Tuesday, April 28, 2020

घबराहट Nervousness

घबराहट Nervousness



 घबराहट (Nervousness)  शरीर और मन की वह स्थिति है, जिसमें उनके सामान्य कार्य और अवस्थाएं बाधित या अव्यवस्थित हो जाती है। इसमें व्यक्ति अशांत, बेचैन हो जाता है और अपनी धारणा शक्ति खो बैठता है। यह (घबराहट) मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों के उपयोग में बाधा डालती है। इसकी अवधि क्षणिक, अल्पकालीन या लंबी हो सकती है। इसकी लंबी अवस्था व्यक्ति के न केवल स्वास्थ्य और सुख को प्रभावित करती है, बल्कि उसकी भूमिका, कार्यों, विचारों, व्यवहार और सामान्य जीवन पद्धति को भी प्रभावित करती है।अतएव आधुनिक पुरुषों एवं महिलाओं के लिए यह जान लेना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि यह क्या है, इसके क्या लक्षण है, यह कैसे होती है, किन कारणों से होती है और यह किस प्रकार नियंत्रित की जा सकती है तथा इसका उपचार किया जा सकता है।
घबराहट व्यक्ति में अनेक लाक्षणिक परिवर्तन कर देती है। इस प्रकार, घबराए हुए व्यक्ति की पहचान उसके मुख्यमण्डल, शरीर और व्यवहार के ढंग में इन लक्षणों का पता लगाकर आसानी से की जा सकती है। उसके मुखमण्डल में कोई भी व्यक्ति ऐसे परिवर्तनों का पता लगा सकता है- जैसे आंखों में तनाव,कड़ापन और खिंचाव का आ जाना। चेहरा अपना स्वाभाविक रूप खो देता है। आवाज कड़ी, टूटी फूटी, भारी और अस्वाभाविक हो जाती है। यद्यपि शारीरिक लक्षणों- भीतरी और बाहरी- की जानकारी मुख्यता स्वयं पुरुष या स्त्री को हो सकती है, तथापि दर्शक भी उसमें थोड़ी कंपकंपी या घबराहट और कड़ापन आसानी से देख सकता है। शारीरिक देखभाल में असावधानी और उपेक्षा के चिह्न भी हो सकते हैं, उसके पहनावे के तरीके तथा समग्र रूप से उसकी आकृति में प्रदर्शित होते हैं।
सर्वाधिक सुस्पष्ट परिवर्तन, जो घटित होते हैं,वे हैं घबराए हुए व्यक्ति के व्यवहार के ढंग में परिवर्तन। घबराए हुए व्यक्ति के लिए चैन, आराम में और ध्यानस्थ रहना अत्यंत कठिन है।
उसे कुछ भी अधिक सुखकर नहीं लगता, जैसे कि अच्छा संगीत सुनना, प्राकृतिक सौंदर्य का अवलोकन, लोगों से मिलना जुलना और यहां तक कि धूम्रपान,पेय तथा नृत्य भी। गलतियां करना सामान्य विशेषक या लक्षण बन जाता है। वह एक क्षण के लिए कोई काम करता है, किंतु शीघ्र ही उससे ऊब जाता है, और तब दूसरे काम के प्रयास में उतावली से दौड़ पड़ता है। वह अपनी याददाश्त खो बैठता है, और इस प्रकार उन चीजों को भी मुश्किल से याद कर सकता है, जिन्हें उसे याद रखना चाहिए। बेचैन रहने के कारण उसे मुश्किल से पूरी नींद आ जाती है, जिसके परिणाम स्वरूप थकावट पैदा होती है। वह बौद्धिक संतुलन तथा निर्णय-शक्ति खोने लगता है, जिनका अभाव प्रत्येक कार्य में परिलक्षित होता है, जिसे वह अपने दैनिक जीवन में करने का प्रयास करता है। उपर्युक्त लक्षणों में से केवल कुछ ही एक ही प्रकट कर देंगे कि कोई पुरुष या स्त्री घबराई हुई है।

घबराहट कैसे होती है?

इसकी विवेचना करने में यह इंगित कर देना आवश्यक प्रतीत होता है इसके उद्गम या अंकुरण का मूल मन में है। जब कोई बाहरी या भीतरी समस्या व्यक्ति के मन में चिंता उत्पन्न करती है, तब मन का सामान्य कार्य संपादन बाधित हो जाता है, जिसके फलस्वरूप शरीर की सामान्य अवस्था में भी गड़बड़ी आ जाती है। पूर्व में विवेचन किया जा चुका है कि मन शरीर को किस प्रकार शासित और नियंत्रित करता तथा क्रियाशील बनाता है। उसी विवेचन के आलोक में यह आसानी से समझ में आ जाना चाहिए कि मन में चिंता या उद्वेग की जितनी तीव्रता होगी, उतनी ही तीव्रता घबराहट में भी होगी। इस  प्रकार हम कह सकते हैं कि जो चीजें चिंता उत्पन्न करती है, साथ ही साथ घबराहट का भी कारण बनती हैं इस अवबोध के साथ हम लोग

 देखें कि घबराहट के कारण क्या हैं।
घबराहट का कारण एक या अनेक कारकों का समूह हो सकता है किंतु चाहे एक या अनेक जो भी कारण हों, वे तीन कोटियों के अंतर्गत आते हैं- परिवेश संबंधी, सामाजिक और वैयक्तिक। हम सर्वप्रथम परिवेश संबंधी कारकों का विवेचन करेंगे

परिवेश संबंधी कारक-
परिवेश संबंधी कारक वे हैं, जो प्राकृतिक घटनाओं की विलक्षणताओं के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं, यदि हम आपदा की संज्ञा देते हैं। ऐसी आपदाएं महामारी, भूकंप, दुर्भिक्ष, सूखा या बाढ़ तूफान और इस प्रकार की अन्य घटनाएं हो सकती हैं। ऐसी आपदाओं की प्रकृति, अवधि तथा तीव्रता पर अवलंबित होने के कारण कुछ लोग दूसरों की अपेक्षा, अधिक प्रभावित हो सकते हैं। असुरक्षा, संपत्ति-नाश तथा सामान्य जीवन यापन में विघ्न होने के भय के कारण कुछ लोगों के लिए यह भीषण चिंता उत्पन्न कर सकती हैं। ऐसी अवस्था में घबराहट उन लोगों में हो सकती है, जो इस प्रकार प्रभावित होते हैं।

सामाजिक कारक-
सामाजिक कारको के वर्णन के क्रम में यह समझ लेना चाहिए कि किसी खास समाज की समस्याएं वही हो सकती हैं अथवा नहीं भी हो सकती हैं जो दूसरों की है। जिसे हम समस्या कह सकते हैं उसे समस्या नहीं कहा जा सकता है अथवा किसी दूसरे समाज में उसका अस्तित्व नहीं भी हो सकता है। किंतु इन विभिन्नताओं के बावजूद कुछ सामान सिद्धांत बनाए जा सकते हैं, जिन पर पूर्व कथित विशिष्टताओं के आधार पर विचार किया जाना चाहिए।
किस प्रकार हम लोग सामान्यतः ज्ञात कुछ समस्याओं की चर्चा कर सकते हैं; जैसे- आर्थिक असुरक्षा का भाव, उपयुक्त काम या रोजगार, जीविका तथा व्यवसाय पा लेने की समस्या, धार्मिक, जातीय, वंशगत तथा राजनीतिक तनावों के संघर्ष के कारण सामाजिक उपद्रव, युद्ध का भय तथा ऐसी असंख्य दूसरी समस्याएं। किन्ही अन्य समस्याओं का, जिनकी पहचान व्यक्ति स्वयं आसानी से कर सकते हैं, नामोल्लेख किए बिना एक विवरण प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसके अंतर्गत कुछ सामाजिक समस्याओं की जटिलताएं आ जाएंगी।
यह कहा जा सकता है कि किसी समाज में किसी वस्तु की उपस्थिति उसके सदस्यों के मन में उसे प्राप्त करने की आशा का संचार करती है, किंतु हर किसी के लिए उसे पाना या ग्रहण करना संभव नहीं होता, तब उन लोगो में चिंता औरतज्जन्य घबराहट उत्पन्न हो सकती है, जो इस प्राप्ति या उपलब्धि से वंचित रह जाते हैं। इसे दूसरे रूप में इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है- जब किसी समाज के कुछ खास सदस्य किन्ही सामान्यतः इच्छित वस्तु या सुविधाओं का उपभोग करते हैं, तो बहुत से अन्य लोग भी उनका उपभोग करना या उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं। किंतु या तो सीमित सुलभता के कारण या कुछ अन्य कारणों से यह चीजें सबको उपलब्ध नहीं हो सकती या सब लोग इनका उपभोग नहीं कर सकते। अधिक आशा या आकांक्षा और कम पूर्ति की यह स्थिति उन लोगों में तनाव, दुख, असंतोष, निराशा और बेचैनी उत्पन्न कर सकती है, जो कठिन प्रयासों के बावजूद उन्हें प्राप्त करने में असमर्थ रह जाते हैं। ऐसी अवस्था में घबराहट उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

वैयक्तिक कारक-
इस कोटि में असंख्य कारक या घटक हो सकते हैं, जिनकी विस्तृत सूची प्रस्तुत करना न तो आवश्यक है और नआसान ही। किंतु, कुछ खास मौलिक कारकों को, जिनके चारों ओर अन्य अनेक कारक चक्कर काटते हैं, पहचान लेने से सब को समझा जा सकता है।
मौलिक कारक ये है-
1- भय की अनुभूति
2- मानव स्वभाव तथा सामाजिक घटनाओं या वस्तुओं की यथार्थ जानकारी का अभाव
3- दूसरों को हानि पहुंचाने की भावना
4- यौन जीवन से संबंधित समस्याएं
इन कारकों को सूचीबद्ध करने के क्रम में किसी को यह नहीं सोचना चाहिए की क्रमांक 1 दूसरों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। वह वस्तुतः कारक के रूप में ही सूचीबद्ध है।

भय- व्यक्ति में भय होने के या भयभीत होने के अनेक कारण है। किंतु सर्वाधिक प्रमुख कारण यह है
किधर हो कोई व्यक्ति जो कुछ करने को तत्पर है, उसे सम्यन्न करने का विश्वास उसमें नहीं रह जाता, तब उसमें भय उत्पन्न होता है। ऐसी स्थिति में वह परिणाम से, या तो कार्य संपादन से पहले या उसके बाद भयभीत हो जाता है। यह अनगिनत वस्तुओं या कार्यों पर लागू होता है, अपने व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में निजी तौर पर या सार्वजनिक रूप में करता है। इसे स्पष्ट करने के लिए हम एक उदाहरण लें- मान ले कि किसी व्यक्ति "अ" को किसी टंकण परीक्षा(typing test) में बैठना है, जिसमें प्रति मिनट 60 शब्द टंकित करने वालों को अच्छी रकम देने वाली नौकरी के लिए चुना जाएगा। अब"अ" जो अक्सर प्रति मिनट 60 शब्द टंकित कर लेता है, किंतु कुछ अवसरों पर 55 शब्द ही टंकित कर पाता है, स्वभावत: परीक्षा में असफल होने की आशंका से भयभीत हो जाता है। उसके घबराहट उसमें भय की तीव्रता पर निर्भर करेगी।
इस प्रकार का भय प्रधानत: व्यक्ति की अपनी सृष्टि है। किंतु ऐसे भी अवसर है जब बाहरी शक्तियां कुछ व्यक्तियों में अनिवार्यत: भय उत्पन्न कर सकती हैं।
उदाहरणार्थ- पूर्व वर्णित कारणों में यदि सामाजिक उपद्रव होते हैं, तो कुछ लोग सुरक्षा के अभाव, संपत्ति की बर्बादी तथा इस प्रकार के अन्य अहित की भावना के कारण स्वभावत:भयभीत हो जाएंगे फलस्वरूप घबरा जाएंगे। इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि बहुतेरे ज्ञात और अज्ञात कारणों से व्यक्ति भयभीत हो सकता है, जिससे स्वभावत: उसमें घबराहट पैदा हो जाएगी।

जानकारी का अभाव- अधिकतर व्यक्ति जो अधिकांश समय में घबराए हुए रहते हैं, इसीलिए घबराए रहते हैं, क्योंकि उनमें मानव स्वभाव तथा सामाजिक घटनाओं की यथार्थ जानकारी का अभाव रहता है। वे दूसरे लोगों से यह आशा करते हैं कि वे केवल वैसा ही करें, जैसा वे अपनी तरह सोचते समझते हैं। और जब वे दूसरों को भिन्न प्रकार से आचरण और व्यवहार करते पाते हैं, तब इससे घबरा उठते हैं। यह विचार-श्रृंखला उन्हें जीवन के अनेक दुखदाई क्षणों की ओर ले जाती हैं, हालांकि महज इस कारण से के फूल होले मानव स्वभाव को समझने का प्रयास नहीं किया है। जैसा कि पूर्व के अध्ययनों में पहले लिखा जा चुका है, हमारे युग की तेज सेवाओं के कारण आधुनिक नर नारी एक ही दिन में असंख्य लोगों एवं विभिन्न परिस्थितियों के संपर्क में आते हैं। इस प्रकार, व्यक्ति को जब तक दूसरे लोगों की प्रकृति और उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों की जानकारी नहीं होगी, तब तक कुछ लोगों के अनुपयुक्त व्यवहार तथा कुछ स्थानों पर घटित अप्रिय घटनाओं के कारण उस व्यक्ति के उद्विग्न(बेचैन) और उत्तेजित होने की संभावना अधिक रहेगी। और ऐसी उत्तेजना तथा उद्वेगपूर्ण अवस्था का सहज परिणाम होगा- घबराहट
किसी दी हुई वस्तु के बारे में यथार्थ जानकारी क्या हो सकती है,। इसे निर्दिष्ट करना कठिन है कोई व्यक्ति जो कुछ जानने या समझने का प्रयास कर रहा है, यह उसी पर निर्भर करेगा। यहां हमारा प्रयोजन अन्य लोगों को आंतरिक गुणों, आंतरिक प्रेरणाओं, और आंतरिक विश्वासों, आस्थाओं तथा अनुभूतियों की जानकारी से नहीं है; बल्कि हमारा मुख्य प्रयोजन उन विभिन्न व्यक्तियों की ''प्रकृति'' और '' व्यवहार'', की जानकारी से है, जिनसे हम मिलते हैं किसी घटना विशेष के" कारण "की जानकारी से भी है। यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि हम प्रकृति और कारण की जानकारी करने का प्रयास क्यों करते हैं?
इस क्यों के उत्तर में कहा जा सकता है कि जब कोई व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के स्वभाव या प्रकृति की जानकारी प्राप्त कर लेता है और जब वह उनके अवांछनीय कार्य संपादनों के कारणों की जानकारी प्राप्त कर लेता है, तब तनाव और क्रोध के भड़कने की, जिनके परिणाम स्वरूप घबराहट उत्पन्न होती है,संभावना कम रह जाती है। किंतु वास्तविक ज्ञान की यह प्राप्ति स्वयं व्यक्ति द्वारा की जा सकती है, किसी अन्य व्यक्ति से नहीं। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए मैं" ज्ञान योग"- यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के विज्ञान की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा। वह कहता है:
" इस विश्व में हमारा जो संपूर्ण ज्ञान है- वह कहां से आता है? वह हमारे अंदर है। बाहर कौन सा ज्ञान है? कोई नहीं। ज्ञान पदार्थ में नहीं है, यह सभी समय मनुष्य में ही निहित है कोई भी व्यक्ति कभी ज्ञान की सृष्टि नहीं करता, मनुष्य उसे अपने भीतर से लाता है।"(ज्ञानयोग पृ०-365)
यहां मेरा प्रयास ज्ञान प्राप्ति के इस विज्ञान का विस्तृत विवेचन करने का नहीं, बल्कि पाठकों को इस पहलू की सार्थकता समझा देने का है।
बहुत से पुरुष एवं महिलाएं एक दूसरे की तुलना में अच्छी नहीं है। वे अक्सर कुपित, बदहवास, क्रुद्ध, उत्तेजित, गालियां बकने की स्थिति में और क्या नहीं होते, महज इसी बात के कारण कि वे एक पशु का एक मनुष्य से, एक बच्चे का एक प्रौढ़ व्यक्ति से, एक लड़की का एक लड़के से, एक पागल व्यक्ति का एक भद्र पुरुष से और इसी प्रकार और भी भेद नहीं कर पाते। एक जानवर से मनुष्य के समान कार्य करने, एक बच्चे से वयस्क के समान कार्य करने की आशा करना अपनी अज्ञानता तथा समझदारी का अभाव प्रदर्शित करना है। वस्तुओं की सही जानकारी, जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, स्वयं व्यक्तियों द्वारा विकसित की जानी चाहिए।

दूसरों को क्षति पहूंचाने की भावना-
दूसरों को क्षति पहुंचा ने की भावना मुख्यतः द्वेष तथा बदला लेने के विचारों से उत्पन्न होती है। क्रोध से भी दूसरों को क्षति पहुंचाने की भावना हो सकती है, यद्यपि यह आवश्यक नहीं है। किंतु द्वेष, प्रतिशोध और क्रोध की इन सभी दशाओं में इनके फलस्वरूप मन में उत्पन्न चिंता के कारण, व्यक्ति तनावपूर्ण, अशांत तथा उत्तेजित हो जाता है। यह मैं पुनः कहना चाहूंगा कि इन कारकों के कारण व्यक्ति के मन में जैसी तीव्रता होगी, उसकी घबराहट की तीव्रता भी वैसी ही होगी।
मैं इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या की आवश्यकता नहीं समझता क्योंकि हम सब ने किसी न किसी समय सिनेमा, नाटकों, या खेल तमाशों में इसे घटित होते अवश्य देखा होगा। इस प्रकार के प्रदर्शनों में हमने देखा है कि खलनायक द्वेष और बदला चुकाने के प्रयास में किस तरह बेचन, परेशान और घबराया हुआ रहता है। बताने की आवश्यकता नहीं है कि क्रोध के कारण उत्पन्न बेचैनी और परेशानी की यही अवस्था किस प्रकार फलित होती है। तब यह स्पष्टतया समझ में आ जाना चाहिए कि दूसरों को हानि पहुंचाने का यही विचार स्वभावतया, बेचैनी पैदा करेगा, जिसका अंतिम परिणाम होगा घबराहट

यौन-जीवन से संबंधित समस्याएं-
यह उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा कि आधुनिक पुरुषों तथा स्त्रियों के यौन-जीवन से उत्पन्न होने वाली घबराहट इतनी व्यापक तथा परिवृत्तकारी है कि यह पूर्व के पृष्ठों में निर्दिष्ट वैयक्तिक प्रकृति के अन्य सभी कारकों से भी आगे बढ़ जाती है। यौन-जीवन से संबंधित समस्याएं किसी भी उम्र के, किसी भी शारीरिक गठन के, किसी भी धर्म के, तथा किसी भी देश के पुरुषों और स्त्रियों को अन्तर्ग्रस्त कर सकती है।ये यौन-समस्याएं व्यक्ति में, यदि अधिक नही तोउसी मात्रा में चिन्ता तथा घबराहट के लक्षण उत्पन्न करने लगती है, जिस मात्रा में वे पूर्व विवेचित कारकों द्वारा उत्पन्न हो सकती हैं।स्वभावतया तब आप इस व्यापक समस्याके बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करना चाहेंगे। किन्तु चूंकि यहाँ यौन के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन नही किया जा रहा है, इसलिए केवल प्रासंगिक पहलुओं की ही चर्चा की जाएगी।
यौन जीवन से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के विवेचन के पूर्व, योन संबंधी विभिन्न विचारों एवं अनुभूतियों के बारे में संक्षेप में बतला देना आवश्यक है। कुछ लोगों ने, खासकर धार्मिक आधारभूमि के लोगों ने यौनवृत्ति की निंदा की है तथा इसे पाप, दुष्कर्म, ह्रास और अध:पतन की ओर ले जाने वाली तक कहा है। मैं धार्मिक विश्वास, आस्था तथा भावनाओं वाले व्यक्तियों के बारे में कुछ भी नहीं कहना चाहता; क्योंकि वे अपने धार्मिक मंचों से जिन बातों का प्रचार एवं प्रवचन करते हैं, वे योग से कोई संबंध नहीं रखती। किंतु जब ये लोग योग के नाम पर इस विज्ञान के शिक्षक और गुरु के रूप में प्रवचन करने लगते हैं, तब हमारे लिए यह अत्यंत प्रासंगिक या चिंतनीय हो जाता है। यह सरलता से समझा जा सकता है कि बहुत से लोग, जो उनके विचारों से प्रभावित हो सकते हैं,यौन-संबंध स्थापित करने में अपराध, पाप तथा शारीरिक एवं मानसिक क्षति का अनुभव करें लग सकते हैं और इस प्रकार इन गलत धारणाओं के कारण मैं घबराहट से आक्रांत हो सकते हैं।अतएव यौन-जीवन के विषय में योग के मतों की विवेचना के पूर्व मैं सर्वप्रथम यौनवृत्ति के संबंध में इन तथाकथित गुरुओं ने जो कुछ कहा है, उसका उल्लेख करना चाहूंगा।
योग संबंधी कुछ पुस्तकों में इन योगियों, गुरुओं तथा लेखकों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि रति-क्रिया में या अन्य प्रकार सेस्खलित वीर्य व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों को दुर्बल बनाता है, आयु को छेद करता है, चरित्र को भ्रष्ट करता है तथा उसे सुख शांति की उपलब्धि से वंचित रखता है। वे दावा करते हैं कि यदि इस वीर्य को सुरक्षित रखा जाए और सुषुम्णा( मेरुरज्जु की मध्य रेखा) होकर ऊपर की ओर सहस्रार( मस्तिष्क) तक प्रवाहित किया जाए तो व्यक्ति पूर्ण शांति लाभ करेगा, उसमें अलौकिक शक्तियां विकसित होंगी तथा वह अनतिक्रमणीय शक्ति, ओज और दिव्य दृष्टि भी प्राप्त करेगा।
यौनवृत्ति संबंधी इन्हीं धारणाओं को लेकर ये गुरु तथा लेखकयौन-जीवन से पूर्ण विरति, ब्रह्मचर्य पालन तथा कामवासना से बिल्कुल अलग रहने की दलीलें पेश करते हैं। इनमें से कुछ लोग यह दावा करते हैं कि उन्होंने अपने जीवन काल में रति-क्रिया रूपी पाप कभी नहीं किया है तथा मृत्यु पर्यंत ब्रह्मचर्य पालन का उनका संकल्प है। इस दिव्य जीवन से अपनी पहचान कराने के लिए हुए भारतीय धार्मिक क्षेत्रों से रूढ़ियों के अनुसार स्वामी, योगी तथा अन्य इन्हीं के समान उच्च ध्वनि युक्त उपाधियां धारण करते हैं।
ऐसे योगी और लेखक अतिवादी, गुमराह करने वाले तथा संकीर्ण विचार वाले होते हैं; क्योंकि उनके विचार न तो योग के विचारों से और न भारतीय संस्कृतियों से ही मेल खाते हैं। तो तो उनका ज्ञान विकृत होता है या उन्हें भारतीय संस्कृति, परंपरा और हिंदू जीवन पद्धति का, जिसे प्रतीकित करने का वे दावा करते हैं, बिल्कुल ही ज्ञान नहीं होता। वी योग विज्ञान से पूर्णतया अनभिज्ञ भी होते हैं, जिसके नाम पर वे अपने अभागे शिष्यों तथा बहुत से अन्य निरीह लोगों को गुमराह करने का प्रयास करते हैं।(यह विषय प्रासंगिक है तथा किसी की अवहेलना करने का प्रयास नहीं किया गया है)।
भारतीय संस्कृति तथा योग से संबंधित निम्नांकित तथ्यों से सुस्पष्ट हो जाएगा कि वे वस्तुतः कितने अनभिज्ञ हैं-

प्रथमत:, यदि वे योगी और लेखक धार्मिक मूल्यों से सम्बद्ध है और यदि वे हिंदू देवालय के देवताओं में से किसी भी देवता की पूजा करते हैं, तो उन्हें यौनवृत्ति को मानव जीवन का एक स्वाभाविक एवं वांछनीय पहलू मानना चाहिए था।
हिंदु देवालयों में जिन तीन प्रमुख देवताओं की सामान्यत: पूजा होती है, उन सब का स्वाभाविक यौन- जीवन रहा। राम का विवाह सीता से, कृष्ण का विवाह रुक्मणी से, और शिव का पार्वती से हुआ था। और उन सब का स्वाभाविक दांपत्य जीवन रहा। क्या इसका यह अभिप्राय हो सकता है कि उनके द्वारा यौन- जीवन का तिरस्कार किया गया? और, यदि सामान्य दांपत्य जीवन बिताकर वे पूज्य बन सके तो दूसरे लोग भी क्यों नहीं बन सकते?

द्वितीयत:, यदि इन योगियों तथा लेखकों को पारंपरिक हिंदू जीवन पद्धति का ज्ञान होता तो इन्हें हिंदुओं के जीवन की चार अवस्थाओं- ब्रह्मचर्य (छात्रावस्था, जिसमेंयौन- जीवन के प्रति संयम रखा जाता है), गार्हस्थ्य (विवाहित एवं पारिवारिक जीवन की अवस्था), वानप्रस्थ (पारिवारिक जीवन बिताते हुए ध्यानस्थ होने की अवस्था), और सन्यास (धार्मिक उद्देश्य से परिभ्रमण की अवस्था) के नियम की जानकारी अवश्य होती। जैसा कि उपर्युक्त वर्गीकरण में देखा जा सकता है, हिंदू परंपरा में व्यक्ति के जीवन की किसी भी अवस्था में काम-विरति या कुंवारापन की सिफारिश नहीं की गई है। यहां तक कि ब्रह्मचर्य की अवस्था भी मात्र छात्र जीवन तक सीमित है। और यद्यपि कुछ लोग ब्रह्मचर्य को काम-विरति का समानार्थ बतलाते हैं, किंतु वस्तुतः इसका अर्थ संयम होता है,न कि पूर्णत: विरति या त्याग। तब क्या यह तात्पर्य हो सकता है कि हिंदू परंपरा में यौनवृत्ति को एक बुराई माना गया है?

तृतीयत:, यदि इन योगियों तथा लेखकों को भारतीय संस्कृति एवं हिंदू जीवन पद्धति का ज्ञान होता तो उन्हें खजुराहो तथा कोणार्क के प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों की जानकारी हुई रहती या उन्होंने इनके बारे में सुना भी होता, जहां की की दीवारें यौनाचार की अनगिनत  क्रियाओं से युक्त नर- नारियों की नग्न प्रतिमाओं से सुसज्जित है। और भी ,शिव मंदिरों में जिस प्रमुख पदार्थ की पूजा की जाती है, वह योनि के साथ स्थापित लिङ्ग ही है। क्या ये मंदिर किसी भी प्रकार इस धारणा की पुष्टि करते हैं कि यौनवृत्ति अहितकर एवं अवांछनीय है?

चतुर्थत:, यदि इन स्वामीयों, योगियों तथा लेखकों को भारतीय संस्कृति के उन वैज्ञानिकों के, जिन्होंने योग पद्धति विकसित की, जीवन वृत्त का स्मरण होता, तो इन्हें अपनी रचनाओं या उपदेशों में गलतबयानी करने के लिए ग्लानि हुई होती। जैसा कि योग विज्ञान के छात्र जानते हैं, पतंजलि विज्ञान के जनक या प्रवर्तक माने जाते हैं। पतंजलि एक विज्ञानी थे। वे एक विद्वान तथा विद्यानुरागी पुरुष थे। उन्होंने अपने को स्वामी या योगी कभी नहीं कहा और न उन्हें इन उपाधियों से संबोधित ही किया जाता है। हम लोग उन्हें मात्र पतंजलि के रूप में जानते हैं। अपनी रचनाओं के किसी भी स्थल में उन्होंने यौनवृत्ति के परित्याग की सिफारिश नहीं की है।
हम लोग दूसरे महान वैज्ञानिक के जीवन पर भी विचार करें, जिनके विचार पर पतंजलि ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना" पतंजलि- सूत्र" की स्थापना की है, जो योग की सर्वप्रथम क्रमबद्ध पुस्तक माना जाता है। यह वैज्ञानिक थे कपिल, जिनका तत्व तथा जीवो का वैज्ञानिक विश्लेषण" सांख्य-दर्शन" कहलाता है। फिर भी, कपिल भी न तो स्वामी थे और न योगी ही। आधुनिक अर्थ में वे धार्मिक पुरुष भी नहीं थे।" सांख्य-दर्शन के अनुसार ईश्वर का अस्तित्व नहीं है।" यह कहता है,' प्रकृति ही सब कुछ अभिव्यक्त करती है। किसी ईश्वर का क्या प्रयोजन है?' वह मुनि के रूप में जाने जाते हैं, जिसका अर्थ होता है- उच्च बुद्धि यह मनीषा, तर्क बुद्धि तथा विद्वतजनोचित प्रयासों से संपन्न पुरुष। विवाहित तथा सामान्य पारिवारिक जीवन बिताने वाले पुरुष ही मुनि हो सकते थे, हालांकि शिक्षण तथा बौद्धिक कार्य में ही वे मुख्यतः संलग्न रहते थे। अथवा जीवन की प्रथम तीन अवस्थाएं- ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, और वानप्रस्थ।
क्या कपिल और पतंजलि के जीवन वृत्त और उनकी रचनाएं, किसी भी प्रकार से, बतलाती है कि सामान्य यौन-जीवन बुराई या अहितकर, अध:पतन की ओर ले जाने वाला और पापपूर्ण है।
निष्कर्षत:, यह सिद्ध करने के लिए प्रमाण नहीं है कि किसी योगी, स्वामी या किसी अन्य व्यक्ति ने काम-विरति का पालन करके कोई उत्कृष्ट मानसिक या शारीरिक शक्ति प्राप्त की हो तथा अपेक्षाकृत उनकी अधिक लंबी आयु रही हो। इसके विपरीत, यह उल्लेख करना अत्यंत स्तब्धकारी है कि भारत के उच्च सम्मान एवं आदर प्राप्त स्वामियों एवं योगियों में से कुछ की मृत्यु भरी जवानी में ही हो गई, कुछ लोगों की तो आयु चालीस वर्ष से भी कम रही। उनकी अकाल मृत्यु का एक कारण यह हो सकता है कि सामान्यत: जीवन पद्धति के प्रति तथा विशेषत:यौन-जीवन के प्रति उनके विचार अतिवादी और आचार्यनिष्ठा कठोर थी। जब ज्ञात या अज्ञात रूप से स्वाभाविक अवस्था टूटती या अव्यवस्थित हो जाती है तब संतुलन भी टूटता है तथा अव्यवस्थित हो जाता है। और इस दशा में में कोई भी अनिष्ट घटित हो सकता है।
इसीलिए योग विज्ञान कहता है: इस संतुलन को जानो, संतुलन का यह गुण उत्पन्न करो, और संतुलन के इसे सिद्धांत के अनुसार काम करो, सोचो और जीवन यापन करो। चरम सीमा तक जाने की कतई आवश्यकता नहीं है। जीवन निर्वाह करने का प्रयास करो, जिसका तात्पर्य है- न तो अत्यधिक आसक्ति और न अनासक्ति।
इसे स्पष्टत: इस प्रकार कहा जा सकता है कि योग हमें यथासंभव स्वाभाविक यौन- जीवन की सलाह देता है।
योग के अनुसार यौनवृत्ति न तो कोई बुराई है और न पाप ही। यह न तो पतन की ओर ले जाने वाली है और न दुर्बल करने वाली। इसके विपरीत, तंत्र योग के अनुसार,यौनवृत्ति को जीवनी शक्ति, ओज और बल प्रदान करने वाली तथा सभी इंद्रियों में संतुलन रखने वाली भी कहा गया है। यौन-वृत्ति के दुर्बलकारी तथा अहितकर परिणाम तभी हो सकते हैं, जब इसका का दुरुपयोग होता है। किंतु दुरुपयोग की दशा में किसी अच्छी चीज का भी दुष्परिणाम हो सकता है। यदि आप अत्यधिक दूध या कोई दूसरी चीज पी लें तो उससे भी हानि हो सकती है। जिस प्रकार उचित मात्रा में दूध का उपयोग लाभकारी माना गया है, उसी प्रकार यौनवृत्ति के समुचित उपयोग को भी।
अब हम अपने विवेचन के मुख्य बिंदु अर्थात् यौन समस्याओं के कारण उत्पन्न होने वाली घबराहट पर विचार करें। यद्यपि यौन-जीवन से संबद्ध समस्याएं विभिन्न प्रकार की हो सकती हैं, फिर भी वे निम्नांकित चार स्थितियों के कारण उत्पन्न होती हैं: 
1- सुलभता का अभाव
2- सुलभता, किन्तु क्षमता का अभाव
3- अप्रिय संबंध या मेल-मिलाप का अभाव
4- गलतफहमी अथवा यथार्थ ज्ञान का अभाव
मैं अब एक-एक कर इनका विवेचन करूंगा।

सुलभता का अभाव: इस स्थिति में व्यक्तियौन-संबंध के लिए बिल्कुल समर्थ, व्यग्र तथा उत्तेजित रहता है, किन्तु प्राप्त करने में असमर्थ रह जाता है। सुलभता का अभाव अनेकानेक कारणों से हो सकता है, जिन पर यहाँ प्रकाश डालना आवश्यक नहीं है। किंतु विचार बिंदु यह है कि जब कोई व्यक्ति किसी समाज में व्याप्त एवं क्रियाशील विभिन्न उत्तेजनकारी कारकों के कारण उत्तेजनावस्था मे रहता है तब वह( पुरुष या स्त्री) अपने को तनावपूर्ण, बेचैन, अशांत, हक्का-बक्का, दुखी या उद्विग्न अनुभव करने लगता है, क्योंकि उसकी यौनेच्छा की पूर्ति नहीं हो पाती। इन अनुभूतियों के कारण उत्पन्न तीव्रता की मात्रा के अनुसार ही, उसी अनुपात में, चिंता भी होगी, जिसका अंतिम परिणाम होगा-घबराहट, चाहे वह क्षणिक हो, अल्पकालिक अथवा दीर्घकालिक प्रवृत्ति की।

सुलभता, किन्तु क्षमता का अभाव: इस स्थिति में यौन-संबंध की सुलभता रहती है, किंतु व्यक्ति उपयुक्त एवं यथोचित रति- कार्य- संपादन में असमर्थ रहता है।- क्षमता के अभाव का तात्पर्य है - संभोग-कार्य पूरा करने में शारीरिक असमर्थता। ऐसी दशा में, व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ, देखने में सामान्य हो सकता है, किंतु विभिन्न शारीरिक एवं मानसिक कारणों से, जिन सबका यहां उल्लेख करना आवश्यक नहीं है, उसमें दुर्बलताए भी हो सकती हैं। किंतु इसे स्पष्ट करने के लिए उनमें से कुछेक का निर्देशन किया जा रहा है। विभिन्न सामाजिक, परिवेश संबंधी और वैयक्तिक कारण या घटक, जो व्यक्ति के मन में घबराहट उत्पन्न कर सकते हैं, वे स्वभावत: संबद्ध व्यक्ति की शारीरिक शक्ति को भी दुर्बल बनाएंगे। इस दशा में,रति-कार्य संबंधी असमर्थता उसी मानसिक अवस्था के फलस्वरूप उत्पन्न अवस्था है।
तब कुछ खास अवस्थाएं भी हो सकती हैं जैसे या तो अवांछनीय जीवन पद्धति के कारण या मन की व्यर्थ धारणाओं के कारण उत्पन्न नपुंसकता और उदासीनता या ठण्डापन।
किंतु अवांछनीय पद्धति कहा किसे जा सकता है? कोई भी काम, जिसे करते समय ज्ञात रूप से व्यक्ति को क्षति पहुंचती है और उसे यह अनुभूति होती है कि यदि उस काम को जारी रखा जाए तो भविष्य में और अधिक क्षति पहुंचेगी, अवांछनीय है। और जब व्यक्ति उस कार्य से होने वाली क्षति को जानते हुए भी उसी कार्य में अपने को लगाता है तब वह ( स्त्री या पुरुष) अवांछनीय जीवन पद्धति का अनुसरण करता है। इस अवबोध के साथ हम देख सकते हैं की ऐसी सुपरिचित हानियों, जैसे यौनवृत्ति में लगातार अत्यधिक लिप्तता, अत्यधिक धूम्रपान, लगातार अत्यधिक मद्यपान, विश्राम तथा शयन का लगातार अभाव आदि के कारण व्यक्तियों में किस प्रकार शारीरिक असमर्थता उत्पन्न हो जाती है। जीवन की इस पद्धति में संतुलन को निर्दयतापूर्वक तोड़ दिया जाता है तथा उसे कठोरता पूर्वक कुचल दिया जाता है। यह वस्तुतः वही है, जिसे अवांछनीय जीवन पद्धति का नाम दिया गया है।
यह बता देना भी आवश्यक है कि वही बहुत सारे लोग सामान्य यौनवृत्ति के निर्वाह में अक्षम या असमर्थ हो जाते हैं; क्योंकि उनमें साधारण शारीरिक दुर्बलता रहती है। इस दशा में यद्यपि विभिन्न उत्तेजनाकारी कारकों द्वारा यौन-सुख की इच्छा तीव्र हो जाती है, तथापि शारीरिक असमर्थता उस पुरुष या स्त्री को ऐसे कार्य संपादित करने से वंचित कर देती है। फलस्वरूप, यौन-भावना की तीव्रता के अनुसार घबराहट उत्पन्न होगी।

असमायोजन या अप्रिय संबंध: 
यह स्थिति व्यक्ति के यौन सहभागी के साथ आनंदरहित, असुखकर और कष्टप्रद संबंध से संबंधित है। अव्यवस्था या असमायोजन का यह कारक संभवतः यौनवृत्ति से संबंधित अन्य किसी भी समस्या की अपेक्षा सर्वाधिक प्रभावी कारक है, जो पुरुषों तथा स्त्रियों में घबराहट उत्पन्न करता है। यह असमायोजन विभिन्न कारणों के फल स्वरुप हो सकता है। यह एक या दूसरे सहभागी के प्रति विश्वास, आस्था और निर्भरशीलता के अभाव के कारण, एक दूसरे के खामियों के प्रति सहिष्णुता के अभाव के कारण, किसी एक से सहभागी से यौन-अनुक्रिया की अधिक अपेक्षा या चाह और दूसरे सहभागी में उसका अभाव होने के कारण, सहभागियों में से किसी में उत्साह या उत्तेजना, आदर और निश्छलता के अभाव के कारण; किसी सहभागी में संतुष्टिकर रीति सेरतिकार्य संपादित करने की शारीरिक क्षमता का अभाव, जो दूसरे सहभागी को ठंडा, असंतुष्ट और निरुत्साहित बना दे सकता है; रतिकार्य के उपयुक्त तरीके का अभाव, जिसका जारी रहना दूसरे सहभागी के मन में असंतोष, परेशानी और बेचैनी की भावनाएं तक उत्पन्न कर सकता है, तथा ऐसे ही अन्य कारणों से हो सकता है। इन स्थितियों में बेचैनी, अशांति, तनाव और आचरण संबंधी परिवर्तन आ जाएंगे।
 परिणामस्वरूप, ईर्ष्या, क्रोध, प्रतिशोध, घृणा और भय जैसी निभेदक भावनाएं उत्पन्न हो सकती हैं। और इसका अर्थ होगा घबराहट उत्पन्न होना।

गलतफहमी: यहाँ गलतफहमी से तात्पर्य है उन परिवर्तनों तथा पूर्ण विकसित अवस्थाओं की जानकारी का अभाव, जो आयु वृद्धि तथा शारीरिक वृद्धि के क्रम में व्यक्ति के शारीरिक क्षेत्र में घाटी तो होते हैं। ये परिवर्तनयौवनारम्भ, रजोनिवृत्ति, गर्भावस्था और इसी तरह के शारीरिक विकास  के समय हो सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों में बहुत से लोग बदहवास, हक्का-बक्का, बेचैन और यहां तक कि भयभीत भी हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में गलतफहमी या यथार्थ ज्ञान के अभाव में मुख्यतः घबराहट उत्पन्न होगी ही।

घबराहट का प्रतिकार, नियंत्रण और उपचार:


'प्रतिकार' और 'उपचार' शब्दों से किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि घबराहट एक रोग है। योग के अनुसार यह मुख्यतः एक मानसिक अवस्था है, जिसने शरीर की सामान्य मानसिक अवस्था में गड़बड़ी उत्पन्न कर दी है। जैसा कि इस अध्याय मे सर्वत्र  देखा जा सकता है कि घबराहट उत्पन्न करने वाली मुख्य वस्तु चिंता है, जो कभी भी बीमारी नहीं कही जा सकती। यह सच है कि घबराया हुआ कोई व्यक्ति कुछ औषधियों या दवाओं के प्रयोग से शांति, चैन और विश्राम की अवस्था में लाया जा सकता है, किंतु यह केवल क्षणिक आराम होगा,न कि स्वाभाविक अवस्था को स्थाई रूप से लौटाने वाला।अतएव, योग घबराहट को एक मानसिक अवस्था मात्र मानता है, जो स्वयं व्यक्ति (पुरुष और स्त्री) द्वारा सुधारी जा सकती है।

घबराहट दूर करने की विधि  : 


उसके कारण या कारणों के अनुसार अपनाई जानी चाहिए। अतः, प्रथम चरण में घबराहट के कारण का पता लगाया जाना चाहिए। जब कारण ज्ञात हो जाए तब व्यक्ति को उसे सुधारने तथा उस पर काबू पाने के तरीकों तथा विधियों का पता लगाने का प्रयास करना चाहिए। जैसा कि आपने देखा है, घबराहट के कुछ कारण सरल, गौण और आपके द्वारा सर्जित है। आप यदि चाहे तो उन्हें आसानी से सुधार सकते हैं। इसी प्रकार, यदि आप केवल प्रयास करें तो मानव प्राणियों तथा ऐसे ही दूसरों की प्रकृति के बारे में यथार्थ ज्ञान के अभाव को आसानी से सुधार सकते हैं। तब यह देखा जा सकता है कि अनेक स्थितियों में इस विधि को आपके अपने संशोधनों, सुधार, परिवर्धन तथा कार्य की आवश्यकता है।
इस विधि के दूसरे पहलू के लिए जीवन विषयक कुछ जीवन दर्शनों, मान्यताओं, सिद्धांतों एवं विचारों का अध्ययन आवश्यक है। इनके अवबोध तथा ज्ञान से आपको अपने जीवन को साथ ही साथ दूसरों के जीवन को समझने का सुराग मिलेगा। यह जानकारी आपको यह तय करने तथा निर्णय लेने में भी समर्थ बनाएगी कि किसी खास परिस्थिति में क्या किया जाना चाहिए और क्या, किस प्रकार और कब कार्यवाही की जानी चाहिए। प्रश्न यह है कि यह जानकारी कैसे प्राप्त की जाए?
इस बिंदु पर मैं यह राय दे सकता हूं कि आप स्वामी विवेकानन्द की कर्मयोग तथा ज्ञानयोग नामक पुस्तकों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन करें। वहां कहीं गई प्रत्येक बात को स्वीकार नहीं करें जब तक की आपके पास स्वीकार करने के लिए युक्ति संगत कारण न हों। योग आपको शिक्षा प्रदान करता है कि किसी व्यक्ति के विचार, परामर्श और धारणा को तब तक स्वीकार नहीं करें जब तक कि उन्हें स्वीकार करने के लिए तर्क-संगत एवं बुद्धि-संगत कारण न हो।
घबराहट की अवस्था पर विजय पाने की कुछ यौगिक विधियां एवं प्रविधियां है, जिनका वर्णन अंत में किया गया है।
यद्यपि तरीके या विधि के संबंध में सामान्यकृत विवरण कुछ अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, तथापि पाठको में से कुछ लोग बारी बारी से प्रत्येक दशा का उपचार अलग से जानने की इच्छा कर सकते हैं।अतएव, घबराहट के सभी प्रमुख कारकों पर एक एक कर विचार करने तथा तदनुसार उपचार बताने का यहाँ प्रयास किया गया है। किंतु चूँकि बहुत से अतिव्यापी कारक है, इसलिए पुनरावृत्ति से बचते हुए मैं उपचारों के विवेचन का प्रयास करूंगा।

परिवेश-संबंधी कारकों का उपचार:

यदि घबराहट उत्पन्न करने वाले कारक परिवेश संबंधी हो तो प्राकृतिक घटनाओं को जान और समझ कर कार्य करके उनका प्रतिकार किया जा सकता है। ज्ञान योग यह शिक्षा देता है कि अंधेरे में लटकती रस्सी को सांप के रूप में देखना या अंधेरे में लटकते किसी सांप को रस्सी के रूप में देखना न केवल ज्ञान का अभाव प्रदर्शित करता है, बल्कि त्रुटिपूर्ण ज्ञान को प्रदर्शित करता है। यह त्रुटिपूर्ण ज्ञान असंख्य के प्रकार से तथा अनगिनत अवसरों पर व्यक्ति में भय तथा बेचैनी उत्पन्न कर सकता है। औषध या दवाओं की कोई भी मात्रा इसे ठीक नहीं कर सकती। व्यक्ति( पुरुष या स्त्री) को स्वयं ही अध्ययन, तर्क बुद्धि, अनुभव, निरीक्षण तथा ऐसे ही अन्य साधनों द्वारा अपने में यथार्थ ज्ञान विकसित करना होगा।
जब व्यक्ति यह समझ जाता है कि प्राकृतिक आपदाएं किसी व्यक्ति द्वारा सर्जित नहीं है और वे किसी व्यक्ति के अनुकूल या प्रतिकूल नहीं है, तब बदहवास होने, बेचैन होने और घबराने का कोई कारण नहीं रह जाता। ऐसी दशा में उपचार यह है कि परिस्थिति संबंधी तथ्यों को प्राकृतिक रूप में स्वीकार किया जाए और क्या उपाय किया जा सकता है - यह पता लगा लिया जाए।
ऐसी स्थिति में आप जितना- कितना कर सकते हो, करने का प्रयास करें। किसी खास स्थिति में आप बेचैन, अशांत उद्विग्न होने( घबराने) के बजाय रक्षा करने तथा जीवन पद्धति को बनाए रखने के लिए जो भी संभव हो, करने का प्रयास करें।

सामाजिक कारकों का उपचार:
जैसा कि हम लोगों ने देखा है, घबराहट के सामाजिक कारक विभिन्न प्रकृति के हैं। इनमें से कुछ कारक - जैसे उपयुक्त काम धंधे या जीविका के अभाव में आर्थिक असुरक्षा- योग्यता, यथार्थ ज्ञान, यथार्थ जानकारी तथा दक्षता के अभाव के कारण हो सकते हैं। यदि घबराहट के ये ही कारण है, तो इसका प्रतिकार और उपचार है इन्हें प्राप्त कर लेना। जैसा कि आप देख सकते हैं, ज्ञान, योग्यता और जानकारी विकसित या परिवर्द्धित की जाती है तथा प्राप्त की जाती है। व्यक्ति के लिए धैर्य पूर्वक काम करने के अलावा, उनकी प्राप्ति का, कोई दूसरा मार्ग नहीं है। ऐसी दशा में, योग के सिद्धांतों के अनुसार एकमात्र आप उन्हें प्राप्त करने के लिए जिम्मेवार है।
यदि घबराहट का कारण व्यक्ति द्वारा अधिक चाही गई कुछ वस्तुओं की सुलभता का अभाव है, तो इसका उपचार उन वस्तुओं की प्राप्ति के तरीके एवं साधन ढूंढ निकालने में निहित है। इसकी प्रविधि यह है कि सर्वप्रथम आप ठीक ठीक यह जान ले कि वह है क्या, जिसे आप पाना चाहते हैं और जिसकी आपको आवश्यकता है। इस प्रकार इच्छित वस्तुओं के बिंब या आकृति को सुस्पष्ट रूप से अपने मन में देखें।

पूर्व लेख (इच्छापूर्ति का सिद्धान्त Wish fulfillment principle)   में वर्णित कंपन के सिद्धान्त को पढ़ें और तदनुसार उस का प्रयोग करें। इच्छा एवं आवश्यकता की यथार्थता की अनुभूति में यदि आपने धारणा का अभाव हो, तो कुछ समय तक( कुछ महीने) धारणा का अभ्यास करें, और उस शक्ति का प्रयोग करें। आप यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाएंगे कि आपकी सारी इच्छाएं एवं आवश्यकताएं क्रमशः पूरी हो जाएंगी। इस प्रविधि का प्रयोग किसी भी प्रकार की इच्छा, चाहे भौतिक हो या वैयक्तिक, के लिए किया जा सकता है।

उदाहरणार्थ, यदि आप एक जीवन संगी चाहते हैं,विवाह करना चाहते हैं, एक मकान खरीदना चाहते हैं, गाड़ी, कपड़े तथा ऐसी ही अन्य चीजें खरीदना चाहते हैं, तो इसी प्रविधि का प्रयोग करें। आपका ध्यान पूर्ण रूप से आकृष्ट करने के लिए मैं इस बात को पुनः दुहरा देना चाहूंगा कि आप इच्छापूर्ति का सिद्धान्त Wish fulfillment principle में वर्णित इच्छाएं एवं आवश्यकताएं इस अंश को अवश्य पढ़ें। उस विषय को ध्यान पूर्वक बार-बार पढ़ें अब तक कि आप उसे पूरी तरह समझ न ले। इच्छाओं और आवश्यकताओं से संबंधित उक्त अंश का, कुछ मित्रों के साथ अध्ययन और विचार-विमर्श विषय को स्पष्ट करने में सफल हो सकता है।

अब हम लोग घबराहट के सामाजिक कारकों के शेष पहलुओं को लें। जब घबराहट का कारण सामाजिक उपद्रव हों, जैसे जातीय दंगे, धार्मिक संघर्ष या झगड़े तथा ऐसी अन्य उथल पुथल, तब इसका एक उपचार यह है कि आप उसमें शामिल ना हो। दूसरे, अन्य लोगों को मारने और आहत करने की भावना को पनपने और बढ़ने न दे। योग के अनुसार जब आप सोचते हैं तो एक कंपन उत्पन्न होता है, जो आप के संपर्क में आने वाले सभी लोगों को प्रभावित करता है।अतएव, जब आप अपने घर के एकांत में भी दूसरों को आहत करने की बात सोचते हैं तो वायु में विद्यमान कंपन के कारण दूसरों द्वारा उसका भेद खुल जाता है, वह ज्ञात एवं अनुभूत हो जाती है। अभिप्राय यह है कि तबु दूसरों के प्रति आपकी अच्छी और प्रिय भावनाएं लाभकारी एवं शान्तिदायक कंपन उत्पन्न करेंगी, जिसका आवर्तन में सामान परिणाम होगा।

वैयक्तिक कारकों  का प्रतिकार एवं नियंत्रण : 



यद्यपि इस शीर्षक के अंतर्गत हमारे पास घबराहट उत्पन्न करने वाले कारकों की एक लंबी सूची है, फिर भी अपनी याददाश्त को ताजा करने के लिए एक बार पुनः उनकी रूपरेखा प्रस्तुत करना श्रेयस्कर होगा।
ये कारक है: भय का संवेग, मानव स्वभाव तथा सामाजिक घटनाओं के विषय में यथार्थ ज्ञान का अभाव, दूसरों को क्षति पहुंचाने की भावना तथा यौन-जीवन(सेक्स लाइफ) से संबंधित समस्याएं।
अब इनमें से एक एक कारक पर अलग-अलग विचार करेंगे और तत्पश्चात उपचार बताएंगे। सर्वप्रथम हम भय को लें।
भय : जैसा कि आपने देखा है, भय का प्रधान कारण है दृढ़ विश्वास का अभाव या कोई व्यक्ति जो कुछ करने को तत्पर है उसे करने की क्षमता का अभाव। इस स्थिति में एक उपचार है - कार्य को करने की जानकारी तथा ज्ञान का विकास।
जब आप कार्य करने की सही विधि का ज्ञान प्राप्त करने को प्रस्तुत कर लेंगे, तब आप कभी नहीं घबराएंगे।
द्वितीयत: कुछ चीजों के लिए अकेले काम करके सीखना आवश्यक होता है। सैद्धांतिक ज्ञान, चाहे आप को कितना भी अधिक क्यों ना हो, पर्याप्त नहीं होगा। ऐसी दशा में आपको यह अनुभव करना चाहिए कि आप केवल सीख रहे हैं, और यदि आप कुशल कार्य संपादन में विफल हो जाते हैं तो यह आपकी घबराहट का कारण नहीं होना चाहिए। इसे याद रखें की गलतियां करना, अधिक अच्छा करने के ज्ञान का केवल एक अंग है। जहां तक हमारी जानकारी है, मानव इतिहास में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं हुआ, जो बिना गलतियां किए किसी चीज को अच्छी तरह करने में समर्थ हुआ हो। अतएव गलतियों को विफलताओ के समकक्ष कदापि नहीं माने।
गूढ़ बात यह है कि उन गलतियों से शिक्षा ग्रहण की जाए, उनसे अनुभव प्राप्त किया जाए और अगले कार्य संपादन में सुधरी हुई रीति से उनका प्रयोग किया जाए। यदि किस जानकारी के साथ आप कुछ करते हैं तो आप करने से न तो कभी भयभीत होंगे और न भय के कारण घबराएंगे ही।

जब यथार्थ ज्ञान व जानकारी का अभाव होता है : 

जैसा कि हमने देखा है, इस दशा में व्यक्ति जिन लोगों के संपर्क में आता है, उनकी प्रकृति एवं स्वभाव की गलत जानकारी के कारण चिंता उत्पन्न हुई है, और कुछ खास परिस्थितियों को, जिनसे व्यक्ति सबद्ध होता है, गलत समझने का कारण भी।
इसका उपचार इस तथ्य को स्वीकार कर लेना है कि सभी मानव प्राणी एक समान कार्य, आचरण और विचार नहीं कर सकते। प्रत्येक समाज में शैक्षिक, संस्थागत एवं प्रयोजनमूलक भिन्नताऐं व्यक्तियों में रहती ही है। तब वैयक्तिक प्रकार की हजारों समस्याएं हैं, जो व्यक्ति की मनोदशा, प्रवृत्ति, स्वभाव तथा शारीरिक एवं मानसिक दशाओं को प्रभावित करती है, एक ही दिन विभिन्न समयों में उस व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) के भिन्न-भिन्न रूप से कार्य तथा आचरण कराती है। तब यह बिल्कुल संभव है कि आप सड़क पर, कार्यालय में, बस में, ट्रेन आदि में किसी व्यक्ति से मिलते हैं तब उससे यह आशा नहीं की जा सकती कि वह अपनी अनुकूल अनुक्रिया ही व्यक्त करे, क्योंकि वह विभिन्न कारणों से, जैसे पेट दर्द या दिमाग चकराने की अवस्था, सामान्यत: अनुक्रिया नहीं भी व्यक्त कर सकता है। और जब वह मुंह लटका ले या कड़ा उत्तर दे तो इससे आपको घबराना नहीं चाहिए। यदि आपने मानव जीवन के इस तथ्य को समझ लिया है, तो ऐसी दशाओं का उपचार  भी आपने जान लिया है।
जहां तक कुछ खास दशाओं के लिए उपचार का संबंध है, वह उपाय किए जा सकते हैं : 
एक है - आप असुखकर स्थिति में शारीरिक उपस्थिति से बचें। 
और दूसरा, कभी ऐसा ना सोचे कि समाज में जो घटना घटी है, उससे केवल आपका ही संबंध है। यदि ऐसा हो कि ऐसी स्थिति उत्पन्न करने से, जिससे किसी व्यक्ति को क्षति पहुंची हो, आप ही प्रत्यक्ष रूप से सबद्ध रहे हो, तो भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति ना होने पाए। एक बार जो कुछ हो गुजरा, उसका यह अर्थ नहीं कि उसने सुधार तथा समुन्नति के अवसरों को अवरुद्ध कर दिया है। इसका एकमात्र तात्पर्य है कि कुछ गलतियां हुई। उन गलतियों से सबक ले। भविष्य में उन्हें दोहराएं नहीं। यही उपचार है।

दूसरों को क्षति पहुंचाने की भावना से बचें : 

सामाजिक कारकों का विवेचन करते समय पहले ही इसके उपचार का विवेचन किया जा चुका है। किंतु मैं यहां केवल एक बात जोड़ना चाहूंगा। योग यह शिक्षा देता है कि व्यक्ति की अच्छाई किसी अन्य व्यक्ति के समर्थन, कृपा या सहानुभूति पर निर्भर नहीं करती। स्वयं व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) में शक्ति - विपुल शक्ति - निहित है, जिसके समुचित विकास और समुचित प्रयोग द्वारा सभी इच्छित परिणाम पाए जा सकते हैं। तब आप देख सकते हैं कि जब आप दूसरों को हानि पहुंचाने के विचार में समय लगाना प्रारंभ करते हैं, तब आप उसी समय अपनी अच्छाई की उन चीजों की अवहेलना कर रहे होते हैं, जिन्हें केवल समुचित वैयक्तिक ध्यान द्वारा और अच्छा किया जा सकता है।अतएव, इसका उपचार यह है कि दूसरों को हानि पहुंचाने यहां तक कि दूसरों का अनुचित समर्थन प्राप्त करने के बजाए आप अपनी अच्छाई या नेकी की बात सोचें।

यौन-वृत्ति से सबद्ध समस्याओं का उपचार : 

वैयक्तिक प्रकार की सभी समस्याओं में यौनवृत्ति की समस्याओं को इस विवेचन के पहले ही सर्वाधिक प्रभावी एवं महत्वपूर्ण माना गया है। अतः इसका उपचार बतलाने के समय इसकी विभिन्न समस्याओं का बारी-बारी से विवेचन श्रेयस्कर होगा। फिर, यद्यपि कुछ आती भी आती कारक है, अतः मैं उन्हें स्पष्ट करने तथा पृथक रूप में समझाने का प्रयास करूंगा।

जब सुलभता का अभाव होता है : सुलभता की समस्या प्रतिबंधिक या आपेक्षिक होती है। यह समाज, स्थान, वातावरण तथा परिस्थितियों की प्रकृति पर निर्भर करती है, जिसमें इसका सामना करना होता है। यदि व्यक्ति इस रूप में व्यवस्थित हो कि काम-वृत्ति के सहभागी की सुलभता असंभव हो तो इसका उपचार है -
धैर्य, सांत्वना तथा संयम की भावना विकसित करना। यद्यपि ऐसा करना आसान नहीं है, तथापि कोई भी व्यक्ति अपने मन के ध्यान को किसी रचनात्मक कार्य में, जिसमें शारीरिक एवं मानसिक श्रम आवश्यक होता है, लगाकर इसे आसानी से कर सकता है। किसी भिन्न कार्य में शारीरिक एवं मानसिक रूप से संलग्न हो जाने पर कामवृत्ति की भावना दब जाएगी। फलस्वरूप घबराहट दूर हो जाएगी।
तत्पश्चात, एक योगासन है, जिसका अभ्यास नियम पूर्वक करने से वासना की इच्छा मर जाती तथा नष्ट हो जाती है इस आसन का अभ्यास उन लोगों के लिए उपयुक्त हो सकता है, जो काम-वासना को स्थायी रूप से समाप्त कर देना चाहते हैं। अधिकांश हिंदू- धर्मावलंबी लोग अपनी कामवृत्ति पर नियंत्रण के लिए इस आसन का प्रयोग करते हैं। किंतु चूँकि इस आसन के अभ्यास से स्थायी क्षति हो सकती है, इसलिए उसका वर्णन करने में भी मुझे हिचकिचाहट हो रही है। इस प्रकार का भी एक उपचार है, यह बताने के लिए मैंने केवल संकेत भर कर दिया है।
किंतु उपर्युक्त विधि के प्रतिस्थापक के रूप में अन्य योगासनों के अभ्यास की अनुशंसा की जाती है। यह समझ लेना चाहिए कि उल्लिखित एक आसन को छोड़कर योग के अन्य आसन कामेच्छा या कामशक्ति को दुर्बल नहीं बनाते। बल्कि वे कामशक्ति को उत्पन्न एवं परिवर्द्धित करते हैं। किंतु इस अभ्यास से अच्छी बात यह है कि यह तनाव, चिंता और बेचैनी में कमी लाता, उन्हें सामान्यीकृत तथा शांत करता है और विवेच्य स्थिति में प्रमुख आवश्यक यह है कि तनाव तथा बेचैनी को सामान्य बनाया जाए।

इस प्रकार, यद्यपि कामशक्ति उत्पन्न होगी, तथापि वह उत्तेजना की अवस्था नहीं होगी। जब समुचित अवसर सुलभ होगा तब उस शक्ति का उपयोग लाभकारी होगा।
जब इस प्रकार आपकी शक्ति नियंत्रित हो जाती है।
तो आप पाएंगे कि स्थिरता, शांत स्वभाव तथा भद्रता शारीरिक या मानसिक दुर्बलता की निशानी नहीं है। योग ठीक इसी लक्ष्य की ओर निर्देश करता है। इसे समझ लेने के बाद, हम जिस स्थिति का विवेचन कर रहे हैं उसमें पड़ा व्यक्ति योग के निम्नांकित अभ्यास कर सकता है :
1- गहरी श्वास क्रिया, जैसे कि " धारणा/ एकाग्रता " में वर्णित है। सुबह-शाम दोनों समय अभ्यास करें - एक समय में दस बार।
2- कुछ आसनों का वर्णन आगे किया गया है। उनमें कुछ या सभी का सुबह और शाम में अभ्यास करें।
एक सत्र या समय में एक घंटे से अधिक अभ्यास नहीं करें। प्रथम तथा द्वितीय के सत्र के बीच आठ घंटे का अंतर रखें। यदि आप चाहें तो केवल एक ही समय अभ्यास कर सकते हैं।

अब हम लोग इस स्थिति के दूसरे पक्ष या पहलू को ले। यदि व्यक्ति ऐसे स्थान, वातावरण या समाज में अवस्थित हो, जहां कामवृत्ति के सहभागी उपस्थित है, किंतु वह व्यक्ति किसी को प्राप्त करने में असमर्थ रहता है - तब उसका उपचार है - कंपन के सिद्धांत का प्रयोग करना।
( इसका विवरण इच्छापूर्ति का सिद्धांत में दिया गया है) कृपया उसे पढ़ें तथा समुचित रीति से उसका प्रयोग करें। आप अपने लक्ष्य सिद्धि या उद्देश्य पूर्ति के पूर्णतया आश्वस्त हो सकते हैं। फिर आपमें घबराहट उत्पन्न करने वाली सुलभता की यह समस्या कभी रहेगी ही नहीं।

जब सुलभता रहती है, किंतु क्षमता का अभाव होता है : 

यौन या कामवृत्ति संबंधी अक्षमता के लिए सुधारात्मक तथा सर्जनात्मक उपाय आवश्यक है। सुधारात्मक उपाय के अंतर्गत उन आदतों को छोड़ने और परिवर्तित करने की बात आती है, जो आदतें ज्ञात रूप से व्यक्ति को हनी पहुंचाती रही है, दुर्बल और अक्षम बनाती रही है।
दूसरी ओर, सर्जनात्मक उपाय से तात्पर्य है शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के उन पहलुओं को सबल, क्रियाशील तथा विकसित करने से, जो शक्तिहीन तथा उपेक्षित कर दिए गए हैं। इन दोनों उपायों में अंतर इस तथ्य में देखा जा सकता है कि सुधार करने में जहां कुछ चीजों के परिवर्तन करने और छोड़ देने की आवश्यकता पड़ती है, जो चीजें पहले से ही ज्ञात है, वह सर्जन करने से किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए, जिसका या तो अभाव रहता है या जो पर्याप्त नहीं होती, नए प्रयास करने की आवश्यकता पड़ती है। यहाँ संक्षेप में इन दोनों उपायों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि किस प्रकार वे दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण है।

सुधारात्मक उपाय : कुछ चीजों के प्रयोग का किसी व्यक्ति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ सकता है, किंतु दूसरों पर उनका हानिकारक प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं भी हो सकता है।अतएव व्यक्ति को स्वयं इसका निर्धारण करना होता है कि कौन सी चीज किस मात्रा में हानिकारक है। इसी के अनुसार सुधार किया जाना चाहिए। यहाँ कुछ सामान्यत: ज्ञात दुर्बलकारी पहलुओं को प्रस्तुत किया जा रहा है।

धूम्रपान : यदि आप अत्यधिक धूम्रपान करते हो तो उसमें सुधार लाएं। कुछ लोगों पर केवल एक ही सिगरेट पीने से दुर्बल कारी प्रभाव हो सकता है, यद्यपि वह प्रभाव केवल चौबीस घंटे तक रहेगा। यदि आप धूम्रपान पूर्णत: छोड़ सकते हैं तो यह अतिशय वांछनीय होगा, विशेष होता आपके मामले में जबकि यह दुर्बलता का ज्ञात कारक या घटक है। पान के साथ जर्दा (तंबाकू) का अत्यधिक प्रयोग करने से भी वही दुर्बल कार्य प्रभाव हो सकता है।

शराब : यद्यपि अल्कोहल युक्त मादक पेय को कामोत्तेजक माना जाता है, तथापि इनका अधिक प्रयोग शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता लाता है, क्योंकि सभी मादक पर विटामिन अपहरणकारी होते हैं। वे शरीर के पोषक तत्वों को नष्ट कर डालते हैं। इसके अतिरिक्त, यदि किसी भी शराब का सेवन अत्यधिक किया जाए तो वह व्यक्ति को दुर्बल बना देगा। यह जो अवांछनीय है, वह है इसका नियमित रूप से अत्यधिक सेवन। यदि कभी सामाजिक अवसरों पर आपको पीने का अवसर मिले और आप अधिक भी पी ले तो उसका कोई स्थाई प्रभाव नहीं होगा। किंतु यदि आप प्रतिदिन अधिक सेवन की आदत डाल लेते हैं तो इसका प्रभाव चिरस्थायी होगा। अब आप स्वयं इसका निर्णय करें कि आपके निजी मामले में क्या किया जाना चाहिए।

शयन तथा विश्राम : 
जीवन का एक अति महत्वपूर्ण पक्ष (पहलू), जिस पर यथोचित ध्यान नहीं दिया जाता है, वह है शयन तथा मिश्राम। बहुत से लोगों की यह धारणा है कि दिन में दो से चार घंटे से अधिक का विश्राम विलासिता है। कुछ लोग जानबूझकर जितने घंटे सोना आवश्यक है, उसकी अवहेलना करते हैं और परिणाम स्वरूप में सदा ही घबराहट की हालत में रहते हैं। मैं यहां एक महिला का मनोरंजक दृष्टांत प्रस्तुत करना चाहूंगा।
वह महिला प्रायः सभी समय धूम्रपान किया करते थे, हर घंटे काफी (कहवा) पीती थी तथा अस्थिर चित्त और घबराई हुई रहती थी। कौतूहलवश, मैंने एक दिन उसकी ऐसी स्थिति का कारण जानने के लिए उनसे पूछा - " महोदया, मुझे क्षमा करें। मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं।" उसने हिचकिचाहट रहित स्वर में उत्तर दिया - हां हां अवश्य पूछिए। तब मैंने अति विनम्रता पूर्वक पूछा - आप कितने घंटे सोती हैं? उसने उत्तर दिया - दिन में दो-तीन घंटे। और जब मैंने पूछा - क्यों? तब उसने उत्तर दिया - आप देखें में इससे अधिक सोने की आरामतलबी की गुंजाइश निकाल ही नहीं सकती क्योंकि मुझे अन्य कार्य के लिए समय निकालना पड़ता है। मेरी जानकारी के लिए यही पर्याप्त था और मैंने उस महिला को धन्यवाद दिया। उपर्युक्त उदाहरण घबराहट के कारण को जानने के लिए यथेष्ट है। परामर्श क्या है? योग का परामर्श यह है कि प्रतिदिन छः से आठ घंटे सोना चाहिए। शयन की कमी से व्यक्ति की न केवल शारीरिक, बल्कि मानसिक शक्ति और अवस्था में भी दुर्बलता आती है। तब प्रश्न यह उठता है कि ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति को क्या करना चाहिए, जो कुछ घंटों से अधिक नहीं सो सकता है।
यह दूसरी समस्या है। इस बिंदु पर जोर देकर कहना चाहूंगा कि जानबूझकर शयन के घंटों में कमी नहीं करें। बहुत से लोगों को संभोग का सुख नहीं मिल पाता, क्योंकि मुख्यतः उनका विश्राम तथा शयन अपर्याप्त होता है।अतएव, यदि आपके साथ ऐसी बात हो तो अपने में सुधार लाएं।

काफी( कहवा) और चाय :
यह आधुनिक समय के रहन-सहन का ऐसा विभिन्न अंग बन गई है कि इनका पूर्णत:  त्याग नहीं किया जा सकता है। किंतु हमें जान लेना चाहिए कि इनमें खामियां क्या है। इनका अत्यधिक सेवन करने से अनेक गड़बड़ियां पैदा होती हैं। चौबीस घंटे की अवधि में दो प्याली से अधिक कॉफी या चाय को अधिक ही मानना चाहिए। शारीरिक तंत्र पर कॉफी और चाय दोनों का प्रायः समान प्रभाव पड़ता है। इससे कब्जियत, अनिद्रा, त्वचा का रुखा हो जाना, तथा स्नायु में तनाव उत्पन्न होते हैं। इनका अधिक व्यवहार या सेवन बहुत से लोगों में बेचैनी, अस्थिरता तथा घबराहट पैदा करता है। यह बताना आवश्यक है कि इनका अधिक प्रयोग करने से व्यक्ति के कामशक्ति दुर्बल पड़ जाएगी। अतः इनके दैनिक व्यवहार पर नियंत्रण रखा जाना चाहिए।

कुछ खास आदतों में सुधार : घबराहट के कारणों के विवेचन के क्रम में यह पहले ही बताया जा चुका है कि बहुत से अवांछनीय तरीके, आदतें और कुछ फिजूल मानसिक धारणाएं यौन क्षमता को दुर्बल बना देती है। हिंद का सुधार करना आवश्यक है।
इसके अतिरिक्त, संभोग के सही तरीके, प्रविधि और तरकीब के अभाव में असंतुष्टि, अरुचि और यहां तक कि कामवृत्ति के प्रति प्रतिकूल दृष्टिकोण तथा भावनाएं भी उत्पन्न हो सकती हैं, जिनसे कालांतर में काम शक्ति  क्षीण या दुर्बल हो जाएगी। इसका भी सुधार किया जाना आवश्यक है इन सभी सुधारात्मक पहलुओं का पूर्ण विवेचन इस विषय सीमा से परे है।अतएव, यह सलाह दी जाती है किन व्यक्तियों को कारण भूत कारको को पहचान लेना चाहिए और तदनुसार उन्हें सुधारने का का प्रयास करना चाहिए। कामकला की दोषपूर्ण विधियों को सुधारने के लिए वात्सायन के कामसूत्र का अध्ययन करना चाहिए, जिसके अनूदित संस्करण अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में सुलभ हैं।

सर्जनात्मक उपाय : यह सर्जनात्मक उपायों से तात्पर्य है सार्थक तथा संतुष्टिकर कामवृत्ति के लिए शक्ति, क्षमता तथा यौनाकर्षण की प्राप्ति तथा इन्हें विकसित करने से इस संबंध में दो चीजें करनी चाहिए : एक है उपयुक्त आहार ग्रहण करना दूसरी है शारीरिक व्यायाम करना।

आहार : नियमित जीवन सिद्धांतों के अनुसार अपना दैनिक भोजन ले। ताजा फल और कड़े छिलके वाले फल खाने का विशेष ध्यान रखना चाहिए। गिरी-फल भुने हुए या सेके हुए नहीं हो। उन्हें उनके प्राकृतिक रूप में ही खाना चाहिए। जिन गिरी फलों को खाने की राय दी जाती है, वे हैं - अखरोट, काजू, बादाम, पिस्ता आदि।

शारीरिक व्यायाम  : प्रतिदिन लगभग पन्द्रह मिनट तक योगासनों का नियमित अभ्यास सर्वथा पर्याप्त होगा। केवल कुछ ही महीने के भीतर आपको यह देख कर आश्चर्य होगा कि येपूरे शरीर तंत्र को किस प्रकार सबल बना देते हैं। अपनी शारीरिक अवस्था के अनुसार कुछ आसनों को चुन ले और उनका नियम पूर्वक अभ्यास करें।

जब असमायोजन या अप्रिय संबंध हो  : कुसमायोजनों को को निकट से देखने पर प्रकट हो जाएगा कि उनमें से अनेक ऐसे हैं जिनका उपचार महज वे कार्य करने में निहित है, जो पहले नहीं किए गए थे, जैसे अविश्वास की स्थिति में विश्वसनीय होना, अनिर्भरता की स्थिति में निर्भर योग्य होना आदि। कुछ अन्य प्रकार की समस्याओं का विवेचन पूर्व के प्रश्नों में किया जा चुका है और वही उनके उपचार भी बताए जा चुके हैं। अतः यहां केवल सर्वाधिक संगत या उपर्युक्त समस्याओं को, जिन का विवेचन पहले नहीं हुआ है, समाविष्ट किया गया है।
योग के सिद्धांतों के अनुसार जो चीजें अच्छी हैं, वे भी बुरी लग सकती हैं यदि बुराई की भावना या विचार अध्यारोपित (Super imposed) हो। इसी प्रकार यदि अनुकूल भावना विकसित की जाए तो जो चीज बुरी मानी जाती है, वह अच्छी लग सकती है। वस्तुतः भावना ही यह विभिन्नता उत्पन्न करती है, न कि स्वयं पदार्थ या चीज। इस प्रकार, आपका जीवन साथी या काम-सहभागी, जो आज भी उतना ही अच्छा हो सकता है,जितना वह प्रथम मिलन के समय था, इसीलिए बुरा लगता है, क्योंकि आपने उसे( पुरुष या स्त्री) बुराई की अध्यारोपित भावना से देखना प्रारंभ कर दिया है। यह मैं यह समझाने के लिए कि यह किस प्रकार सच है, उदाहरण प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं समझता, क्योंकि कुछ अतीत की बातों, घटनाओं या वस्तुओं के संबंध में आपके अपने पुनर्मूल्यांकन से इस तथ्य की प्रामाणिकता स्पष्ट हो जाएगी।
योग का दूसरा सिद्धांत यह है जो चीज अवांछनीय है, उसे वांछनीय के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। असुखकर अवस्था में यह परिवर्तन तभी हो सकता है, जब सबद्ध व्यक्ति परिवर्तन लाने के लिए निश्चय करे, उसे श्रेयस्कर समझे और कार्य करे। यह व्यक्ति की अपनी शक्ति के अधीन है कि वह शारीरिक मानसिक और यहां तक कि सांसारिक - सभी क्षेत्रों में इस परिवर्तित सुखकर अवस्था की सृष्टि करे। यह प्रदर्शित करने के लिए कि व्यक्ति की शक्तियां क्या हैं, और वह (पुरुष या स्त्री) क्या कर सकता है - मैं यहाँ " ज्ञान योग" के कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा।

' ज्ञानयोग' का कथन है : " तुम ही शुद्ध रूप हो। जागो और उठो। हे सर्वशक्तिमान! यह निद्रा तुम्हारे अनुरूप नहीं है। जागो और उठो, यह निद्रा तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है। यह कदापि नहीं सोचो कि तुम दुर्बल और दीन दुखी हो। हे सर्वशक्तिमान! उठो और जागो और अपने सच्चे स्वरूप को प्रकट करो। यह तुम्हारे लिए उचित नहीं कि तुम अपने को पापी समझो। यह भी उचित नहीं कि तुम अपने को दुर्बल समझो। यही बात विश्व को कहो, यही अपने को कहो, और देखो - इसका क्या व्यवहारिक परिणाम सामने आता है; देखो, किस प्रकार बिजली की चमक से वास्तविकता प्रकट हो जाती है, किस प्रकार प्रत्येक वस्तु परिवर्तित हो जाती है।"पृ 345।।
एक अतिरिक्त बिंदु, जिस पर ध्यान देना आवश्यक है, सहिष्णुता होने विषयक है। इसका अर्थ है अन्य व्यक्ति की त्रुटियों के प्रति सहिष्णुता। सहिष्णुता के इस गुण के अभाव में कोई व्यक्ति दैनिक जीवन के अनगिनत अवसर पर संकट में पड़ सकता है। आप कह सकते हैं कि आप सर्वथा सहिष्णु है, किंतु दूसरा व्यक्ति असहिष्णु है। जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, योग वह शिक्षा देता है कि दूसरों को सुधारने के पहले अपने को सुधारो। आपका यह सुधार दूसरों को भी अपना सुधार करने की प्रेरणा प्रदान करेगा।
इसके अतिरिक्त आप का यह सोचना कि आप जैसा चाहते हैं, दूसरा व्यक्ति भी वैसा ही अवश्य सोचें और करे, एक अत्यंत अवांछनीय धारणा है। यह ना तो संभव है, न आवश्यक और इसीलिए वांछनीय भी नहीं है। इन विभिन्नताओं या विभेदों को मानव जीवन तथा मानव की प्रगति उत्कर्ष के अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए, क्योंकि बताओ से कोई खतरा या हानि नहीं है। बल्कि ये विभिन्नताएं प्रगति, सुधार और सर्जनात्मक विचार उत्पन्न करती हैं।अतएव, दूसरे व्यक्ति में आप जो विभिन्नताएं देखते हैं उनका इसी साझेदारी के साथ स्वागत किया जाना चाहिए तथा उन्हें सहना चाहिए। केवल तब ही आप किसी सुखकर एवं चिरस्थायी संबंध बनाए रखने की आशा कर सकते हैं। ज्ञान योग यही विचार प्रकट करता है, जब वह हमें शिक्षा देता है :  " हमें यह इच्छा कदापि नहीं करें कि हम सब को एक समान सोचना चाहिए। तब चिंतन करने के लिए कोई विचार ही नहीं रह जाएगा; जिस प्रकार संग्रहालय या अजायबघर में मिस्रियों द्वारा सुरक्षित रखे गए शव चिंतन करने के लिए विचार के बिना एक दूसरे की ओर देख रहे हैं। वही यह अंतर है, यह विभेद है, यह हम लोगों के बीच सादृश्य का अभाव है, जो हमारी प्रगति की आत्मा है, हमारे सभी विचारों की आत्मा है। यह सदा अवश्य होना है।"पृ 391।।

जब भ्रांतियां हो : इन मामलों के उपचार हैं - मानव प्राणियों के शरीर क्रियात्मक पहेलुओं के विषय में यथार्थ ज्ञान और जानकारी विकसित करना। प्राकृतिक बुद्धि तथा विकास के क्रम में जो कुछ घटित हुआ है, उससे किसी व्यक्ति में आतंक या बेचैनी नहीं उत्पन्न होनी चाहिए। बल्कि इन परिवर्तनों को सामान्य जीवन पद्धति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
स्त्रियों का जब तैतालिसवें वर्ष के करीब मासिकधर्म एकदम रुक जाता है, तब मैं बहुत परेशान हो जाती हैं। उन्हें यह भय सताने लगता है कि इससे शारीरिक एवं यौन असमर्थता उत्पन्न होगी और वे संभोग-सुख से वंचित रह जाएंगी। यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है यद्यपि कुछ शारीरिक परिवर्तन अवश्य घटित होते हैं तथापि वे किसी भी स्थिति में संभोग-सुख से वंचित नहीं करते अथवा उसे कम भी नहीं करते। इसके विपरीतरजोनिवृत्ति की अवधि को बहुतों ने वांछनीय परिवर्तन माना है क्योंकि इस अवध में गर्भ-धारण नहीं रहता।

घबराहट से आराम पाने की कुछ यौगिक-प्रविधियां :


हमने विभिन्न अवस्थाओं के लिए, जिनमें विभिन्न प्रकार के उपचार आवश्यक है, उपचारात्मक उपायों का विस्तृत विवेचन किया है। उन अवस्थाओं के लिए बताए गए उपचारों का स्थाई मूल्य एवं प्रभाव है। यहां घबराहट की दशा में फौरन राहत पाने की कुछ सामान्य प्रविधियां बताई जा रही है। इसे समझ लेना चाहिए कि इन उत्तर विधियों का केवल क्षणस्थायी प्रभाव होगा, न् कि स्थायी रोगमुक्त या नियंत्रण।अतएव इन प्रविधियों का प्रयोग नियमित रूप से हरगिज़ नहीं करना चाहिए, जैसा कि अन्य योगासनों का अभ्यास किया जा सकता है। मैं इस तथ्य का पुनः उल्लेख कर देना चाहता हूं कि  इन प्रविधियों का प्रयोग केवल तभी किया जाए जब फौरन राहत पाने या तात्कालिक निवारण आवश्यक हो।

गहरी सांस लेना : बैठ जाएं या खड़ा रहने की स्थिति में हो जाए। आप कुर्सी, सोफा या फर्श पर बैठ सकते हैं। किंतु आपको सीधा तन कर बैठना चाहिए ताकि आपका मेरुदंड और सिर एकसीध में रहे। यदि आप खड़े हैं तो सीधा खड़ा हो।
तत्पश्चात दोनों नासिका छिद्रों से सांस छोड़ते हुए सारी वायु बाहर निकाल दे। जब सारी वायु बाहर निकल जाए तब दोनों नासिका छिद्रों से सांस खींचना प्रारंभ करें। एक गहरी या लंबी सांस ले। जब सांस लेने की क्रिया पूरी हो जाए तब सांस छोड़ना प्रारंभ करें। इस क्रिया को दस बार करें। सांस लेने और छोड़ने की क्रिया मंद तथा धीमी होनी चाहिए। एक समय में दस बार से अधिक गहरी सांस न ले। स्वाश-क्रिया के बाद दस मिनट या उससे अधिक समय तक विश्राम करें।
इस गहरी सांस क्रिया का अत्यंत शांतिकारी प्रभाव स्नायुओं पर पड़ेगा। आप आराम महसूस करेंगे। घबराहट यदि पूर्णत: दूर नहीं होगी तो भी उसने बहुत अधिक कमी आ जाएगी।
इस प्रविधि का लाभ यह है कि आप इसका अभ्यास किसी भी स्थान में, जैसे कार्यालय लो, रेलगाड़ी में, बस में कर सकते हैं। क्योंकि आप इसका प्रयोग प्रतिदिन नहीं करने जा रहे हैं, इसलिए आप इसका अभ्यास किसी समय, बिना यह विचार कीजिए कि आपका पेट खाली है या भरा हुआ, कर सकते हैं। किंतु इसका प्रयोग केवल तभी करें जब आपको इसकी आवश्यकता हो।

शीतली प्राणायाम 

शीतली का अर्थ है शीतल या ठंडा करने वाला। यह एक प्रकार का प्राणायाम है, जिसका अभ्यास नियमित रूप से किया जा सकता है। किंतु नियमित अभ्यास में कुछ शर्तों की आवश्यकता पड़ेगी जिनका निर्वाह विशेष परिस्थितियों में आवश्यक नहीं है।अतएव, शीतली का अभ्यास केवल तभी करें जब आपको घबराहट से तत्काल राहत पाना जरूरी हो। इस स्थिति में आप आवश्यकताओं का विचार किए बिना भी अभ्यास कर सकते हैं। जहां तक फौरन राहत पाने का संबंध है, यह विधि सर्वोत्तम है।
विधि : फर्श पर सीधा तन कर बैठ जाए, अपना मुंह खोलें और उसे इस प्रकार बंद कर ले कि आपकी जिह्वा का अग्रभाग दांतो का स्पर्श करे। अब आपकी जिह्वा आपके मुंह में सीधे रुप में और जिह्वाग्र दोनों दंत पंक्तियों के निकटतर है।
तत्पश्चात दंत पंक्तियों के बीच से होकर शुद्ध वायु की सांस लें। इस प्रकार सांस लें कि भीतर आने वाली वायु कंठ क्षेत्र तक के सम्पूर्ण मार्ग में, जिह्वाग्र से जिह्वा मूल तक,जिह्वा का स्पर्श करे। श्वास लेने की यह क्रिया लगातार दीर्घकाल तक मध्यम गति से पूरी करें। दूसरे शब्दों में न तो तेजी से सांस ले न बहुत धीरे-धीरे। जब आप सांस द्वारा पर्याप्त वायु भीतर ले ले तब आपने दोनों नासिका छिद्रों द्वारा मध्यम गति से वायु को बाहर निकाल दें।
तब आप उसी प्रकार, जिस प्रकार आपने पहले किया था, पुनः मुंह द्वारा सांस ले और दोनों नासिका क्षेत्रों द्वारा सांस छोड़ें। इस प्रक्रिया को पांच बार तक जारी रखें। इसे एक समय में दस बार से अधिक नहीं करें। इस शीतली का अभ्यास आवश्यकतानुसार किसी भी समय तथा किसी भी स्थान में किया जा सकता है।

लाभ : इसके लाभ विस्मयकारी रूप से अत्यधिक हैं। यह अत्यल्प समय में संपूर्ण शरीर तथा स्नायु तंत्र को ठंडा कर देता है। अभ्यास करने वाले स्वयं देखेंगे कि केवल पांच से दस बार तक अभ्यास करने के पश्चात यह किस प्रकार मुंह, जिह्वा, तथा शरीर को शीतल करता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ लोग इसे" स्वत: वातानुकूलन" कहते हैं।
शीतली के अभ्यास का प्रयोग अनेक अन्य पीड़ाओं या रोगों में भी किया जा सकता है। उदाहरणार्थ ऐसी अवस्थाओं में, जैसे - सिर दर्द, ज्वर, और जब कोई गर्मी, प्यास और यहां तक कि भूख महसूस करें। इन सभी दशाओं में इसका प्रभाव शांतिदायक तथा प्रशमनकारी होगा।
ऐसा हो सकता है कि पहले पहल शीतली का अभ्यास करने पर अभ्यासकर्ताओं को ठंड लग जाए अथवा गले में खराश या व्रण उत्पन्न हो जाए। वैसी स्थिति में शीतली का अभ्यास बंद कर देना चाहिए। ऐसी सर्दी तथा गले की खराश के निवारण के लिए थोड़ा नमक मिश्रित गर्म पानी से गलगला कर कुल्ली करनी चाहिए। दिन भर में कई बार कुल्ली करने से शीतली द्वारा उत्पन्न सर्दी या पीड़ा दूर हो जाएगी।
इस सूझबूझ के साथ, घबराहट के तात्कालिक उपचार के लिए शीतली की जोरदार सिफारिश की जाती है और इसका प्रयोग सभी लोगों द्वारा, जिन्हें कुछ खास परिस्थितियों में इसकी आवश्यकता हो,किया जा सकता है।

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Saturday, April 25, 2020

धारणा/एकाग्रता (Concentration)

धारणा/एकाग्रता (Concentration)



धारणा का सम्बन्ध व्यक्ति की मानसिक शक्ति से है। बहुत से लोग, जो अपने क्रियाकलाप तथा व्यवसाय उनके क्षेत्र में चमत्कार उत्पन्न कर सकते थे, धारणा-शक्ति के अभाव के कारण वे ऐसी उपलब्धियों से वंचित रह गए। चाहे हम जिस किसी भी कार्य में संलग्न हो, यदि हम कार्य संपादन में गुण वैशिष्ट्य, निपुणता और संतुष्टि लाना चाहते हैं तो हमें मन की एकाग्रता या धारणा की आवश्यकता पड़ेगी ही। जैसा कि हम लोग आगे देखेंगे, धारणा शक्ति न केवल व्यक्ति के कार्य सम्पादन को, बल्कि उसके स्वास्थ्य, मन की शांति, जीवन के सुख एवं आनन्द तथा समृद्धि को भी प्रभावित करती है। अतएव आधुनिक पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि यह वस्तुतः क्या है, इसे किस प्रकार विकसित किया जा सकता है, दैनिक जीवन में इसके मूल्य एवं सार्थकता क्या है?
धारणा के सम्यक् ज्ञान के लिए किसी व्यक्ति को सर्वप्रथम मस्तिष्क की रचना या संगठन और उसकी प्रकृति के विषय में भी जान लेना चाहिए। योग में यह माना जाता है कि सभी मानव मन, जिसे शरीर- क्रिया- विज्ञान में मस्तिष्क कहा गया है, की रचना एक समान ही है। यद्यपि विभिन्न व्यक्तियों में इसके आकार प्रकार में भिन्नता हो सकती है, तथा भी सभी मानव प्राणियों में इसके कार्यकरण की संरचना एक समान ही है। शरीर विज्ञान भी सभी मानव मस्तिष्कों में यही सादृश्यता एकरूपता पाता है।
इस बिन्दु को स्पष्ट करने के लिए शाफे तथा ग्रोशीमर की पुस्तक" बेसिक फिजियोलॉजी एंड एनाटॉमी"(Basic Physiology and Anatomy) से उद्धरण प्रस्तुत करना चाहूंगा। उनका कथन है: " औसत प्रौढ़ मानव मस्तिष्क का वजन लगभग तीन पाउण्ड होता है, किन्तु व्यक्ति की आयु, लिंगभेद, तथा शरीर के आकार के अनुसार उसके मस्तिष्क के आकार में भिन्नता होती है। उदाहरणार्थ, पुरुषों के मस्तिष्क सामान्यत: स्त्रियों के मस्तिष्क की अपेक्षा बड़े होते हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे अनिवार्यत: स्त्रियों की अपेक्षा अधिक कुशाग्र बुद्धि हो, क्योंकि साधारणत: आकार बुद्धि सूचक नहीं होता है।
योग के अनुसार मानव बुद्धि या मानसिक क्षमता में जो भिन्नताएं हैं, वे विकास के निमित्त प्रयासों एवं प्रशिक्षण में भिन्नताओं के परिणाम हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने को उचित रीति से प्रशिक्षित अनुशासित शिक्षित और प्रयुक्त करने का प्रयास करता है, तो उसका कार्य संपादन उतना ही अच्छा हो सकता है, जितना अतीत या वर्तमान के किसी व्यक्ति का रहा है। किसी तथ्य की व्याख्या करते हुए, अतीत के महापुरुषों तथा पैगंबरों के संदर्भ में 'राजयोग' मे कहा गया है:
" यह पैगम्बर कोई अनोखे प्राणी नहीं थे, वे मनुष्य थे, जैसा मैं हूं या आप है। वे  महान योगी थे। उन्होंने यही अधिचेतना(Super-Consciousness) प्राप्त कर ली थी, उसे मैं और आप भी प्राप्त कर सकते हैं। वे लोग विलक्षण नहीं थे। यही तथ्य कि एक आदमी कभी उस अवस्था तक पहुंचा, सिद्ध करता है कि प्रत्येक मनुष्य के लिए ऐसा करना सम्भव है।"
अतएव योग कहता है, यह व्यक्ति पर ही निर्भर है कि वह किस प्रकार अपनी मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों को विकसित करता या ढालता है। योग इस विकास का मार्ग दर्शाता है, और धारणा का अभ्यास मानसिक अनुशासन के प्रशिक्षण का एक अंग है। जिस प्रकार शरीर के विकास के लिए प्रयास एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार मस्तिष्क के विकास के लिए भी यह आवश्यक है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन किया है, जैसा कि शाफे तथा ग्रोशिमर के निम्नांकित उद्धरण से द्रष्टव्य है। उनके अनुसार:
" कपाल गह्वर में स्थित मस्तिष्क, शरीर में स्वाभाविक तंतु का सबसे बड़ा और सर्वाधिक जटिल पुञ्ज है, और जीवन में 18 या 20 वर्ष में इसका पूर्ण विकास होता है। फिर भी इसे ध्यान में रखना चाहिए कि यद्यपि शारीरिक वृद्धि रुक जाती है, तथापि जब तक हमारे मस्तिष्क का उपयोग होता रहता है तब तक असंख्य स्नायविक मार्ग है, जिन्हें विकसित किया जा सकता है।दूसरे शब्दों में मस्तिष्क के विकास के लिए मानसिक व्यायाम उतना ही महत्व रखता है, जितना सुदृढ़ मांसपेशियों के विकाससार्थ शारीरिक व्यायाम।"
मस्तिष्क  का यह व्यायाम इसीलिए आधुनिक पुरुषों तथा स्त्रियों के लिए, जिनसे यह आशा की जाती है कि वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शारीरिक कुशलता से भी अधिक मानसिक कुशलता प्रदर्शित करेंगे,अधिक महत्वपूर्ण है।योग-विज्ञान के प्रवर्तक जीवन के इस तथ्य को जानते थे और यही कारण है कि उन्होंने मानसिक कुशलता की प्राप्ति के लिए एक पद्धति का विकास किया।
वह पद्धति है राजयोग की धारणा एवं ध्यान का विज्ञान।
राजयोग मानसिक अभ्यास का मार्ग दर्शाता है, उसके नियम बतलाता है, अभ्यास की अवस्थाओं की रूपरेखा प्रस्तुत करता है और इस विज्ञान के शासी सिद्धान्तों का उसी प्रकार विवेचन करता है जैसा कि हमलोगों ने हठयोग के सम्बन्ध में देखा है।
राजयोग में निम्नांकित प्रशिक्षण को तीन अवस्थाओं में विभक्त किया गया है-
1- धारणा (Concentration)
2- ध्यान (Meditation)
3- समाधि (Contemplation)
चूंकि हमारा तात्पर्य केवल प्रथम अवस्था से है, इसलिए हमारे विवेचन की सीमा के अंतर्गत मात्र धारणा के ही कैसे,कब और क्यों आएंगे।
आगे के तथ्यों के विवेचन के पूर्व हम इस बिन्दु पर सुनिश्चित कर ले कि मन की प्रकृति कैसी है।

मन की प्रकृति Nature of mind


मन की प्रकृति ऐसी है कि जब यह सक्रिय रहता है तब सदा अपने को किसी पदार्थ, घटना या विचार से संलग्न करने का प्रयास करता है। इसकी संलग्नता एक खास समय में एक ही पदार्थ में रहती है, चाहे कालावधि छोटी ही क्यों ना हो। यह वन्य जन्तु की भांति एक वस्तु से दूसरी वस्तु पर दौड़ता है, उड़ाने भरता है और छलांगें मारता है। कहा नहीं जा सकता कि यह कब अपने को किस से संलग्न कर लेगा और कितनी देर तक संलग्न रहेगा।
इस प्रक्रिया के घटित परिणाम वैसे ही होते हैं, जैसी उस पदार्थ या वस्तु की, जिससे मन अपने को जोड़ता है, प्रकृति होती है। यह जुड़ान शरीर में सदृश प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि प्रतिक्रिया की प्रकृति वही होती है, जो प्रकृति उस पदार्थ की होती है, जिससे मन अपने को संलग्न करता है। इस प्रकार जब मन किसी ऐसी वस्तु से संलग्न रहता है, जो स्वभावत: व्यक्ति में क्रोध उत्पन्न करे, तो वह उसके शरीर में वे सारी  दशाएं एवं परिवर्तन उत्पन्न करेंगी,जो स्वभावत: क्रोध के कारण उत्पन्न होते हैं। इससे स्पष्ट है कि विभिन्न संलग्नताओं में शरीर का अनुकूलन भी भिन्न होता है; जैसे- प्रेमानुभूति, भय, घृणा, ईर्ष्या, प्रतिशोध आदि में।
मन की प्रकृति के सम्बन्ध में इतना जान लेने के बाद यह प्रश्न उठ सकता है, आधुनिक मनुष्य से इसकी क्या प्रासंगिकता है?
आधुनिक व्यक्ति से इसकी अत्यधिक  प्रासंगिकता है; क्योंकि उसके स्थानीय परिवेश के परिणाम स्वरूप विलक्षणताएं हुआ करती हैं, जैसा कि प्रथम अध्याय के प्रारंभिक भाग में बताया गया है। यदि हम शहरी क्षेत्र के व्यक्ति के जीवन ढांचे की तुलना ग्रामीण और कृषि क्षेत्र के व्यक्ति के जीवन ढांचे से करें तो भिन्नताएं स्पष्ट मालूम होंगी। शहरवासी केवल एक दिन में जितने लोगों के संपर्क में आता है और जिन विभिन्न परिस्थितियों का सामना करता है, एक खेतिहर या किसान उसका सामना एक महीना या उससे अधिक समय में कर पाता है। इसी प्रकार आधुनिक किसान पिछली कई पीढ़ियों के किसानों की अपेक्षा कई गुना अधिक लोगों से मिलता है तथा परिस्थितियों का सामना करता है। इस प्रकार किसी प्रदेश विशेष में घटित सामाजिक एवं परिवेश संबंधी परिवर्तनों पर निर्भरशील होने के कारण आधुनिक व्यक्ति को अनगिनत नई एवं चुनौती देने वाली समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिनमें से अनेक अतीत काल में अज्ञात रही है।
व्यक्ति के समीपस्थ परिवेश की ऐसी स्थिति होने पर उसका मन विभिन्न समस्याओं, घटनाओं, पदार्थों तथा विचारों की ओर आकृष्ट होता है, जिसमें वे सभी उसे पसंद नहीं है या उसके जीवन ढांचे के सामान्य अनुरक्षण के लिए अनुकूल एवं प्रेरक हैं। कभी-कभी यद्यपि वह स्वेच्छा पूर्वक किसी वस्तु की ओर आकृष्ट होता है तथा उस में अंतर्ग्रस्त होता है, किन्तु अन्य समयों में वह फंसाया ही जाता है।तब हमारे पूर्वगामी विवेचन के प्रकाश में सरलता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है व्यक्ति के मन की विविध एवं व्यर्थ संलग्नताओं के कारण उसके शरीर की दशा एक ही दिन में अगणित प्रकार से परिवर्तित होगी। यह व्यर्थ की संलग्नता, स्वभावतया व्यर्थ अनुकूलन को जाग्रत करेगी, जिसके परिणाम स्वरूप एक ओर जहां तनाव, उत्तेजना और आवेश उत्पन्न होंगे, वहीं दूसरी ओर आनन्द एवं पुलक(भावावेश) की सृष्टि होगी।
योग की यह सुदृढ मान्यता है कि जब तक मन के इस ध्यानाकर्षण को नियंत्रित नहीं किया जाता और उसकी ऊर्जा को वांछित लक्ष्य की ओर प्रवाहित नहीं किया जाता, तब तक व्यक्ति द्वारा कोई भी उल्लेखनीय कार्य-सम्पादन नहीं हो सकता। मन को नियंत्रित करने तथा उसे अभीष्ट दिशा में प्रवाहित करने की क्षमता ठीक वही है, जिसे धारणा के प्रशिक्षण द्वारा प्राप्त किया जाता है।

धारणा क्या है? 


यह किसी वस्तु को धारण करने की, मन की क्षमता है। किसी वस्तु को धारण करने का अर्थ क्या है की अन्य वस्तुएं उसके धारण से छांट दी जाती है। इसे दूसरे रूप में कहा जा सकता है कि इस स्थिति में व्यक्ति की इच्छा  के अनुसार उसका मन एकाग्र हो जाता है। यहां वह व्यक्ति ही अपने मन को प्रेरित अथवा निर्देशित करता है। उनको अपनी दिशा में भटकने तथा उड़ भागने की स्वच्छन्दता नहीं दी जाती। जब मन अनियंत्रित रूप से कार्य करता है, तो वहां भी धारणा रहती है, किन्तु वह अनैच्छिक हुआ करती है। जब मन को अभीष्ट बिन्दु पर लगाया जाता है तो वह स्वैच्छिक धारणा होती है।
इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता है की अनैच्छिक धारणा के विपरीत स्वैच्छिक धारणा क्या है?
अनैच्छिक धारणा तो प्रत्येक व्यक्ति की हुआ करती है। अनैच्छिक धारणा, चाहे वह अल्पकालिक हो अथवा दीर्घकालिक,  व्यक्ति की इच्छा तथा संकल्प के अनुरूप नहीं हुआ करती, बल्कि वह व्यक्ति की इच्छाओं के विपरीत होती है। उसने अपने मन को तात्कालिक हित से सम्बद्ध किसी वस्तु पर केंद्रित रखना चाहा था, किन्तु उसका मन किसी अन्य वस्तु पर फांदकर चला गया। इस स्थिति में व्यक्ति असहाय हो जाता है: क्योंकि मन की उड़ान को रोक सकना उसकी क्षमता से परे है। यद्यपि मन द्वारा किसी अन्य वस्तु का धारण, अल्पकाल के लिए ही सही, धारणा के कारण ही होता है, फिर भी वह धारणा अनैच्छिक हुआ करती है।
किन्तु व्यक्ति जब अपने को किसी अभीष्ट वस्तु पर लगाने और उससे संलग्न रखने में समर्थ हो जाता है, तो योग विज्ञान के वास्तविक अर्थ मे वह धारणा शक्ति को प्राप्त कर लेता है। और यही स्वैच्छिक धारणा है।
यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि व्यक्ति धारणा स्वैच्छिक हो या अनैच्छिक- इसमें क्या फर्क पड़ता है?
वस्तुतः इस में महान अंतर है, जैसा कि निम्नांकित उदाहरणों से देखा जा सकता है। वह व्यक्ति, जिसमें धारणा शक्ति है, अधिक कार्य संपादन करता है, अपने समय की बचत करता है, अपनी भाभी योजना के प्रति सुनिश्चित होता है, अधिकांश समय आराम में रहता है, अपने मन एवं शरीर की प्राकृतिक स्थिति को बनाए रखता है, चैन में रहता है तथा अवांछित विचारों में अपने को नहीं उलझाता।
दूसरी ओर, वह व्यक्ति, जिसमें धारणा शक्ति का अभाव है, उस वस्तु को प्राप्त करने में विफल रहता है, जिसे वह प्राप्त करना चाहता था, और वह अपने मन की व्यर्थ संलग्नताओं का शिकार बन जाता है,, जो उसके स्वास्थ्य, सुख, निद्रा, विश्राम एवं दैनिक जीवन की सामान्य पद्धति को प्रभावित करती तथा इसमें बाधा डालती है।
यहां यह बताना आवश्यक है कि किसी व्यक्ति को गलतफहमी में पड़कर यह नहीं सोचना चाहिए कि पुरुष या स्त्री को सुखी जीवन बिताने के लिए आवश्यक इस धारणा शक्ति की प्राप्ति ही सब कुछ है। जीवन रक्षा की दृष्टि से जीवन के बहुत से महत्वपूर्ण पक्ष है, जिनका ज्ञान और अभ्यास, कर्मयोग तथा राजयोग के अनुसार, व्यक्ति के विलक्षण प्राणी बनने के लिए अनिवार्य है। किन्तु साथ ही साथ इस पर भी बल देने की आवश्यकता है कि इस धारणा शक्ति की प्राप्ति वस्तुतः सुखी जीवनरूपी खजाने की कुंजी की प्राप्ति है।

धारणा की प्राप्ति कैसे हो?


धारणा शक्ति की प्राप्ति के कई तरीके हैं। यह दावा करना दम्भपूर्ण होगा कि कोई व्यक्ति केवल योग की पद्धति से ही इसे प्राप्त कर सकता है। अतीत तथा वर्तमान काल के अगणित महापुरुषों ने, जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र विशेष में चमत्कार उत्पन्न कर दिया है, तथा प्रभूत धारणा शक्ति का प्रदर्शन किया है, न तो योगाभ्यास किया और ना इसे प्राप्त करने के योगिक मार्ग का अनुसरण ही किया। फिर भी उनकी धारणा शक्ति अतीत एवं वर्तमान काल के जीवन भर योगाभ्यास करने वालों की अपेक्षा बढ़-चढ़कर थी। किन्तु प्रश्न यह है कि यदि कुछ लोग कोई अनोखी शक्ति प्राप्त कर सके थे, तो क्या अन्य लोग भी उसे प्राप्त कर सकते हैं?
इन महापुरुषों ने अपनी धारणा शक्ति को प्रयत्न और भूल द्वारा, कठिन संयम द्वारा, दृढ़ संकल्प द्वारा तथा कुशलता की उपलब्धि के लिए लगन अथवा अन्य प्रेरणाओं द्वारा परिवर्द्धित या विकसित किया होगा। स्वभावत: तब धारणा के उसी स्तर को प्राप्त करने का इच्छुक कोई भी व्यक्ति उसे प्राप्त कर सकता है, यदि वह उचित प्रयास करे। किंतु यादृच्छिक रूप से किए गए प्रयास का परिणाम संतोषप्रद हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता है। दूसरी ओर, योग की सिद्ध, परीक्षित तथा ज्ञात पद्धति है, जो हर किसी को निश्चिता के आश्वासन के साथ वही परिणाम प्रदान करती है।
इस प्रसंग में दृष्टव्य है कि आधुनिक काल में सभी पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए योग सर्वाधिक मूल्यवान एवं स्पृहणीय है।
योग में धारणा शक्ति प्राप्त करने की कई विधियां हैं। कुछ विधियां सरल और आसान है, किंतु अन्य कठिन तथा जटिल हैं, यद्यपि इन सब का एक ही परिणाम होता है। कठिन तथा जटिल विधियों का अभ्यास किसी अनुभवी योग शिक्षक की उपस्थिति में ही किया जाना चाहिए। यदि व्यक्ति स्वयं इनका अभ्यास करता है, तो इसमें गलतियां होने, यहां तक की हानि होने की भी संभावना अधिक रहती है। इसे ध्यान में रखते हुए, केवल आसान, किन्तु समान रूप से महत्वपूर्ण विधि की सिफारिश की जाती है, ताकि कोई भी व्यक्ति बिना किसी भय के तथा बिना किसी योग शिक्षक की व्यक्तिगत सहायता लिए उसका अभ्यास कर सके।
उस विधि का वर्णन करने से पूर्व यह बतलाना आवश्यक प्रतीत होता है कि हठयोग के आसनों द्वारा भी किस प्रकार यह धारणा शक्ति प्राप्त की जाती है। यद्यपि आसनों का सम्बन्ध मुख्यतः शारीरिक उत्कृष्टता से है, तथापि मानसिक पक्ष भी अप्रभावित नहीं रहता। किसी भी आसन के अभ्यास की विधि ऐसी होती है कि जब तक शरीर तथा मन का सामन्जस्य नहीं होगा तब तक उसे संतोष पूर्वक संपन्न नहीं किया जा सकता।
इस अवस्था में यह ज्ञातव्य है कि विभिन्न आसनों के अभ्यास में शारीरिक गतिविधियों तथा अनुकूलनों के साथ-साथ श्वास लेने, श्वास छोड़ने, उसे रोक रखने तथा स्वाभाविक श्वास-क्रिया की आवश्यकता होती है। जब तक ये आवश्यकताएं पूरी नहीं हो जाती, तब तक किसी आसन का अभ्यास सम्यकरूपेण सम्पन्न नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में यह आसानी से समझ में आ सकता है कि अभ्यास की प्रकृति ऐसी होती है किस शरीर और मन के बीच सहयोग तथा सामंजस्य के अभाव में पूर्णता के उपलब्ध नहीं होती। अतः आसनों के अभाव के क्रम में मन का ध्यानस्थ एवं समन्वित होना स्वभावत: धारणा-शक्ति की प्राप्ति में सहायक बन जाता है। इसे योगासनों का परोक्ष लाभ माना जाता है, यद्यपि यह पूर्ण धारणा की ओर प्रवृत्त नहीं करता। चूंकि पूर्ण धारणा शक्ति की प्राप्ति हमारा लक्ष्य है, इसलिए एक विशेष यौगिक विधि, जो खासकर इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए है, आवश्यक हो जाती है।

अभ्यास के लिए अनिवार्यताएं


धारणा शक्ति के वास्तविक अभ्यास के पूर्व कुछ अनिवार्यताएं हैं, जिनका अनुसरण किया जाना चाहिए। वे अनिवार्यताएं स्थान, समय, शारीरिक दशा, भोजन या खाद्य पदार्थ और अभ्यास की प्रविधि-विषयक है।

स्थान- अभ्यास का स्थान साफ सुथरा तथा शांतिपूर्ण होना चाहिए। वह स्वच्छ वायु सुलभ होनी चाहिए। आवश्यक नहीं कि अभ्यास का स्थान किसी विशेष प्रकार का हो, किंतु वह अभ्यासी की आंखों के लिए सुखकर अवश्य होना चाहिए। नियमित रूप से एक ही स्थान पर अभ्यास करें, और अत्यंत आवश्यक होने पर ही स्थान परिवर्तन करें। यदि संभव हो, तो अकेले ही अभ्यास करें। किसी दर्शक को वहाँ न आने दे।

समय- आप अपनी सुविधानुसार कोई भी समय चुन लें। इसका अभिप्राय यह है कि आपके अभ्यास का समय ऐसा हो कि उस समय कम से कम शारीरिक और मानसिक सक्रियता की आवश्यकता पड़े। यह समय आपकी नियमित दिनचर्या के कार्यकाल के पूर्व या पश्चात हो सकता है। प्रतिदिन उसी समय अभ्यास किया करें। यदि कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण आप प्रतिदिन अभ्यास नहीं कर सकते हो, तो सप्ताह में कम से कम 5 दिन करें। 24 घंटों में केवल एक बार ही अभ्यास करें। वे लोग, जो योगासनों का अभ्यास करते हैं, उसी समय धारणा का अभ्यास कर सकते हैं। ऐसी अवस्था में अभ्यासी को धारणा का अभ्यास करने के पूर्व आसनों के अभ्यास में लगे समय के चतुर्थांश तक विश्राम अवश्य कर लेना चाहिए। उदाहरणार्थ यदि आप 40 मिनट तक आसनों का अभ्यास करते हो तो 10 मिनट का विश्राम ले लें। तत्पश्चात धारणा का अभ्यास करें।

शारीरिक दशा- अभ्यास के समय आपका शरीर हल्का, अक्लान्त, स्वच्छ और सामान्य होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि दांत और मुंह की सफाई, चेहरा, हाथ और पैरों का प्रक्षालन, साफ तथा हल्के वस्त्र पहनना, हल्का भोजन करना, तथा किसी भी मादक द्रव्य के प्रभाव से मुक्त रहना आवश्यक है। शरीर क्लांत या थका-मांदा न हो, और ना कोई अत्यधिक शारीरिक पीड़ा ही हो। अभ्यास के समय आपका पेट खाली रहे, इसलिए अभ्यास के समय से 2 घंटे पूर्व भोजन अवश्य कर ले अथवा अभ्यास के बाद करें।

मानसिक दशा- अभ्यास के समय मन को चिंता, उद्वेग तथा किसी श्रम साध्य अंतर्ग्रस्तता से मुक्त रखें। ईर्ष्या, घृणा, क्रोध तथा प्रतिशोध की भावना का परित्याग किया जाना चाहिए। यदि दूसरों को हानि पहुंचाने की भावना आपके मन में उत्पन्न होती है, तो आप विचार करें कि दूसरों को क्षति पहुंचाए बिना आप अपने को अच्छा बना सकते हैं। अपने भरसक मन पर किसी प्रकार का बोझ या दबाव ना आने दे।

भोजन- निरामिष या सामिप, जो भी आहार आपको पसंद हो, आप लें। किन्तु एक बात का ध्यान रखें कि वह तामसिक अर्थात उत्तेजक पदार्थ न हो। भोजन में अधिक मसालों का प्रयोग ना करें। संतुलित आहार ग्रहण करें, जिसका अर्थ है कि आपके प्रतिदिन के भोजन में सलाद, ताजा फल तथा सब्जियां शामिल रहे। अपनी क्षमता का 85% ही एक समय में खाएं तथा धीरे-धीरे खाएं। अधिक काफी, चाय, शराब तथा औषधियों का सेवन नहीं करें। 1 दिन में 2 कप से अधिक चाय या काफी और 2 बार से अधिक अल्कोहल युक्त पेय अधिक हो जाता है। औषधियों की कौन सी मात्रा अधिक हो जाएगी, इसका निर्णय आप स्वयं करें। यह बहुत अच्छी बात होगी, यदि आप नियमित रूप से शराब तथा औषधियों का सेवन ना करें। आपके जीवन में भोजन संबंधी यह पाबन्दी रखी जानी चाहिए। फिर भी, जब आधुनिक प्रीतिभोज एवं सामाजिक गोष्ठियों के अवसर आएं, तो आप उन पाबन्दियों की तनिक भी परवाह किए बिना उनका पूरा आनंद उठाएं। किन्तु याद रखें, योग का अर्थ साम्यावस्था या संतुलन का विज्ञान है। जब आपका जीवन संतुलन के इस सिद्धांत से शासित होगा, तब आप इस विज्ञान के रहस्य को जान लेंगे।

अभ्यास की विधि- यह दृढ़ता पूर्वक राय दी जाती है कि सर्वप्रथम अभ्यास की संपूर्ण विधि को कृपया पढ़ लें। पहली बार पढ़ते समय अभ्यास प्रारंभ करने का प्रयास ना करें। अभ्यास की विधियों के बारे में जब पहली बार पढ़ना पूरा हो जाए और सब कुछ पूरी तरह समझ में आ जाए, तभी वास्तविक अभ्यास प्रारंभ करें। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, धारणा के अभ्यास की अनेक विधियां हैं। किंतु उन सब में जो सर्वमान्य है, वह है किसी वस्तु पर अपने मन को केंद्रित या स्थिर करना।
स्थिरता का अभ्यास व्यक्ति- पुरुष अथवा स्त्री- के शरीर के आंतरिक या बाह्य भाग पर किया जा सकता है, किसी अन्य वस्तु पर भी। व्यक्ति के शरीर के आंतरिक या वाह्य भाग के साथ अभ्यास जटिल, कठिन तथा खतरनाक भी हो सकता है। किन्तु किसी चुनी हुई वस्तु के साथ अभ्यास अपेक्षाकृत सरल, खतरों से लाइट तथा अत्यधिक फलदायक होता है। और इस प्रकार यह आधुनिक पुरुष तथा स्त्रियों के लिए अधिक वांछनीय है।
वस्तु किस प्रकार की हो?
यद्यपि वस्तु का चयन व्यक्ति की अपनी पसंद पर निर्भर है, फिर भी इस संबंध में कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं। यौगिक अभ्यासों में सामान्यत: फूल, दीप या मोमबत्ती, मूर्ति, फोटो तथा चित्र का प्रयोग किया जाता है। हम दीप या मोमबत्ती के साथ अभ्यास की अनुशंसा नहीं करते हैं; क्योंकि इससे आंखों की ज्योति को क्षति पहुंचने का खतरा रहता है, और यदि अभ्यास में सावधानी नहीं बरती जाएगी।
तो इससे आत्मविक्षति तथा अग्निकांड का खतरा भी उपस्थित हो सकता है। उल्लिखित अन्य वस्तुओं में फूल के साथ अभ्यास की अनुशंसा की जाती है; क्योंकि अभ्यास की पारंपरिक अवस्था में यह किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे अधिक सरल एवं सर्वोत्तम है।

वस्तु का चुनाव- जिस फूल को आप सबसे अधिक पसंद करते हैं, उसे चुन ले। प्रारंभ में आपको केवल एक ही फूल की आवश्यकता पड़ेगी।अतएव, फूल का आकार अपेक्षाकृत बड़ा तथा उसका रंग चमकीला हो, जैसे कि गुलाब, गेंदा, सूरजमुखी या इस प्रकार के अन्य फूल। यदि प्राकृतिक फूल सुलभ नहीं हो या अधिक मूल्यवान हो तो कोई कृत्रिम फूल खरीद ले, जो किसी भी स्थान में सुलभ हो सकता है। जब प्राकृतिक फूल मुरझाने लगेगा तब उसे बदल देना पड़ेगा, किन्तु कृत्रिम फूल का व्यवहार असीम कालावधि तक किया जा सकता है। किंतु यदि आप कृत्रिम फूल का व्यवहार कर रहे हो, तो उसे साफ रखने के लिए समय-समय पर धो लिया करें।

वस्तु की व्यवस्था- पहले डंठल सहित फूल को अक्षुण्ण रूप में किसी छोटे पात्र जैसे कि गिलास फूलदान या इस प्रकार के अन्य पात्र में रख दें। प्राकृतिक फूल को ताजा बनाए रखने के लिए उस पात्र में थोड़ा जल डाल दें। पात्र में फूल की स्थिति टेढ़ी नहीं बल्कि सीधी होनी चाहिए। उसी फूल की या अन्य फूलों के पत्तियों के व्यवहार से फूल की यह व्यवस्था की जा सकती है। इस बात का ध्यान रखा जाए कि फूल स्पष्टत: पत्तियों से ऊपर उठा रहे।
वस्तु को रखना- इस व्यवस्थित फूल को किसी छोटे आकार के घरेलू उपस्कर,जैसे स्टूल, चौकी या साइड टेबल पर रख दें।
अब ऊंचाई पर विचार करें। फूलदान इस प्रकार रखा जाना चाहिए कि फूल के शीर्ष की ऊंचाई वही हो जो भूमि पर बैठने की स्थिति में नेत्र दृष्टि की ऊंचाई रहे। व्यक्ति की ऊंचाई के अनुसार इस ऊंचाई में भिन्नता हो सकती है, सामान्यत: यह कहा जा सकता है कि यह ऊंचाई लगभग ढाई फुट होनी चाहिए। इसके बाद अभ्यास करने वाले की बैठने की स्थिति और फूल के बीच की दूरी का विचार आता है। अभ्यास करने की वस्तु तथा अभ्यासी के बीच की दूरी लगभग 4 से 5 फुट तक होनी चाहिए। वस्तु पर यथेष्ट प्रकाश पड़ना चाहिए।

दृष्टि-शक्ति का ज्ञान- वास्तविक अभ्यास के विवेचन के पूर्व मन की दृष्टि शक्ति के  विषय में कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक है। ताकि इस विधि का पूर्ण ज्ञान हो जाए। योग के अनुसार हमें दो प्रकार की दृष्टि शक्ति प्राप्त है।
पहली आंखों की शक्ति द्वारा और दूसरी अन्त:चक्षु द्वारा।
योगियों का विश्वास है कि हम सबको अन्त:चक्षु प्राप्त है; जिस की स्थिति अग्र-ललाट में अर्थात भौहों के मध्य क्षेत्र में है। अभ्यास द्वारा अन्त:चक्षु की इस गुप्त दृष्टि शक्ति को विकसित किया जा सकता है। जब अभ्यास द्वारा अन्त:चक्षु की शक्ति विकसित तथा तीक्ष्ण हो जाती है तभी होगी उन चीजों को भी देखने का दावा करते हैं, जिन्हें बाह्य चक्षु से देख पाना संभव नहीं है। जहां बाह्य चक्षुओं से केवल बाह्य रूप से वस्तुएं दृष्टिगोचर हो सकती हैं, हाँ अन्तःचक्षुओं से प्रत्यक्षतः अदृष्टपूर्व सुदूरवर्ती वस्तुएं भी दृष्टिगत हो सकती हैं। धार्मिक विश्वास एवं मूल्यों को मान्यता प्रदान करने वाले योगी अपने आराध्य देवों के साकार रूप को दर्शनार्थ अपने अन्त:चक्षुओं की इस शक्ति की वृद्धि में अपना बहुत अधिक समय लगाते हैं। क्योंकि हमारा उद्देश्य किसी देवी देवता की आराधना अथवा दर्शन करना नहीं है, इसलिए हम इस शक्ति का केवल सीमित उपयोग करेंगे। प्रासंगिकता की दृष्टि से यह सीमा स्वेच्छा से गृहीत है। धारणा के आवश्यक पहलू के अभ्यास की उपयोगिता समझकर ही हम इसके अनावश्यक पहलुओं का यहां परित्याग कर रहे हैं। अंतर्दृष्टि शक्ति में हमारी अभिरुचि उसी बिंदु तक है, जहां तक इसके कार्य एवं प्रकृति की जानकारी, इसके उपयुक्त तथा लाभकारी विकास में सहायक है। उपर्युक्त स्पष्टीकरण की सार्थकता तभी सरलता से समझ में आएगी जब आप वास्तविक अभ्यास प्रारंभ करेंगे। जवाब किसी चीज को खुली आंखों से देखते हैं, और फिर आप उसी चीज को अन्तःचक्षु से देखने का प्रयास करते हैं, तो ऐसा करके आप धारणा का अभ्यास प्रारंभ कर देते हैं।अन्तः चक्षु द्वारा दृष्टिगोचरता में जैसे प्रगति होगी, उसी के अनुपात में धारणा की उपलब्धि में भी प्रगति होगी। इस प्रकार अभ्यास की दीर्घता एवं अवधि इस पर निर्भर करेगी कि व्यक्ति विशेष की रुचि तथा आवश्यकता क्या है।

प्रथम अवस्था- पैरों को मोड़कर बैठ जाएं। यदि आप पद्मासन कर सकते हो तो पद्मासन में बैठ जाएं। यदि नहीं, तो इस प्रकार बैठे कि आपके पैर बगल से मुड़े हो ताकि शरीर का भार भूमि पर रहे, न कि पैरों पर। हाथों को घुटनों पर रखें। फूल से चार-पांच फुट की दूरी पर उसकी ओर मुंह करके बैठ जाएं। अब अपने शरीर को सीधा करें। सीधी तन कर बैठ जाए ताकि आपकी छाती गर्दन और सिर एक सीध में हो जाएं। वक्र रूप से नहीं बैठे। इस बिंदु पर आप पैरों की स्थिति पर ध्यान दिए बिना मेरुदण्डीय रज्जु( सुषुम्णा), गर्दन और सिर के सीधेपन पर अपना संपूर्ण ध्यान दें। अपने पैरों को आराम से जहां रखना चाहे रखें। अपने हाथों को दोनों घुटनों पर या जांघों पर रखें।
टिप्पणी- इस प्रकार बैठना, उन लोगों के लिए कुछ कठिन एवं कष्टकर हो सकता है, जिन्हें फर्श पर बैठने का अभ्यास नहीं है। अतएव यह सुझाव दिया जाता है कि इस आधार पर हतोत्साहित होने की आवश्यकता नहीं है। अभ्यासियों को यह देखकर आश्चर्य होगा कि केवल कुछ सप्ताहों के अभ्यास के पश्चात बैठने में जो कठिनाई हो रही थी वह दूर हो चुकी है।

द्वितीय अवस्था- अब आप निम्नांकित विधि के अनुसार गहरी सांस लेने जा रहे हैं।
जब आप फूल की ओर देख रहे हो अथवा आंखें बंद किए हो, शरीर को सीधा रखते हुए पूरी वायु को दोनों नासिका छिद्रों द्वारा धीरे-धीरे तथा लगातार बाहर निकाल दें। जब स्वास्थ्य वायु का बाहर निकलना समाप्त हो जाए, एक सेकेंड के लिए रुक जाएं और उसके बाद दोनों नासिका छिद्रों से धीरे-धीरे तथा लगातार सांस लेना प्रारंभ करें। जब सांस लेना समाप्त हो जाए, पुनःएक सेकंड तक रुक जाएं, और तब पहले की भांति सांस छोड़ना शुरू करें,तथा जब यह समाप्त हो जाए, पुनः रुक जाएं। अभ्यास के पहले दिन सांस लेने तथा सांस छोड़ने की यह क्रिया केवल 5 बार करें। इस क्रिया को उत्तरोत्तर एक सप्ताह में 10 बार तक तथा एक महीने में 15 बार तक बढ़ाएं। 15 बार से अधिक कदापि न करें। यदि एक समय में आप सांस लेने तथा छोड़ने की क्रिया केवल 10 बार कर लेते हैं, तो यह पर्याप्त होगा।
सांस लेने तथा सांस छोड़ने की इस क्रिया से मुख्यतः पेट से संबंधित क्षेत्र प्रभावित होना चाहिए। जब आप सांस छोड़ रहे हो, तब पेट की मांसपेशियों को सिकुड़ना चाहिए। दूसरे शब्दों में, जब आप सांस छोड़ रहे हो, तब आपको अपने पेट का मेरुदण्डिय रज्जु (सुषुम्णा) की और भीतर ले जाना चाहिए। जब आप सांस ले रहे हो तो पेट की मांसपेशियों को फैलना चाहिए। दूसरे शब्दों में, भीतर सांस लेते समय पेट को आगे की ओर आ जाना चाहिए। पेट की मांसपेशियों के सिकुड़ने और फैलने की क्रिया लयबद्ध रूप से होनी चाहिए।
जब सांस लेने और छोड़ने की क्रिया चल रही हो तब इसकी लयात्मकता को विकसित करने का एक मार्ग यह है फूल की गंध तथा वायु की शुद्धता की अनुभूति एवं कल्पना की जाए।
उदाहरणार्थ, जब आप सांस छोड़ रहे हो, तब ऐसा अनुभव करें कि आपके शरीर से सारी गंदगी बाहर निकल रही है। और जब आप सांस खींच रहे हो, तब ऐसा अनुभव करें कि स्वच्छ एवं सुगंधित वायु आपके संपूर्ण शरीर में शक्ति का संचार कर रही है, उसे पुष्ट तथा समृद्ध बना रही है। गंदगी या अशुद्धताओं को बाहर निकालने तथा शक्ति प्राप्त करने की यह आरोपित अनुभूति स्वभावतया बहुत शीघ्र गहरी सांस क्रिया को प्रणालीबद्ध कर देगी। और जिसे हम लयबद्धता कहते हैं, वह प्रणालीबद्ध सांस क्रिया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

विश्राम- लयबद्ध श्वास क्रिया के इज्जत चक्र पूरा करने के बाद कुछ मिनट तक विश्राम करें। सांस क्रिया में आप जितना समय लगाते हैं, उसका लगभग चतुर्थांश समय विश्राम का होना चाहिए।
यदि आपने चार मिनट तक सांस क्रिया की है, तो आपके विश्राम का समय एक मिनट होना चाहिए। इस विश्राम में आप लेट न जाए। परंतु जब आप अपने शरीर की मांसपेशियों को ढीला कर रहे हो, तब अपने को बैठने की स्थिति में रखें। दूसरे शब्दों में, आरामदेह तथा सुख पूर्वक अवस्था में हो जाए।
विश्राम करते समय सामान्य एवं स्वाभाविक रीति से सांस लेते और छोड़ते रहें। अर्थात आपकी श्वास क्रिया स्वाभाविक हो। विश्राम की अवधि समाप्त होने के बाद वस्तु के साथ आपका वास्तविक अभ्यास प्रारंभ होगा। किंतु अंतिम अवस्था की प्रविधि का वर्णन करने से पूर्व मैं इस लयबद्ध सांस क्रिया के महत्व के संबंध में कुछ शब्द कहना चाहूंगा।

लयबद्ध श्वास क्रिया का महत्व- राजयोग के अनुसार यह लयबद्ध श्वास क्रिया संपूर्ण शारीरिक प्रणाली में सामन्जस्य ला देती है। यह श्वास क्रिया जहां एक ओर स्नायु तंत्र को सक्रिय एवं सशक्त बनाती है, उसी के साथ यह संपूर्ण शारीरिक प्रणाली या तंत्र को सुख पहुंचाती है, शांति देती और सुव्यवस्थित भी करती हैं। इस लयबद्ध श्वास क्रिया के पूर्ण प्रभाव का अनुभव करने के लिए अभ्यासी को, जैसा कि पहले चर्चा की गई है, युक्त समय तक अवश्य विश्राम करना चाहिए। इस विश्राम के संबंध में चर्चा करते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा है- "एक बार जब यह विश्राम मिलता है, तो अत्यधिक थकी हुई स्नायुएं शांत हो जाती है और आपको लगेगा, मानो आपने इससे पहले वस्तुतः कभी विश्राम नहीं किया था।"
राजयोग में इस लयबद्ध श्वास क्रिया की भूरि भूरि प्रशंसा की गई हैं; क्योंकि नियमित रूप से अभ्यास करने वालों को यह अनेक शारीरिक एवं मानसिक लाभ पहुंचाती है। इस विश्वास क्रिया की विलक्षणता को अभिव्यक्त करने के लिए मैं स्वामी विवेकानंद की पुस्तक "राजयोग" की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा। उनके अनुसार-" इस अभ्यास का प्रथम प्रभाव किसी व्यक्ति की मुखाकृति के परिवर्तन में दृष्टिगोचर होता है। रुक्ष रेखाएं लुप्त हो जाती है, शांत विचार के साथ मुख मंडल पर शांति छा जाती है। इसके बाद आवाज में मधुरता आती है। मैंने किसी ऐसे योगी को कभी नहीं देखा, जिसकी आवाज कर्कश रही हो। ये लक्षण कुछ महीनों के अभ्यास के पश्चात प्रकट होते हैं।

अंतिम अवस्था- इसे सुनिश्चित करने के लिए कि आप सीधा बैठे हुए हैं, अपने शरीर की पुनः जांच कर ले। अब पहले बाएं हाथ को गोद में रखें, उसके बाद दाहिने हाथ को बाई तलहत्थी पर रखें। उन्हें ढीला रहने दे। अब सामान्य रूप से सांस लेते और छोड़ते रहे। सर्वप्रथम अपनी आंखों को धीरे धीरे और नरमी से बंद कर ले। दस सेकंड तक इन्हें बंद रखें। इसके बाद क्रमिक रूप से( धीरे धीरे) अपनी आंखों को खोलें। जब यह पूरी तरह खुल जाए, तब इन्हें 6 से 8 सेकंड तक खुली रखें। आंखों को बंद करने और खोलने की क्रिया को तीन से पांच बार तक करें। ध्यान रहे आंखों का खोलना और बंद करना क्रमिक रूप से हो। प्रारंभिक अवस्था में, इस प्रकार आंखों के  खोलने और बंद करने से आपकी आंखों में आंसू आ सकते हैं। आंखों में हल्की पीड़ा भी महसूस हो सकती है। इसीलिए आपको क्रमिक रूप से अपनी क्रिया जारी रखनी होगी। आप देखेंगे कि कुछ ही दिनों के अभ्यास से आंखों से पानी निकलना तथा अन्य तकलीफें दूर हो गई हैं।
अब फूल की पंखुड़ियों की ओर देखें। लगभग दस सेकंड तक देखना जारी रखिए। किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव होने पर देखने के समय में कमी कर दे यानी अपेक्षाकृत कम समय तक देखें। किंतु, आंखें झपकाने या पलक मारने का प्रयास कदापि नहीं करें। अब आपने दस सेकंड तक फूल को देख लिया है तब आप अपनी आंखों को धीरे धीरे नरमी से बंद कर लें और फूल की आकृति को अपने मन में देखने का प्रयास करें। जब आप अपने मन में फूल के स्वरूप और आकृति को लाने का प्रयास कर रहे हो, तब लगभग दस सेकंड तक अपनी आंखों को बंद रखें। केवल दस सेकंड तक आंखों को बंद रखने के बाद उन्हें नरमी से धीरे-धीरे खोलें और पुनः दस सेकंड तक फूल की ओर देखें। इस प्रकार देखने, बंद कर ले और देखने की इस प्रक्रिया को दोहराएं। अर्थात आंखों से देखना, आंखें बंद कर लेना और तब अंतश्चक्षुओं या भीतरी आंखों से देखना। पहले सप्ताह में इस प्रक्रिया को एक सत्र में केवल पांच बार दोहराए। इसे उत्तरोत्तर दस बार तक विकसित करें और तब 15 बार तक करें जो अंतिम सीमा होगी।

यहां समय या बार का अर्थ चक्र(Round) से है। दस बार का अर्थ है- दस चक्र। केवल एक सत्र में दस चक्र का अभ्यास कर लेते हैं तो यह पर्याप्त होगा। किंतु किसी भी स्थिति में एक सत्र में पन्द्रह बार से अधिक अभ्यास नहीं करें।
जब अभ्यास समाप्त हो जाए, तब भी स्थिरता पूर्वक शांत हो बैठे ही रहे। किंतु अब, शरीर को ढीला करें और 2 मिनट तक शिथिलन या विश्राम लेने की स्थिति में बैठे हैं। जब आप यह कर लेते हैं, तब धारणा का आपका अभ्यास पूर्ण एवं समाप्त हो जाता है। सत्र की समाप्ति के पश्चात आप भोजन करने, सोने या अन्य कोई काम करने के लिए स्वतंत्र है।

कुछ सुझाव

ऐसा सुझाव दिया जाता है कि लगभग एक महीने तक केवल एक ही फूल से अभ्यास करने के बाद, यदि आप चाहे तो  फूलदान में और फूल रख सकते हैं, यद्यपि फूलों की संख्या वृद्धि आवश्यक नहीं है।
यह भी राय दी जाती है कि फूलों के साथ दो महीने के अभ्यास के पश्चात आप वस्तु को बदल दे सकते हैं। तब आप अपनी पसंद के किसी छायाचित्र( फोटो), मूर्ति या चित्र से अभ्यास कर सकते हैं। आप का एकमात्र विचार वस्तुओं के आकार( साइज), रंग और प्रकार के संबंध में होना चाहिए। वे मध्यम आकार, चमकीले रंग की और सुखकर तथा आनंददायक हों किंतु रोमांचकारी कदापि न हो।

चेतावनी

धारणा का अभ्यास करने वालों को निम्नांकित चेतावनियों को अवश्य पढ़ लेना चाहिए और अभ्यास  के समय इनका ध्यान रखना चाहिए। किसी अन्य विज्ञान की भांति, राजयोग के नियमों का अनुसरण अप्रत्याशित परिणामों से बचने के लिए सावधानी से किया जाना चाहिए।
वे चेतावनियां निम्नांकित है
प्रथम चेतावनी समय की सीमा के संबंध में है। धारणा के अभ्यास में लगाया जाने वाला कुल समय बीस मिनट से अधिक नहीं होना चाहिए। इसी में श्वास क्रिया, विश्राम, अभ्यास और अंतिम विश्राम सम्मिलित है। जब तक शिक्षक व्यक्तिगत रूप से अभ्यास का निर्देशन नहीं करते हैं, अभ्यासियों को चौबीस घंटे की अवधि में अपने अभ्यास की सीमा केवल पन्द्रह से बीस मिनट के भीतर रखनी चाहिए।
कुछ बचाव के उद्देश्य से समय पर लगाई गई यह सीमा आवश्यक है। उनमें एक यह है कि कुछ अभ्यासकर्ता अभ्यास के क्रम में अंत:चक्षुओं के समक्ष कौंध जाने वाली विलक्षण प्रतिमाओं से मुग्ध हो सकते हैं। इस मोहकता पर यदि रोक नहीं लगाई जाती है, तो यह अभ्यास कर्ता को समय के दुरुपयोग की दिशा में गुमराह कर सकती है। दूसरे, यदि अभ्यासकर्ता पुलक एवं मोहकता की उपलब्धि के लिए अपना अभ्यास अधिक समय तक जारी रखता है, तो वह न केवल अपने इच्छित लक्ष्य से मार्गच्युत होता है, बल्कि वह अपने को कुछ उन अज्ञात परिणामों की ओर ले जाता है, जो उसके कार्यों, विचारों, कार्य संपादनों और व्यवहार पर बुरा प्रभाव डाल सकते हैं।अतएव, समय की सीमा अभ्यासकर्ता को सदा अभ्यास  के सुरक्षित पक्ष की ओर रखेगी, जहां कभी अवांछित परिणामों का अनुभव एवं आभास नहीं हो पाएगा।
दूसरी चेतावनी धारणा के अभ्यास में जलते हुए दीप या किसी अन्य दाहक पदार्थ के प्रयोग के संबंध में है। अपने अभ्यास में इन आपत्तिजनक पदार्थों का बहिष्कार करें। इसके कारणों का उल्लेख पहले किया जा चुका है।

अभ्यास के क्रम में होने वाली कुछ कठिनाइयां

आपके अभ्यास के सिलसिले में कुछ समस्याएं एवं कठिनाइयां अप्रत्याशित रूप से उपस्थित हो सकती हैं, जिनके संबंध में स्पष्टीकरण आवश्यक है। यद्यपि शिक्षण एवं अभ्यास के अनुभवों के आधार पर सभी कठिनाइयों का पूर्वानुमान संभव नहीं है, फिर भी साधारणत: अनुभूत कुछ कठिनाइयों का विवेचन, उनसे सम्बद्ध स्पष्टीकरण के साथ  किया जा रहा है वे यह है-

समस्या संख्या 1- जब अभ्यासकर्ता अपने अंत:चक्षु द्वारा धारणा की इच्छित वस्तु को देखने का प्रयास करता है, तब वह उस वस्तु को देखने में बिल्कुल असमर्थ होता है। सब शून्य ही शून्य रहता है। कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता।

स्पष्टीकरण- यह अस्वाभाविक नहीं है। प्रारंभिक अवस्था में यह एक स्वाभाविक दशा है। यद्यपि सभी अभ्यासकर्ताओं की यह स्थिति नहीं भी हो सकती है, फिर भी जिनके साथ यह कठिनाई हो, उन्हें निश्चिंत रहना चाहिए; क्योंकि कुछ सप्ताहों के अभ्यास के क्रम में उनकी स्थिति सुधर जाएगी और वे उत्तरोत्तर अपने अंतश्चक्षु से वस्तु को देखने में समर्थ होंगे।

समस्या संख्या 2- अभ्यास के क्रम में जब अभ्यासकर्ता अपने अंत:चक्षु द्वारा वस्तु को देखने का प्रयास करता है, तब इच्छित वस्तु की जगह उसे कोई दूसरी ही चीज दिखलाई पड़ सकती है। यदि कोई दूसरी चीज, अस्थिर तथा रंगीन प्रकाश, विभिन्न वस्तुएं, पशु, पक्षी तथा अन्य इसी प्रकार की असंख्य चीजें हो सकती हैं। अक्सर यह पहचानने योग्य रूप में आती हैं, किंतु कभी-कभी ये ऐसे रूपों एवं आकारों में आती है की पहचानने योग्य नहीं रहती। अप्रत्याशित रूप से उभर आने वाली यह विलक्षण प्रतिमाएं, अभ्यास प्रारंभ करने वालों के लिए दुविधा एवं परेशानी में डालने वाली हो सकती हैं।

स्पष्टीकरण- योग के अनुसार अभ्यासकर्ता के अंतःचक्षु के सामने इन विलक्षण प्रतिमाओं का उभर आना, एक उत्साहवर्धक चिन्ह है; क्योंकि यह प्रतिमाएं धारणा शक्ति की प्राप्ति के लक्षण है। उस स्थिति में जहां अभ्यासकर्ता को कुछ भी नहीं दिखाई पड़ा, जैसा की समस्या संख्या एक में विवेचन किया गया है, अभ्यास में कोई प्रगति नहीं हुई। अंत:चक्षु के समक्ष सूनापन मानसिक शक्ति की पूर्वावस्था या यथास्थिति इंगित करता है। उस बिंदु  तक अभ्यास में कोई भी सारभूत उपलब्धि नहीं हुई। किंतु जब अभ्यासकर्ता को संख्या दो में बताई गई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तब वह स्थिति सुस्पष्ट सुधार प्रदर्शित करती है। लगभग एक महीने या इससे अधिक समय का नियमित एवं निरंतर अभ्यास यथासमय इस अवस्था में परिवर्तन ला देगा और अभ्यासकर्ता अंततोगत्वा धारणा की वास्तविक वस्तु को देखने में समर्थ हो जाएगा तथा अप्रत्याशित वस्तुएं अदृष्ट हो जाएगी।

समस्या संख्या 3- यदि अभ्यासकर्ता अभ्यास में अपेक्षित या प्रत्याशित सफलता प्राप्त कर लेता है, तब भी अंतश्चक्षु से अभ्यास की वस्तु को ठीक उसी रूप में जिस रूप में वह बाह्य चक्षु से दिखाई पड़ती है, नहीं देख पाने की समस्या उत्पन्न हो सकती है। इस स्थिति में यद्यपि वस्तु की प्रतिमा और आकृति दिखाई पड़ सकती है, फिर भी रंग और आकृति में कुछ अंतर हो सकता है। अभ्यासकर्ता यह आशा कर सकता है कि वह वस्तु को बाह्य चक्षुओं से जिस रूप में देखता है, ठीक उसी रूप में अंत:चक्षु से भी देख पाए। ऐसा क्यों होता है?
स्पष्टीकरण- यह तथ्य की वस्तुअंतश्चक्षु से समरूप और पहचानने योग्य आकार में दिखाई पड़ी है, दर्शाता है तथा प्रमाणित करता है कि व्यक्ति अपने प्रयास में सफल रहा है और उसने धारणा शक्ति प्राप्त कर ली है।
यहां जो कुछ जानना और पहचानना महत्वपूर्ण है,वह है मन की अर्जित क्षमता और वह भी भीतरी दृष्टिइंद्रियों से देखने, ग्रहण करने और एकाग्र होने की क्षमता, जैसे कि व्यक्ति ने इच्छा की थी। अब मन व्यक्ति द्वारा चुनी गई वस्तु से आपने को संलग्न कर रहा है और वह अपनी इच्छा अनुसार उड़ाने नहीं भर रहा है। यह प्रदर्शित करता है कि अब स्वैच्छिक धारणा शक्ति आ गई है।
अभ्यासियों को जान लेना चाहिए कि यद्यपि अंतश्चक्षु से देखने पर वस्तु की आकृति सदृश या समरूप होनी चाहिए, तथापि उसके रंग का सदृश या समरूप होना आवश्यक नहीं है। जैसा कि हम लोग जानते हैं, छायाचित्रांकन( फोटोग्राफी) में भी वस्तु का यथार्थ रंग सदा सुलभ नहीं होता, यह महत्व भी नहीं रखता,अंतश्चक्षु से हमारे देखने की ऐसी ही स्थिति है। यद्यपि सुदीर्घ कालीन अभ्यास से रंग की यथार्थता आ सकती है, फिर भी धारणा की दृष्टि में यह महत्वपूर्ण नहीं है। इस प्रकार यदि आप अपनेअंतश्चक्षु से वस्तु को समान रूप एवं आकार में देखने में समर्थ हैं, तो रंग के संबंध में चिंता नहीं करें।

धारणा की जांच- आपने धारणा शक्ति प्राप्त कर ली है या नहीं, इसकी जांच आप निम्नांकित निर्देश के अनुसार स्वयं कर सकते हैं। अभ्यास करते समय यदि आप अंतश्चक्षु से किसी चीज को नहीं देखते हैं, तो आपको धारणा की उपलब्धि नहीं हुई है। अभ्यास के क्रम में आपअंतश्चक्षु से कुछ अन्य वस्तुओं को देखते हैं, किंतु अपने बाह्य चक्षुओं के समक्ष रखी गई वस्तु को नहीं देख पाते, तब आप में सुधार हो रहा है, किंतु आपको अब तक धारणा शक्ति की उपलब्धि नहीं हुई है। किंतु अभ्यास के समय अंतश्चक्षु से जब आप वास्तविक वस्तु के आकार को एक सेकेंड के लिए भी देखते हैं तब आपको धारणा की उपलब्धि हो गई है। यदि वस्तु किसी भी रूप या आकार में अंतश्चक्षु के समक्ष पांच सेकंड तक टिकी रह जाती है, तो आपने अच्छी धारणा शक्ति उपलब्ध कर ली है। आप वस्तु को उसी आकार या प्रतिमा को लगभग दस सेकंड तक ग्रहण किए रख सकते हैं, तो आपने अति उच्चस्तरीय धारणा उपलब्ध कर ली है।

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Wednesday, April 22, 2020

आधुनिक जीवन में योग Yoga in modern life

आधुनिक जीवन में योग  

Yoga in modern life



यद्यपि भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों में भिन्नता रहने के कारण आधुनिक मनुष्य का जीवन भिन्न हो सकता है, फिर भी जीवन में चाहे उसकी आधारभूत समस्याओं में से अनेक एक समान ही रहती हैं।

इस सन्दर्भ में देखा गया है कि आधुनिक मनुष्य को एक ही समय दो प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है- पहली, उसके रहने सहने के वातावरण से उत्पन्न होती है, जिसे हम "स्थानीय" कह सकते हैं।
और दूसरी, मानव जीवन की मूलभूत समस्याओं में से उत्पन्न होती हैं, जिसे हम सार्वत्रिक या विश्वव्यापी नाम दे सकते हैं।
वातावरण सम्बन्धी घटक या कारक( factor)
एक देश से दूसरे देश में भिन्न तथा निरंतर परिवर्तनशील रहने के कारण, समायोजन, सामाजिक सम्बन्ध, सामाजिक वस्तुओं की प्रकृति का ज्ञान, और जीवन को सुखी बनाने की उपयुक्त विधि खोज निकालने की समस्याएं उत्पन्न करते हैं।
समस्याओं का समाधान वातावरण और उसके कार्यों की सही जानकारी द्वारा ही, जिसका सम्बन्ध व्यक्ति की मानसिक शक्ति से है। उपलब्ध हो सकता है
व्यक्ति के सर्वदा वर्तमान और सर्वव्यापी घटक वे है, जिनका सम्बन्ध उसके स्वास्थ्य, दीर्घायु, आनंदोपलब्धि, इच्छाओं और आवश्यकताओं से है। यह विश्वव्यापी घटक उसकी मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों से सम्बद्ध है।
स्थानीय और विश्वव्यापी दोनों प्रकार के घटकों पर एक साथ विचार करने पर हम पाते हैं के मानवीय समस्याओं की प्रकृति ऐसी होती है कि वे मनुष्य की दोनों शक्तियों-, शरीर और मन- से सम्बद्ध रहती हैं। यदि सामाजिक रहन सहन में अच्छाई लाने के लिए मस्तिष्क का अच्छा रहना पूर्व-आवश्यकता है, तो उस अच्छाई में विशिष्टता तथा स्थायित्व लाने के लिए शरीर की स्वस्थता समान रूप से महत्वपूर्ण है।
तब समस्या है : इन शरीर और मन की दोनों शक्तियों को समझने और इन्हें विकसित करने तथा इनके बीच समन्वय स्थापित करने की विधि खोज निकालने की, ताकि व्यक्ति जो कुछ करना चाहता है उसमें तथा जिस किसी कार्य में हाथ डालना चाहता है उसमें आनन्द प्राप्त करने में सक्षम हो जाए।
लेकिन प्रश्न है- यह हो तो कैसे? क्या कोई तरीका,, प्रणाली या विज्ञान है जो सभी मानवीय समस्याओं का विस्तृत अध्ययन करता हो, मनुष्य की दोनों शक्तियों- शारिरिक और मानसिक-का विश्लेषण करता हो, प्रविधियां निर्धारित करता हो और इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति का मार्ग दर्शाता हो?
जी हां, यह योग है- न केवल शरीर और मस्तिष्क को समृद्ध बनाने वाला विज्ञान, बल्कि इन दोनों शक्तियों में समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करने वाला विज्ञान।

योग विज्ञान Yoga science


यह योग विज्ञान क्या है? और इसे विज्ञान क्यों कहते हैं?
यहां विज्ञान की व्याख्या या परिभाषा प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं है।
किन्तु इतना कहना पर्याप्त होगा कि जब कुछ करने या प्राप्त करने की पद्धति या प्रणाली तर्क तथा बौद्धिक विचार धाराओं पर आधारित होती है तब वह "वैज्ञानिक" हो जाती है।
विज्ञान में मताग्रह, धर्मोपदेशों, तथा ईश्वरी कृपा या  आशीर्वचनों का कोई स्थान नहीं है।
इसमें कार्य संपादन की एक पद्धति है और वही सब कुछ है, जिस पर यह विचार करता है। यदि आप यही प्रक्रिया पूरी करते हैं तो आपको वही परिणाम मिलेगा।
चूँकि योग का प्रत्येक पहलू तर्क, उपर्युक्त सिद्धान्तों एवं बौद्धिक विचारणाओं द्वारा शासित होता है, इसलिए यह "विज्ञान" है।
जैसा कि हम लोग जानते हैं विज्ञान के कई प्रकार हैं जैसे पदार्थ विज्ञान तथा रसायन शास्त्र, जीवविज्ञान तथा प्राणी विज्ञान, औषध विज्ञान तथा कुछ मानवता एवं मानवीय समस्याओं से सम्बद्ध हैं- जैसे राजनीति विज्ञान, मनोविज्ञान, समाज विज्ञान।
प्रत्येक विज्ञान का एक ज्ञात विश्व होता है। उसके अन्वेषण, प्रयोग तथा कार्य सम्पादन की एक ज्ञात सीमा होती है। योग विज्ञान का यह विश्व व्यक्तियों पुरुष तथा स्त्री के अलावा अन्य कोई नहीं है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि योग व्यक्ति की अच्छाई एवं सुख का विज्ञान है। अन्य किसी विज्ञान की तरह योग विज्ञान भी कुछ निश्चित आधारभूत सिद्धान्तों पर आधारित है।इसके अन्वेषण, उपलब्धियां एवं प्रयोग तार्किक तथा बौद्धिक विचारणाओं पर आधारित हैं।
इस विज्ञान के प्रवर्तकों तथा आविष्कारकों ने बहुत पहले ही पता लगा लिया था कि मनुष्य की दो विशिष्ट शक्तियां- शरीर और मन की हैं और जब तक इन दोनों पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता, इच्छित अच्छाई उपलब्ध नहीं हो सकती। अपने विज्ञान की इन्हीं समस्याओं को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने इन दोनों शक्तियों- शारीरिक और मानसिक- को समृद्ध करने की पद्धतियां विकसित की। किन्तु चूँकि व्यक्ति की यह दोनों शक्तियां पृथक इकाइयां नहीं है, क्योंकि यह अन्योन्याश्रित है, इसलिए इन दोनों में समन्वय एवं सामंजस्य रखने के लिए एक पद्धति का भी विकास किया गया।
योग में हम जो कुछ पाते हैं, वह स्पष्टत: यह है: इसमें शारीरिक कुशलता की एक पद्धति है, दूसरी मानसिक कुशलता की और तीसरी इन दोनों में सामंजस्य रखने वाली। इस विज्ञान की विलक्षणता यह है कि यह व्यक्ति की समस्याओं को समग्र रूप से अपने में समाहित करता है। योग की सार्वदेशिक मान्यता का कारण यह है कि इस धरती के किसी भी कोने में कोई अन्य विज्ञान नहीं है,, जो योग के गुण अंतर्वस्तु, प्रणाली बद्ध प्रक्रिया और इसकी देनों से समता कर सके। योग भारत का एक जाज्वल्यमान विज्ञान है, जिसका उपयुक्त शिक्षण विश्व के किसी भी भाग में रहने वाले व्यक्ति को गौरव प्रदान कर सकता है।

योग का अर्थ Meaning of yoga


योग का अर्थ है- जोड़ या मेल। यह मेल दो या दो से अधिक विपरीत गुणों, बलों या शक्तियों का हो सकता है। किन्तु इस मेल में जो अंतर्निहित है, वह है संतुलन और सामंजस्य का हेतुत्व।
अतः योग का अर्थ संतुलन और सामंजस्य का विज्ञान भी है। योग की मान्यताओं के अनुसार ये विपरीत बल या शक्तियां विश्व के सभी पदार्थों तथा जीवित प्राणियों में सदा वर्तमान रहती हैं। मनुष्य में ये विपरीत गुण या बल उसके शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रदेशों में विद्यमान हैं। शारीरिक प्रदेश में इन विपरीत गुणों या बलों की पहचान इड़ा, पिंगला, तथा सुषुम्णा स्नायुओं से होती है। इनमें पहली नकारात्मकता को, दूसरी सकारात्मकता को निरूपित करती है और सुषुम्णा इन दोनों में सामंजस्य स्थापित करती है। मानसिक स्तर पर इसी प्रकार इन तीनों बलों की सदा विद्यमानता  है, जो नकारात्मक, सकारात्मक तथा औचित्य- निर्धारक गुण कहलाते हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति तीन शक्तियों से संगठित है- सत्व, रजस्और तमस्। इनकी अभिव्यक्ति को संतुलन, क्रियाशीलता एवं निष्क्रियता कहा जा सकता है। तमस् अंधकार या निष्क्रियता को प्रतीकित करता है। रजस् क्रियाशीलता को प्रतीकित करता है। और सत्व इन दोनों के संतुलन का सामंजस्य है।
पुनः सांख्य के अनुसार ये तीनों शक्तियां प्रत्येक व्यक्ति में भी सदा वर्तमान रहती है। किंतु मनुष्य में वर्तमान इन तीनों शक्तियों में स्वत: सामंजस्य स्थापित हो,यह आवश्यक नहीं है।
जब मनुष्य तमस् से प्रभावित होता है तब वहआलसी, अकर्मण्य एवं सुस्त हो जाता है।
जब वह रजस् से प्रभावित होता है तब अति सक्रिय होता है, अपने बल एवं उर्जा को प्रकट करता है और अधिकतर भाग दौड़ में रहता है। लेकिन उसके तामस और राजस गुणों में संतुलन स्थापित करने वाला गुण सत्व है, जो उसमें सामंजस्य स्थापित कर शान्ति एवं भद्रता लाता है।
किन्तु प्रश्न यह है कि सत्व या संतुलन को प्राप्त कैसे किया जाए?
योग जैसा कि अब इसके अर्थ से स्पष्ट है, मनुष्य की इन्हीं तीन शक्तियों से संबंधित है और यह न केवल इन्हें समंजित करने का, बल्कि परिवर्धित और समृद्ध करने का भी मार्ग दर्शाता है।
वे योग, जो प्रत्यक्ष रूप से पूर्वोक्त तीनों शक्तियों से सम्बद्ध है, ये हैं- हठयोग, राजयोग और कर्म योग। इनमें प्रथम मुख्यतः व्यक्ति के शारीरिक पक्ष से, द्वितीय मानसिक पक्ष से और तृतीय शारीरिक एवं मानसिक दोनों पक्षों से संबंध रखता है। हठयोग, राजयोग और कर्मयोग के अतिरिक्त एक और प्रासंगिक योग है- ज्ञान योग, जो यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने का विज्ञान है।

योग के विभिन्न प्रकार Different types of yoga


जैसा कि ऊपर कहा गया है, हठयोग शारीरिक कुशलता का विज्ञान है, कर्मयोग क्रियाशीलता और कार्य का विज्ञान है, और राजयोग धारणा तथा ध्यान की शक्ति प्राप्त करने का विज्ञान है।
सर्वाधिक सुसंगत होने के कारण उल्लिखित चारों योग विश्व के किसी भी भाग में रहने वाले किसी भी आधुनिक मनुष्य के लिए बिना किसी हिचक के शीघ्र स्वीकार्य तथा सहमति-योग्य हैं। इन चारों योगों के विषय क्षेत्र के अंतर्गत जो कुछ सिखाया जाता है, वह तर्क एवं बौद्धिक विचारणाओं की उसी कसौटी पर आधारित है, जिसकी उपस्थित किसी पद्धति या प्रणाली को वैज्ञानिक कहलाने योग्य बना देती है।
कुछ अन्य योगों के वर्णन में समय का अपव्यय मुझे अभीष्ट नहीं।
यद्यपि ये कुछ लोगों द्वारा अच्छे माने गए हैं और समादृत हुए हैं, तथापि आधुनिक मनुष्य से इनकी संगति नगण्य या नहीं के बराबर है।
एक भक्ति योग है- पूजा, उपासना और धार्मिक मूल्यों का योग।
यह उन लोगों के उपयुक्त है,जो किसी दैवी शक्ति की सर्वोपरिता में विश्वास करते हैं, अपने आराध्य देवता की पूजा करते हैं, और गुरु( धर्म शिक्षक) अगाध श्रद्धा रखते हैं।
विश्वास, आस्था और धार्मिक विचारणाओं तथा आवश्यकताओं के इन्हीं कारणों से योग, हिंदुओं के धार्मिक दृष्टिकोणों एवं विचारों से अतिरंजित हो गया है।
कुछ अन्य योग, जिनकी चर्चा यौगिक साहित्य में अक्सर मिलती है, ये हैं- तंत्र योग, मंत्र योग, यंत्र योग, क्रिया योग और लय योग।
यह कहना अनुचित होगा कि यह योग वैज्ञानिक नहीं है, किन्तु दुख की बात यह है की इनके शिक्षक सामान्यत: इनमें जो वैज्ञानिकता है, उस को अस्वीकार करते हैं और उन्हीं विषयों को आरोपित करते हैं, जो विश्वास, आस्था, रहस्यवाद एवं छल छद्म के विषय हैं।
चूंकि यह हमारा उद्देश्य योग के उन्हीं पहलुओं का विवेचन करना है, जो हमारी तात्कालिक अभिरुचि के प्रसंगानुकूल हैं, इसलिए हम लोग अपने को चार योगों तक, का उल्लेख पहले किया जा चुका है, सीमित रखेंगे- हठयोग, राजयोग, कर्म योग और ज्ञान योग।

योग के वैज्ञानिक सिद्धान्त
Scientific principles of yoga


अब हम लोग कुछ क्षण उन वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर विचार करें जिन पर यह योग आधारित हैं। यह ज्ञातव्य है कि प्रत्येक विज्ञान के प्रयोग एवं कार्य-सम्पादन का अपना निजी सुस्पष्ट सिद्धान्त होता है और यह योग के संबंध में भी सत्य है।
हठयोग में जहां विभिन्न आसनों द्वारा शारीरिक क्रियाशीलता होती है, शासक सिद्धान्त है- गतिशीलता की स्थिति के क्रम में ही गतिशून्यता की स्थिति उत्पन्न करना।
गतिशीलता और गतिहीनता का यह सिद्धान्त योग के सभी आसनों, प्राणायामों, बन्धों एवं मुद्राओं में विद्यमान है। यदि अभ्यास के समय इस सिद्धान्त का पालन नहीं होता है, तब यह कुछ अन्य भले ही हो जाए, योग नहीं हो सकता।
इस सिद्धान्त का महत्व क्या है?
इसके महत्व को स्पष्ट करने के लिए हमें इस विज्ञान के मूल में जाना पड़ेगा। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, किसी भीपद्धति या प्रणाली को वैज्ञानिक कहने के पूर्व किसी प्रयोगशाला में या बाहर सर्वप्रथम उसका प्रयोग किया जाता है, जांच की जाती है, निरीक्षण किया जाता है और उसका औचित्य स्थापन होता है, और जब ज्ञात परिणाम बारम्बार एक ही आता है तब वह वैज्ञानिक कहलाने योग्य हो जाती है।
हठयोग के प्रवर्तकों ने ठीक ऐसा ही किया। उनका खुला परिवेश ही उनकी प्रयोगशाला में थी। उन्होंने अपने परिवेश के मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, पौधों, वस्तुओं तथा शेष जीवित जन्तुओं के जीवन-ढांचे का निरीक्षण एवं औचित्य-स्थापन किया।
जब उन्होंने उनमें कुछ अच्छाई और वांछनीयता पाई तब वे उस अच्छाई के कारणों को खोज निकालने को प्रेरित हुए। उन्होंने उसकी कारणता या हेतुत्व की पद्धति का अनुसरण किया और उन्हें अपने जीवन में अपना लिया। परिणाम स्वरूप हम पाते हैं की हठयोग में केवल एक आसन( मत्स्येन्द्र-आसन, इसका नामकरण इसके प्रवर्तक मत्स्येंद्रनाथ के नाम पर हुआ है) को छोड़कर कुल चौरासी आसनों का नामकरण उनके परिवेश के पक्षियों, पशुओं, पौधों, कुछ जन्तुओं और किन्हीं पदार्थों के नाम पर ही हुआ है।
 अपने शोध, अन्वेषण एवं अनुसन्धान के क्रम में उन्होंने पाया कि यद्यपि गति, ऊर्जा एवं शक्ति उत्पन्न करती है, तथापि उसके मध्य थोड़ी देर की गतिशून्यता एवं स्थिरता की अवस्था उससे कई गुना अधिक ऊर्जा एवं शक्ति का संचार कर देती है। दौड़ते हुए सिंह, कुत्ते, बिल्ली तथा ऐसे अन्य जन्तुओं को देखकर उन्होंने इस सिद्धान्त की सार्थकता पाई। जैसा कि हम जानते हैं, दौड़ने वाला कुत्ता छलांग मारने के पहले कुछ क्षणों के लिए गतिशून्यता की स्थिति की सृष्टि करता है। पशु ऐसा करते हैं, क्योंकि दौड़ने में उन्हें जितनी ऊर्जा चाहिए, उससे अधिक ऊर्जा की आवश्यकता उन्हें छलांग मारने के लिए चाहिए होती है गति में गतिशून्यता की यह अवस्था यदि पशु की ऊर्जा या शक्ति में वृद्धि कर सकती है, तो इससे स्पष्ट है की यह प्रक्रिया समान रूप से मनुष्य की शक्ति में भी वृद्धि लाएगी। अपने इस शोध पूर्ण ज्ञान के आधार पर उन्होंने एक पद्धति विकसित की, जिसमें जब कोई योगाभ्यासी आसन द्वारा गति उत्पन्न करता है, तो वह उसी आसन में गतिशून्यता भी बनाए रखता है। ऐसा करने से एक ओर जहां उसकी शक्ति का व्यय होता रहता है, वहीं दूसरी ओर वह शक्ति भी संचित करता जाता है।
हठयोग में वस्तुतः इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।
इसी सिद्धान्त के समावेश से ही हठयोग शारीरिक कुशलता का अनोखा विज्ञान बन गया है।
पाश्चात्य जगत में शारीरिक संस्कृति की कोई अन्य ऐसी पद्धति नहीं है, जिसमें इस सिद्धान्त का समावेश हो। अन्य पद्धतियों की तुलना में हमारी उत्कृष्टता के अनेक उपयुक्त कारण है। शेष सभी शारीरिक संस्कृतियों में केवल गतिशीलता होती है, जिसके कारण अत्यधिक थकान, तनाव और शरीर का असंतुलित अनुकूलन उत्पन्न होता है। यद्यपि इनमें से सभी का प्रभाव एक सा नहीं होता, फिर भी बहुत सी ऐसी पद्धतियां है, जो अभ्यासियों के शरीर को विकृत तथा विद्रूप बना देती हैं। दूसरी ओर, शरीर के आंतरिक एवं बाह्य भागों पर योग का कोई अवांछित परिणाम नहीं होता। योगासनों का प्रभाव ऐसा होता है कि जहां एक ओर यह शरीर को सुडौल एवं आनुपातिक बनाते हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी सुंदरता में भी वृद्धि करते हैं। योग से शरीर बलवान होता है किन्तु विकृत नहीं होता। यह शरीर का निर्माण करता है, किन्तु दुर्बल नहीं बनाता। हठयोग, इस प्रकार, पुरुषों तथा स्त्रियों के लिए शारीरिक कुशलता का सर्वाधिक वांछनीय विज्ञान हो जाता है।
आधुनिक मनुष्य अपनी सामाजिक आर्थिक और अन्य उलझनों तथा अपने वातावरण की विलक्षणताओं के कारण मुश्किल से अपने शारीरिक स्वास्थ्य के लिए कोई समय निकाल पाता है। किसी खेलकूद एवं शारीरिक क्रियाशीलनों में भाग लेने के लिए वह अपने साथियों से भी नहीं मिल पाता।
आधुनिक नर नारियों में बहुतेरे ऐसे लोग भी हैं, जो यद्यपि बीमार या शारीरिक रूप से पीड़ित नहीं देखते, फिर भी उन्हें अनेक प्रकार के प्रच्छन्न एवं गुप्त शारीरिक रोग तथा गड़बड़ियां रहती हैं। इन गुप्त शारीरिक गड़बड़ियों के कारण वे जीवन के पूर्ण आनंद से वंचित रह जाते हैं, जिन की प्राप्ति शारीरिक क्रियाशीलता से ही संभव है। व्यक्ति की इस प्रकार की समस्याओं का उत्तर भी हठयोग है। हठयोग के अभ्यास के लिए आपको ना तो किसी साथी की, ना किसी पदार्थ की, ना किसी खास समय की और ना किसी खास स्थान की ही आवश्यकता होती है। के लिए यह भी आवश्यक नहीं कि कोई आपकी विशेष आयु हो, या आपका स्वास्थ्य विशेष प्रकार का हो। आप जैसे और जहां हैं वैसे ही वहां रहे। आप जो कुछ कर रहे हैं उसे करते हुए योगाभ्यास कर सकते हैं। यदि आप अपने सुविधानुसार किसी भी स्थान पर कुछ मिनट लगाएं, तो आप वही योगाभ्यास कर सकते हैं। यह आवश्यक नहीं कि आप सभी आसनों का अभ्यास करें ही, क्योंकि उनमें से कुछ कठिन है और उनसे अधिक लाभ भी नहीं होता। किन्तु कुछ ऐसे भी आसान है, जो आसान होने के साथ-साथ अधिक लाभप्रद भी हैं। इन आसनों का अभ्यास कोई भी व्यक्ति यहां तक कि रुग्ण, वृद्ध, बच्चा या शरीर से असमर्थ व्यक्ति भी कर सकता है। आपको जो भी आसन पसंद हो और जो आपके लिए उपयुक्त हो, उन्हें चुन लें और उनके अभ्यास में योग के सिद्धान्तों का पालन करें। यदि आप इसे करेंगे तो निश्चय ही न केवल आपका स्वास्थ्य उत्तम होगा बल्कि आप आधुनिक युग की सुख-सुविधाओं का पूर्णतम उपभोग भी कर पाएंगे।
अब हम उन योगों पर विचार करें, जो हमारी मानसिक शक्तियों से सम्बन्ध रखते हैं। किंतु इन्हीं योगों- कर्म, ज्ञान और राजयोग- की विशिष्टताओं में अपने को उलझाने की अपेक्षा इनके कुछ मूलभूत सिद्धान्तों पर, जिनमें यह सभी योग अनुस्यूत हैं, प्रकाश डालना उपयुक्त होगा। योग के अनुसार मन शरीर को नियंत्रित, शासित और सक्रिय करता है। इस दृष्टि से शरीर मन का एक यंत्र या उपकरण बन जाता है। बल्कि यह माना जाता है कि जैसा आप चिन्तन करते हैं वैसा ही बनते हैं और जैसा सोचते हैं वैसा ही पाते हैं। और इससे भी बढ़कर दृढ़ता पूर्वक यह कहा जाता है कि आपका विचार न केवल आपके कर्मों को स्वरूप प्रदान करता है, बल्कि आपके निकटतम परिवेश के अन्य व्यक्तियों एवं इस पृथ्वी के किसी भी स्थान पर स्थित सम्बद्ध व्यक्तियों से आपको जोड़ता है।अतएव आपकी इच्छाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति इस पर निर्भर है कि वे इच्छाएं एवं आवश्यकताएं आपके मन द्वारा किस प्रकार ग्रहण की जाती हैं। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि मन का इतना अधिक महत्व होने के कारण ही योग विज्ञान के प्रवर्तकों ने मानसिक कुशलता पर जितना ध्यान दिया, उतना ही शारीरिक कुशलता पर भी दिया। यहाँ यह सम्भव नहीं कि उपर्युक्त सभी नियमों एवं सिद्धांतों की मान्यताओं पर विस्तृत प्रकाश डाला जाए, किन्तु प्रामाणिकता की उपलब्धि के लिए कुछ का विवेचन करूंगा।
हम लोग उस सिद्धांत को लें, जो यह बताता है कि मन शरीर को नियंत्रित और शासित करता है तथा उसे सक्रिय बनाता है। आप प्रश्न कर सकते हैं कि क्या यह सच है?
इसका उत्तर है-हां। इसे सिद्ध करने के लिए हमें एक दृष्टांत की आवश्यकता होगी।
मान ले कि एक व्यक्ति "अ" के मन में, अपने कार्यालय के दैनंदिन कार्यों से मुक्ति मिलने पर अपराह्न में सिगरेट पीने का विचार आता है। उसके पास सिगरेट नहीं है, किन्तु अपने कार्यालय से कुछ दूर स्थित दुकान से सिगरेट खरीदने का उसने विचार किया है। क्या होगा? उसके सिगरेट पीने के विचार की जितनी तीव्रता होगी, उतनी ही तीव्रता सिगरेट की ओर उसके शरीर के विकर्षण में भी होगी। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम लोग अपराह्न में "अ" की निगरानी करें। जैसे ही उसे कार्यालय से फुरसत मिलेगी, उसी क्षण वह उस दुकान की ओर तेजी से चल पड़ेगा। और यदि वर्षा होने लग जाए तो उसे भीगने की परवाह भी ना रहेगी। लेकिन वह दुकान बंद है! और, जब तक उसे सिगरेट नहीं मिल जाती है तब तक वह विश्राम नहीं लेगा। वह तब दूसरी दुकान की ओर बढ़ता है। जब उसे उस दुकान की दूरी अधिक प्रतीत होती है, तब वह एक सवारी या वाहन ले लेता है और दूसरी दुकान पर जा पहुंचता है। वह खुली हुई थी। उसने वहां से सिगरेट ली और उसे सुलगा लिया, तब कहीं जाकर उसे चैन मिला।
"अ" ने इतना अधिक कष्ट क्यों उठाया? क्योंकि जैसे ही धूम्रपान का विचार उसके मन में आया और उसी तीव्रता के साथ बना रहा, उसके शरीर को मन के प्रक्षेप के अनुसार विकर्षित होना पड़ा। यदि "अ" महोदय की यह छोटी कहानी, अपने जीवन के सदृश अनुभव के क्षणों से तुलना करने पर, युक्तिसंगत प्रतीत होती है, तो आप इस तथ्य को अवश्य स्वीकार करेंगे कि मन ही शरीर को नियंत्रित और शासित करता है तथा सक्रिय बनाता है।
इसका एक और दृष्टि से मूल्यांकन करने के लिए हम लोग एक दूसरे सिद्धांत को ले, जो यह बताता है कि व्यक्ति की इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति इस पर निर्भर करती है इच्छाएं और आवश्यकताएं मन द्वारा किस प्रकार गृहीत एवं प्रक्षिप्त हुई है। प्रसंगवश यह बताना चाहूंगा कि यह सिद्धांत आधुनिक मनुष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है, विशेषकर जब हम यह कहते हैं कि पीड़ा का कारण इच्छाओं और आवश्यकताओं के होने में नहीं, बल्कि उनकी पूर्ति नहीं होने में निहित है। यदि इच्छाएं और आवश्यकताएं पूरी हो जाती है तो व्यक्ति अपने को सुखी अनुभव करता है। और चूँकि सुख की उपलब्धि प्रत्येक व्यक्ति का स्वाभाविक लक्ष्य है, इसलिए मैं संक्षेप में यह विवेचन करना चाहूंगा कि सुख किस प्रकार, क्योंकर, किस हेतू से और कब प्राप्त हो सकता है।

आगे देखें - इच्छाएं और आवश्यताएं(इच्छापूर्ति का सिद्धान्त्त)


क्रमशः

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