Monday, April 15, 2019

तिथि और वार के अनुसार माँ जगदम्बा को अर्पित करें विशेष भोग


श्रीदेवीभागवत में माँ जगतजननी को प्रसन्न करने के लिए देवी पक्ष (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक) में प्रतिदिन  अलग-अलग भोग बताए गए हैं। 
माँ को अर्पित किया गया यह भोग ब्राह्मणों को दान कर देना चाहिए ।
प्रतिपदा तिथि में माँ जगदम्बा के षोडशोपचार पूजन के बाद उन्हें गाय के घी का भोग लगायें और उसे ब्राह्मण को दे दें । इसके फलस्वरूप मनुष्य कभी रोगी नहीं होता है ।
द्वितीया तिथि को माँ का पूजन करके चीनी का भोग लगावे और ब्राह्मण को दान दें । ऐसा करने से मनुष्य दीर्घायु होता है।
तृतीया के दिन माँ जगदम्बा को दूध का भोग लगायें और ब्राह्मण को दे दें । यह सभी दु:खों से मुक्ति प्राप्त करने का अचूक उपाय है ।
चतुर्थी तिथि को माँ को मालपुए का नैवेद्य अर्पण कर ब्राह्मण को दे देना चाहिए । इस दान से जीवन की सारी विघ्न-बाधाएं दूर हो जाती हैं ।
पंचमी तिथि को माँ की पूजा के बाद केला अर्पण करें और वह प्रसाद ब्राह्मण को दे दें । ऐसा करने से मनुष्य का बुद्धि-कौशल बढ़ता है ।
षष्ठी तिथि के दिन माँ के भोग में मधु (शहद) का महत्व है अत: मधु का भोग अर्पण करके उसे ब्राह्मण को देने से मनुष्य को सुन्दर रूप प्राप्त होता है ।
सप्तमी तिथि के दिन जगदम्बा को गुड़ अर्पण कर ब्राह्मण को देना चाहिए । ऐसा करने से मनुष्य के सारे शोक दूर हो जाते हैं ।
अष्टमी तिथि के दिन भगवती को नारियल का भोग लगा कर ब्राह्मण को दान करना चाहिए । ऐसा करने से मनुष्य को कभी किसी भी प्रकार का संताप (दु:ख, क्लेश, ज्वर आदि) नहीं होता है ।
नवमी तिथि में देवी को धान का लावा (खील) का भोग लगाकर ब्राह्मण को दान करने से मनुष्य इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त करता है ।
दशमी तिथि को मां को काले तिल से बने मिष्ठान्न का भोग लगाकर ब्राह्मण को दान करना चाहिए । ऐसा करने से मनुष्य को यमलोक का भय नहीं सताता है ।
एकादशी को भगवती को दही का भोग लगाकर ब्राह्मण को देना चाहिए । इससे माँ की कृपा प्राप्त होती है ।
द्वादशी को मां को चिउड़ा का भोग लगाकर ब्राह्मणों को देने से माँ अपना कृपाहस्त सदैव साधक के ऊपर रखती हैं ।
त्रयोदशी को चने का भोग लगाकर ब्राह्मण को दान करने से साधक को पुत्र-पौत्रादि का सुख प्राप्त होता है ।
चतुर्दशी के दिन माँ जगदम्बा को सत्तू का भोग लगाकर जो ब्राह्मण को देता है, उस पर भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं ।
पूर्णिमा के दिन माँ को खीर का भोग लगाकर ब्राह्मण को दान देने से पितरों को सद्गति प्राप्त होती है ।

जगदम्बा के सात वारों के सात विशेष भोग

श्रीदेवीभागवत में माँ जगदम्बा के लिए सात वारों के भी सात भोग बताए गए हैं । नवरात्रि के अलावा भी जो लोग प्रतिदिन देवी की पूजा-अर्चना करते हैं, वे भी तिथि व वार के अनुसार माँ को भोग अर्पित कर माँ की विशेष कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
रविवार को माँ का खीर का भोग लगाना चाहिए ।
सोमवार को मां को दूध अर्पण करें ।
मंगलवार को केले का भोग लगाने से मां प्रसन्न होती हैं ।
बुधवार के दिन मां को मक्खन का भोग लगाना चाहिए।
बृहस्पतिवार को खांड (शक्कर का बूरा) का भोग लगाएं।
शुक्रवार को चीनी का भोग लगायें ।
शनिवार को गाय के घी का नैवेद्य अर्पण करें।

अंत में माँ से प्रार्थना करें

भरा अमित दोषों से हूँ मैं,
श्रद्धा-भक्ति-भावना-हीन ।
साधनहीन कलुषरत अविरत,
संतत चंचल चित्त मलीन ।।
पर तू है मैया मेरी,
वात्सल्यमयी, शुचि स्नेहाधीन ।
हूँ कुपुत्र पर पाकर तेरा,
स्नेह रहूंगा कैसे दीन ?

इस तरह से पूजन अर्चन करने से माँ शीघ्र ही प्रसन्न होकर सबकी मनोकामनाएं पूरी करती हैं।

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Wednesday, April 3, 2019

श्रावणी उपाकर्म Shravani Upakarma


क्या होता है श्रावणी उपाकर्म, क्यों किया जाता है?
What happens is the Shravani Upakarma, why it is done?

श्रावण पूर्णिमा अर्थात रक्षा बंधन का दिन ब्राह्मणों का विशेष पर्व होता है, इसे श्रावणी उपाकर्म या संस्कृत दिवस के नाम से भी जाना जाता है।
यह  पवित्र नदी के घाट पर सामूहिक रूप से मनाया जाता है।

आइये जानते हैं क्या है श्रावणी उपाकर्म-
Let's know what Shravani Upakarma -

श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय।
There are three sides of the Shravani Upakarma: Atonement Resolve, Sanskar and Swadhyaya.

सर्वप्रथम होता है- प्रायश्चित रूप में हेमाद्रि  स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मïचारी गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं।स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। 

यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं।
इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है।

उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घी की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है।  इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है ताकि हमारे साथ हमारा मानव समाज आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हो।

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