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Saturday, April 25, 2020

धारणा/एकाग्रता (Concentration)

धारणा/एकाग्रता (Concentration)



धारणा का सम्बन्ध व्यक्ति की मानसिक शक्ति से है। बहुत से लोग, जो अपने क्रियाकलाप तथा व्यवसाय उनके क्षेत्र में चमत्कार उत्पन्न कर सकते थे, धारणा-शक्ति के अभाव के कारण वे ऐसी उपलब्धियों से वंचित रह गए। चाहे हम जिस किसी भी कार्य में संलग्न हो, यदि हम कार्य संपादन में गुण वैशिष्ट्य, निपुणता और संतुष्टि लाना चाहते हैं तो हमें मन की एकाग्रता या धारणा की आवश्यकता पड़ेगी ही। जैसा कि हम लोग आगे देखेंगे, धारणा शक्ति न केवल व्यक्ति के कार्य सम्पादन को, बल्कि उसके स्वास्थ्य, मन की शांति, जीवन के सुख एवं आनन्द तथा समृद्धि को भी प्रभावित करती है। अतएव आधुनिक पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि यह वस्तुतः क्या है, इसे किस प्रकार विकसित किया जा सकता है, दैनिक जीवन में इसके मूल्य एवं सार्थकता क्या है?
धारणा के सम्यक् ज्ञान के लिए किसी व्यक्ति को सर्वप्रथम मस्तिष्क की रचना या संगठन और उसकी प्रकृति के विषय में भी जान लेना चाहिए। योग में यह माना जाता है कि सभी मानव मन, जिसे शरीर- क्रिया- विज्ञान में मस्तिष्क कहा गया है, की रचना एक समान ही है। यद्यपि विभिन्न व्यक्तियों में इसके आकार प्रकार में भिन्नता हो सकती है, तथा भी सभी मानव प्राणियों में इसके कार्यकरण की संरचना एक समान ही है। शरीर विज्ञान भी सभी मानव मस्तिष्कों में यही सादृश्यता एकरूपता पाता है।
इस बिन्दु को स्पष्ट करने के लिए शाफे तथा ग्रोशीमर की पुस्तक" बेसिक फिजियोलॉजी एंड एनाटॉमी"(Basic Physiology and Anatomy) से उद्धरण प्रस्तुत करना चाहूंगा। उनका कथन है: " औसत प्रौढ़ मानव मस्तिष्क का वजन लगभग तीन पाउण्ड होता है, किन्तु व्यक्ति की आयु, लिंगभेद, तथा शरीर के आकार के अनुसार उसके मस्तिष्क के आकार में भिन्नता होती है। उदाहरणार्थ, पुरुषों के मस्तिष्क सामान्यत: स्त्रियों के मस्तिष्क की अपेक्षा बड़े होते हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे अनिवार्यत: स्त्रियों की अपेक्षा अधिक कुशाग्र बुद्धि हो, क्योंकि साधारणत: आकार बुद्धि सूचक नहीं होता है।
योग के अनुसार मानव बुद्धि या मानसिक क्षमता में जो भिन्नताएं हैं, वे विकास के निमित्त प्रयासों एवं प्रशिक्षण में भिन्नताओं के परिणाम हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने को उचित रीति से प्रशिक्षित अनुशासित शिक्षित और प्रयुक्त करने का प्रयास करता है, तो उसका कार्य संपादन उतना ही अच्छा हो सकता है, जितना अतीत या वर्तमान के किसी व्यक्ति का रहा है। किसी तथ्य की व्याख्या करते हुए, अतीत के महापुरुषों तथा पैगंबरों के संदर्भ में 'राजयोग' मे कहा गया है:
" यह पैगम्बर कोई अनोखे प्राणी नहीं थे, वे मनुष्य थे, जैसा मैं हूं या आप है। वे  महान योगी थे। उन्होंने यही अधिचेतना(Super-Consciousness) प्राप्त कर ली थी, उसे मैं और आप भी प्राप्त कर सकते हैं। वे लोग विलक्षण नहीं थे। यही तथ्य कि एक आदमी कभी उस अवस्था तक पहुंचा, सिद्ध करता है कि प्रत्येक मनुष्य के लिए ऐसा करना सम्भव है।"
अतएव योग कहता है, यह व्यक्ति पर ही निर्भर है कि वह किस प्रकार अपनी मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों को विकसित करता या ढालता है। योग इस विकास का मार्ग दर्शाता है, और धारणा का अभ्यास मानसिक अनुशासन के प्रशिक्षण का एक अंग है। जिस प्रकार शरीर के विकास के लिए प्रयास एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार मस्तिष्क के विकास के लिए भी यह आवश्यक है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन किया है, जैसा कि शाफे तथा ग्रोशिमर के निम्नांकित उद्धरण से द्रष्टव्य है। उनके अनुसार:
" कपाल गह्वर में स्थित मस्तिष्क, शरीर में स्वाभाविक तंतु का सबसे बड़ा और सर्वाधिक जटिल पुञ्ज है, और जीवन में 18 या 20 वर्ष में इसका पूर्ण विकास होता है। फिर भी इसे ध्यान में रखना चाहिए कि यद्यपि शारीरिक वृद्धि रुक जाती है, तथापि जब तक हमारे मस्तिष्क का उपयोग होता रहता है तब तक असंख्य स्नायविक मार्ग है, जिन्हें विकसित किया जा सकता है।दूसरे शब्दों में मस्तिष्क के विकास के लिए मानसिक व्यायाम उतना ही महत्व रखता है, जितना सुदृढ़ मांसपेशियों के विकाससार्थ शारीरिक व्यायाम।"
मस्तिष्क  का यह व्यायाम इसीलिए आधुनिक पुरुषों तथा स्त्रियों के लिए, जिनसे यह आशा की जाती है कि वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शारीरिक कुशलता से भी अधिक मानसिक कुशलता प्रदर्शित करेंगे,अधिक महत्वपूर्ण है।योग-विज्ञान के प्रवर्तक जीवन के इस तथ्य को जानते थे और यही कारण है कि उन्होंने मानसिक कुशलता की प्राप्ति के लिए एक पद्धति का विकास किया।
वह पद्धति है राजयोग की धारणा एवं ध्यान का विज्ञान।
राजयोग मानसिक अभ्यास का मार्ग दर्शाता है, उसके नियम बतलाता है, अभ्यास की अवस्थाओं की रूपरेखा प्रस्तुत करता है और इस विज्ञान के शासी सिद्धान्तों का उसी प्रकार विवेचन करता है जैसा कि हमलोगों ने हठयोग के सम्बन्ध में देखा है।
राजयोग में निम्नांकित प्रशिक्षण को तीन अवस्थाओं में विभक्त किया गया है-
1- धारणा (Concentration)
2- ध्यान (Meditation)
3- समाधि (Contemplation)
चूंकि हमारा तात्पर्य केवल प्रथम अवस्था से है, इसलिए हमारे विवेचन की सीमा के अंतर्गत मात्र धारणा के ही कैसे,कब और क्यों आएंगे।
आगे के तथ्यों के विवेचन के पूर्व हम इस बिन्दु पर सुनिश्चित कर ले कि मन की प्रकृति कैसी है।

मन की प्रकृति Nature of mind


मन की प्रकृति ऐसी है कि जब यह सक्रिय रहता है तब सदा अपने को किसी पदार्थ, घटना या विचार से संलग्न करने का प्रयास करता है। इसकी संलग्नता एक खास समय में एक ही पदार्थ में रहती है, चाहे कालावधि छोटी ही क्यों ना हो। यह वन्य जन्तु की भांति एक वस्तु से दूसरी वस्तु पर दौड़ता है, उड़ाने भरता है और छलांगें मारता है। कहा नहीं जा सकता कि यह कब अपने को किस से संलग्न कर लेगा और कितनी देर तक संलग्न रहेगा।
इस प्रक्रिया के घटित परिणाम वैसे ही होते हैं, जैसी उस पदार्थ या वस्तु की, जिससे मन अपने को जोड़ता है, प्रकृति होती है। यह जुड़ान शरीर में सदृश प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि प्रतिक्रिया की प्रकृति वही होती है, जो प्रकृति उस पदार्थ की होती है, जिससे मन अपने को संलग्न करता है। इस प्रकार जब मन किसी ऐसी वस्तु से संलग्न रहता है, जो स्वभावत: व्यक्ति में क्रोध उत्पन्न करे, तो वह उसके शरीर में वे सारी  दशाएं एवं परिवर्तन उत्पन्न करेंगी,जो स्वभावत: क्रोध के कारण उत्पन्न होते हैं। इससे स्पष्ट है कि विभिन्न संलग्नताओं में शरीर का अनुकूलन भी भिन्न होता है; जैसे- प्रेमानुभूति, भय, घृणा, ईर्ष्या, प्रतिशोध आदि में।
मन की प्रकृति के सम्बन्ध में इतना जान लेने के बाद यह प्रश्न उठ सकता है, आधुनिक मनुष्य से इसकी क्या प्रासंगिकता है?
आधुनिक व्यक्ति से इसकी अत्यधिक  प्रासंगिकता है; क्योंकि उसके स्थानीय परिवेश के परिणाम स्वरूप विलक्षणताएं हुआ करती हैं, जैसा कि प्रथम अध्याय के प्रारंभिक भाग में बताया गया है। यदि हम शहरी क्षेत्र के व्यक्ति के जीवन ढांचे की तुलना ग्रामीण और कृषि क्षेत्र के व्यक्ति के जीवन ढांचे से करें तो भिन्नताएं स्पष्ट मालूम होंगी। शहरवासी केवल एक दिन में जितने लोगों के संपर्क में आता है और जिन विभिन्न परिस्थितियों का सामना करता है, एक खेतिहर या किसान उसका सामना एक महीना या उससे अधिक समय में कर पाता है। इसी प्रकार आधुनिक किसान पिछली कई पीढ़ियों के किसानों की अपेक्षा कई गुना अधिक लोगों से मिलता है तथा परिस्थितियों का सामना करता है। इस प्रकार किसी प्रदेश विशेष में घटित सामाजिक एवं परिवेश संबंधी परिवर्तनों पर निर्भरशील होने के कारण आधुनिक व्यक्ति को अनगिनत नई एवं चुनौती देने वाली समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिनमें से अनेक अतीत काल में अज्ञात रही है।
व्यक्ति के समीपस्थ परिवेश की ऐसी स्थिति होने पर उसका मन विभिन्न समस्याओं, घटनाओं, पदार्थों तथा विचारों की ओर आकृष्ट होता है, जिसमें वे सभी उसे पसंद नहीं है या उसके जीवन ढांचे के सामान्य अनुरक्षण के लिए अनुकूल एवं प्रेरक हैं। कभी-कभी यद्यपि वह स्वेच्छा पूर्वक किसी वस्तु की ओर आकृष्ट होता है तथा उस में अंतर्ग्रस्त होता है, किन्तु अन्य समयों में वह फंसाया ही जाता है।तब हमारे पूर्वगामी विवेचन के प्रकाश में सरलता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है व्यक्ति के मन की विविध एवं व्यर्थ संलग्नताओं के कारण उसके शरीर की दशा एक ही दिन में अगणित प्रकार से परिवर्तित होगी। यह व्यर्थ की संलग्नता, स्वभावतया व्यर्थ अनुकूलन को जाग्रत करेगी, जिसके परिणाम स्वरूप एक ओर जहां तनाव, उत्तेजना और आवेश उत्पन्न होंगे, वहीं दूसरी ओर आनन्द एवं पुलक(भावावेश) की सृष्टि होगी।
योग की यह सुदृढ मान्यता है कि जब तक मन के इस ध्यानाकर्षण को नियंत्रित नहीं किया जाता और उसकी ऊर्जा को वांछित लक्ष्य की ओर प्रवाहित नहीं किया जाता, तब तक व्यक्ति द्वारा कोई भी उल्लेखनीय कार्य-सम्पादन नहीं हो सकता। मन को नियंत्रित करने तथा उसे अभीष्ट दिशा में प्रवाहित करने की क्षमता ठीक वही है, जिसे धारणा के प्रशिक्षण द्वारा प्राप्त किया जाता है।

धारणा क्या है? 


यह किसी वस्तु को धारण करने की, मन की क्षमता है। किसी वस्तु को धारण करने का अर्थ क्या है की अन्य वस्तुएं उसके धारण से छांट दी जाती है। इसे दूसरे रूप में कहा जा सकता है कि इस स्थिति में व्यक्ति की इच्छा  के अनुसार उसका मन एकाग्र हो जाता है। यहां वह व्यक्ति ही अपने मन को प्रेरित अथवा निर्देशित करता है। उनको अपनी दिशा में भटकने तथा उड़ भागने की स्वच्छन्दता नहीं दी जाती। जब मन अनियंत्रित रूप से कार्य करता है, तो वहां भी धारणा रहती है, किन्तु वह अनैच्छिक हुआ करती है। जब मन को अभीष्ट बिन्दु पर लगाया जाता है तो वह स्वैच्छिक धारणा होती है।
इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता है की अनैच्छिक धारणा के विपरीत स्वैच्छिक धारणा क्या है?
अनैच्छिक धारणा तो प्रत्येक व्यक्ति की हुआ करती है। अनैच्छिक धारणा, चाहे वह अल्पकालिक हो अथवा दीर्घकालिक,  व्यक्ति की इच्छा तथा संकल्प के अनुरूप नहीं हुआ करती, बल्कि वह व्यक्ति की इच्छाओं के विपरीत होती है। उसने अपने मन को तात्कालिक हित से सम्बद्ध किसी वस्तु पर केंद्रित रखना चाहा था, किन्तु उसका मन किसी अन्य वस्तु पर फांदकर चला गया। इस स्थिति में व्यक्ति असहाय हो जाता है: क्योंकि मन की उड़ान को रोक सकना उसकी क्षमता से परे है। यद्यपि मन द्वारा किसी अन्य वस्तु का धारण, अल्पकाल के लिए ही सही, धारणा के कारण ही होता है, फिर भी वह धारणा अनैच्छिक हुआ करती है।
किन्तु व्यक्ति जब अपने को किसी अभीष्ट वस्तु पर लगाने और उससे संलग्न रखने में समर्थ हो जाता है, तो योग विज्ञान के वास्तविक अर्थ मे वह धारणा शक्ति को प्राप्त कर लेता है। और यही स्वैच्छिक धारणा है।
यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि व्यक्ति धारणा स्वैच्छिक हो या अनैच्छिक- इसमें क्या फर्क पड़ता है?
वस्तुतः इस में महान अंतर है, जैसा कि निम्नांकित उदाहरणों से देखा जा सकता है। वह व्यक्ति, जिसमें धारणा शक्ति है, अधिक कार्य संपादन करता है, अपने समय की बचत करता है, अपनी भाभी योजना के प्रति सुनिश्चित होता है, अधिकांश समय आराम में रहता है, अपने मन एवं शरीर की प्राकृतिक स्थिति को बनाए रखता है, चैन में रहता है तथा अवांछित विचारों में अपने को नहीं उलझाता।
दूसरी ओर, वह व्यक्ति, जिसमें धारणा शक्ति का अभाव है, उस वस्तु को प्राप्त करने में विफल रहता है, जिसे वह प्राप्त करना चाहता था, और वह अपने मन की व्यर्थ संलग्नताओं का शिकार बन जाता है,, जो उसके स्वास्थ्य, सुख, निद्रा, विश्राम एवं दैनिक जीवन की सामान्य पद्धति को प्रभावित करती तथा इसमें बाधा डालती है।
यहां यह बताना आवश्यक है कि किसी व्यक्ति को गलतफहमी में पड़कर यह नहीं सोचना चाहिए कि पुरुष या स्त्री को सुखी जीवन बिताने के लिए आवश्यक इस धारणा शक्ति की प्राप्ति ही सब कुछ है। जीवन रक्षा की दृष्टि से जीवन के बहुत से महत्वपूर्ण पक्ष है, जिनका ज्ञान और अभ्यास, कर्मयोग तथा राजयोग के अनुसार, व्यक्ति के विलक्षण प्राणी बनने के लिए अनिवार्य है। किन्तु साथ ही साथ इस पर भी बल देने की आवश्यकता है कि इस धारणा शक्ति की प्राप्ति वस्तुतः सुखी जीवनरूपी खजाने की कुंजी की प्राप्ति है।

धारणा की प्राप्ति कैसे हो?


धारणा शक्ति की प्राप्ति के कई तरीके हैं। यह दावा करना दम्भपूर्ण होगा कि कोई व्यक्ति केवल योग की पद्धति से ही इसे प्राप्त कर सकता है। अतीत तथा वर्तमान काल के अगणित महापुरुषों ने, जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र विशेष में चमत्कार उत्पन्न कर दिया है, तथा प्रभूत धारणा शक्ति का प्रदर्शन किया है, न तो योगाभ्यास किया और ना इसे प्राप्त करने के योगिक मार्ग का अनुसरण ही किया। फिर भी उनकी धारणा शक्ति अतीत एवं वर्तमान काल के जीवन भर योगाभ्यास करने वालों की अपेक्षा बढ़-चढ़कर थी। किन्तु प्रश्न यह है कि यदि कुछ लोग कोई अनोखी शक्ति प्राप्त कर सके थे, तो क्या अन्य लोग भी उसे प्राप्त कर सकते हैं?
इन महापुरुषों ने अपनी धारणा शक्ति को प्रयत्न और भूल द्वारा, कठिन संयम द्वारा, दृढ़ संकल्प द्वारा तथा कुशलता की उपलब्धि के लिए लगन अथवा अन्य प्रेरणाओं द्वारा परिवर्द्धित या विकसित किया होगा। स्वभावत: तब धारणा के उसी स्तर को प्राप्त करने का इच्छुक कोई भी व्यक्ति उसे प्राप्त कर सकता है, यदि वह उचित प्रयास करे। किंतु यादृच्छिक रूप से किए गए प्रयास का परिणाम संतोषप्रद हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता है। दूसरी ओर, योग की सिद्ध, परीक्षित तथा ज्ञात पद्धति है, जो हर किसी को निश्चिता के आश्वासन के साथ वही परिणाम प्रदान करती है।
इस प्रसंग में दृष्टव्य है कि आधुनिक काल में सभी पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए योग सर्वाधिक मूल्यवान एवं स्पृहणीय है।
योग में धारणा शक्ति प्राप्त करने की कई विधियां हैं। कुछ विधियां सरल और आसान है, किंतु अन्य कठिन तथा जटिल हैं, यद्यपि इन सब का एक ही परिणाम होता है। कठिन तथा जटिल विधियों का अभ्यास किसी अनुभवी योग शिक्षक की उपस्थिति में ही किया जाना चाहिए। यदि व्यक्ति स्वयं इनका अभ्यास करता है, तो इसमें गलतियां होने, यहां तक की हानि होने की भी संभावना अधिक रहती है। इसे ध्यान में रखते हुए, केवल आसान, किन्तु समान रूप से महत्वपूर्ण विधि की सिफारिश की जाती है, ताकि कोई भी व्यक्ति बिना किसी भय के तथा बिना किसी योग शिक्षक की व्यक्तिगत सहायता लिए उसका अभ्यास कर सके।
उस विधि का वर्णन करने से पूर्व यह बतलाना आवश्यक प्रतीत होता है कि हठयोग के आसनों द्वारा भी किस प्रकार यह धारणा शक्ति प्राप्त की जाती है। यद्यपि आसनों का सम्बन्ध मुख्यतः शारीरिक उत्कृष्टता से है, तथापि मानसिक पक्ष भी अप्रभावित नहीं रहता। किसी भी आसन के अभ्यास की विधि ऐसी होती है कि जब तक शरीर तथा मन का सामन्जस्य नहीं होगा तब तक उसे संतोष पूर्वक संपन्न नहीं किया जा सकता।
इस अवस्था में यह ज्ञातव्य है कि विभिन्न आसनों के अभ्यास में शारीरिक गतिविधियों तथा अनुकूलनों के साथ-साथ श्वास लेने, श्वास छोड़ने, उसे रोक रखने तथा स्वाभाविक श्वास-क्रिया की आवश्यकता होती है। जब तक ये आवश्यकताएं पूरी नहीं हो जाती, तब तक किसी आसन का अभ्यास सम्यकरूपेण सम्पन्न नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में यह आसानी से समझ में आ सकता है कि अभ्यास की प्रकृति ऐसी होती है किस शरीर और मन के बीच सहयोग तथा सामंजस्य के अभाव में पूर्णता के उपलब्ध नहीं होती। अतः आसनों के अभाव के क्रम में मन का ध्यानस्थ एवं समन्वित होना स्वभावत: धारणा-शक्ति की प्राप्ति में सहायक बन जाता है। इसे योगासनों का परोक्ष लाभ माना जाता है, यद्यपि यह पूर्ण धारणा की ओर प्रवृत्त नहीं करता। चूंकि पूर्ण धारणा शक्ति की प्राप्ति हमारा लक्ष्य है, इसलिए एक विशेष यौगिक विधि, जो खासकर इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए है, आवश्यक हो जाती है।

अभ्यास के लिए अनिवार्यताएं


धारणा शक्ति के वास्तविक अभ्यास के पूर्व कुछ अनिवार्यताएं हैं, जिनका अनुसरण किया जाना चाहिए। वे अनिवार्यताएं स्थान, समय, शारीरिक दशा, भोजन या खाद्य पदार्थ और अभ्यास की प्रविधि-विषयक है।

स्थान- अभ्यास का स्थान साफ सुथरा तथा शांतिपूर्ण होना चाहिए। वह स्वच्छ वायु सुलभ होनी चाहिए। आवश्यक नहीं कि अभ्यास का स्थान किसी विशेष प्रकार का हो, किंतु वह अभ्यासी की आंखों के लिए सुखकर अवश्य होना चाहिए। नियमित रूप से एक ही स्थान पर अभ्यास करें, और अत्यंत आवश्यक होने पर ही स्थान परिवर्तन करें। यदि संभव हो, तो अकेले ही अभ्यास करें। किसी दर्शक को वहाँ न आने दे।

समय- आप अपनी सुविधानुसार कोई भी समय चुन लें। इसका अभिप्राय यह है कि आपके अभ्यास का समय ऐसा हो कि उस समय कम से कम शारीरिक और मानसिक सक्रियता की आवश्यकता पड़े। यह समय आपकी नियमित दिनचर्या के कार्यकाल के पूर्व या पश्चात हो सकता है। प्रतिदिन उसी समय अभ्यास किया करें। यदि कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण आप प्रतिदिन अभ्यास नहीं कर सकते हो, तो सप्ताह में कम से कम 5 दिन करें। 24 घंटों में केवल एक बार ही अभ्यास करें। वे लोग, जो योगासनों का अभ्यास करते हैं, उसी समय धारणा का अभ्यास कर सकते हैं। ऐसी अवस्था में अभ्यासी को धारणा का अभ्यास करने के पूर्व आसनों के अभ्यास में लगे समय के चतुर्थांश तक विश्राम अवश्य कर लेना चाहिए। उदाहरणार्थ यदि आप 40 मिनट तक आसनों का अभ्यास करते हो तो 10 मिनट का विश्राम ले लें। तत्पश्चात धारणा का अभ्यास करें।

शारीरिक दशा- अभ्यास के समय आपका शरीर हल्का, अक्लान्त, स्वच्छ और सामान्य होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि दांत और मुंह की सफाई, चेहरा, हाथ और पैरों का प्रक्षालन, साफ तथा हल्के वस्त्र पहनना, हल्का भोजन करना, तथा किसी भी मादक द्रव्य के प्रभाव से मुक्त रहना आवश्यक है। शरीर क्लांत या थका-मांदा न हो, और ना कोई अत्यधिक शारीरिक पीड़ा ही हो। अभ्यास के समय आपका पेट खाली रहे, इसलिए अभ्यास के समय से 2 घंटे पूर्व भोजन अवश्य कर ले अथवा अभ्यास के बाद करें।

मानसिक दशा- अभ्यास के समय मन को चिंता, उद्वेग तथा किसी श्रम साध्य अंतर्ग्रस्तता से मुक्त रखें। ईर्ष्या, घृणा, क्रोध तथा प्रतिशोध की भावना का परित्याग किया जाना चाहिए। यदि दूसरों को हानि पहुंचाने की भावना आपके मन में उत्पन्न होती है, तो आप विचार करें कि दूसरों को क्षति पहुंचाए बिना आप अपने को अच्छा बना सकते हैं। अपने भरसक मन पर किसी प्रकार का बोझ या दबाव ना आने दे।

भोजन- निरामिष या सामिप, जो भी आहार आपको पसंद हो, आप लें। किन्तु एक बात का ध्यान रखें कि वह तामसिक अर्थात उत्तेजक पदार्थ न हो। भोजन में अधिक मसालों का प्रयोग ना करें। संतुलित आहार ग्रहण करें, जिसका अर्थ है कि आपके प्रतिदिन के भोजन में सलाद, ताजा फल तथा सब्जियां शामिल रहे। अपनी क्षमता का 85% ही एक समय में खाएं तथा धीरे-धीरे खाएं। अधिक काफी, चाय, शराब तथा औषधियों का सेवन नहीं करें। 1 दिन में 2 कप से अधिक चाय या काफी और 2 बार से अधिक अल्कोहल युक्त पेय अधिक हो जाता है। औषधियों की कौन सी मात्रा अधिक हो जाएगी, इसका निर्णय आप स्वयं करें। यह बहुत अच्छी बात होगी, यदि आप नियमित रूप से शराब तथा औषधियों का सेवन ना करें। आपके जीवन में भोजन संबंधी यह पाबन्दी रखी जानी चाहिए। फिर भी, जब आधुनिक प्रीतिभोज एवं सामाजिक गोष्ठियों के अवसर आएं, तो आप उन पाबन्दियों की तनिक भी परवाह किए बिना उनका पूरा आनंद उठाएं। किन्तु याद रखें, योग का अर्थ साम्यावस्था या संतुलन का विज्ञान है। जब आपका जीवन संतुलन के इस सिद्धांत से शासित होगा, तब आप इस विज्ञान के रहस्य को जान लेंगे।

अभ्यास की विधि- यह दृढ़ता पूर्वक राय दी जाती है कि सर्वप्रथम अभ्यास की संपूर्ण विधि को कृपया पढ़ लें। पहली बार पढ़ते समय अभ्यास प्रारंभ करने का प्रयास ना करें। अभ्यास की विधियों के बारे में जब पहली बार पढ़ना पूरा हो जाए और सब कुछ पूरी तरह समझ में आ जाए, तभी वास्तविक अभ्यास प्रारंभ करें। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, धारणा के अभ्यास की अनेक विधियां हैं। किंतु उन सब में जो सर्वमान्य है, वह है किसी वस्तु पर अपने मन को केंद्रित या स्थिर करना।
स्थिरता का अभ्यास व्यक्ति- पुरुष अथवा स्त्री- के शरीर के आंतरिक या बाह्य भाग पर किया जा सकता है, किसी अन्य वस्तु पर भी। व्यक्ति के शरीर के आंतरिक या वाह्य भाग के साथ अभ्यास जटिल, कठिन तथा खतरनाक भी हो सकता है। किन्तु किसी चुनी हुई वस्तु के साथ अभ्यास अपेक्षाकृत सरल, खतरों से लाइट तथा अत्यधिक फलदायक होता है। और इस प्रकार यह आधुनिक पुरुष तथा स्त्रियों के लिए अधिक वांछनीय है।
वस्तु किस प्रकार की हो?
यद्यपि वस्तु का चयन व्यक्ति की अपनी पसंद पर निर्भर है, फिर भी इस संबंध में कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं। यौगिक अभ्यासों में सामान्यत: फूल, दीप या मोमबत्ती, मूर्ति, फोटो तथा चित्र का प्रयोग किया जाता है। हम दीप या मोमबत्ती के साथ अभ्यास की अनुशंसा नहीं करते हैं; क्योंकि इससे आंखों की ज्योति को क्षति पहुंचने का खतरा रहता है, और यदि अभ्यास में सावधानी नहीं बरती जाएगी।
तो इससे आत्मविक्षति तथा अग्निकांड का खतरा भी उपस्थित हो सकता है। उल्लिखित अन्य वस्तुओं में फूल के साथ अभ्यास की अनुशंसा की जाती है; क्योंकि अभ्यास की पारंपरिक अवस्था में यह किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे अधिक सरल एवं सर्वोत्तम है।

वस्तु का चुनाव- जिस फूल को आप सबसे अधिक पसंद करते हैं, उसे चुन ले। प्रारंभ में आपको केवल एक ही फूल की आवश्यकता पड़ेगी।अतएव, फूल का आकार अपेक्षाकृत बड़ा तथा उसका रंग चमकीला हो, जैसे कि गुलाब, गेंदा, सूरजमुखी या इस प्रकार के अन्य फूल। यदि प्राकृतिक फूल सुलभ नहीं हो या अधिक मूल्यवान हो तो कोई कृत्रिम फूल खरीद ले, जो किसी भी स्थान में सुलभ हो सकता है। जब प्राकृतिक फूल मुरझाने लगेगा तब उसे बदल देना पड़ेगा, किन्तु कृत्रिम फूल का व्यवहार असीम कालावधि तक किया जा सकता है। किंतु यदि आप कृत्रिम फूल का व्यवहार कर रहे हो, तो उसे साफ रखने के लिए समय-समय पर धो लिया करें।

वस्तु की व्यवस्था- पहले डंठल सहित फूल को अक्षुण्ण रूप में किसी छोटे पात्र जैसे कि गिलास फूलदान या इस प्रकार के अन्य पात्र में रख दें। प्राकृतिक फूल को ताजा बनाए रखने के लिए उस पात्र में थोड़ा जल डाल दें। पात्र में फूल की स्थिति टेढ़ी नहीं बल्कि सीधी होनी चाहिए। उसी फूल की या अन्य फूलों के पत्तियों के व्यवहार से फूल की यह व्यवस्था की जा सकती है। इस बात का ध्यान रखा जाए कि फूल स्पष्टत: पत्तियों से ऊपर उठा रहे।
वस्तु को रखना- इस व्यवस्थित फूल को किसी छोटे आकार के घरेलू उपस्कर,जैसे स्टूल, चौकी या साइड टेबल पर रख दें।
अब ऊंचाई पर विचार करें। फूलदान इस प्रकार रखा जाना चाहिए कि फूल के शीर्ष की ऊंचाई वही हो जो भूमि पर बैठने की स्थिति में नेत्र दृष्टि की ऊंचाई रहे। व्यक्ति की ऊंचाई के अनुसार इस ऊंचाई में भिन्नता हो सकती है, सामान्यत: यह कहा जा सकता है कि यह ऊंचाई लगभग ढाई फुट होनी चाहिए। इसके बाद अभ्यास करने वाले की बैठने की स्थिति और फूल के बीच की दूरी का विचार आता है। अभ्यास करने की वस्तु तथा अभ्यासी के बीच की दूरी लगभग 4 से 5 फुट तक होनी चाहिए। वस्तु पर यथेष्ट प्रकाश पड़ना चाहिए।

दृष्टि-शक्ति का ज्ञान- वास्तविक अभ्यास के विवेचन के पूर्व मन की दृष्टि शक्ति के  विषय में कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक है। ताकि इस विधि का पूर्ण ज्ञान हो जाए। योग के अनुसार हमें दो प्रकार की दृष्टि शक्ति प्राप्त है।
पहली आंखों की शक्ति द्वारा और दूसरी अन्त:चक्षु द्वारा।
योगियों का विश्वास है कि हम सबको अन्त:चक्षु प्राप्त है; जिस की स्थिति अग्र-ललाट में अर्थात भौहों के मध्य क्षेत्र में है। अभ्यास द्वारा अन्त:चक्षु की इस गुप्त दृष्टि शक्ति को विकसित किया जा सकता है। जब अभ्यास द्वारा अन्त:चक्षु की शक्ति विकसित तथा तीक्ष्ण हो जाती है तभी होगी उन चीजों को भी देखने का दावा करते हैं, जिन्हें बाह्य चक्षु से देख पाना संभव नहीं है। जहां बाह्य चक्षुओं से केवल बाह्य रूप से वस्तुएं दृष्टिगोचर हो सकती हैं, हाँ अन्तःचक्षुओं से प्रत्यक्षतः अदृष्टपूर्व सुदूरवर्ती वस्तुएं भी दृष्टिगत हो सकती हैं। धार्मिक विश्वास एवं मूल्यों को मान्यता प्रदान करने वाले योगी अपने आराध्य देवों के साकार रूप को दर्शनार्थ अपने अन्त:चक्षुओं की इस शक्ति की वृद्धि में अपना बहुत अधिक समय लगाते हैं। क्योंकि हमारा उद्देश्य किसी देवी देवता की आराधना अथवा दर्शन करना नहीं है, इसलिए हम इस शक्ति का केवल सीमित उपयोग करेंगे। प्रासंगिकता की दृष्टि से यह सीमा स्वेच्छा से गृहीत है। धारणा के आवश्यक पहलू के अभ्यास की उपयोगिता समझकर ही हम इसके अनावश्यक पहलुओं का यहां परित्याग कर रहे हैं। अंतर्दृष्टि शक्ति में हमारी अभिरुचि उसी बिंदु तक है, जहां तक इसके कार्य एवं प्रकृति की जानकारी, इसके उपयुक्त तथा लाभकारी विकास में सहायक है। उपर्युक्त स्पष्टीकरण की सार्थकता तभी सरलता से समझ में आएगी जब आप वास्तविक अभ्यास प्रारंभ करेंगे। जवाब किसी चीज को खुली आंखों से देखते हैं, और फिर आप उसी चीज को अन्तःचक्षु से देखने का प्रयास करते हैं, तो ऐसा करके आप धारणा का अभ्यास प्रारंभ कर देते हैं।अन्तः चक्षु द्वारा दृष्टिगोचरता में जैसे प्रगति होगी, उसी के अनुपात में धारणा की उपलब्धि में भी प्रगति होगी। इस प्रकार अभ्यास की दीर्घता एवं अवधि इस पर निर्भर करेगी कि व्यक्ति विशेष की रुचि तथा आवश्यकता क्या है।

प्रथम अवस्था- पैरों को मोड़कर बैठ जाएं। यदि आप पद्मासन कर सकते हो तो पद्मासन में बैठ जाएं। यदि नहीं, तो इस प्रकार बैठे कि आपके पैर बगल से मुड़े हो ताकि शरीर का भार भूमि पर रहे, न कि पैरों पर। हाथों को घुटनों पर रखें। फूल से चार-पांच फुट की दूरी पर उसकी ओर मुंह करके बैठ जाएं। अब अपने शरीर को सीधा करें। सीधी तन कर बैठ जाए ताकि आपकी छाती गर्दन और सिर एक सीध में हो जाएं। वक्र रूप से नहीं बैठे। इस बिंदु पर आप पैरों की स्थिति पर ध्यान दिए बिना मेरुदण्डीय रज्जु( सुषुम्णा), गर्दन और सिर के सीधेपन पर अपना संपूर्ण ध्यान दें। अपने पैरों को आराम से जहां रखना चाहे रखें। अपने हाथों को दोनों घुटनों पर या जांघों पर रखें।
टिप्पणी- इस प्रकार बैठना, उन लोगों के लिए कुछ कठिन एवं कष्टकर हो सकता है, जिन्हें फर्श पर बैठने का अभ्यास नहीं है। अतएव यह सुझाव दिया जाता है कि इस आधार पर हतोत्साहित होने की आवश्यकता नहीं है। अभ्यासियों को यह देखकर आश्चर्य होगा कि केवल कुछ सप्ताहों के अभ्यास के पश्चात बैठने में जो कठिनाई हो रही थी वह दूर हो चुकी है।

द्वितीय अवस्था- अब आप निम्नांकित विधि के अनुसार गहरी सांस लेने जा रहे हैं।
जब आप फूल की ओर देख रहे हो अथवा आंखें बंद किए हो, शरीर को सीधा रखते हुए पूरी वायु को दोनों नासिका छिद्रों द्वारा धीरे-धीरे तथा लगातार बाहर निकाल दें। जब स्वास्थ्य वायु का बाहर निकलना समाप्त हो जाए, एक सेकेंड के लिए रुक जाएं और उसके बाद दोनों नासिका छिद्रों से धीरे-धीरे तथा लगातार सांस लेना प्रारंभ करें। जब सांस लेना समाप्त हो जाए, पुनःएक सेकंड तक रुक जाएं, और तब पहले की भांति सांस छोड़ना शुरू करें,तथा जब यह समाप्त हो जाए, पुनः रुक जाएं। अभ्यास के पहले दिन सांस लेने तथा सांस छोड़ने की यह क्रिया केवल 5 बार करें। इस क्रिया को उत्तरोत्तर एक सप्ताह में 10 बार तक तथा एक महीने में 15 बार तक बढ़ाएं। 15 बार से अधिक कदापि न करें। यदि एक समय में आप सांस लेने तथा छोड़ने की क्रिया केवल 10 बार कर लेते हैं, तो यह पर्याप्त होगा।
सांस लेने तथा सांस छोड़ने की इस क्रिया से मुख्यतः पेट से संबंधित क्षेत्र प्रभावित होना चाहिए। जब आप सांस छोड़ रहे हो, तब पेट की मांसपेशियों को सिकुड़ना चाहिए। दूसरे शब्दों में, जब आप सांस छोड़ रहे हो, तब आपको अपने पेट का मेरुदण्डिय रज्जु (सुषुम्णा) की और भीतर ले जाना चाहिए। जब आप सांस ले रहे हो तो पेट की मांसपेशियों को फैलना चाहिए। दूसरे शब्दों में, भीतर सांस लेते समय पेट को आगे की ओर आ जाना चाहिए। पेट की मांसपेशियों के सिकुड़ने और फैलने की क्रिया लयबद्ध रूप से होनी चाहिए।
जब सांस लेने और छोड़ने की क्रिया चल रही हो तब इसकी लयात्मकता को विकसित करने का एक मार्ग यह है फूल की गंध तथा वायु की शुद्धता की अनुभूति एवं कल्पना की जाए।
उदाहरणार्थ, जब आप सांस छोड़ रहे हो, तब ऐसा अनुभव करें कि आपके शरीर से सारी गंदगी बाहर निकल रही है। और जब आप सांस खींच रहे हो, तब ऐसा अनुभव करें कि स्वच्छ एवं सुगंधित वायु आपके संपूर्ण शरीर में शक्ति का संचार कर रही है, उसे पुष्ट तथा समृद्ध बना रही है। गंदगी या अशुद्धताओं को बाहर निकालने तथा शक्ति प्राप्त करने की यह आरोपित अनुभूति स्वभावतया बहुत शीघ्र गहरी सांस क्रिया को प्रणालीबद्ध कर देगी। और जिसे हम लयबद्धता कहते हैं, वह प्रणालीबद्ध सांस क्रिया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

विश्राम- लयबद्ध श्वास क्रिया के इज्जत चक्र पूरा करने के बाद कुछ मिनट तक विश्राम करें। सांस क्रिया में आप जितना समय लगाते हैं, उसका लगभग चतुर्थांश समय विश्राम का होना चाहिए।
यदि आपने चार मिनट तक सांस क्रिया की है, तो आपके विश्राम का समय एक मिनट होना चाहिए। इस विश्राम में आप लेट न जाए। परंतु जब आप अपने शरीर की मांसपेशियों को ढीला कर रहे हो, तब अपने को बैठने की स्थिति में रखें। दूसरे शब्दों में, आरामदेह तथा सुख पूर्वक अवस्था में हो जाए।
विश्राम करते समय सामान्य एवं स्वाभाविक रीति से सांस लेते और छोड़ते रहें। अर्थात आपकी श्वास क्रिया स्वाभाविक हो। विश्राम की अवधि समाप्त होने के बाद वस्तु के साथ आपका वास्तविक अभ्यास प्रारंभ होगा। किंतु अंतिम अवस्था की प्रविधि का वर्णन करने से पूर्व मैं इस लयबद्ध सांस क्रिया के महत्व के संबंध में कुछ शब्द कहना चाहूंगा।

लयबद्ध श्वास क्रिया का महत्व- राजयोग के अनुसार यह लयबद्ध श्वास क्रिया संपूर्ण शारीरिक प्रणाली में सामन्जस्य ला देती है। यह श्वास क्रिया जहां एक ओर स्नायु तंत्र को सक्रिय एवं सशक्त बनाती है, उसी के साथ यह संपूर्ण शारीरिक प्रणाली या तंत्र को सुख पहुंचाती है, शांति देती और सुव्यवस्थित भी करती हैं। इस लयबद्ध श्वास क्रिया के पूर्ण प्रभाव का अनुभव करने के लिए अभ्यासी को, जैसा कि पहले चर्चा की गई है, युक्त समय तक अवश्य विश्राम करना चाहिए। इस विश्राम के संबंध में चर्चा करते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा है- "एक बार जब यह विश्राम मिलता है, तो अत्यधिक थकी हुई स्नायुएं शांत हो जाती है और आपको लगेगा, मानो आपने इससे पहले वस्तुतः कभी विश्राम नहीं किया था।"
राजयोग में इस लयबद्ध श्वास क्रिया की भूरि भूरि प्रशंसा की गई हैं; क्योंकि नियमित रूप से अभ्यास करने वालों को यह अनेक शारीरिक एवं मानसिक लाभ पहुंचाती है। इस विश्वास क्रिया की विलक्षणता को अभिव्यक्त करने के लिए मैं स्वामी विवेकानंद की पुस्तक "राजयोग" की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा। उनके अनुसार-" इस अभ्यास का प्रथम प्रभाव किसी व्यक्ति की मुखाकृति के परिवर्तन में दृष्टिगोचर होता है। रुक्ष रेखाएं लुप्त हो जाती है, शांत विचार के साथ मुख मंडल पर शांति छा जाती है। इसके बाद आवाज में मधुरता आती है। मैंने किसी ऐसे योगी को कभी नहीं देखा, जिसकी आवाज कर्कश रही हो। ये लक्षण कुछ महीनों के अभ्यास के पश्चात प्रकट होते हैं।

अंतिम अवस्था- इसे सुनिश्चित करने के लिए कि आप सीधा बैठे हुए हैं, अपने शरीर की पुनः जांच कर ले। अब पहले बाएं हाथ को गोद में रखें, उसके बाद दाहिने हाथ को बाई तलहत्थी पर रखें। उन्हें ढीला रहने दे। अब सामान्य रूप से सांस लेते और छोड़ते रहे। सर्वप्रथम अपनी आंखों को धीरे धीरे और नरमी से बंद कर ले। दस सेकंड तक इन्हें बंद रखें। इसके बाद क्रमिक रूप से( धीरे धीरे) अपनी आंखों को खोलें। जब यह पूरी तरह खुल जाए, तब इन्हें 6 से 8 सेकंड तक खुली रखें। आंखों को बंद करने और खोलने की क्रिया को तीन से पांच बार तक करें। ध्यान रहे आंखों का खोलना और बंद करना क्रमिक रूप से हो। प्रारंभिक अवस्था में, इस प्रकार आंखों के  खोलने और बंद करने से आपकी आंखों में आंसू आ सकते हैं। आंखों में हल्की पीड़ा भी महसूस हो सकती है। इसीलिए आपको क्रमिक रूप से अपनी क्रिया जारी रखनी होगी। आप देखेंगे कि कुछ ही दिनों के अभ्यास से आंखों से पानी निकलना तथा अन्य तकलीफें दूर हो गई हैं।
अब फूल की पंखुड़ियों की ओर देखें। लगभग दस सेकंड तक देखना जारी रखिए। किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव होने पर देखने के समय में कमी कर दे यानी अपेक्षाकृत कम समय तक देखें। किंतु, आंखें झपकाने या पलक मारने का प्रयास कदापि नहीं करें। अब आपने दस सेकंड तक फूल को देख लिया है तब आप अपनी आंखों को धीरे धीरे नरमी से बंद कर लें और फूल की आकृति को अपने मन में देखने का प्रयास करें। जब आप अपने मन में फूल के स्वरूप और आकृति को लाने का प्रयास कर रहे हो, तब लगभग दस सेकंड तक अपनी आंखों को बंद रखें। केवल दस सेकंड तक आंखों को बंद रखने के बाद उन्हें नरमी से धीरे-धीरे खोलें और पुनः दस सेकंड तक फूल की ओर देखें। इस प्रकार देखने, बंद कर ले और देखने की इस प्रक्रिया को दोहराएं। अर्थात आंखों से देखना, आंखें बंद कर लेना और तब अंतश्चक्षुओं या भीतरी आंखों से देखना। पहले सप्ताह में इस प्रक्रिया को एक सत्र में केवल पांच बार दोहराए। इसे उत्तरोत्तर दस बार तक विकसित करें और तब 15 बार तक करें जो अंतिम सीमा होगी।

यहां समय या बार का अर्थ चक्र(Round) से है। दस बार का अर्थ है- दस चक्र। केवल एक सत्र में दस चक्र का अभ्यास कर लेते हैं तो यह पर्याप्त होगा। किंतु किसी भी स्थिति में एक सत्र में पन्द्रह बार से अधिक अभ्यास नहीं करें।
जब अभ्यास समाप्त हो जाए, तब भी स्थिरता पूर्वक शांत हो बैठे ही रहे। किंतु अब, शरीर को ढीला करें और 2 मिनट तक शिथिलन या विश्राम लेने की स्थिति में बैठे हैं। जब आप यह कर लेते हैं, तब धारणा का आपका अभ्यास पूर्ण एवं समाप्त हो जाता है। सत्र की समाप्ति के पश्चात आप भोजन करने, सोने या अन्य कोई काम करने के लिए स्वतंत्र है।

कुछ सुझाव

ऐसा सुझाव दिया जाता है कि लगभग एक महीने तक केवल एक ही फूल से अभ्यास करने के बाद, यदि आप चाहे तो  फूलदान में और फूल रख सकते हैं, यद्यपि फूलों की संख्या वृद्धि आवश्यक नहीं है।
यह भी राय दी जाती है कि फूलों के साथ दो महीने के अभ्यास के पश्चात आप वस्तु को बदल दे सकते हैं। तब आप अपनी पसंद के किसी छायाचित्र( फोटो), मूर्ति या चित्र से अभ्यास कर सकते हैं। आप का एकमात्र विचार वस्तुओं के आकार( साइज), रंग और प्रकार के संबंध में होना चाहिए। वे मध्यम आकार, चमकीले रंग की और सुखकर तथा आनंददायक हों किंतु रोमांचकारी कदापि न हो।

चेतावनी

धारणा का अभ्यास करने वालों को निम्नांकित चेतावनियों को अवश्य पढ़ लेना चाहिए और अभ्यास  के समय इनका ध्यान रखना चाहिए। किसी अन्य विज्ञान की भांति, राजयोग के नियमों का अनुसरण अप्रत्याशित परिणामों से बचने के लिए सावधानी से किया जाना चाहिए।
वे चेतावनियां निम्नांकित है
प्रथम चेतावनी समय की सीमा के संबंध में है। धारणा के अभ्यास में लगाया जाने वाला कुल समय बीस मिनट से अधिक नहीं होना चाहिए। इसी में श्वास क्रिया, विश्राम, अभ्यास और अंतिम विश्राम सम्मिलित है। जब तक शिक्षक व्यक्तिगत रूप से अभ्यास का निर्देशन नहीं करते हैं, अभ्यासियों को चौबीस घंटे की अवधि में अपने अभ्यास की सीमा केवल पन्द्रह से बीस मिनट के भीतर रखनी चाहिए।
कुछ बचाव के उद्देश्य से समय पर लगाई गई यह सीमा आवश्यक है। उनमें एक यह है कि कुछ अभ्यासकर्ता अभ्यास के क्रम में अंत:चक्षुओं के समक्ष कौंध जाने वाली विलक्षण प्रतिमाओं से मुग्ध हो सकते हैं। इस मोहकता पर यदि रोक नहीं लगाई जाती है, तो यह अभ्यास कर्ता को समय के दुरुपयोग की दिशा में गुमराह कर सकती है। दूसरे, यदि अभ्यासकर्ता पुलक एवं मोहकता की उपलब्धि के लिए अपना अभ्यास अधिक समय तक जारी रखता है, तो वह न केवल अपने इच्छित लक्ष्य से मार्गच्युत होता है, बल्कि वह अपने को कुछ उन अज्ञात परिणामों की ओर ले जाता है, जो उसके कार्यों, विचारों, कार्य संपादनों और व्यवहार पर बुरा प्रभाव डाल सकते हैं।अतएव, समय की सीमा अभ्यासकर्ता को सदा अभ्यास  के सुरक्षित पक्ष की ओर रखेगी, जहां कभी अवांछित परिणामों का अनुभव एवं आभास नहीं हो पाएगा।
दूसरी चेतावनी धारणा के अभ्यास में जलते हुए दीप या किसी अन्य दाहक पदार्थ के प्रयोग के संबंध में है। अपने अभ्यास में इन आपत्तिजनक पदार्थों का बहिष्कार करें। इसके कारणों का उल्लेख पहले किया जा चुका है।

अभ्यास के क्रम में होने वाली कुछ कठिनाइयां

आपके अभ्यास के सिलसिले में कुछ समस्याएं एवं कठिनाइयां अप्रत्याशित रूप से उपस्थित हो सकती हैं, जिनके संबंध में स्पष्टीकरण आवश्यक है। यद्यपि शिक्षण एवं अभ्यास के अनुभवों के आधार पर सभी कठिनाइयों का पूर्वानुमान संभव नहीं है, फिर भी साधारणत: अनुभूत कुछ कठिनाइयों का विवेचन, उनसे सम्बद्ध स्पष्टीकरण के साथ  किया जा रहा है वे यह है-

समस्या संख्या 1- जब अभ्यासकर्ता अपने अंत:चक्षु द्वारा धारणा की इच्छित वस्तु को देखने का प्रयास करता है, तब वह उस वस्तु को देखने में बिल्कुल असमर्थ होता है। सब शून्य ही शून्य रहता है। कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता।

स्पष्टीकरण- यह अस्वाभाविक नहीं है। प्रारंभिक अवस्था में यह एक स्वाभाविक दशा है। यद्यपि सभी अभ्यासकर्ताओं की यह स्थिति नहीं भी हो सकती है, फिर भी जिनके साथ यह कठिनाई हो, उन्हें निश्चिंत रहना चाहिए; क्योंकि कुछ सप्ताहों के अभ्यास के क्रम में उनकी स्थिति सुधर जाएगी और वे उत्तरोत्तर अपने अंतश्चक्षु से वस्तु को देखने में समर्थ होंगे।

समस्या संख्या 2- अभ्यास के क्रम में जब अभ्यासकर्ता अपने अंत:चक्षु द्वारा वस्तु को देखने का प्रयास करता है, तब इच्छित वस्तु की जगह उसे कोई दूसरी ही चीज दिखलाई पड़ सकती है। यदि कोई दूसरी चीज, अस्थिर तथा रंगीन प्रकाश, विभिन्न वस्तुएं, पशु, पक्षी तथा अन्य इसी प्रकार की असंख्य चीजें हो सकती हैं। अक्सर यह पहचानने योग्य रूप में आती हैं, किंतु कभी-कभी ये ऐसे रूपों एवं आकारों में आती है की पहचानने योग्य नहीं रहती। अप्रत्याशित रूप से उभर आने वाली यह विलक्षण प्रतिमाएं, अभ्यास प्रारंभ करने वालों के लिए दुविधा एवं परेशानी में डालने वाली हो सकती हैं।

स्पष्टीकरण- योग के अनुसार अभ्यासकर्ता के अंतःचक्षु के सामने इन विलक्षण प्रतिमाओं का उभर आना, एक उत्साहवर्धक चिन्ह है; क्योंकि यह प्रतिमाएं धारणा शक्ति की प्राप्ति के लक्षण है। उस स्थिति में जहां अभ्यासकर्ता को कुछ भी नहीं दिखाई पड़ा, जैसा की समस्या संख्या एक में विवेचन किया गया है, अभ्यास में कोई प्रगति नहीं हुई। अंत:चक्षु के समक्ष सूनापन मानसिक शक्ति की पूर्वावस्था या यथास्थिति इंगित करता है। उस बिंदु  तक अभ्यास में कोई भी सारभूत उपलब्धि नहीं हुई। किंतु जब अभ्यासकर्ता को संख्या दो में बताई गई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तब वह स्थिति सुस्पष्ट सुधार प्रदर्शित करती है। लगभग एक महीने या इससे अधिक समय का नियमित एवं निरंतर अभ्यास यथासमय इस अवस्था में परिवर्तन ला देगा और अभ्यासकर्ता अंततोगत्वा धारणा की वास्तविक वस्तु को देखने में समर्थ हो जाएगा तथा अप्रत्याशित वस्तुएं अदृष्ट हो जाएगी।

समस्या संख्या 3- यदि अभ्यासकर्ता अभ्यास में अपेक्षित या प्रत्याशित सफलता प्राप्त कर लेता है, तब भी अंतश्चक्षु से अभ्यास की वस्तु को ठीक उसी रूप में जिस रूप में वह बाह्य चक्षु से दिखाई पड़ती है, नहीं देख पाने की समस्या उत्पन्न हो सकती है। इस स्थिति में यद्यपि वस्तु की प्रतिमा और आकृति दिखाई पड़ सकती है, फिर भी रंग और आकृति में कुछ अंतर हो सकता है। अभ्यासकर्ता यह आशा कर सकता है कि वह वस्तु को बाह्य चक्षुओं से जिस रूप में देखता है, ठीक उसी रूप में अंत:चक्षु से भी देख पाए। ऐसा क्यों होता है?
स्पष्टीकरण- यह तथ्य की वस्तुअंतश्चक्षु से समरूप और पहचानने योग्य आकार में दिखाई पड़ी है, दर्शाता है तथा प्रमाणित करता है कि व्यक्ति अपने प्रयास में सफल रहा है और उसने धारणा शक्ति प्राप्त कर ली है।
यहां जो कुछ जानना और पहचानना महत्वपूर्ण है,वह है मन की अर्जित क्षमता और वह भी भीतरी दृष्टिइंद्रियों से देखने, ग्रहण करने और एकाग्र होने की क्षमता, जैसे कि व्यक्ति ने इच्छा की थी। अब मन व्यक्ति द्वारा चुनी गई वस्तु से आपने को संलग्न कर रहा है और वह अपनी इच्छा अनुसार उड़ाने नहीं भर रहा है। यह प्रदर्शित करता है कि अब स्वैच्छिक धारणा शक्ति आ गई है।
अभ्यासियों को जान लेना चाहिए कि यद्यपि अंतश्चक्षु से देखने पर वस्तु की आकृति सदृश या समरूप होनी चाहिए, तथापि उसके रंग का सदृश या समरूप होना आवश्यक नहीं है। जैसा कि हम लोग जानते हैं, छायाचित्रांकन( फोटोग्राफी) में भी वस्तु का यथार्थ रंग सदा सुलभ नहीं होता, यह महत्व भी नहीं रखता,अंतश्चक्षु से हमारे देखने की ऐसी ही स्थिति है। यद्यपि सुदीर्घ कालीन अभ्यास से रंग की यथार्थता आ सकती है, फिर भी धारणा की दृष्टि में यह महत्वपूर्ण नहीं है। इस प्रकार यदि आप अपनेअंतश्चक्षु से वस्तु को समान रूप एवं आकार में देखने में समर्थ हैं, तो रंग के संबंध में चिंता नहीं करें।

धारणा की जांच- आपने धारणा शक्ति प्राप्त कर ली है या नहीं, इसकी जांच आप निम्नांकित निर्देश के अनुसार स्वयं कर सकते हैं। अभ्यास करते समय यदि आप अंतश्चक्षु से किसी चीज को नहीं देखते हैं, तो आपको धारणा की उपलब्धि नहीं हुई है। अभ्यास के क्रम में आपअंतश्चक्षु से कुछ अन्य वस्तुओं को देखते हैं, किंतु अपने बाह्य चक्षुओं के समक्ष रखी गई वस्तु को नहीं देख पाते, तब आप में सुधार हो रहा है, किंतु आपको अब तक धारणा शक्ति की उपलब्धि नहीं हुई है। किंतु अभ्यास के समय अंतश्चक्षु से जब आप वास्तविक वस्तु के आकार को एक सेकेंड के लिए भी देखते हैं तब आपको धारणा की उपलब्धि हो गई है। यदि वस्तु किसी भी रूप या आकार में अंतश्चक्षु के समक्ष पांच सेकंड तक टिकी रह जाती है, तो आपने अच्छी धारणा शक्ति उपलब्ध कर ली है। आप वस्तु को उसी आकार या प्रतिमा को लगभग दस सेकंड तक ग्रहण किए रख सकते हैं, तो आपने अति उच्चस्तरीय धारणा उपलब्ध कर ली है।

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