी प्राप्त नही होता ।
शिव जी को अनन्त मानने से उनका पूजन विभिन्न वस्तुओं एवं नानाप्रकार के लिङ्ग पर भी होता है।
यथा-चाँदी के लिङ्ग का पूजन करने से पितरों की मुक्ति होती है।
स्वर्ण लिङ्ग से वैभव और सत्यलोक, ताम्र एवं पीतल के लिङ्ग से पुष्टि, कांस्य लिङ्ग से सुन्दर यश की प्राप्ति, लौह लिङ्ग से मारण सिद्धि, स्तंभन के लिए हल्दी का लिङ्ग, आयु-आरोग्यता के लिए शीशे के लिङ्ग शुभफलदायी होता है।
रत्न लिङ्ग श्रीप्रद होता है।गोमय लिङ्ग का पूजन करने से अतुल ऐश्वर्य प्राप्त होता है।किन्तु दूसरे के लिए करने पर मारक होता है।इसी प्रकार अनेक लिङ्ग का वर्णन मिलता है।
इस पर भी पार्थिव शिवलिङ्ग का पूजन सर्वोपरि एवं सुगम बताया गया है।
स्वयं श्रृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है की जब हम रुद्राभिषेक करते है तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करते  है । संसार में ऐसी कोई वस्तु , कोई भी वैभव , कोई भी सुख , ऐसी कोई भी वस्तु या पदार्थ नही है जो हमें अभिषेक से प्राप्त न हो सके! वैसे तो अभिषेक कई प्रकार से बताये गये है । लेकिन मुख्य पांच ही प्रकार है ! 

(1) रूपक या षडंग पाठ - रूद्र के छः अंग कहे गये है इन छह अंग का यथा विधि पाठ षडंग पाठ कहा गया है ।

● शिव संकल्प सुक्त(प्रथम अध्याय के अंतिम 6 श्लोक) --- 1. प्रथम हृदय रूपी अंग है ।

● पुरुष सुक्त (द्वितीय अध्याय 16 श्लोक)--- 2. द्वितीय सर रूपी अंग है।

● उत्तर नारायण सूक्त(द्वितीय अध्याय अंतिम 6 श्लोक)--3.आत्मा रूप तृतीय अंग है।

● अप्रतिरथ सूक्त(तृतीय अध्याय 12 श्लोक) --- 4. कवचरूप चतुर्थ अंग है ।

● मैत्रसूक्त(चतुर्थ अध्याय 12 श्लोक)--- 5. नेत्र रूप पंचम अंग कहा गया है ।

● शतरुद्रिय(मुख्य रूप से पंचम अध्याय) --- 6. अस्तरूप षष्ठ अंग कहा गया है।

(1) इस प्रकार - सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायी के दस अध्यायों का  पाठ षड़ंग रूपक पाठ कहलाता है षडंग पाठ में विशेष बात है की इसमें आठवें अध्याय के साथ पांचवे अध्याय की आवृति नही होती है।

(2) रुद्री या एकादिशिनि - रुद्राध्याय की  ग्यारह आवृति को रुद्री या एकादिशिनी कहते है रुद्रो की संख्या ग्यारह होने के कारण ग्यारह अनुवाद में विभक्त किया गया है।

(3) लघुरुद्र- एकादिशिनी रुद्री की ग्यारह आवृतियों के पाठ के लघुरुद्र पाठ कहा गया है।

यह लघु रूद्र अनुष्ठान एक दिन में ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ संपन्न किया जा सकता है । तथा एक ब्राह्मण द्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादशिनी पाठ नित्य करने पर भी लघु रूद्र संपन्न होती है।

(4) महारुद्र -- लघु रूद्र की ग्यारह आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री का 121 आवृति पाठ होने पर महारुद्र अनुष्ठान होता है । यह पाठ ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा 11 दिन तक कराया जाता है । 

(5) अतिरुद्र - महारुद्र की 11 आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री का 1331 आवृति पाठ होने से अतिरुद्र अनुष्ठान संपन्न होता है।
ये अनुष्ठात्मक, अभिषेकात्मक, हवनात्मक 
तीनो प्रकार से किये जा सकते है शास्त्रों में इन तीनों अनुष्ठानो का अत्यधिक फल है व तीनो का फल समान है। 

रुद्राभिषेक प्रयुक्त होने वाले प्रमुख द्रव्य व उनका फल 

1. जलसे रुद्राभिषेक -- वृष्टि होती है 

2. कुशोदक जल से -- समस्त प्रकार की व्याधि की शांति 

3. दही से अभिषेक --संतान व  पशुवृद्धि प्राप्ति होती है 

4. इक्षु रस -- लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए 

5. मधु (शहद)-- धन प्राप्ति के लिए, क्षय (तपेदिक)।

6. घृत --ऐश्वर्य प्राप्ति।
7. तीर्थ जल से  -- मोक्ष प्राप्ति के लिए।

8. दूध से अभिषेक --  से प्रमेह रोग का विनाश व पुत्र प्राप्ति होती है ।

9. जल की धारा भगवान शिव को अति प्रिय है अत: ज्वर के कोपो को शांत करने के लिए जल धारा से अभिषेक करना चाहिए।

10. सरसों के तेल से अभिषेक करने से शत्रु का विनाश होता है।यह अभिषेक विवाद मुकदमे सम्पति विवाद न्यायालय में विवाद को दूर करते है।

11.शक्कर मिले जल से पुत्र की प्राप्ति होती है ।

12. इत्र मिले जल से अभिषेक करने से शरीर की बीमारी नष्ट होती है ।

13. दूध से मिले काले तिल से अभिषेक करने से भगवन शिव का अभिषेक करने से  रोग व शत्रु पर विजय प्राप्त होती है ।

14.समस्त प्रकार के प्राकृतिक रसो से अभिषेक किया जा सकता है ।

नोट--उपरोक्त द्रव्यों से शिवलिंग का अभिषेक करने पर भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न होकर भक्तो की सभी कामनाओं की पूर्ति करते है ।

अत: भक्तो को यजुर्वेद विधान से रुद्रो का अभिषेक करना चाहिए ।

विशेष बात :- रुद्राध्याय के केवल पाठ अथवा जप से ही सभी कामनाओं की पूर्ति होती है 

रूद्र का पाठ या अभिषेक करने या कराने वाला महापातक  से मुक्त होकर सम्यक ज्ञान को प्राप्त होता है ।

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गायत्री मंत्र की महिमा Glory of gayatri mantra

गायत्री


गायत्री आदिशक्ति हैं उनका मंत्र अतिशय प्रभाव कारी और पवित्र है।महादेवी गायत्री वरदायिनी है,ब्रह्मस्वरूपिणी है।
परमेश्वरी भी वही है। उनका श्री विग्रह अड़हुल के फूल जैसा है। वह कुमारी अवस्था में विराजमान है। रक्त चंदन से अनुलिप्त वे रक्तकमल पर आसीन है, वे रक्त माला और रक्त वस्त्र धारण किए रहती हैं। उनके चार मुख और चार भुजाएं हैं। उनके प्रत्येक मुख में दो-दो नेत्र हैं उनके हाथों में जप माला,स्रुक्,स्रुवा और कमण्डलु है। उत्तम आभरणों से उनका दिव्य शरीर चमकता रहता है।
वे निरंतर ऋग्वेद के अध्ययन में निरत हैं। उनका वाहन हंस है। ब्रह्मा उनकी उपासना और ध्यान में निरंतर लीन है। चार वेद उनके 4 पद हैं।
उनके 7 सिर हैं- व्याकरण, शिक्षा, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, इतिहास- पुराण और उपनिषद्। 
ब्रह्मा उनके कवच हैं, सांख्यायन उनका गोत्र है तथा वे आदित्य-मण्डल में विराजमान है।

गायत्री मंत्र की महिमा

माता गायत्री को कामधेनु कहा गया है,(विशेष कर ब्राह्मणों के लिए) अर्थात् सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली।
गायत्री मंत्र वेदों का एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है जिसकी महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी गई है। यह यजुर्वेद के मन्त्र 'ॐ भूर्भुवः स्वः' और ऋग्वेद के छन्द 3.62.10 के मेल से बना है। इस मंत्र में सवितृ देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रुप मे भी पूजा जाता है।
गायत्री मन्त्र
ॐ भूर् भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं।भर्गो देवस्य धीमहि। धियो योनः प्रचोदयात्।
माता गायत्री के अस्त्र-शस्त्र वेद और कमंडल हैं।जीवनसाथी ब्रह्मा को माना गया है, और उनका वाहन हंस है।
'गायत्री' एक छन्द भी है जो ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंदों में एक है। इन सात छंदों के नाम हैं- गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, विराट, त्रिष्टुप् और जगती। गायत्री छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण होते हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में त्रिष्टुप् को छोड़कर सबसे अधिक संख्या गायत्री छंदों की है। गायत्री के तीन पद होते हैं (त्रिपदा वै गायत्री)। अतएव जब छंद या वाक के रूप में सृष्टि के प्रतीक की कल्पना की जाने लगी तब इस विश्व को त्रिपदा गायत्री का स्वरूप माना गया। जब गायत्री के रूप में जीवन की प्रतीकात्मक व्याख्या होने लगी तब गायत्री छंद की बढ़ती हुई महिमा के अनुरूप विशेष मंत्र की रचना हुई, जो इस प्रकार है:
तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्। (ऋग्वेद ३,६२,१०)
गायत्री मन्त्र का देवी के रूप में चित्रण
ॐ भूर्भुवः स्व:।तत् सवितुर्वरेण्यं।भर्गो देवस्य धीमहि।धियो यो नः प्रचोदयात् ॥हिन्दी में भावार्थ 
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
परिचय
यह मंत्र सर्वप्रथम ऋग्वेद में उद्धृत हुआ है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। वैसे तो यह मंत्र विश्वामित्र के इस सूक्त के १८ मंत्रों में केवल एक है, किंतु अर्थ की दृष्टि से इसकी महिमा का अनुभव आरंभ में ही ऋषियों ने कर लिया था और संपूर्ण ऋग्वेद के १० सहस्र मंत्रों में इस मंत्र के अर्थ की गंभीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। इस मंत्र में २४ अक्षर हैं। उनमें आठ आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। किंतु ब्राह्मण ग्रंथों में और कालांतर के समस्त साहित्य में इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मंत्र का पूरा स्वरूप इस प्रकार स्थिर हुआ:
(१) ॐ(२) भूर्भव: स्व:(३) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है।
गायत्री तत्व क्या है? और क्यों इस मंत्र की इतनी महिमा है?
इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है। आर्ष मान्यता के अनुसार गायत्री एक ओर विराट् विश्व और दूसरी ओर मानव जीवन, एक ओर देवतत्व और दूसरी ओर भूततत्त्व, एक ओर मन और दूसरी ओर प्राण, एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म के पारस्परिक संबंधों की पूरी व्याख्या कर देती है। इस मंत्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के नाना रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो समस्त देवों को प्रेरित करता है। जाग्रत् में सवितारूपी मन ही मानव की महती शक्ति है। जैसे सविता देव है वैसे मन भी देव है (देवं मन: ऋग्वेद, १,१६४,१८)। मन ही प्राण का प्रेरक है। मन और प्राण के इस संबंध की व्याख्या गायत्री मंत्र को इष्ट है। सविता मन प्राणों के रूप में सब कर्मों का अधिष्ठाता है, यह सत्य प्रत्यक्षसिद्ध है। इसे ही गायत्री के तीसरे चरण में कहा गया है। ब्राह्मण ग्रंथों की व्याख्या है-कर्माणि धिय:, अर्थातृ जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं वह केवल मन के द्वारा होनेवाले विचार या कल्पना सविता नहीं किंतु उन विचारों का कर्मरूप में मूर्त होना है। यही उसकी चरितार्थता है। किंतु मन की इस कर्मक्षमशक्ति के लिए मन का सशक्त या बलिष्ठ होना आवश्यक है। उस मन का जो तेज कर्म की प्रेरण के लिए आवश्यक है वही वरेण्य भर्ग है। मन की शक्तियों का तो पारवार नहीं है। उनमें से जितना अंश मनुष्य अपने लिए सक्षम बना पाता है, वहीं उसके लिए उस तेज का वरणीय अंश है। अतएव सविता के भर्ग की प्रार्थना में विशेष ध्वनि यह भी है कि सविता या मन का जो दिव्य अंश है वह पार्थिव या भूतों के धरातल पर अवतीर्ण होकर पार्थिव शरीर में प्रकाशित हो। इस गायत्री मंत्र में अन्य किसी प्रकार की कामना नहीं पाई जाती। यहाँ एक मात्र अभिलाषा यही है कि मानव को ईश्वर की ओर से मन के रूप में जो दिव्य शक्ति प्राप्त हुई है उसके द्वारा वह उसी सविता का ज्ञान करे और कर्मों के द्वारा उसे इस जीवन में सार्थक करे।
व्याहृतियों  तथा ॐ की व्याख्या
गायत्री के पूर्व में जो तीन व्याहृतियाँ हैं, वे भी सहेतुक हैं। भू पृथ्वीलोक, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव जगत् और जाग्रत् अवस्था का सूचक है।
भुव: अंतरिक्षलोक, यजुर्वेद, वायु देवता, प्राणात्मक जगत् और स्वप्नावस्था का सूचक है।
स्व: द्युलोक, सामवेद, आदित्यदेवता, मनोमय जगत् और सुषुप्ति अवस्था का सूचक है। इस त्रिक के अन्य अनेक प्रतीक ब्राह्मण, उपनिषद् और पुराणों में कहे गए हैं, किंतु यदि त्रिक के विस्तार में व्याप्त निखिल विश्व को वाक के अक्षरों के संक्षिप्त संकेत में समझना चाहें तो उसके लिए ही यह ॐ संक्षिप्त संकेत गायत्री के आरंभ में रखा गया है। अ, उ, म इन तीनों मात्राओं से ॐ का स्वरूप बना है। अ अग्नि, उ वायु और म आदित्य का प्रतीक है। यह विश्व प्रजापति की वाक् है। वाक् का अनंत विस्तार है किंतु यदि उसका एक संक्षिप्त नमूना लेकर सारे विश्व का स्वरूप बताना चाहें तो अ, उ, म या ॐ कहने से उस त्रिक का परिचय प्राप्त होगा जिसका स्फुट प्रतीक त्रिपदा गायत्री है।
गायत्री उपासना का विधि-विधान
गायत्री उपासना कभी भी, किसी भी स्थिति में की जा सकती है। हर स्थिति में यह लाभदायी है, परन्तु विधिपूर्वक भावना से जुड़े न्यूनतम कर्मकाण्डों के साथ की गयी उपासना अति फलदायी मानी गयी है। तीन माला गायत्री मंत्र का जप अत्यन्त आवश्यक माना गया है। शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहिए।
उपासना की विधि-
(१) ब्रह्म सन्ध्या - जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है। इसके अंतर्गत पाँच कृत्य करने होते हैं।
(अ) पवित्रीकरण - बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें एवं मंत्रोच्चारण के बाद जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें।
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थांगतोऽपि वा।यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु।
(ब) आचमन - वाणी, मन व अंतःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें। हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाए।
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।
(स) शिखा स्पर्श एवं वंदन - शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे। निम्न मंत्र का उच्चारण करें।
ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥
(द) प्राणायाम - श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ किया जाए।
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ।
(य) न्यास - इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि देव-पूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें।
ॐ वां मे आस्येऽस्तु। (मुख को)ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को)ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को)ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को)ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों भुजाओं को)ॐ ऊर्वोमे ओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को)ॐ अरिष्टानि मेऽंगानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। (समस्त शरीर पर)
आत्मशोधन की ब्रह्म संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि सााधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो। पवित्र-प्रखर व्यक्ति ही भगवान के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते हैं।
(२) देवपूजन - गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतम्भरा गायत्री है। उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मंत्र के माध्यम से आवाहन करें। भावना करें कि साधक की प्रार्थना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है।
ॐ आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।गायत्रिच्छन्दसां मातः! ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥
ॐ श्री गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, ततो नमस्कारं करोमि।
(ख) गुरु - गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवंदन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरु आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें।
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः।गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥अखण्डमंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्।तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ॐ श्रीगुरवे नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(ग) माँ गायत्री व गुरु सत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापित करने हेतु पंचोपचार द्वारा पूजन किया जाता है। इन्हें विधिवत् संपन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें।
जल का अर्थ है - नम्रता-सहृदयता।
अक्षत का अर्थ है - समयदान अंशदान।
पुष्प का अर्थ है - प्रसन्नता-आंतरिक उल्लास। धूप-दीप का अर्थ है - सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य-परमार्थ तथा
नैवेद्य का अर्थ है - स्वभाव व व्यवहार में मधुरता-शालीनता का समावेश।

इन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी अर्पित कर सकते हैं।अप्रत्यक्ष रूप से अर्पण करने को मानसोपचार कहते हैं यथा:-
लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि
हं आकशात्मकं पुष्पं समर्पयामि
यं वायव्यात्मकं धूपं समर्पयामि
रं तैजसात्मकं दीपं समर्पयामि
वं अमृतात्मकं नैवेद्यं समर्पयामि
सं सर्वात्मकं पुष्पांजलिं समर्पयामि
ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से संपन्न करने के लिए किये जाते हैं। कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है।
(३) जप - गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाए। अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम। होठ हिलते रहें, किन्तु आवाज इतनी मंद हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें। जप प्रक्रिया कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए की जाती है।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि हम निरन्तर पवित्र हो रहे हैं। दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है।
(४) ध्यान - जप तो अंग-अवयव करते हैं, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों को शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की भावना की जाती है, जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है।
(५) सूर्यार्घ्यदान - विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में र्अघ्य रूप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है।
ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते।अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः॥
भावना यह करें कि जल आत्म सत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित हो रही है।
इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर देवताओं को करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जाए। जप के लिए माला तुलसी, चंदन या रुद्राक्ष की ही लेनी चाहिए। सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है।
मौन-मानसिक जप चौबीस घण्टे किया जा सकता है। माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें।



गायत्री मंत्र के विविध प्रयोग
Various uses of Gayatri Mantra


श्रीमद् देवी भागवत के 11 वें स्कंध में कामना सिद्धि और उपद्रव शांति के लिए गायत्री के विविध प्रयोग बताए गए हैं।यहां कतिपय प्रयोग उपन्यस्त हैं-

1- शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे गायत्री का सौ बार जप करने से भौतिक रोगों एवं आभिचारिक भय से मुक्ति मिलती है।

2- गिलोय को खंड खंड करके उसे दूध में भिगोकर गायत्री मंत्र से अग्नि में उसका हवन करे। इस होम को मृत्युंजय कहते हैं, इसमें संपूर्ण व्याधियों के विनाश की शक्ति है।

3- ज्वर की शांति के लिए दूध में आम के पत्तों को भिगोकर गायत्री मंत्र से उनका हवन करना चाहिए।

4- दूध में भिगोए हुए मीठे वच का गायत्री मंत्र से हवन करने पर क्षयरोग का शमन होता है।

5- मधुत्रय* (घी दूध और मधु)- से गायत्री मंत्र द्वारा किए गए हवन से राज्यक्षमा को दूर करने की शक्ति प्राप्त होती है।

6- गायत्री मंत्र से खीर का हवन कर उसे सूर्य भगवान् को अर्पित करे, फिर प्रसाद स्वरूप उसका प्राशन करने से राज्यक्षमा का उपद्रव शांत होता है।

7- शंख वृक्ष के पुष्प का गायत्री मंत्र द्वारा हवन करने से कुष्ठ रोग का निवारण होता है।

8- अपामार्ग (चिरचिटा)- के बीज का गायत्री मंत्र द्वारा हवन करने से मिर्गी रोग की शांति होती है।

9- गायत्री मंत्र द्वारा अभिमंत्रित जल पीने से भूत, प्रेत आदि के उपद्रवों से मनुष्यों को मुक्ति मिलती है।

10- भूत, प्रेत, व्याधि आदि के उपद्रव को शांत करने के लिए 100 बार गायत्री मंत्र के उच्चारण से अभिमंत्रित भस्म को सिर पर धारण करना चाहिए, ललाट पर लगाना चाहिए।

11- लक्ष्मी की कामना की सिद्धि के लिए गायत्री मंत्र द्वारा लाल फूलों से हवन करना चाहिए।

12- बेल के फल के टुकड़ों, पत्रों और पुष्पों से गायत्री मंत्र द्वारा हवन करने से उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इसमें समिधाएं भी बिल्ववृक्ष की ही होनी चाहिए।

13- पलाश, पीपल, गूलर, पाकड़ और बरगद की लकड़ी से गायत्री मंत्र के उच्चारण के साथ हवन करने से आयु की वृद्धि होती है।

14- मधुत्रय से युक्त लाजा (लावा)- का गायत्री मंत्र द्वारा हवन करने से वर को इच्छित कन्या की प्राप्ति होती है और इसी विधि से हवन करने पर कन्या को अभिलषित वर की प्राप्ति होती है।

15- एक पैर पर खड़े होकर बिना किसी सहारे के बाहों को ऊपर उठाए हुए तीन सौ गायत्री मंत्रों का महीने भर जप करने से संपूर्ण कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

यह अनुभूत प्रयोग है कि यदि छोटा बच्चा लगातार रोये, चुप ना हो और उसे नींद भी ना आए तो शरीर से पवित्र होकर श्रद्धा भाव से गायत्री मंत्र पढ़ते हुए उसके शरीर पर धीरे-धीरे हाथ फेरने से वह चुप हो जाता है और उसे नींद भी आ जाती है।

इस प्रकार गायत्री देवी के मंत्र की महिमा अपार है। गायत्री मंत्र का नित्य जप करने से से अपुत्र को पुत्र की प्राप्ति होती है,, दरिद्र धन लाभ करता है मनुष्य यशस्वी होता है, विद्यार्थी बुद्धि और विद्या से संपन्न हो जाता है तथा गायत्री माता उस पर प्रसन्न होकर उसकी सारी अभिलाषाएँ  पूरी कर देती हैं।
श्रीमद् देवी भागवत(12/14/27)- का यह प्रार्थना श्लोक देवी गायत्री की प्रसन्नता के निमित्त भक्ति भाव पूर्वक पाठ करना चाहिए-

सच्चिदानंद रूपां तां गायत्रीप्रतिपादिताम्।नमामि ह्रींमयीं देवीं धियो यो नः प्रचोदयात्।।


अर्थात् जो भगवती सच्चिदानन्द स्वरूपिणी है,  वे ही भगवती गायत्री के नाम से विख्यात है। उन ह्रीं मयी देवी को मैं प्रणाम करता हूं। मेरी बुद्धि को सत्प्रेरणा प्रदान करने की कृपा करें।
साभार:-
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Friday, August 30, 2019

कल्याणवृष्टिस्तवः kalyaanavrshtistavah


     ॥ कल्याणवृष्टिस्तवः ॥
कल्याणवृष्टिभिरिवामृतपूरिताभि-,
र्लक्ष्मीस्वयंवरणमङ्गलदीपिकाभिः ।
सेवाभिरम्ब तव पादसरोजमूले,
नाकारि किं मनसि भाग्यवतां जनानाम् ॥ १॥

एतावदेव जननि स्पृहणीयमास्ते,
त्वद्वन्दनेषु सलिलस्थगिते च नेत्रे ।
सान्निध्यमुद्यदरुणायुतसोदरस्य,
त्वद्विग्रहस्य परया सुधयाप्लुतस्य ॥ २॥

ईशात्वनामकलुषाः कति वा न सन्ति,
ब्रह्मादयः प्रतिभवं प्रलयाभिभूताः ।
एकः स एव जननि स्थिरसिद्धिरास्ते,
यः पादयोस्तव सकृत्प्रणतिं करोति ॥ ३॥

लब्ध्वा सकृत्त्रिपुरसुन्दरि तावकीनं,
कारुण्यकन्दलितकान्तिभरं कटाक्षम् ।
कन्दर्पकोटिसुभगास्त्वयि भक्तिभाजः,
संमोहयन्ति तरुणीर्भुवनत्रयेऽपि ॥ ४॥

ह्रींकारमेव तव नाम गृणन्ति वेदा,
मातस्त्रिकोणनिलये त्रिपुरे त्रिनेत्रे ।
त्वत्संस्मृतौ यमभटाभिभवं विहाय,
दीव्यन्ति नन्दनवने सह लोकपालैः ॥ ५॥

हन्तुः पुरामधिगलं परिपीयमानः,
क्रूरः कथं न भविता गरलस्यवेगः ।
नाश्वासनाय यदि मातरिदं तवार्धं,
देवस्य शश्वदमृताप्लुतशीतलस्य ॥ ६॥

सर्वज्ञतां सदसि वाक्पटुतां प्रसूते,
देवि त्वदङ्घ्रिसरसीरुहयोः प्रणामः ।
किं च स्फुरन्मुकुटमुज्ज्वलमातपत्रं,
द्वे चामरे च महतीं वसुधां ददाति ॥ ७॥

कल्पद्रुमैरभिमतप्रतिपादनेषु,
कारुण्यवारिधिभिरम्ब भवत्कटाक्षैः ।
आलोकय त्रिपुरसुन्दरि मामनाथं,
त्वय्येव भक्तिभरितं त्वयि बद्धतृष्णम् ॥ ८॥

हन्तेतरेष्वपि मनांसि निधाय चान्ये,
भक्तिं वहन्ति किल पामरदैवतेषु ।
त्वामेव देवि मनसा समनुस्मरामि,
त्वामेव नौमि शरणं जननि त्वमेव ॥ ९॥

लक्ष्येषु सत्स्वपि कटाक्षनिरीक्षणाना-,
मालोकय त्रिपुरसुन्दरि मां कदाचित् ।
नूनं मया तु सदृशः करुणैकपात्रं,
जातो जनिष्यति जनो न च जायते वा ॥ १०॥

ह्रींह्रीमिति प्रतिदिनं जपतां तवाख्यां,
किं नाम दुर्लभमिहत्रिपुराधिवासे ।
मालाकिरीटमदवारणमाननीया,
तान्सेवते वसुमती स्वयमेव लक्ष्मीः ॥ ११॥

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि,
साम्राज्यदाननिरतानि सरोरुहाक्षि ।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि,
मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यम् ॥ १२॥

कल्पोपसंहृतिषु कल्पितताण्डवस्य,
देवस्य खण्डपरशोः परभैरवस्य ।
पाशाङ्कुशैक्षवशरासनपुष्पबाणा,
सा साक्षिणी विजयते तव मूर्तिरेका ॥ १३॥

लग्नं सदा भवतु मातरिदं तवार्धं,
तेजः परं बहुलकुङ्कुम पङ्कशोणम् ।
भास्वत्किरीटममृतांशुकलावतंसं,
मध्ये त्रिकोणनिलयं परमामृतार्द्रम् ॥ १४॥

ह्रींकारमेव तव नाम तदेव रूपं,
त्वन्नाम दुर्लभमिह त्रिपुरे गृणन्ति ।
त्वत्तेजसा परिणतं वियदादिभूतं,
सौख्यं तनोति सरसीरुहसम्भवादेः ॥ १५॥

ह्रींकारत्रयसम्पुटेन महता मन्त्रेण सन्दीपितं,
स्तोत्रं यः प्रतिवासरं तव पुरो मातर्जपेन्मन्त्रवित् ।
तस्य क्षोणिभुजो भवन्ति वशगा लक्ष्मीश्चिरस्थायिनी,
वाणी निर्मलसूक्तिभारभरिता जागर्ति दीर्घं वयः ॥ १६॥

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ कल्याणवृष्टिस्तवः सम्पूर्णः ॥

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माता महालक्ष्मी जी की आरती Aarti of Goddess Mahalaxmi


माता महालक्ष्मी जी की आरती

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।
तुमको निसि दिन सेवत, हर विष्णु धाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ... 
उमा, रमा ब्रह्माणी, तुम ही जग माता ।
सूर्य चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...
दुर्गा रूप निरंजनि, सुख संपत्ति दाता ।
जो कोई तुमको ध्याता, रिधि सिधि धन पाता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...
तुम पाताल निवासिनी, तुम ही शुभ दाता ।
कर्म प्रभाव प्रकाशिनि, भव निधि की त्राता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...
जिस घर में तुम रहती तहं,सब सदगुण आता।
सब सम्भव हो जाता, मन नहिं घबराता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...
तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न हो पाता ।
खान पान का वैभव सब तुमसे आता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ... 
शुभ गुण मन्दिर सुंदर, क्षीरोदधि जाता ।
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहिं पाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ...
महालक्ष्मी जी की आरती, जो कोई नर गाता ।
आ आनन्द समाता, पाप उतर जाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता ... 
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हरितालिकातीजव्रत 2019 Haritalikatijavrat 2019

           हरितालिकातीजव्रत 2019


श्री महावीर पञ्चाङ्ग के अनुसार 01 सितम्बर 2019  रविवार को द्वितीया प्रातः 11:02 तक है, तत्पश्चात तृतीया तिथि प्रारम्भ हो जाएगी।साथ ही 03:09 pm तक उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का मान है।उसके बाद हस्त नक्षत्र प्रारम्भ हो जाएगा।
पुनः 02 सितम्बर 2019 सोमवार को तृतीया तिथि का मान 09:02 am तक है और हस्त नक्षत्र दिन में 01:35 मिनट तक है। और इस पञ्चाङ्ग में स्पष्ट रूप से हरितालिका तीज व्रत और गणेश चतुर्थी(गणेश महोत्सव) ये दोनों पर्व 2 सितम्बर को ही मनाये जाएंगे।

● चूँकि हरितालिकातीज  का पूजन व्रत प्रदोष काल में होता है।
हस्त नक्षत्र में होता है।
ये सारी स्थिति 01 सितम्बर रविवार को हमे मिल रही है।इसलिए यह व्रत 01 सितम्बर को करना उचित जान पड़ता है।

● साथ ही मान्यता यह भी है कि इन व्रत का पारण हस्त नक्षत्र में नही होता है।
और उत्तर भारत में उदया तिथि को सम्पूर्ण माना जाता है।अतः 02 सितम्बर सोमवार को उदया तिथि और नक्षत्र का मान प्राप्त है अतः ये व्रत 2 सितम्बर को ही करना उचित होगा।

● अतः दोनों दिन ही यह व्रत किया जा सकता है इसमें कोई भ्रम की स्थिति नही हैं।दोनों दिन ही शुभ फल की प्रप्ति होगी।

इस बार हरितालिका व्रत करने मे लोग भ्रम की स्थिति में हैं कारण इस विषय में किसी भी पञ्चाङ्ग कर्ता ने स्पष्ट नहीं किया है।अर्थात् जिसने 1 सितम्बर को हरितालिका व्रत का निर्णय दिया है उसने भी, या 2 सितम्बर को जिसने निर्णय दिया है उसने भी।
दोनों को अपने अपने मन्तव्य का स्पष्टीकरण भी देना चाहिए कि उन्होंने ऐसा निर्णय किसलिए दिया है।
जब कोई त्योहार व्यापक रूप से मनाया जाता है तो इस तरह की भ्रम की स्थिति नही होनी चाहिए।अन्यथा हमारी संस्कृति का ह्रास होना शुरू हो जाएगा।
हमें आपस मे बैठकर पहले निर्णय लेकर तब प्रकाशन करना चाहिए।
पञ्चाङ्ग  हमारी संस्कृति में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

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Thursday, August 29, 2019

श्री विष्णु सहस्त्रनाम. Shree vishnu sahastranam

श्री विष्णु सहस्त्रनाम
Shree vishnu sahastranam

ॐ विष्णवे नमः
ॐ श्री परमात्मने नमः ।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
अथ श्रीविष्णुसहस्त्रनाम स्तोत्रम्
यस्य स्मरणमात्रेन जन्मसंसारबन्धनात्‌ ।
विमुच्यते नमस्तमै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥
नमः समस्तभूतानां आदिभूताय भूभृते ।
अनेकरुपरुपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ॥
वैशम्पायन उवाच
श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः ।
युधिष्टिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ।१।
युधिष्ठिर उवाच
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम्‌ ।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम्‌ ।२।
को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः ।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात्‌ ।३।
भीष्म उवाच
जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम्‌ ।
स्तुवन्नामसहस्त्रेण पुरुषः सततोत्थितः ।४।
तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम्‌ ।
ध्यायन्स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ।५।
अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।
लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत्‌ ।६।
ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम्‌ ।
लोकनाथं महद्‌भूतं सर्वभूतभवोद्भभवम्‌ ।७।
एष मे सर्वधर्माणां धर्माऽधिकतमो मतः ।
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ।८।
परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः ।
परमं यो महद्‌ब्रह्म परमं यः परायण्म्‌ ।९।
पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम्‌ ।
दैवतं देवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ।१०।
यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे ।
यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ।११।
तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते ।
विष्णोर्नामसहस्त्रं मे श्रॄणु पापभयापहम्‌ ।१२।
यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः ।
ॠषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ।१३।
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्‌कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः ।१४।
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः ।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ।१५।
योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।
नारसिंहवपुः श्रीमान्केशवः पुरुषोत्तमः ।१६।
सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः ।
सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ।१७।
स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ।१८।
अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ।१९।
अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम्‌ ।२०।
ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ।२१।
ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान्‌ ।२२।
सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ।२३।
अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युत ।
वृषाकपरिमेयत्मा सर्वयोगविनिःसृतः ।२४।
वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्मा सम्मितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ।२५।
रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः ।
अमृतः शाश्वतः स्थाणुर्वरारोहो महातपाः ।२६।
सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित्कविः ।२७।
लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माधक्षः कृताकृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ।२८।
भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ।२९।
उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरुर्जितः ।
अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ।३०।
वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।
अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ।३१।
महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः ।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक ।३२।
महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुध्दः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ।३३।
मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ।३४।
अमृत्युः सर्वदृक्‌ सिंहः सन्धाता सन्धिमान्स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रृतात्मा सुरारिहा ।३५।
गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्त्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ।३६।
अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान्न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्त्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्‌ ।३७।
आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सम्प्रमर्दनः ।
अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः ।३८।
सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः ।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः ।३९।
असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ।४०।
वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः ।४१।
सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः ।
नैकरुपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ।४२।
ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः ।४३।
अमृतांशूद्भवो भानुः शशविन्दुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः ।४४।
भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः ।
कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ।४५।
युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्योऽव्यक्तरुपश्च सहस्त्रजिदनन्तजित्‌ ।४६।
इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ।४७।
अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपां निधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ।४८।
स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ।४९।
अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ।५०।
पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत्‌ ।
महर्ध्दिर्‌ऋध्दो वृध्दात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ।५१।
अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान्समितिञ्जयः ।५२।
विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ।५३।
उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनोगुहः ।५४।
व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।
परर्ध्दिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ।५५।
रामो विरामो विरजो मार्गो नेयोऽनयः ।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ।५६।
वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ।५७।
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ।५८।
विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम्‌ ।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ।५९।
अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयुपो महामखः ।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ।६०।
यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम्‌ ।६१।
सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत्‌ ।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ।६२।
स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत्‌ ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ।६३।
धर्मगुब्धर्मकृध्दर्मी सदसत्क्षरमक्षरम्‌ ।
अविज्ञाता सहस्त्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ।६४।
गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्‌गुरुः ।६५।
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ।६६।
सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः ।६७।
जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः ।
अम्भोनिधिरनन्तामा महोदधिशयोऽन्तकः ।६८।
अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ।६९।
महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत्‌ ।७०।
महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी ।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ।७१।
वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणोऽच्युतः ।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ।७२।
भगवान्‌ भगहानन्दी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ।७३।
सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिविस्पृक्सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ।७४।
त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक्‌ ।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम्‌ ।७५।
शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।७६।
अनिवर्ती निवृत्तामा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ।७७।
श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः ।७८।
स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः ।
विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ।७९।
उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ।८०।
अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुध्दात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ।८१।
कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ।८२।
कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनंजयः ।८३।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्‌‍ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद्‌ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ।८४।
महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ।८५।
स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ।८६।
मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ।८७।
सद्‌गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ।८८।
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः ।८९।
विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान्‌ ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ।९०।
एको नैकः सवः कः किं यत्पदमनुत्तमम्‌ ।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ।९१।
सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ।९२।
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक्‌ ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ।९३।
तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश्रृङ्गो गदाग्रजः ।९४।
चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात्‌ ।९५।
समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ।९६।
शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ।९७।
उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः श्रृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ।९८।
सुवर्णविन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्र्दो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ।९९।
कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।
अमृताशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ।१००।
सुलभः सुव्रतः सिध्दः शत्रुजिच्छ्त्रुतापनः ।
न्यग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ।१०१।
सहस्त्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ।१०२।
अणुर्बृहत्कृशः स्थूलोगुणभृन्निर्गुणो महान्‌ ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्द्धनः ।१०३।
भारभृत्कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ।१०४।
धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियन्तानियमोऽयमः ।१०५।
सत्ववान्सात्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत्प्रीतिवर्धनः ।१०६।
विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ।१०७।
अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकदोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ।१०८।
सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरप्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ।१०९।
अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ।११०।
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।१११।
उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दु:स्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ।११२।
अनन्तरुपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।
चतुरस्त्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ।११३।
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः ।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ।११४।
आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ।११५।
प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः ।
तत्वं तत्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ।११६।
भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञॊ यज्ञोपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ।११७।
यज्ञभृद्यज्ञकृद्यज्ञी यज्ञभुग्यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृद्यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ।११८।
आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ।११९।
शङ्खभृन्नदकी चक्री शार्ङ्ग्धन्वा गदाधरः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ।१२०।
      ॥ सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति ॥

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ज्योतिष के अनुसार स्वास्थ्य के लिए कुछ आवश्यक बातें According to astrology some essential things for health


ज्योतिष के अनुसार स्वास्थ्य के लिए कुछ आवश्यक बातें
According to astrology some essential things for health
ज्योतिष में अच्छे स्वास्थ्य के लिए जन्म कुण्डली में बहुत सी बातो का आंकलन किया जाता है।
आइए जानते हैं उनमें से कुछ आवश्यक बातें-

 सर्व प्रथम लग्न, लग्नेश का बली होना आवश्यक है. यदि अशुभ भाव का स्वामी जन्म लग्न में स्थित है तब स्वास्थ्य संबंधी परेशानियो से होकर गुजरना पड़ता है।
 
आठवें भाव से ज्यादा बली लग्न होना चाहिए तब स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ कम होती है.यदि लग्न,लग्नेश से आठवाँ भाव या अष्टमेश बली है तो निश्चित तौर पर स्वास्थ्य सम्बंधित परेशानियों से निपटना पड़ता है।
 
केन्द्र में बैठे शुभ ग्रह स्वास्थ्य के लिए अच्छे माने जाते हैं लेकिन यदि यही शुभ ग्रह वक्री हो जाते हैं तब स्वास्थ्य के लिए सुरक्षा नहीं देगें।

 ● लग्न में गुरु कई हजार दोषो को खतम करता है लेकिन यदि यह वक्री है तब कोई सुरक्षा प्रदान नहीं करेगा।

 ● लग्नेश का षष्ठ, अष्टम या द्वादश भाव में स्थित होना स्वास्थ्य के लिए शुभ नहीं होता है।

 ● सूर्य आत्मा का और चंद्रमा मन का कारक ग्रह है. इसलिए इन दोनो के बली होने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
 ●लग्न यदि राहु या केतु के अंश पर स्थित है तो भी स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता है।

 ● लग्नेश यदि राहु या केतु के अंश पर स्थित है तो यह भी स्वास्थ्य के लिए शुभ नहीं है।

 ●  लग्न या चन्द्र गण्डान्त में स्थित है तब स्वास्थ्य के लिए शुभ नहीं हैं।

उपरोक्त योगायोग  होने पर या संबंधित ग्रहों की दशान्तर्दशा मे  फल दृष्टिगोचर होता है।


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सुख, शान्ति और प्रेम मे वृद्धि हेतु चांदी की शुभ चीजें रखें अपने घर में. Keep auspicious silver items in your house to increase happiness, peace and love…


सुख, शान्ति और प्रेम मे वृद्धि हेतु चांदी की शुभ चीजें रखें अपने घर में
Keep auspicious silver items in your house to increase happiness, peace and love
धातुओं मे चांदी का विशेष महत्व बताया गया है। चांदी के बहुत से उपाय बताए गए हैं। चांदी के इन उपायों से धन, समृद्धि, शांति और सेहत बढ़ती है। इसके प्रयोग से हम घटना-दुर्घटना, गृहकलह और ग्रह-नक्षत्र के दुष्प्रभाव से बच जाते हैं।

चांदी का 
ठोस हाथी
घर में या जेब में ठोस चांदी का हाथी रखना चाहिए। यह पंचम और द्वादश में बैठे राहु का उपाय है। इससे संतान को कष्ट नहीं होता और व्यापार में भी लाभ मिलता है।
चांदी की डिब्बी
चांदी की डिब्बी में पानी भरकर उसे तिजोरी में रखें। पानी के सूख जाने पर दोबारा भर लें। चतुर्थ में राहु हो तो डिब्बी में शहद भरकर घर के बाहर भूमि में दबाएं। सप्तम में राहु हो तो डिब्बी में नदी का जल भरकर उसमें चांदी का एक टुकड़ा डालकर घर में रखें।
चांदी का चौकोर टुकड़ा
चांदी का एक चौकोर टुकड़ा घर में रखें। कुछ लोग इसे जेब में रखने की सलाह देते हैं। यह करियर और व्यापार में प्रगति हेतु होता है। दरअसल, दशमस्थ राहु तथा चतुर्थ भावस्थ केतु के लिए ये उपाय उपयुक्त हैं।
ठोस चांदी की गोली
राहु द्वितीय भाव में है तो चांदी की ठोस गोली अपने पास रखें। लगन में केतु है तो विवाह के समय चांदी की ईंट अपनी पत्नी को दें। यह ईंट कभी न बेचें।
चांदी की चेन और अंगूठी
विवाह में विलंब हो तो शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार को प्रात: चांदी की एक ठोस गोली चांदी की ही चेन में पिरोकर पहनें। प्रथम भाव में राहु हो तो गले में चांदी की चेन पहनें। राहु चतुर्थ भाव में है तो चांदी की अंगूठी धारण करें।
चांदी का गिलास
एकादश भाव में स्थित राहु तथा पंचम भाव में विराजमान केतु हेतु चांदी के गिलास में पानी पीएं। जिन लोगों को भावनात्मक परेशानियां ज्यादा हैं, वो चांदी का प्रयोग सावधानी से करें।

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हवन पद्धति havan paddhati


                        हवन पद्धति


ततो सदाचार पञ्चमहायज्ञादि क्रियावतां ब्रह्मक्षत्रियविशां गृहात्  कांस्यपात्रे नवीन शरावे वा सम्पुटेनाग्निमानीय कुण्डस्य स्थण्डिलस्य वाग्नेय्यां निधाय "हुँ फट्" इति मंत्रेण क्रव्यादांश नैऋत्यां दिशि परित्यज्य
"ॐ अग्निन्दूतं पुरोदधे हव्यवाहमुपब्रुवे। देवां असादयादिह।। इति मंत्रेण आत्माभिमुखमग्निं  संस्थापयेत्।
ततो "ॐ भूर्भुवः स्व: अग्ने वैश्वानर शाण्डिल्य गोत्र शाण्डिलासित देवलेति त्रिप्ररान्वित भूमिमातः वरुणपितः मेषध्वज प्रांगमुख मम सम्मुखो भव इति वरद नामाग्निं प्रतिष्ठाप्य।।
ॐ भूर्भुवः स्वः अग्नये नमः इति मंत्रेण बहिरग्निं  पञ्चोपचारै:संपूज्य प्रार्थयेत्-
"ॐ अग्निं  प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनम्।
हिरण्यवर्णममलं समृद्धं विश्वतोमुखम्।।
                     आधारादि हवन-
कुशकण्डिका की विधि पूर्ण करने के बाद कुशा द्वारा ब्रह्मा का स्पर्श कर अग्नि के उत्तर भाग में घी से आहुति दें-ओं प्रजापतये स्वाहा मन ही मन इदं प्रजापतये न मम ऊँचे स्वर में पढ़कर आहुति से अतिरिक्त घृत को प्रोक्षणी पात्र में छोड़ें। अग्नि के दक्षिण भाग में-अग्नये स्वाहाइदमग्नये न मम। ओं सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम केवल विवाह में (ॐ इन्द्राय स्वाहा इदमिन्द्राय न मम) इत्याज्यभागौ। इति
आधार संज्ञक हवन 
ॐ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम।
 ओं भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम।
ओं स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम, एता महाव्याहृतयः।
प्रजापति और इन्द्र दोनों आधार संज्ञक और अग्निसोम आज्य भाग हैं। ‘ॐ भूः भूवः स्वः’ को महाव्याहृति कहते हैं।
इसके बाद आचार्य कहें-                
 ॐ यथा बाणप्रहाराणां कवचं वारकं भवेत्।
  तद्वद्देवोपघातानांशान्तिर्भवति वारिका।।
शान्तिरस्तु पुष्टिरस्तु यत्पापं रोगम्, अकल्याणं तद्दूरे प्रतिहतमस्तु, द्विपदे चतुष्पदे सुशान्तिर्भवतु, पढ़कर यजमान के सिर पर जल छिड़क दें।
पञ्चवारुण होम (सर्वप्रायश्चित्तसंज्ञक)-
ॐ त्वं नोऽअग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेडोऽअवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्मितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाỦसि प्रमुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा।। इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।।1।।
 ॐ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठोऽअस्या उषसो व्युष्टौ अवयक्ष्व नो वरुणỦ रराणो वीहि मृडीकỦ सुहवो नऽएधि स्वाहा।। इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।।2।।
ॐ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्य- मित्वमया ऽअसि। अयानो यज्ञỦ वहास्ययानो धेहि भेषजỦ स्वहा।। इदमग्नये न मम।।3।।
ॐ ये ते शतं वरुणं ये सहश्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्नो ऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा।। इदं वरुणाय सवित्रो विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।।4।।
ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं विमध्यमỦ श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो ऽअदितये स्याम स्वाहा।। इदं वरुणायादित्यायादितये न मम।।5।। 
पढ़कर यथाक्रम बारह आहुतियों को प्रदान कर प्रोक्षणीपात्र में श्रुवावशिष्ट घृत का प्रक्षेप करें।  इति पञ्च वारुणी (प्रायश्चित्तसंज्ञक) होम।

तदुपरान्त चन्दन, पुष्प, अक्षत द्वारा वायव्यकोण में बहिरग्नि की पूजा कर ग्रह होम पुरस्सर प्रधान होम करें।
गणपति-नवग्रह-अधिदेवता-प्रत्यधिदेवता-पञ्चलोकपाल होम-
एक या दश आहुति गणेश के लिए प्रदान करें-(अन्वारब्धं विना)
ॐ गणानान्त्वा गणपतिỦ हवामहे प्रियाणान्त्वा प्रियपतिỦहवामहे निधीनान्त्वा निधिपतिỦ हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधम् स्वाहा। इदं गणपतये न मम। गणेश पूजन के बाद आये अन्य शेष देवताओं के लिए यथाशक्ति हवन करें।
नवग्रह होम
6 इंच (एक वित्ता) लम्बा अंगुलि के समान मोटा अकवन आदि समिधाओं को दधि, दूध, घी, चरु, साकल्य के साथ प्रत्येक देवताओं के लिए आठ-आठ बार आहुति प्रदान करें।
अर्क-   ॐ आकृष्णेन रजसा वत्र्तमानो निवेशयन्नमृतं मत्र्यं च हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् स्वाहा। इदं सूर्याय न मम।।1।।
पलाश-   ओं इमं देवाऽअसपत्नỦ सुवध्वं महते क्षत्राय महते ज्येष्ठ्îय महते जानराज्ज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय इमममुष्य पुत्रमुष्यै पुत्रमस्यै विशऽएष वोमी राजा सोमोस्माकं ब्राह्मणाना Ủ राजा स्वाहा। इदं चन्द्रमसे न मम।। 2।।
खदिर-   ॐ अग्निर्मूद्र्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्याऽयम् अपाỦरेताỦ सि जिन्वति स्वाहा। इदं भौमाय न मम।। 3।।
अपामार्ग-   ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते सỦसृजेथामयं च अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन्विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत स्वाहा। इदं बुधाय न मम।। 4।।
अश्वत्थ-   ॐ बृहस्पतेऽअतियदय्र्योऽअर्हाद्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु यद्दीदयच्छवसऽऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्राỦ स्वाहा। इदं गुरवे न मम।।5।।
उदुम्बर-   ॐ अन्नात्परिश्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपिबत्क्षत्त्रं पयः सोमम्प्रजापतिः ऋतेन सत्यमिन्द्रियं                                       विपानỦशुक्रमन्धसऽइन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु स्वाहा। इदं शुक्राय न मम।।6।।
शमी-   ॐ शन्नोदेवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शंय्योरभिश्रवन्तु नः स्वाहा। इदं शनैश्चराय न मम।। 7।।
दूर्वा-   कयानश्चित्राऽआभुवदूती सदावृधः सखा। कया शचिष्ठया वृता स्वाहा। इदं राहवे न मम।। 8।।
कुश-   ॐकेतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मय्र्या अपेशसे समुषद्भिरजायथाः स्वाहा। इदं केतवे न मम।। 9।।
        इति नवग्रह होम।।
हाथ में जल लेकर अनेन समिधादिकृतेन होमेन सूय्र्यादयो ग्रहाः प्रीयन्तां न मम कहकर जल छोड़ दें।
अधिदेवता-प्रत्यधिदेवता होम-
ईश्वरादिभ्यः पलाशसमिधं मिष्टान्नमिश्रितचर्वाज्यादिद्रव्यैः सह (4-4)चतुष्चतुःसंख्याकाभिराहुतिभिर्जुहुयात्।
ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् स्वाहा। इदमीश्वराय।। 1।।
ॐ श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रो पाश्र्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम्। इश्णन्निषाणामुम्मऽइषाणसर्वलोकम्मऽइषाण स्वाहा इदमुमायै।।2।।
ॐ यदक्रन्दः प्रथमं जायमानः उद्यन्त्समुद्रादुत वा पुरीषात्। श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहूऽउपस्तुत्यं महिजातन्ते अव्र्वन्स्वाहा। इदं स्कन्दाय।। 3।। 
ॐ विष्णोरराटमसि विष्णोश्नप्त्रोस्त्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोध्र्रुवोसि वैष्णवमसि विष्णवे त्वा स्वाहा। इदं विष्णवे।। 4।।
ॐ ब्रह्म यज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्विसीमतः सुरुचो वेनऽआवः। सबुध्न्या उपमाऽअस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसश्च विवः स्वाहा।
इदं ब्रह्मणे।।5।।
ॐ सजोष इन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमम्पिब वृत्राहा शूर विद्वान् जहि शत्रूाँ रपमृधो नुदस्वाथाभयङ्कृणुहि विश्वतो नः स्वाहा। इदमिन्द्राय।। 6।।
ॐ यमाय त्वांगिरस्वते पितृमते स्वाहा धम्र्माय स्वाहा धम्र्मः पित्रो स्वाहा। इदं यमाय।। 7।।
ॐ कार्षिरस समुद्रस्य त्वाक्षित्याऽउन्नयामि समापोऽअद्भिर- ग्मतसमोषधीभिरोषधीः स्वाहा। इदं कालाय।। 8।।
ॐ चित्रावसो स्वस्ति ते पारमशीय स्वाहा। इदं चित्रागुप्ताय।।9।।
अनेन सघृत-तिल-यव-चरुसमिद्धोमेन ईश्वराधिदेवताः प्रीयन्तां न कहकर जल छोड़ दे।
यथा बाणप्रहाराण0  पढ़कर यजमान के सिर पर जल छिड़कें।
प्रत्यधिदेवता होम-
ॐ अग्निदूतं पुरो दधे हव्यवाहमुपब्रुवे देवाँ 2 ऽआसादयादिह स्वाहा। इदमग्नये।।1।।
ॐ आपो हिष्ठा मयोभुवस्तानऽऊज्र्जे दधातन महेरणाय चक्षसे यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः उशतीरिव मातरः। तस्माऽअरङ्गमामवो यस्य क्षयाय जिन्वथ आपो जनयथा च नः स्वाहा। इदमद्भ्îः ।। 2।।
ॐ स्योना पृथिवी नो भवानृक्षरा निवेशनी यच्छा नः शर्म स प्रथाः स्वाहा। इदं पृथिव्यै।।3।।
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रोधा निदधे पदम्,समूढमस्य पा Ủ सुरे स्वाहा। इदं विष्णवे।।4।।
ॐ त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्रỦ हवे हवे सुहव Ủ शूरमिन्द्रम्, ह्वायामि शक्रम्पुरुहूतमिन्द्र Ủ स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्रः स्वाहा। इदमिन्द्राय0।। 5।।
ॐ अदित्यैरास्नासीन्द्राण्याऽउष्णीयपूषासि धर्मायदीष्व स्वाहा। इदमिन्द्राण्यै0।। 6।।
ॐ प्रजापते नत्वदेतान्नयन्न्यो विश्वारूपाणि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोऽस्तु वय Ủ स्याम पतयो रयीणाम् स्वाहा। इदं प्रजापतये0।। 7।।
ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु येऽ अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः स्वाहां। इदं सर्पेभ्यः।।8।।
ॐ ब्रह्म यज्ञानम्प्रथमम्पुरस्ताद्विसीमतः सुरुचो वेनऽआवः सबुध्न्याऽउपमाऽअस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च विवः स्वाहा। इदं ब्रह्मणे।। 9।।
अनेन समिधादिकृतेन होमेन अग्न्यादिप्रत्यधिदेवताः प्रीयन्तां न मम इत्युत्सृजेत्।
पञ्चलोकपालदेवता होम-
विनायकादिपञ्चलोकपाल के लिए और इन्द्रादिदशदिक्पाल के लिए प्रत्येक को पूर्वोक्त द्रव्य द्वारा दो-दो आहुति दें
ॐ गणानान्त्वा गणपति Ủ हवामहे प्रियाणान्त्वां प्रियपति Ủहवामहे निधीनान्त्वा निधिपतिỦ हवामहे व्वसो मम आहमजानिगर्भधमात्त्वमजासि गर्भधं स्वाहा। इदं गणपतये।।1।।
ॐ अंबेऽअंबिकेऽम्बालिके न मानयति कश्चन ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीỦ स्वाहा। इदं दुर्गायै।। 2।।
ॐ आ नो नियुद्भिःशतिनीभिरध्वर Ủ सहश्रिणीभिरुपयाहि यज्ञम्, वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व यूयम्पात स्वस्तिभिः सदा नः स्वाहा। इदं वायये।।3।।
ॐ घृतं घृतपावानः पिबत वसाम्व्वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा दिशः प्रदिशऽआदिशो विदिशऽउद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा। इदमाकाशाय।। 4।।
ॐ यावांकशामधुमत्यश्विनासूनृतावती तया यज्ञम्मिमिक्षताम् स्वाहा। इदमश्विभ्याम्।। 5।।
अनेन होमेन पञ्चलोकपालदेवता प्रीयन्ताम् न मम कहकर जल छोड़ दे यथा बाणप्रहाराणा0 मंत्र द्वारा यजमान के शिर पर जल छोड़ें।
दशदिक्पाल होम-
ॐ त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्र Ủ हवे हवे सुहव Ủ शूरमिन्दं्र ह्नयामि शक्रम्पुरुहूतमिन्द्रỦ स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्रः स्वाहा। इदमिन्द्राय0।।1।।
ॐ त्वन्नोऽअग्ने तव पायुभिम्र्मघोनो रक्ष तन्वश्च बन्ध। त्राता तोकस्य तनये गवामस्य निमेषỦरक्षमाणस्तवव्व्रते स्वाहा। इदमग्नये।।2।।
ॐ यमाय त्वांगिरस्वते पितृमते स्वाहा धर्माय स्वाहा धम्र्मेः पित्रो स्वाहा। इदं यमाय।।3।।
ॐ असुन्नवन्तमयजमानमिच्छस्तेन- स्येत्यामन्विहितस्करस्य अन्यमस्मदिच्छ- सातऽइत्यानमो देवि निर्ऋते तुभ्यमस्तु स्वाहा। इदं निर्ऋतये।। 4।।
ॐ तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविर्भिः अहेळमानो वरुणेह बोध्युरूỦसमानऽआयुः प्रमोषीः स्वाहा। इदं वरुणाय।।5।।
ॐ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वरः सहश्रिणीभिरुपयाहि यज्ञम्। वायोऽअस्मिन्त्सवने मादयस्व यूयम्पात स्वस्तिभिः सदा नः स्वाहा। इदं वायवे।। 6।।
ॐ वय Ủ सोमव्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः प्रजावन्तः सचेमहि स्वाहा। इदं कुबेराय।।7।।
ॐ तमीशानञ्जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्िजन्वमवसे हूमहे वयं। पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्ध स्वस्तये स्वाहा। इदमीशानाय।। 8।।
ॐ अस्मे रुद्रा मेहना पर्वतासो वृत्राहत्ये भरहूतो सजोषः यश Ủ सते स्तुवते धायि वज्रऽइन्द्र ज्येष्ठाऽअस्माँऽअवन्तु देवाः स्वाहा। इदं ब्रह्मणे।।9।।
ॐ स्योना पृथिवि नो भवानृक्षरानिवेशनी यच्छा नः सर्मसप्रथाः स्वाहा। इदमनन्ताय।।10।।
अनेन होमेन इन्द्रादयो दिक्पालदेवताः प्रीयन्तां न ममेति जलमुत्सृजेत्। इति दिक्पालहोम।
अथ पितामहादिदेवानामेकैकयाहुत्या होमः।।
ॐ ब्रह्म यज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्विसीमतः सुरुचो वेनऽआवः सबुध्न्या उपमाऽअस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च विवः स्वाहा। इदं ब्रह्मणे।। 1।।
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रोधा निदधे पदम् समूढमस्य पाỦसुरे स्वाहा। इदं विष्णवे।। 2।।
ॐ त्रयम्बकं यजामहे0 इदं शिवाय।। 3।।
गणानान्त्वा0 स्वाहा। इदं गणपतये।।4।।
ॐ श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च0 स्वाहा। इदं लक्ष्म्यै।।5।।
ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपियन्ति सश्रोतसः सरस्वती तु पञ्चधा सो देशे भवत्सरित् स्वाहा। इदं सरस्वत्यै।।6।।
ॐ अम्बे अम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कञ्चन। ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीỦस्वाहा। इदं दुर्गायै।।7।।
ॐ नहि स्पर्शमविदन्नन्य- मस्माद्वैष्वानरात्पुरऽएतारमग्नेः एमे नम वृधन्नमृता अमत्र्यवैश्वानरं क्षैत्राजित्याय देवाः स्वाहा। इदं क्षेत्रापालाय।।8।।
ॐ भूताय त्वानारातये  स्वरभिविख्ये षन्दृ Ủहतादुर्याः पृथिव्यामुर्वन्तरिक्षमन्वेमि पृथिव्यास्त्वानाभौ सादयाम्यदित्या ऽउपस्त्थेऽग्नेहव्य Ủ रक्ष स्वाहा। इदं भूतेभ्यः।।9।।
ॐ वास्तोष्पते प्रति जानिह्यस्मान्त्स्ववेशोऽअनमीवो भवा नः यस्त्वेमहे प्रतितन्नो जुषस्व शन्नो भवद्द्विपदे शञ्चतुश्ष्पदे स्वाहा। इदं वास्तोष्पतये।।10।।
ॐ विश्वकम्र्मन्हविषा वर्द्धनेनत्रातारमिन्द्रमकृणोरवद्धîम् तस्मै विशः समनमन्त पूर्वीरयमुग्रो विहव्योषथासत् स्वाहा। इदं विश्वकर्मणे।। 11।।
प्रधान देव का हवन
ग्रह मण्डल देवता के होम के पश्चात् प्रधान देवता का ध्यान,प्राणायाम कर हवन करें।
तद्यथा-ॐ (मूलमन्त्रा) स्वाहा0 यदि आवरण पूजा किये हो तो यन्त्रास्थ आवरण देवता के लिए एक-एक आहुति देवें।
दुर्गा होम-
मार्कण्डेय उवाच (प्रथम मन्त्र) से प्रारम्भ कर प्रत्येक मन्त्र के बाद स्वाहा कहें। अध्याय पूर्ण होने पर उठकर श्रुव में आज्य लेकर उसमें गंध, पुष्प, सुपारी, ताम्बूल, भोजपत्रा रखकर-
‘ॐ अम्बे अम्बिके अम्बालिके नमानयति कश्चन। ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां कांपील-वासिनी स्वाहा हवन करें। ॐ अम्बे स्वाहा,ॐ अम्बिके, ॐ अम्बिालिके स्वााहा।
अग्निपूजन-
(आयतनाद्बहिर्वायव्यां दिशि) ॐ स्वाहा स्वधा युताग्नये वैश्वानराय नमः इससे पञ्चोपचार (सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, इति वा) पूजा कर, ॐ अनया पूजया स्वाहास्वधायुतोग्निः प्रीयताम्, इति जल छोड़ दे। (होमतर्पणाभिषेकानां मध्ये यदेवं न संभवति तत्स्थाने तत्द्विगुणो जपः कार्यः)
स्विष्टकृद् होम-
हवन से अवशिष्ट हवि द्रव्य को लेकर स्विष्टकृद् होम करें।
ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा (चर्वादिद्रव्ये तदा पात्रन्तरम्) इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।
घी द्वारा 9 आहुति देवें-ॐ भूः स्वाहा इदमग्नये न मम।। 1।। ॐ भुुवः स्वाहा इदं वायवे न मम।। 2।। ॐ स्वः स्वाहा इदं सूर्याय न मम।। 3।। ॐ त्वन्नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वद्दितमः शोचानो विश्वा द्वेषा Ủसि प्रमुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा इदमग्नी- वरुणाभ्यां0।।4।। ॐ स त्वन्नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अवयक्ष्व नौ वरुणỦरराणो वीहि मृळीकỦसुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां0।। 5।। ॐ अयाश्चाग्नेस्यनभिशस्तपाश्च सत्वमित्वमयाऽअसि। अयानो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषजỦस्वाहा। इदमग्नये न मम।। 6।। ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्त्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिन्र्नो अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रो विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्म्îः स्वर्केभ्यश्च न0।।7।। ॐ उदुत्तमं वरुणपाशमस्मदवाधमं विमध्यमỦश्रथाय। अथावयमादित्यव्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं वरुणायादित्यायादितये न0।।8।। ओं प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न0।।9।।
बलिदान
हाथ में जल अक्षत लेकर-ॐ तत्सदद्य अमुकगोत्राः अमुकशम्र्मा (वम्र्मा गुप्तोहं) कृतस्य कर्मणः साङ्तासिद्धîर्थं दशदिक्पालपूर्वकम् आदित्यादि- ग्रहमण्डलस्थापितदेवताभ्यो बलिदानञ्च करिष्ये। अग्नि के चारों ओर 10 दिशाओं में दही मिश्रित उड़द को दोना में रखकर एवं प्रत्येक के समीप दीप रखकर-ॐ इन्द्रादिदशदिक्पालेभ्यो नमः सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, अक्षत, जल को भूमि पर छोड़ दें।। भो भो इन्द्रादिदशदिक्पालाः स्वां स्वां दिशं रक्षत बलि भक्षत कृपां वितरत मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य आयुःकर्तारः क्षेमकर्तारः शान्तिकर्तारः पुष्टिकर्तारः तुष्टिकर्तारो वरदा भवत,प्रार्थना। शिरसि करौ कृत्वा भूमौ जानुभ्यां पतित्वा क्षमध्वमितिवदेदिति सर्वत्रा। एभिर्बलिदानैः इन्द्रादिदशदिक्पालाः प्रीयन्ताम्। ततो ग्रहवेदीसमीपे पत्रावल्युपरि बलिं निधाय आदित्यादिग्रहार्थं बलिद्रव्याय नमः सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि। ॐसूर्यादिनवग्रहेभ्यः साङ्गेभ्यः सपरिवारेभ्यः सायुधेभ्यः सशक्तिकेभ्यः अधिदेवताप्रत्यधिदेवतागणपत्यादिपञ्चलोकपाल-वास्तोष्पतिसहितेभ्यः एतं सदीपमाषभक्तबलिं समर्पयामि इति जलमुत्सृजेत्। भो भो सूर्यादिनवग्रहा साङ्गाः सपरिवाराः सायुधाः सशक्तिका अधिदेवता-प्रत्यधिदेवता- गणपत्यादिपञ्चलोकपालवास्तोष्पतिसहिताः इमं बलिं  मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य आयुःकर्तारः क्षेमकर्तारः शान्तिकर्तारः तुष्टिकर्तारः पुष्टिकर्तारो वरदा भवत। अनेन बलिदानेन सूर्यादिग्रहाः प्रीयन्ताम्। मातृकाओं के लिए भी एक बलि दें श्रीगौर्यादिमातृभ्यः इमं सदीपदधिमाषभक्तबलिं समर्पयामि, इति जलमुत्सृजेत्। भो भो गौर्यादिमातर इमं बलिं र्गृीीत आयुःकत्रर्यः क्षेमकत्रर्यः, शान्तिकत्रर्यः, पुष्टिकत्रर्यः, वरदा भवत। अनेन बलिदानेन श्रीगौर्यादिमातरः प्रीयन्ताम्।
योगिनि वेदि के समीप-ॐ चतुःषष्टियोगिनीभ्यः साङ्भ्यः सपरिवाराभ्यः सायुधाभ्यः सशक्तिकाभ्यः इमं सदीपदघिमाषभक्तबलिं समर्पयामि, इति जलमुत्सृजेत्। भो भो चतुःषष्टियोगिन्यः इमं बलिं गृह्णीत मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य आयुःकत्रर्यः क्षेमकत्रर्यः शान्तिकत्रर्यः तुष्टिकत्रर्यः पुष्टिकत्रर्यो वरदा भवत। अनेन बलिदानेन श्रीचतुःषष्टियोगिन्यः प्रीयन्ताम्। उसके बाद मूल मंत्र के अन्त में कूष्माण्डरसेनाप्यायताम्0 यह कहें। प्रधान देवता के लिए सुपूजित कुष्माण्ड बलि देकर पैर धो लें। आचमन कर शान्तिः शान्तिः शान्तिः कहे।
क्षेत्रपाल बलि-
एक बांस के पात्र में कुश बिछा कर भोजन के दो गुणा या चार गुणा उड़द,दधि और जलपात्र रखकर हल्दी, चन्दन, सिन्दूर,काजल, द्रव्य, पताका, चैमुख दीप से उसे सजाकर संकल्प करें।
ॐ अद्येत्यादिॉ सकलारिष्टशान्तिपूर्वक प्रारिप्सितकर्मणः साङ्ता- सिद्धîर्थं क्षेत्रापालपूजनं बलिदानझ् करिष्ये।
संकल्प कर-ॐ न हि स्पर्शमविदन्नन्यमस्माद्वैश्वानरात्पुर एतारमग्नेः। एमेनमवृधन्नमृता अमत्र्यवैश्वानरं क्षेत्राजित्याय देवाः। ॐ श्रीक्षेत्रापालाय नमः क्षेत्रापालम् इस मंत्र से (बलि में रखे सुपारी में) आवाहयामि स्थापयामि। सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि दक्षिणाझ् श्रीक्षेत्रापालाय नमः।

पूजा कर ध्यान करें-
   भ्राजद्ववक्त्राजटाधरं त्रिनयनं नीला}नाद्रिप्रभं
                        दोर्दण्डान्तगदाकपालमरुणं श्रग्गन्धवस्त्रावृतम्।
            घण्टाघुर्घुरुमेखलाध्वनिमिलद्धुंकारभीमं प्रभुं
            वन्दे संहितसप्र्पकुण्डलधरं श्रीक्षेत्रापालं सदा।।
प्रार्थना-ॐ नमो क्षेत्रापालस्त्वं भूतप्रेतगणैः सह।
             पूजां बलिं गृहाणेमं सौम्यो भवतु सर्वदा ।।1।।

                        देहि मे आयुरारोग्ये निर्विघ्नं कुरु सर्वदा।
                        अनेन पूजनेन श्रीक्षेत्रापालः प्रीयताम्।
हाथ में जल लेकर-   
       ॐ क्षेत्रापाल महाबाहो! महाबलपराक्रम!।
              क्षेत्राणां रक्षणार्थाय बलिं नय नमोस्तु ते।।
श्री क्षौं क्षेत्रापालाय सांगाय भूतप्रेतपिशाचडाकिनीपिशाचिनी- मारीगण- वेतालादिपरिवारयुताय सायुधाय सशक्तिकाय सवाहनाय इमं सचतुर्मुखदीपदधिमाषभक्तवबलिं समर्पयामि।

जल छोड़कर प्रार्थना करें-भो भोः क्षेत्रापाल ! स्वं क्षेत्रां रक्ष बलिं भक्ष यज्ञं परिरक्ष मम सकुटुम्बस्याभ्युदयं कुरु-आयुःकर्ता क्षेमकर्ता शान्तिकर्ता पुष्टिकर्ता तुष्टिकर्ता निर्विघ्नकर्ता वरदो भव ॐ अनेन बलिदानेन श्रीक्षेत्रापालः प्रीयताम्।
भूतों के लिए बलिदान
शुद्ध सूप में दीप, उड़द, दधि, हल्दी, सिन्दूर, काजल, जल,चन्दन, लालफूल रखकर सपरिवार चैराहे पर जाकर गन्ध पुष्प से सूप की पूजा कर इन मंत्रों से स्थापित करें-
       ॐ बलिं र्गृीन्त्विमे देवा आदित्या वसवस्तथा।
            मरुतश्चाश्विनौ रुद्राः सुपर्णाः पन्नगा ग्रहाः ।।1।।

           असुरा यातुधानाश्च पिशाचोरगराक्षसाः।
         शाकिन्यो यक्षवेताला योगिन्यः पूतना शिवाः ।।2।।

           जृम्भकाः सिद्धगन्धर्वा नानाविद्याधरा नगाः।
           जगतां शान्तिकर्तारः क्रमाद्याश्चैव मातरः ।।3।।

          मा विघ्नं मा च मे रोगो मा सन्तु परिपन्थिनः।
         सौम्या भवन्तु तृप्ताश्च भूताः प्रेताः सुखावहाः।।4।।

           ते सर्वे तृप्तिमायान्तु रक्षां कुर्वन्तु मेऽध्वरे।
            देवताभ्यः पितृभ्यश्च भूतेभ्यः सह जन्तुभिः ।।5।।

         त्रौलौक्ये यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
         एतस्थानाधिवासिभ्यः प्रयच्छामि बलिं नमः।।6।।

एतेभ्यो भूतेभ्यो गन्धादिकं वः स्वाहा इति बलिदानम्।
पूर्णाहुति होम-
संकल्प-ॐ अद्येत्यादिदेशकालौ सङ्कीत्र्य मम मनोऽभिलषित-धर्मार्थकामादियथेप्सि-तायुरारोग्यैश्वर्यपुत्र-पशु सखि-सुहृत्सम्बन्धिब-ध्वादिप्राप्तये ब्राह्मणद्वारा मत्कारिते अमुककर्मणि श्रीगणपतिगौर्याद्यावाहि- तेष्टदेवताप्रीतये च स्वैर्मन्त्रौर्यवतिलतण्डुलाज्याहुतिभिः परिपूर्णतासिद्धये -वसोर्धारासमन्वितं पूर्णाहुतिहोममहं करिष्ये। श्रुवा में पान सुपारी, अक्षत, घी एवं वस्त्र से लिपटा नारियल, पुष्पमाला लेकर चन्दन लगाकर पूर्णाहुत्यै नमः से पञ्चोपचार पूजन कर सपत्नीक यजमान पूर्णाहुति करें।
मन्त्राµॐ मूर्धानं दिवो अरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृत आजातमग्निम्। कविỦसम्राजमतिथिञ्जनानामासन्ना पात्रां जनयन्त देवाः।। ॐ पूर्णा दर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत वस्नेव विक्रीणा वहा इषमूर्जỦ शतक्रतो स्वाहा, अग्नि में दोनों हाथों से छोड़ दें।
ततो यजमानःµइदमग्नये वैश्वानराय वसुरुद्रादित्येभ्यः शतक्रतवे सप्तवते अग्नये अभः पुरुषाय श्रियै च न मम। ॐ वसोः पवित्रामसि शतधारं वसोः पवित्रामसि सहश्रधारम्। देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रोण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः स्वाहा,इदं वाजादिभ्योऽग्नये विष्णवे रुद्राय सोमाय वैश्वानराय च न मम।
पूर्णाहुति से शेष को संस्रव पात्र में छोड़ दें। स्रुचि लेकर पूर्णाहुति पर अटूट
घृतधारा छोड़े। मन्त्र-ॐ वसोः पवित्रामसि शतधारं वसोः पवित्रामसि
सहश्रधारम्। देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रोण शतधारेण सुप्वा
कामधुक्षः स्वाहा, इदं वाजादिभ्योऽग्नये विष्णवे रुद्राय सोमाय वैश्वानराय च न मम।
अग्निप्रार्थनाµॐ श्रद्धा मेधां यशः प्रज्ञां विद्यां पुष्टिं श्रियं बलम्। तेज आयुष्यमारोग्यं देहि मे हव्यवाहन!।1।। भो भो अग्ने ! महाशक्ते!सर्वकर्मप्रसाधन! कर्मान्तरेऽपि सम्प्राप्ते सान्निध्यं कुरु सर्वदा।।
भस्मवन्दन-त्रयायुषकरण - 
कुण्ड में दग्ध पूर्णाहुति के नारियल के राख को स्रुव के पृष्ठ भाग से लेकर दाहिने हाथ के अनामिका अंगुलि से आचार्य स्वयं तिलक करे। पुनः यजमान को निम्न मन्त्र से भस्म अंकित करे। मन्त्राµॐ त्रयायुषं जमदग्नेरिति ललाटे। कश्यपस्य त्रयायुषमिति हृदि वामस्कन्धे च। यजमानपक्षे ‘तन्नो’ इत्यस्य स्थाने ‘तत्ते’ इति वाच्यम्। 
संश्रवप्राशन-प्रोक्षणी पात्र में छोड़े गये घी को यजमान अनामिका एवं अंगूठा से पीये। मन्त्राµॐयस्माद्यज्ञपुरोडाशाद्यज्वानो ब्रह्मरूपिणः। तं संश्रवपुरोडाशं प्राश्नामि सुखपुण्यदम्। आचमन कर प्रणीता पात्र में स्थित दोनों पवित्राी का ग्रन्थि खोलकर उसे शिर पर लगाकर अग्नि में छोड़ दें।
ब्रह्मा के लिए पूर्ण पात्र दान-
ॐअद्येत्यादिकृतैतदमुक-होम-कर्मणः प्रतिष्ठार्थमिदं तण्डुलपूरितं पूर्णपात्रां सदक्षिणं प्रजापतिदैवतं ब्रह्मणे तुभ्यमहं संप्रददे। ॐस्वस्तीति प्रतिवचनम्। ब्रह्म ग्रन्थी खोल दें। जल युक्त प्रणीता पात्र को अग्नि के पीछे से लाकर ॐ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। उपयमन कुशा द्वारा यजमान के सिर पर जल छिड़कें।
ॐ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि यञ्च वयं द्विष्मः। इत्यैशान्यां प्रणीतां न्युब्जीकुर्यात्। उपयमन कुशा को अग्नि में छोड़ दें।
बर्हि र्होम-
बिछाये गये बर्हि कुश को घी में डुबाकर-ॐ देवा गातु विदो गातु वित्वा गातु मित मनसस्पत इमं देव यज्ञỦस्वाहा वातेधाः स्वाहा। पढ़कर हवन
कर दें।
दशांश तर्पण मार्जन विधि-होम पूर्ण कर पात्रस्थ जल की पूजा कर दूध एवं तीर्थों का जल उसमें मिला लें। तदनन्तर होम के दशांश तर्पण करें। मूल मंत्र के बाद
ॐ साङ्ं सपरिवारम् अमुकदेवतां तर्पयामि ऐसा कहकर तर्पण करें। तर्पण के दशांश मूल मंत्र के बाद आत्मानमभिषिंंचामि नमः इतना कहे। तर्पण एवं सिंचन के अतिरिक्त शुद्ध जल से यजमान के सिर पर या पृथ्वी पर मार्जन करें।

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कष्ट शान्ति के लिये मन्त्र सिद्धान्त

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कष्ट शान्ति के लिये मन्त्र सिद्धान्त  Mantra theory for suffering peace संसार की समस्त वस्तुयें अनादि प्रकृति का ही रूप है,और वह...