Friday, May 28, 2021

पञ्चतत्व panchatatva

 पञ्चतत्व (पञ्चमहाभूत) ये भारतीय दर्शन में सभी पदार्थों के मूल माने गए हैं। 

आकाश (Space) ,

वायु (Quark),

अग्नि (Energy),

जल (Force) तथा

पृथ्वी (Matter) - ये पञ्चमहाभूत माने गए हैं जिनसे सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है। लेकिन इनसे बने पदार्थ जड़ (यानि निर्जीव) होते हैं, सजीव बनने के लिए इनको आत्मा चाहिए। आत्मा को वैदिक साहित्य में पुरुष कहा जाता है। सांख्य शास्त्र में प्रकृति इन्ही पंचभूतों से बनी है यह माना गया है।

योग में पञ्चतत्व को ब्रह्मांड में व्याप्त लौकिक एवं अलौकिक वस्तुओं का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कारण और परिणति माना गया है। ब्रह्मांड में प्रकृति से उत्पन्न सभी वस्तुओं में पंचतत्व की अलग-अलग मात्रा मौजूद है। अपने उद्भव के बाद सभी वस्तुएँ नश्वरता को प्राप्त होकर इनमें ही विलीन हो जाती है।

योगी आपके छोड़े हुए सांस (प्रश्वास) की लंबाई के देख कर तत्व की प्रधानता पता लगाने की बात कहते हैं। इस तत्व से आप अपने मनोकायिक (मन और तन) अवस्था का पता लगा सकते हैं। इसके पता लगने से आप, योग द्वारा, अपने कार्य, मनोदशा आदि पर नियंत्रण रख सकते हैं। यौगिक विचारधारा में इसका प्रयोजन (भविष्य में) अवसरों का सदुपयोग तथा कुप्रभावों से बचने का प्रयास करना होता है।

लेकिन ये यौगिक विधि, ज्योतिष विद्या से इस मामले में भिन्न है के ग्रह-नक्षत्रों के बदले यहाँ श्वास-प्रश्वास पर आधारित गणना और पूर्वानुमान लगाया जाता है।

पृथ्वी एक मात्र देवी का स्वरूप है और सूर्य एकमात्र देव इनको आप आदि शक्ति माँ सरस्वती (बुध), माँ महालक्ष्मी (शुक्र), माँ अन्नपूर्णा (पृथ्वी) अब आगे माँ वैष्णवी (मंगल) तथा सूर्य के रूप में महादेव इन चार पिण्डो यानि धरतीयों में नारायण (जीवात्मा) को पोषित करते हैं।

तत्व का स्वभाव

तत्व प्राण ऊर्जा (योग में प्राण का एक विशिष्ट अर्थ होता है) के विशिष्ट रूप बताते हैं। प्राण इन्ही पाँच तत्वों से मिलकर बना है - ठीक उसी प्रकार जैसे हमारा शरीर और अन्य कई चीज़। माण्डुक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद तथा शिव स्वरोदय मानते हैं कि पंचतत्वों का विकास मन से, मन का प्राण से और प्राण का समाधि (यानि पराचेतना) से हुआ है।

तत्व का अन्वेषण

साधक योगी तत्व का पता लगाकर अपने भविष्य का पता लगा लेते हैं। इससे वे अपनी मनोदशा औक क्रियाकलापों को नियंत्रित कर जीवन को बेहतर बना सकते हैं। इसकी कई विधियाँ योगी बताते हैं, कुछ चरण इस प्रकार हैं -

छायोपासना कर कंठ प्रदेश पर मन को एकाग्र किया जाता है।

फिर उसको साधक अपलक निहारता है और उस पर त्राटक करता है।

इसके बाद शरीर को ज़रा भी न हिलाते हुए आकाश में देखता है - फिर छाया की अनुकृति दिखती है।

इसकी कुछ आवृत्तियों के बाद षण्मुखी मुद्रा के अभ्यास करने से चिदाकाश (चित्त का आकाश) में उत्पन्न होने वाले रंग को देखते हैं। ये जो भी रंग होता है, उस पर उपर दी गई सारणी के हिसाब से तत्व का पता चलता है। उदाहरणार्थ अगर यह पीला हो तो पृथ्वी तत्व की प्रधानता मानी जाती है।

ज्योतिष और योग में तत्व

ज्योतिष विज्ञान भी इस बात को स्वीकारता है कि व्यक्ति के जीवन तथा चरित्र को मूलतत्व किस प्रकार प्रभावित करते हैं। जहाँ ज्योतिष के अनुसार तत्व एक ब्रह्मांडीय कंपन के लक्षण बताते हैं वहीं (स्वर-) योग सिद्धांत के अनुसार ये तत्व एक ख़ास शारीरिक लक्षण को बताते हैं।

शिव स्वरोदय ग्रंथ मानता है कि श्वास का ग्रहों, सूर्य और चंद्र की गतियों से संबंध होता है।
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Thursday, May 27, 2021

चिकित्सा और ज्योतिष Medical and astrology

 चिकित्सा और ज्योतिष 

Medical and astrology



हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार कर्म के तीन भेद हैं- प्रारब्ध, संचित तथा क्रियमाण। पाप कर्मों का प्रारब्ध मानव को दु:ख रोग तथा कष्ट प्रदान करता है। किसी व्यक्ति के प्रारब्ध को ज्योतिष तथा योग के द्वारा जाना जा सकता है। उसमें योगसमाधि जो कि अष्टांग योग का उत्कृष्टतम अंग है, करोड़ों मनुष्यों में किसी एक साधक को ही सिद्ध हो पाती है। इस समाधि के सिद्ध होने से वह साधक संसार की घटनाओं के भूत, भविष्य, वर्तमान को प्रत्यक्ष देखता है। इसीलिए ऐसे महापुरुष त्रिकालदर्शी  कहलाते हैं। प्रारब्ध को जानने का जो दूसरा महत्वपूर्ण साधन है वह है फलित ज्योतिष।

ज्योतिषशास्त्र में जन्म कुंडली, वर्ष कुंडली, प्रश्न कुंडली, गोचर तथा सामूहिक शास्त्र की विधाएँ व्यक्ति के प्रारब्ध का विचार करती हैं, उसके आधार पर उसके भविष्य के सुख-दु:ख का आंकलन किया जा सकता है। चिकित्सा ज्योतिष में इन्हीं विधाओं के सहारे रोग निर्णय करते हैं तथा उसके आधार पर उसके ज्योतिषीय कारण को दूर करने के उपाय भी किये जाते हैं। इसलिए चिकित्सा ज्योतिष को ज्योतिष द्वारा रोग निदान की विद्या भी कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे मेडिकल ऐस्ट्रॉलॉजी कहते हैं। इसे नैदानिक ज्योतिषशास्त्र तथा ज्योतिषीय विकृतिविज्ञान भी कहा जा सकता है। यद्यपि ‘‘चिकित्सा और ज्योतिष’’ नया शब्द है तथा इसका नाम भी नवीन है, परन्तु इस विषय पर आयुर्वेद तंत्र, सामुद्रिक ज्योतिषशास्त्र तथा पुराणों में पुष्कल सामग्री उपलब्ध है।प्राचीनकाल में ग्रन्थ सूत्ररूप में तथा तथा श्लोकबद्ध लिखे जाते थे। प्रस्तुत विषय से सम्बद्ध बहुत सा साहित्य मुगल काल में मदान्ध शासकों द्वारा नष्ट कर दिया गया है, जो कुछ बचा था वह भी प्रकृति प्रकोप तथा जीव-जन्तुओं के आघात से नष्ट हो गया।
प्राचीन समय में सभी पीयूषपाणि आयुर्वेदीय चिकित्सक ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता होते थे और वे किसी भी गम्भीर रोग की चिकित्सा से पूर्व ज्योतिष के आधार पर रोगी के आयुष्य तथा साध्यासाध्यता का विचार किया करते थे। जिसका आयुष्य ही नष्ट हो चुका है उसकी चिकित्सा से कोई लाभ नहीं होता। ‘‘श्रीमद्देवीभागवत’’ महापुराण में एक कथा के अनुसार महर्षि कश्यप को जब यह ज्ञात हुआ कि राजा परीक्षित की मृत्यु सर्पदंश से होगी तब महर्षि ने सोचा कि मुझे अपनी सर्पविद्या से राजा परीक्षित के प्राणों की रक्षा करनी चाहिए। महर्षि कश्यप उस काल के ख्याति प्राप्त ‘‘विष वैज्ञानिक’’ थे। महर्षि ने राजमहल की ओर प्रस्थान किया, मार्ग में उन्हें तक्षक नाग मिला जो राजा परीक्षित को डसने जा रहा था। तक्षक ने ब्राह्मण का वेष बनाकर कश्यप से पूछा, ‘‘भगवन् आप कहाँ जा रहे हैं ?’’ कश्यप ने उत्तर दिया ‘‘मुझे ज्ञात हुआ है कि राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक के दंश से होगी, मैं अपनी विद्या के द्वारा राजा के शरीर को विष रहित कर दूँगा जिससे धन और यश की प्राप्ति होगी।’’ तक्षक अपनी छदम् वेष त्यागकर वास्तविक रूप में प्रकट हो गया और कहा, ‘‘मैं इस हरे-भरे वृक्ष पर दंश का प्रयोग कर रहा हूँ। हे महर्षि। आप अपनी विद्या का प्रयोग दिखाएँ।’’ और तक्षक के विष प्रयोग से उस वृक्ष को कृष्ण वर्ण और शुष्क प्राय: कर दिया। महर्षि कश्यप ने अपनी विद्या से उस वृक्ष को पूर्ववत हरा-भरा कर दिया। यह देखकर तक्षक के मन में निराशा हुई। तब तक्षक ने महर्षि कश्यप से निवेदन किया कि, ‘‘आपका उपचार फलदायी तभी होगा जब राजा का आयुष्य शेष होगा। यदि वह गतायुष हो गया है तो आपको अपने कार्य में यश प्राप्त नहीं होगा।’’ कश्यप ने तत्काल ज्योतिष गणना करके पता लगाया कि राजा की आयु में कुछ घड़ी शेष हैं। ऐसा जानकर वे अपने स्थान को लौट गए। तक्षक के उस विष को संस्कृत में तक्षकिन् कहते हैं। आजकल का अंग्रेजी में प्रयुक्त शब्द ‘Toxin’ उससे व्युत्पन्न हुआ। इस घटना की तरह पुराणों में अनेक घटनाओं का वर्णन है। जिनसे यह ज्ञात होता है कि प्राचीन वैद्य रोग निदान एवं साध्यासाध्यता के लिए पदे-पदे ज्योतिषशास्त्र की सहायता लेते थे।

योग-रत्नाकर में कहा है कि- औषधं मंगलं मंत्रो, हयन्याश्च विविधा: क्रिया। यस्यायुस्तस्य सिध्यन्ति न सिध्यन्ति गतायुषि।।

अर्थात औषध, अनुष्ठान, मंत्र यंत्र तंत्रादि उसी रोगी के लिये सिद्ध होते हैं जिसकी आयु शेष होती है। जिसकी आयु शेष नहीं है; उसके लिए इन क्रियाओं से कोई सफलता की आशा नहीं की जा सकती। यद्यपि रोगी तथा रोग को देख-परखकर रोग की साध्या-साध्यता तथा आसन्न मृत्यु आदि के ज्ञान हेतु चरस संहिता, सुश्रुत संहिता, भेल संहिता, अष्टांग संग्रह, अष्टांग हृदय, चक्रदत्त, शारंगधर, भाव प्रकाश, माधव निदान, योगरत्नाकर तथा कश्यपसंहिता आदि आयुर्वेदीय ग्रन्थों में अनेक सूत्र दिये गए हैं परन्तु रोगी या किसी भी व्यक्ति की आयु का निर्णय यथार्थ रूप में बिना ज्योतिष की सहायता के संभव नहीं है।

कर्मज व्याधियाँ

ग्रह सुख-दु:ख, रोग, कष्ट, सम्पत्ति, विपत्ति का कारण नहीं होते। इन फलों की प्राप्ति का कारण तो मनुष्य के शुभाशुभ कर्म ही होते हैं। मनुष्य ने जो कुशल या अकुशल कर्म पूर्व-जन्मों में किये होते हैं, जन्म कुंडली में ग्रह उन्हीं के अनुसार, राशियों एवं भावों में विभिन्न स्थितियों में बैठकर भावीफल की सूचना देते हैं। प्रश्न कुंडली के ग्रह वर्तमान में किये कर्मों की सूचना देते हैं। इस प्रकार ग्रह रोगों के कारक नहीं है। वस्तुत: ग्रह तो सूचक मात्र होते हैं। अत: जहाँ कहीं भी ज्योतिष में ग्रहों के लिए कारकत्व शब्द का प्रयोग किया जाता है तब उसका तात्पर्य ग्रहों का सूचकत्व समझना चाहिये। जिस व्याधि का निर्णय चिकित्सकों द्वारा शास्त्रोक्त विधि से किया जाए फिर भी चिकित्सा के द्वारा वह व्याधि शान्त न हो तब उसे कर्मज व्याधि जाननी चाहिये। उसकी चिकित्सा भेषज के साथ अनुष्ठान, मंत्र, तंत्र,दानादि द्वारा करनी चाहिये।
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इच्छापूर्ति का सिद्धान्त Wish fulfillment principle

Monday, May 24, 2021

चंद्र ग्रहण 2021 Chandra grahan 2021

चंद्र ग्रहण 2021
Chandra grahan 2021



तारीख 26 मई 2021 वैशाख शुक्ल पूर्णिमा बुधवार को भारतीय स्टैंडर्ड टाइम के अनुसार दिन में 3:15 से सायं 6:23 तक खग्रास चंद्रग्रहण होगा।
भारत में केवल पूर्वोत्तर भूभाग अरुणाचल प्रदेश, असम, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल के कुछ पूर्वी भाग से इस ग्रहण को सायंकाल केवल 18 मिनट तक की समयावधि में ही देखा जा सकेगा।
इस ग्रहण को दक्षिण अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, पेसिफिक सागर, हिंद महासागर, पश्चिमी ब्राज़ील, कनाडा, श्रीलंका, चीन, मंगोलिया, रूस, ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिक आदि देशों से भी देखा जा सकेगा।
सूतक विवरण:- चंद्र ग्रहण का सूतक चंद्रोदय से 9 घंटे पूर्व उन्हीं शहर विशेष, महानगर, देश- प्रदेशों में मान्य होते हैं, जिनके शिरोभाग आकाश में ग्रहण हुआ करते हैं। दिल्ली समेत समस्त उत्तर, पश्चिम, मध्य और दक्षिण भारत में यह ग्रहण तथा इसके सूतक मान्य नहीं होंगे।
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Friday, May 14, 2021

भगवान परशुराम जी Lord Parshuram

 भगवान परशुराम जी 

Lord Parshuram



पञ्चाङ्ग के अनुसार प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल तृतीया तिथि अर्थात् अक्षय तृतीया के दिन परशुराम जयंती मनाई जाती है। भगवान परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं। हनुमानजी की ही तरह इन्हें भी चिरंजीव होने का आशीर्वाद प्राप्त है। भगवान शिव ने इनकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर इन्हें परशु/फरसा दिया था।
इसी वजह से इन्हें परशुराम के नाम से जाना जाता है। अक्षय तृतीया के दिन जन्म लेने के कारण ही भगवान परशुराम की शक्ति भी अक्षय थी। भगवान परशुराम भगवान शिव और भगवान विष्णु के संयुक्त अवतार माने जाते हैं। शास्त्रों में उन्हें अमर माना गया है।
ब्राह्मण को ब्रह्मतेज की प्राप्ति के लिए भगवान परशुराम जी की उपासना अक्षयतृतीया को करनी चाहिए।
इस दिन इनके स्तोत्र का पाठ एवं परशुराम गायत्री मंत्र का जप यथासंभव करने से ब्राम्हणत्व का विकास होता है।
जय श्री परशुराम

शस्त्र और शास्त्र दोनों ही हैं उपयोगी
यही सिखा गए हैं परशुराम योगी
परशुराम है प्रतीक प्यार का
राम है प्रतीक सत्य सनातन का
आओ सब मनाये परशुराम जयंती
लेकर प्रभु का नाम करे गुणगान
मांगे विजय परमेश्वर से जप कर उनका नाम
जय परशुराम
परशुराम चाप शर कर में राजे
ब्रह्मसूत्र गल माल विराजे
मंगलमय शुभ छबि ललाम की
जय जय हो श्री परशु राम की
परशुराम जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं

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Wednesday, May 5, 2021

जानें ब्रह्माजी की पूजा क्यों नहीं होती है?Know why Brahma is not worshiped?

 


जानें ब्रह्माजी की पूजा क्यों नहीं होती है?Know why Brahma is not worshiped?



ब्रह्माजी का एकमात्र प्रसिद्ध मंदिर राज्स्थान के पुष्कर में है। शैव और शाक्त आगम संप्रदायों की तरह ही ब्रह्माजी की उपासना का भी एक विशिष्ट संप्रदाय है, जो "वैखानस संप्रदाय" के नाम से प्रसिद्ध है। माध्व संप्रदाय के आदि आचार्य ब्रह्मा जी ही माने जाते हैं। इसलिए उडुपी आदि मुख्य माध्वपीठों में इनकी पूजा-आराधना की विशेष परम्परा है। देवताओं तथा असुरों के द्वारा सबसे अधिक आराधना इन्हीं की होती है।
लेकिन समाज में इनकी पूजा कोई नहीं करता और न ही इनके नाम का कोई व्रत या त्योहार है। आखिर ऐसा क्यों है? इसके कई कारण बताए जाते हैं। इनमें से प्रमुख तीन कारण जानिए...

पहला कारण : पुष्कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस वक्त उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी। उनकी पत्नी सावित्री वक्त पर यज्ञ स्थल पर नहीं पहुंच पाईं। यज्ञ का समय निकल रहा था।इसलिए ब्रह्माजी ने एक स्थानीय  बाला गायत्री से शादी कर ली और यज्ञ में बैठ गए।
यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण विख्‍यात थी।
देवी सावित्री थोड़ी देर से पहुंचीं। लेकिन यज्ञ में अपनी जगह पर किसी और को देखकर गुस्से से पागल हो गईं। और उन्होंने ब्रह्माजी को शाप दे दिया कि जाओ इस पृथ्वी लोक में तुम्हारी कहीं पूजा नहीं होगी। सावित्री के इस रुप को देखकर सभी देवता लोग डर गए। उन्होंने उनसे विनती की कि अपना शाप वापस ले लीजिए। जब गुस्सा ठंडा हुआ तो सावित्री ने कहा कि इस धरती पर सिर्फ पुष्कर में ही आपकी पूजा होगी। कोई भी दूसरा आपका मंदिर बनाएगा तो उसका विनाश हो जाएगा।
ब्रह्माजी ने पुष्कर झील के किनारे कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णमासी तक यज्ञ किया था, जिसकी स्मृति में अनादि काल से यहां कार्तिक मेला लगता आ रहा है। यहां विश्व में ब्रह्माजी का एकमात्र प्राचीन मंदिर है। मंदिर के पीछे रत्नागिरि पहाड़ पर जमीन तल से दो हजार तीन सौ 69 फुट की ऊंचाई पर ब्रह्माजी की प्रथम पत्नी सावित्री का मंदिर है। झील की उत्पत्ति के बारे में किंवदंती है कि ब्रह्माजी के हाथ से यहीं पर कमल पुष्प गिरने से जल प्रस्फुटित हुआ जिससे इस झील का उद्भव हुआ। राजस्थान में अजमेर शहर से 14 किलोमीटर दूर पुष्कर झील है। पुष्कर के उद्भव का वर्णन पद्मपुराण में मिलता है।

दूसरा कारण : दूसरा कारणशिवपुराण के अनुसार यह है कि ब्रह्मांड की थाह लेने के लिए जब भगवान शिव ने विष्णु और ब्रह्मा को भेजा तो ब्रह्मा ने वापस लौटकर असत्य वचन कहा था कि उन्हें ऊपरी छोर प्राप्त हो गया है।इसलिए भगवान शिव ने इन्हें शाप दे दिया कि तुम्हारी पूजा अर्चना नही होगी।

तीसरा कारण : जगत पिता ब्रह्माजी की काया कांतिमय और मनमोहक थी। उनके मनमोहक रूप को देखकर स्वर्ग अप्सरा मोहिनी  कामासक्त हो गई और वह समाधि में लीन ब्रह्माजी के समीप ही आसन लगाकर बैठ गई। जब ब्रह्माजी की तंद्रा  टूटी तो उन्होंने मोहिनी से पूछा, देवी! आप स्वर्ग का त्याग कर मेरे समीप क्यों बैठी हैं?

मोहिनी ने कहा, 'हे ब्रह्मदेव! मेरा तन और मन आपके प्रति प्रेममय हो रहा है। कृपया आप मेरा प्रेम स्वीकार करें।'

ब्रह्माजी मोहिनी के कामभाव को दूर करने के लिए उसे नीतिपूर्ण ज्ञान देने लगे लेकिन मोहिनी ब्रह्माजी को अपनी ओर असक्त करने के लिए कामुक अदाओं से रिझाने लगी। ब्रह्माजी उसके मोहपाश से बचने के लिए अपने इष्ट श्रीहरि को याद करने लगे।

उसी समय सप्तऋषियों का ब्रह्मलोक में आगमन हुआ। सप्तऋषियों ने ब्रह्माजी के समीप मोहिनी को देखकर उन से पूछा, यह रूपवती अप्सरा आप के साथ क्यों बैठी है? ब्रह्मा जी बोले, 'यह अप्सरा नृत्य करते-करते थक गई थी विश्राम करने के लिए पुत्री भाव से मेरे समीप बैठी है।'

सप्तऋषियों ने अपने योग बल से ब्रह्माजी की मिथ्याभाषण को जान लिया और मुस्कुरा कर वहां से प्रस्थान कर गए। ब्रह्माजी के अपने प्रति ऐसे वचन सुनकर अप्सरा मोहिनी को बहुत क्रोध आया। मोहिनी बोली, मैं आपसे अपनी काम इच्छाओं की पूर्ति चाहती थी और आपने मुझे पुत्री का दर्जा दिया। अपने मन पर संयम होने का बड़ा घमंड है आपको तभी आपने मेरे प्रेम को ठुकराया। यदि मैं सच्चे हृदय से आपसे प्रेम करती हूं तो कामासक्त होने का मिथ्यारोप आपको लगेगा और जगत में आपको पूजा नहीं जाएगा।

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