Tuesday, April 28, 2020

घबराहट Nervousness

घबराहट Nervousness



 घबराहट (Nervousness)  शरीर और मन की वह स्थिति है, जिसमें उनके सामान्य कार्य और अवस्थाएं बाधित या अव्यवस्थित हो जाती है। इसमें व्यक्ति अशांत, बेचैन हो जाता है और अपनी धारणा शक्ति खो बैठता है। यह (घबराहट) मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों के उपयोग में बाधा डालती है। इसकी अवधि क्षणिक, अल्पकालीन या लंबी हो सकती है। इसकी लंबी अवस्था व्यक्ति के न केवल स्वास्थ्य और सुख को प्रभावित करती है, बल्कि उसकी भूमिका, कार्यों, विचारों, व्यवहार और सामान्य जीवन पद्धति को भी प्रभावित करती है।अतएव आधुनिक पुरुषों एवं महिलाओं के लिए यह जान लेना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि यह क्या है, इसके क्या लक्षण है, यह कैसे होती है, किन कारणों से होती है और यह किस प्रकार नियंत्रित की जा सकती है तथा इसका उपचार किया जा सकता है।
घबराहट व्यक्ति में अनेक लाक्षणिक परिवर्तन कर देती है। इस प्रकार, घबराए हुए व्यक्ति की पहचान उसके मुख्यमण्डल, शरीर और व्यवहार के ढंग में इन लक्षणों का पता लगाकर आसानी से की जा सकती है। उसके मुखमण्डल में कोई भी व्यक्ति ऐसे परिवर्तनों का पता लगा सकता है- जैसे आंखों में तनाव,कड़ापन और खिंचाव का आ जाना। चेहरा अपना स्वाभाविक रूप खो देता है। आवाज कड़ी, टूटी फूटी, भारी और अस्वाभाविक हो जाती है। यद्यपि शारीरिक लक्षणों- भीतरी और बाहरी- की जानकारी मुख्यता स्वयं पुरुष या स्त्री को हो सकती है, तथापि दर्शक भी उसमें थोड़ी कंपकंपी या घबराहट और कड़ापन आसानी से देख सकता है। शारीरिक देखभाल में असावधानी और उपेक्षा के चिह्न भी हो सकते हैं, उसके पहनावे के तरीके तथा समग्र रूप से उसकी आकृति में प्रदर्शित होते हैं।
सर्वाधिक सुस्पष्ट परिवर्तन, जो घटित होते हैं,वे हैं घबराए हुए व्यक्ति के व्यवहार के ढंग में परिवर्तन। घबराए हुए व्यक्ति के लिए चैन, आराम में और ध्यानस्थ रहना अत्यंत कठिन है।
उसे कुछ भी अधिक सुखकर नहीं लगता, जैसे कि अच्छा संगीत सुनना, प्राकृतिक सौंदर्य का अवलोकन, लोगों से मिलना जुलना और यहां तक कि धूम्रपान,पेय तथा नृत्य भी। गलतियां करना सामान्य विशेषक या लक्षण बन जाता है। वह एक क्षण के लिए कोई काम करता है, किंतु शीघ्र ही उससे ऊब जाता है, और तब दूसरे काम के प्रयास में उतावली से दौड़ पड़ता है। वह अपनी याददाश्त खो बैठता है, और इस प्रकार उन चीजों को भी मुश्किल से याद कर सकता है, जिन्हें उसे याद रखना चाहिए। बेचैन रहने के कारण उसे मुश्किल से पूरी नींद आ जाती है, जिसके परिणाम स्वरूप थकावट पैदा होती है। वह बौद्धिक संतुलन तथा निर्णय-शक्ति खोने लगता है, जिनका अभाव प्रत्येक कार्य में परिलक्षित होता है, जिसे वह अपने दैनिक जीवन में करने का प्रयास करता है। उपर्युक्त लक्षणों में से केवल कुछ ही एक ही प्रकट कर देंगे कि कोई पुरुष या स्त्री घबराई हुई है।

घबराहट कैसे होती है?

इसकी विवेचना करने में यह इंगित कर देना आवश्यक प्रतीत होता है इसके उद्गम या अंकुरण का मूल मन में है। जब कोई बाहरी या भीतरी समस्या व्यक्ति के मन में चिंता उत्पन्न करती है, तब मन का सामान्य कार्य संपादन बाधित हो जाता है, जिसके फलस्वरूप शरीर की सामान्य अवस्था में भी गड़बड़ी आ जाती है। पूर्व में विवेचन किया जा चुका है कि मन शरीर को किस प्रकार शासित और नियंत्रित करता तथा क्रियाशील बनाता है। उसी विवेचन के आलोक में यह आसानी से समझ में आ जाना चाहिए कि मन में चिंता या उद्वेग की जितनी तीव्रता होगी, उतनी ही तीव्रता घबराहट में भी होगी। इस  प्रकार हम कह सकते हैं कि जो चीजें चिंता उत्पन्न करती है, साथ ही साथ घबराहट का भी कारण बनती हैं इस अवबोध के साथ हम लोग

 देखें कि घबराहट के कारण क्या हैं।
घबराहट का कारण एक या अनेक कारकों का समूह हो सकता है किंतु चाहे एक या अनेक जो भी कारण हों, वे तीन कोटियों के अंतर्गत आते हैं- परिवेश संबंधी, सामाजिक और वैयक्तिक। हम सर्वप्रथम परिवेश संबंधी कारकों का विवेचन करेंगे

परिवेश संबंधी कारक-
परिवेश संबंधी कारक वे हैं, जो प्राकृतिक घटनाओं की विलक्षणताओं के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं, यदि हम आपदा की संज्ञा देते हैं। ऐसी आपदाएं महामारी, भूकंप, दुर्भिक्ष, सूखा या बाढ़ तूफान और इस प्रकार की अन्य घटनाएं हो सकती हैं। ऐसी आपदाओं की प्रकृति, अवधि तथा तीव्रता पर अवलंबित होने के कारण कुछ लोग दूसरों की अपेक्षा, अधिक प्रभावित हो सकते हैं। असुरक्षा, संपत्ति-नाश तथा सामान्य जीवन यापन में विघ्न होने के भय के कारण कुछ लोगों के लिए यह भीषण चिंता उत्पन्न कर सकती हैं। ऐसी अवस्था में घबराहट उन लोगों में हो सकती है, जो इस प्रकार प्रभावित होते हैं।

सामाजिक कारक-
सामाजिक कारको के वर्णन के क्रम में यह समझ लेना चाहिए कि किसी खास समाज की समस्याएं वही हो सकती हैं अथवा नहीं भी हो सकती हैं जो दूसरों की है। जिसे हम समस्या कह सकते हैं उसे समस्या नहीं कहा जा सकता है अथवा किसी दूसरे समाज में उसका अस्तित्व नहीं भी हो सकता है। किंतु इन विभिन्नताओं के बावजूद कुछ सामान सिद्धांत बनाए जा सकते हैं, जिन पर पूर्व कथित विशिष्टताओं के आधार पर विचार किया जाना चाहिए।
किस प्रकार हम लोग सामान्यतः ज्ञात कुछ समस्याओं की चर्चा कर सकते हैं; जैसे- आर्थिक असुरक्षा का भाव, उपयुक्त काम या रोजगार, जीविका तथा व्यवसाय पा लेने की समस्या, धार्मिक, जातीय, वंशगत तथा राजनीतिक तनावों के संघर्ष के कारण सामाजिक उपद्रव, युद्ध का भय तथा ऐसी असंख्य दूसरी समस्याएं। किन्ही अन्य समस्याओं का, जिनकी पहचान व्यक्ति स्वयं आसानी से कर सकते हैं, नामोल्लेख किए बिना एक विवरण प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसके अंतर्गत कुछ सामाजिक समस्याओं की जटिलताएं आ जाएंगी।
यह कहा जा सकता है कि किसी समाज में किसी वस्तु की उपस्थिति उसके सदस्यों के मन में उसे प्राप्त करने की आशा का संचार करती है, किंतु हर किसी के लिए उसे पाना या ग्रहण करना संभव नहीं होता, तब उन लोगो में चिंता औरतज्जन्य घबराहट उत्पन्न हो सकती है, जो इस प्राप्ति या उपलब्धि से वंचित रह जाते हैं। इसे दूसरे रूप में इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है- जब किसी समाज के कुछ खास सदस्य किन्ही सामान्यतः इच्छित वस्तु या सुविधाओं का उपभोग करते हैं, तो बहुत से अन्य लोग भी उनका उपभोग करना या उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं। किंतु या तो सीमित सुलभता के कारण या कुछ अन्य कारणों से यह चीजें सबको उपलब्ध नहीं हो सकती या सब लोग इनका उपभोग नहीं कर सकते। अधिक आशा या आकांक्षा और कम पूर्ति की यह स्थिति उन लोगों में तनाव, दुख, असंतोष, निराशा और बेचैनी उत्पन्न कर सकती है, जो कठिन प्रयासों के बावजूद उन्हें प्राप्त करने में असमर्थ रह जाते हैं। ऐसी अवस्था में घबराहट उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

वैयक्तिक कारक-
इस कोटि में असंख्य कारक या घटक हो सकते हैं, जिनकी विस्तृत सूची प्रस्तुत करना न तो आवश्यक है और नआसान ही। किंतु, कुछ खास मौलिक कारकों को, जिनके चारों ओर अन्य अनेक कारक चक्कर काटते हैं, पहचान लेने से सब को समझा जा सकता है।
मौलिक कारक ये है-
1- भय की अनुभूति
2- मानव स्वभाव तथा सामाजिक घटनाओं या वस्तुओं की यथार्थ जानकारी का अभाव
3- दूसरों को हानि पहुंचाने की भावना
4- यौन जीवन से संबंधित समस्याएं
इन कारकों को सूचीबद्ध करने के क्रम में किसी को यह नहीं सोचना चाहिए की क्रमांक 1 दूसरों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। वह वस्तुतः कारक के रूप में ही सूचीबद्ध है।

भय- व्यक्ति में भय होने के या भयभीत होने के अनेक कारण है। किंतु सर्वाधिक प्रमुख कारण यह है
किधर हो कोई व्यक्ति जो कुछ करने को तत्पर है, उसे सम्यन्न करने का विश्वास उसमें नहीं रह जाता, तब उसमें भय उत्पन्न होता है। ऐसी स्थिति में वह परिणाम से, या तो कार्य संपादन से पहले या उसके बाद भयभीत हो जाता है। यह अनगिनत वस्तुओं या कार्यों पर लागू होता है, अपने व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में निजी तौर पर या सार्वजनिक रूप में करता है। इसे स्पष्ट करने के लिए हम एक उदाहरण लें- मान ले कि किसी व्यक्ति "अ" को किसी टंकण परीक्षा(typing test) में बैठना है, जिसमें प्रति मिनट 60 शब्द टंकित करने वालों को अच्छी रकम देने वाली नौकरी के लिए चुना जाएगा। अब"अ" जो अक्सर प्रति मिनट 60 शब्द टंकित कर लेता है, किंतु कुछ अवसरों पर 55 शब्द ही टंकित कर पाता है, स्वभावत: परीक्षा में असफल होने की आशंका से भयभीत हो जाता है। उसके घबराहट उसमें भय की तीव्रता पर निर्भर करेगी।
इस प्रकार का भय प्रधानत: व्यक्ति की अपनी सृष्टि है। किंतु ऐसे भी अवसर है जब बाहरी शक्तियां कुछ व्यक्तियों में अनिवार्यत: भय उत्पन्न कर सकती हैं।
उदाहरणार्थ- पूर्व वर्णित कारणों में यदि सामाजिक उपद्रव होते हैं, तो कुछ लोग सुरक्षा के अभाव, संपत्ति की बर्बादी तथा इस प्रकार के अन्य अहित की भावना के कारण स्वभावत:भयभीत हो जाएंगे फलस्वरूप घबरा जाएंगे। इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि बहुतेरे ज्ञात और अज्ञात कारणों से व्यक्ति भयभीत हो सकता है, जिससे स्वभावत: उसमें घबराहट पैदा हो जाएगी।

जानकारी का अभाव- अधिकतर व्यक्ति जो अधिकांश समय में घबराए हुए रहते हैं, इसीलिए घबराए रहते हैं, क्योंकि उनमें मानव स्वभाव तथा सामाजिक घटनाओं की यथार्थ जानकारी का अभाव रहता है। वे दूसरे लोगों से यह आशा करते हैं कि वे केवल वैसा ही करें, जैसा वे अपनी तरह सोचते समझते हैं। और जब वे दूसरों को भिन्न प्रकार से आचरण और व्यवहार करते पाते हैं, तब इससे घबरा उठते हैं। यह विचार-श्रृंखला उन्हें जीवन के अनेक दुखदाई क्षणों की ओर ले जाती हैं, हालांकि महज इस कारण से के फूल होले मानव स्वभाव को समझने का प्रयास नहीं किया है। जैसा कि पूर्व के अध्ययनों में पहले लिखा जा चुका है, हमारे युग की तेज सेवाओं के कारण आधुनिक नर नारी एक ही दिन में असंख्य लोगों एवं विभिन्न परिस्थितियों के संपर्क में आते हैं। इस प्रकार, व्यक्ति को जब तक दूसरे लोगों की प्रकृति और उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों की जानकारी नहीं होगी, तब तक कुछ लोगों के अनुपयुक्त व्यवहार तथा कुछ स्थानों पर घटित अप्रिय घटनाओं के कारण उस व्यक्ति के उद्विग्न(बेचैन) और उत्तेजित होने की संभावना अधिक रहेगी। और ऐसी उत्तेजना तथा उद्वेगपूर्ण अवस्था का सहज परिणाम होगा- घबराहट
किसी दी हुई वस्तु के बारे में यथार्थ जानकारी क्या हो सकती है,। इसे निर्दिष्ट करना कठिन है कोई व्यक्ति जो कुछ जानने या समझने का प्रयास कर रहा है, यह उसी पर निर्भर करेगा। यहां हमारा प्रयोजन अन्य लोगों को आंतरिक गुणों, आंतरिक प्रेरणाओं, और आंतरिक विश्वासों, आस्थाओं तथा अनुभूतियों की जानकारी से नहीं है; बल्कि हमारा मुख्य प्रयोजन उन विभिन्न व्यक्तियों की ''प्रकृति'' और '' व्यवहार'', की जानकारी से है, जिनसे हम मिलते हैं किसी घटना विशेष के" कारण "की जानकारी से भी है। यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि हम प्रकृति और कारण की जानकारी करने का प्रयास क्यों करते हैं?
इस क्यों के उत्तर में कहा जा सकता है कि जब कोई व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के स्वभाव या प्रकृति की जानकारी प्राप्त कर लेता है और जब वह उनके अवांछनीय कार्य संपादनों के कारणों की जानकारी प्राप्त कर लेता है, तब तनाव और क्रोध के भड़कने की, जिनके परिणाम स्वरूप घबराहट उत्पन्न होती है,संभावना कम रह जाती है। किंतु वास्तविक ज्ञान की यह प्राप्ति स्वयं व्यक्ति द्वारा की जा सकती है, किसी अन्य व्यक्ति से नहीं। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए मैं" ज्ञान योग"- यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के विज्ञान की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा। वह कहता है:
" इस विश्व में हमारा जो संपूर्ण ज्ञान है- वह कहां से आता है? वह हमारे अंदर है। बाहर कौन सा ज्ञान है? कोई नहीं। ज्ञान पदार्थ में नहीं है, यह सभी समय मनुष्य में ही निहित है कोई भी व्यक्ति कभी ज्ञान की सृष्टि नहीं करता, मनुष्य उसे अपने भीतर से लाता है।"(ज्ञानयोग पृ०-365)
यहां मेरा प्रयास ज्ञान प्राप्ति के इस विज्ञान का विस्तृत विवेचन करने का नहीं, बल्कि पाठकों को इस पहलू की सार्थकता समझा देने का है।
बहुत से पुरुष एवं महिलाएं एक दूसरे की तुलना में अच्छी नहीं है। वे अक्सर कुपित, बदहवास, क्रुद्ध, उत्तेजित, गालियां बकने की स्थिति में और क्या नहीं होते, महज इसी बात के कारण कि वे एक पशु का एक मनुष्य से, एक बच्चे का एक प्रौढ़ व्यक्ति से, एक लड़की का एक लड़के से, एक पागल व्यक्ति का एक भद्र पुरुष से और इसी प्रकार और भी भेद नहीं कर पाते। एक जानवर से मनुष्य के समान कार्य करने, एक बच्चे से वयस्क के समान कार्य करने की आशा करना अपनी अज्ञानता तथा समझदारी का अभाव प्रदर्शित करना है। वस्तुओं की सही जानकारी, जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, स्वयं व्यक्तियों द्वारा विकसित की जानी चाहिए।

दूसरों को क्षति पहूंचाने की भावना-
दूसरों को क्षति पहुंचा ने की भावना मुख्यतः द्वेष तथा बदला लेने के विचारों से उत्पन्न होती है। क्रोध से भी दूसरों को क्षति पहुंचाने की भावना हो सकती है, यद्यपि यह आवश्यक नहीं है। किंतु द्वेष, प्रतिशोध और क्रोध की इन सभी दशाओं में इनके फलस्वरूप मन में उत्पन्न चिंता के कारण, व्यक्ति तनावपूर्ण, अशांत तथा उत्तेजित हो जाता है। यह मैं पुनः कहना चाहूंगा कि इन कारकों के कारण व्यक्ति के मन में जैसी तीव्रता होगी, उसकी घबराहट की तीव्रता भी वैसी ही होगी।
मैं इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या की आवश्यकता नहीं समझता क्योंकि हम सब ने किसी न किसी समय सिनेमा, नाटकों, या खेल तमाशों में इसे घटित होते अवश्य देखा होगा। इस प्रकार के प्रदर्शनों में हमने देखा है कि खलनायक द्वेष और बदला चुकाने के प्रयास में किस तरह बेचन, परेशान और घबराया हुआ रहता है। बताने की आवश्यकता नहीं है कि क्रोध के कारण उत्पन्न बेचैनी और परेशानी की यही अवस्था किस प्रकार फलित होती है। तब यह स्पष्टतया समझ में आ जाना चाहिए कि दूसरों को हानि पहुंचाने का यही विचार स्वभावतया, बेचैनी पैदा करेगा, जिसका अंतिम परिणाम होगा घबराहट

यौन-जीवन से संबंधित समस्याएं-
यह उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा कि आधुनिक पुरुषों तथा स्त्रियों के यौन-जीवन से उत्पन्न होने वाली घबराहट इतनी व्यापक तथा परिवृत्तकारी है कि यह पूर्व के पृष्ठों में निर्दिष्ट वैयक्तिक प्रकृति के अन्य सभी कारकों से भी आगे बढ़ जाती है। यौन-जीवन से संबंधित समस्याएं किसी भी उम्र के, किसी भी शारीरिक गठन के, किसी भी धर्म के, तथा किसी भी देश के पुरुषों और स्त्रियों को अन्तर्ग्रस्त कर सकती है।ये यौन-समस्याएं व्यक्ति में, यदि अधिक नही तोउसी मात्रा में चिन्ता तथा घबराहट के लक्षण उत्पन्न करने लगती है, जिस मात्रा में वे पूर्व विवेचित कारकों द्वारा उत्पन्न हो सकती हैं।स्वभावतया तब आप इस व्यापक समस्याके बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करना चाहेंगे। किन्तु चूंकि यहाँ यौन के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन नही किया जा रहा है, इसलिए केवल प्रासंगिक पहलुओं की ही चर्चा की जाएगी।
यौन जीवन से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के विवेचन के पूर्व, योन संबंधी विभिन्न विचारों एवं अनुभूतियों के बारे में संक्षेप में बतला देना आवश्यक है। कुछ लोगों ने, खासकर धार्मिक आधारभूमि के लोगों ने यौनवृत्ति की निंदा की है तथा इसे पाप, दुष्कर्म, ह्रास और अध:पतन की ओर ले जाने वाली तक कहा है। मैं धार्मिक विश्वास, आस्था तथा भावनाओं वाले व्यक्तियों के बारे में कुछ भी नहीं कहना चाहता; क्योंकि वे अपने धार्मिक मंचों से जिन बातों का प्रचार एवं प्रवचन करते हैं, वे योग से कोई संबंध नहीं रखती। किंतु जब ये लोग योग के नाम पर इस विज्ञान के शिक्षक और गुरु के रूप में प्रवचन करने लगते हैं, तब हमारे लिए यह अत्यंत प्रासंगिक या चिंतनीय हो जाता है। यह सरलता से समझा जा सकता है कि बहुत से लोग, जो उनके विचारों से प्रभावित हो सकते हैं,यौन-संबंध स्थापित करने में अपराध, पाप तथा शारीरिक एवं मानसिक क्षति का अनुभव करें लग सकते हैं और इस प्रकार इन गलत धारणाओं के कारण मैं घबराहट से आक्रांत हो सकते हैं।अतएव यौन-जीवन के विषय में योग के मतों की विवेचना के पूर्व मैं सर्वप्रथम यौनवृत्ति के संबंध में इन तथाकथित गुरुओं ने जो कुछ कहा है, उसका उल्लेख करना चाहूंगा।
योग संबंधी कुछ पुस्तकों में इन योगियों, गुरुओं तथा लेखकों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि रति-क्रिया में या अन्य प्रकार सेस्खलित वीर्य व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों को दुर्बल बनाता है, आयु को छेद करता है, चरित्र को भ्रष्ट करता है तथा उसे सुख शांति की उपलब्धि से वंचित रखता है। वे दावा करते हैं कि यदि इस वीर्य को सुरक्षित रखा जाए और सुषुम्णा( मेरुरज्जु की मध्य रेखा) होकर ऊपर की ओर सहस्रार( मस्तिष्क) तक प्रवाहित किया जाए तो व्यक्ति पूर्ण शांति लाभ करेगा, उसमें अलौकिक शक्तियां विकसित होंगी तथा वह अनतिक्रमणीय शक्ति, ओज और दिव्य दृष्टि भी प्राप्त करेगा।
यौनवृत्ति संबंधी इन्हीं धारणाओं को लेकर ये गुरु तथा लेखकयौन-जीवन से पूर्ण विरति, ब्रह्मचर्य पालन तथा कामवासना से बिल्कुल अलग रहने की दलीलें पेश करते हैं। इनमें से कुछ लोग यह दावा करते हैं कि उन्होंने अपने जीवन काल में रति-क्रिया रूपी पाप कभी नहीं किया है तथा मृत्यु पर्यंत ब्रह्मचर्य पालन का उनका संकल्प है। इस दिव्य जीवन से अपनी पहचान कराने के लिए हुए भारतीय धार्मिक क्षेत्रों से रूढ़ियों के अनुसार स्वामी, योगी तथा अन्य इन्हीं के समान उच्च ध्वनि युक्त उपाधियां धारण करते हैं।
ऐसे योगी और लेखक अतिवादी, गुमराह करने वाले तथा संकीर्ण विचार वाले होते हैं; क्योंकि उनके विचार न तो योग के विचारों से और न भारतीय संस्कृतियों से ही मेल खाते हैं। तो तो उनका ज्ञान विकृत होता है या उन्हें भारतीय संस्कृति, परंपरा और हिंदू जीवन पद्धति का, जिसे प्रतीकित करने का वे दावा करते हैं, बिल्कुल ही ज्ञान नहीं होता। वी योग विज्ञान से पूर्णतया अनभिज्ञ भी होते हैं, जिसके नाम पर वे अपने अभागे शिष्यों तथा बहुत से अन्य निरीह लोगों को गुमराह करने का प्रयास करते हैं।(यह विषय प्रासंगिक है तथा किसी की अवहेलना करने का प्रयास नहीं किया गया है)।
भारतीय संस्कृति तथा योग से संबंधित निम्नांकित तथ्यों से सुस्पष्ट हो जाएगा कि वे वस्तुतः कितने अनभिज्ञ हैं-

प्रथमत:, यदि वे योगी और लेखक धार्मिक मूल्यों से सम्बद्ध है और यदि वे हिंदू देवालय के देवताओं में से किसी भी देवता की पूजा करते हैं, तो उन्हें यौनवृत्ति को मानव जीवन का एक स्वाभाविक एवं वांछनीय पहलू मानना चाहिए था।
हिंदु देवालयों में जिन तीन प्रमुख देवताओं की सामान्यत: पूजा होती है, उन सब का स्वाभाविक यौन- जीवन रहा। राम का विवाह सीता से, कृष्ण का विवाह रुक्मणी से, और शिव का पार्वती से हुआ था। और उन सब का स्वाभाविक दांपत्य जीवन रहा। क्या इसका यह अभिप्राय हो सकता है कि उनके द्वारा यौन- जीवन का तिरस्कार किया गया? और, यदि सामान्य दांपत्य जीवन बिताकर वे पूज्य बन सके तो दूसरे लोग भी क्यों नहीं बन सकते?

द्वितीयत:, यदि इन योगियों तथा लेखकों को पारंपरिक हिंदू जीवन पद्धति का ज्ञान होता तो इन्हें हिंदुओं के जीवन की चार अवस्थाओं- ब्रह्मचर्य (छात्रावस्था, जिसमेंयौन- जीवन के प्रति संयम रखा जाता है), गार्हस्थ्य (विवाहित एवं पारिवारिक जीवन की अवस्था), वानप्रस्थ (पारिवारिक जीवन बिताते हुए ध्यानस्थ होने की अवस्था), और सन्यास (धार्मिक उद्देश्य से परिभ्रमण की अवस्था) के नियम की जानकारी अवश्य होती। जैसा कि उपर्युक्त वर्गीकरण में देखा जा सकता है, हिंदू परंपरा में व्यक्ति के जीवन की किसी भी अवस्था में काम-विरति या कुंवारापन की सिफारिश नहीं की गई है। यहां तक कि ब्रह्मचर्य की अवस्था भी मात्र छात्र जीवन तक सीमित है। और यद्यपि कुछ लोग ब्रह्मचर्य को काम-विरति का समानार्थ बतलाते हैं, किंतु वस्तुतः इसका अर्थ संयम होता है,न कि पूर्णत: विरति या त्याग। तब क्या यह तात्पर्य हो सकता है कि हिंदू परंपरा में यौनवृत्ति को एक बुराई माना गया है?

तृतीयत:, यदि इन योगियों तथा लेखकों को भारतीय संस्कृति एवं हिंदू जीवन पद्धति का ज्ञान होता तो उन्हें खजुराहो तथा कोणार्क के प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों की जानकारी हुई रहती या उन्होंने इनके बारे में सुना भी होता, जहां की की दीवारें यौनाचार की अनगिनत  क्रियाओं से युक्त नर- नारियों की नग्न प्रतिमाओं से सुसज्जित है। और भी ,शिव मंदिरों में जिस प्रमुख पदार्थ की पूजा की जाती है, वह योनि के साथ स्थापित लिङ्ग ही है। क्या ये मंदिर किसी भी प्रकार इस धारणा की पुष्टि करते हैं कि यौनवृत्ति अहितकर एवं अवांछनीय है?

चतुर्थत:, यदि इन स्वामीयों, योगियों तथा लेखकों को भारतीय संस्कृति के उन वैज्ञानिकों के, जिन्होंने योग पद्धति विकसित की, जीवन वृत्त का स्मरण होता, तो इन्हें अपनी रचनाओं या उपदेशों में गलतबयानी करने के लिए ग्लानि हुई होती। जैसा कि योग विज्ञान के छात्र जानते हैं, पतंजलि विज्ञान के जनक या प्रवर्तक माने जाते हैं। पतंजलि एक विज्ञानी थे। वे एक विद्वान तथा विद्यानुरागी पुरुष थे। उन्होंने अपने को स्वामी या योगी कभी नहीं कहा और न उन्हें इन उपाधियों से संबोधित ही किया जाता है। हम लोग उन्हें मात्र पतंजलि के रूप में जानते हैं। अपनी रचनाओं के किसी भी स्थल में उन्होंने यौनवृत्ति के परित्याग की सिफारिश नहीं की है।
हम लोग दूसरे महान वैज्ञानिक के जीवन पर भी विचार करें, जिनके विचार पर पतंजलि ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना" पतंजलि- सूत्र" की स्थापना की है, जो योग की सर्वप्रथम क्रमबद्ध पुस्तक माना जाता है। यह वैज्ञानिक थे कपिल, जिनका तत्व तथा जीवो का वैज्ञानिक विश्लेषण" सांख्य-दर्शन" कहलाता है। फिर भी, कपिल भी न तो स्वामी थे और न योगी ही। आधुनिक अर्थ में वे धार्मिक पुरुष भी नहीं थे।" सांख्य-दर्शन के अनुसार ईश्वर का अस्तित्व नहीं है।" यह कहता है,' प्रकृति ही सब कुछ अभिव्यक्त करती है। किसी ईश्वर का क्या प्रयोजन है?' वह मुनि के रूप में जाने जाते हैं, जिसका अर्थ होता है- उच्च बुद्धि यह मनीषा, तर्क बुद्धि तथा विद्वतजनोचित प्रयासों से संपन्न पुरुष। विवाहित तथा सामान्य पारिवारिक जीवन बिताने वाले पुरुष ही मुनि हो सकते थे, हालांकि शिक्षण तथा बौद्धिक कार्य में ही वे मुख्यतः संलग्न रहते थे। अथवा जीवन की प्रथम तीन अवस्थाएं- ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, और वानप्रस्थ।
क्या कपिल और पतंजलि के जीवन वृत्त और उनकी रचनाएं, किसी भी प्रकार से, बतलाती है कि सामान्य यौन-जीवन बुराई या अहितकर, अध:पतन की ओर ले जाने वाला और पापपूर्ण है।
निष्कर्षत:, यह सिद्ध करने के लिए प्रमाण नहीं है कि किसी योगी, स्वामी या किसी अन्य व्यक्ति ने काम-विरति का पालन करके कोई उत्कृष्ट मानसिक या शारीरिक शक्ति प्राप्त की हो तथा अपेक्षाकृत उनकी अधिक लंबी आयु रही हो। इसके विपरीत, यह उल्लेख करना अत्यंत स्तब्धकारी है कि भारत के उच्च सम्मान एवं आदर प्राप्त स्वामियों एवं योगियों में से कुछ की मृत्यु भरी जवानी में ही हो गई, कुछ लोगों की तो आयु चालीस वर्ष से भी कम रही। उनकी अकाल मृत्यु का एक कारण यह हो सकता है कि सामान्यत: जीवन पद्धति के प्रति तथा विशेषत:यौन-जीवन के प्रति उनके विचार अतिवादी और आचार्यनिष्ठा कठोर थी। जब ज्ञात या अज्ञात रूप से स्वाभाविक अवस्था टूटती या अव्यवस्थित हो जाती है तब संतुलन भी टूटता है तथा अव्यवस्थित हो जाता है। और इस दशा में में कोई भी अनिष्ट घटित हो सकता है।
इसीलिए योग विज्ञान कहता है: इस संतुलन को जानो, संतुलन का यह गुण उत्पन्न करो, और संतुलन के इसे सिद्धांत के अनुसार काम करो, सोचो और जीवन यापन करो। चरम सीमा तक जाने की कतई आवश्यकता नहीं है। जीवन निर्वाह करने का प्रयास करो, जिसका तात्पर्य है- न तो अत्यधिक आसक्ति और न अनासक्ति।
इसे स्पष्टत: इस प्रकार कहा जा सकता है कि योग हमें यथासंभव स्वाभाविक यौन- जीवन की सलाह देता है।
योग के अनुसार यौनवृत्ति न तो कोई बुराई है और न पाप ही। यह न तो पतन की ओर ले जाने वाली है और न दुर्बल करने वाली। इसके विपरीत, तंत्र योग के अनुसार,यौनवृत्ति को जीवनी शक्ति, ओज और बल प्रदान करने वाली तथा सभी इंद्रियों में संतुलन रखने वाली भी कहा गया है। यौन-वृत्ति के दुर्बलकारी तथा अहितकर परिणाम तभी हो सकते हैं, जब इसका का दुरुपयोग होता है। किंतु दुरुपयोग की दशा में किसी अच्छी चीज का भी दुष्परिणाम हो सकता है। यदि आप अत्यधिक दूध या कोई दूसरी चीज पी लें तो उससे भी हानि हो सकती है। जिस प्रकार उचित मात्रा में दूध का उपयोग लाभकारी माना गया है, उसी प्रकार यौनवृत्ति के समुचित उपयोग को भी।
अब हम अपने विवेचन के मुख्य बिंदु अर्थात् यौन समस्याओं के कारण उत्पन्न होने वाली घबराहट पर विचार करें। यद्यपि यौन-जीवन से संबद्ध समस्याएं विभिन्न प्रकार की हो सकती हैं, फिर भी वे निम्नांकित चार स्थितियों के कारण उत्पन्न होती हैं: 
1- सुलभता का अभाव
2- सुलभता, किन्तु क्षमता का अभाव
3- अप्रिय संबंध या मेल-मिलाप का अभाव
4- गलतफहमी अथवा यथार्थ ज्ञान का अभाव
मैं अब एक-एक कर इनका विवेचन करूंगा।

सुलभता का अभाव: इस स्थिति में व्यक्तियौन-संबंध के लिए बिल्कुल समर्थ, व्यग्र तथा उत्तेजित रहता है, किन्तु प्राप्त करने में असमर्थ रह जाता है। सुलभता का अभाव अनेकानेक कारणों से हो सकता है, जिन पर यहाँ प्रकाश डालना आवश्यक नहीं है। किंतु विचार बिंदु यह है कि जब कोई व्यक्ति किसी समाज में व्याप्त एवं क्रियाशील विभिन्न उत्तेजनकारी कारकों के कारण उत्तेजनावस्था मे रहता है तब वह( पुरुष या स्त्री) अपने को तनावपूर्ण, बेचैन, अशांत, हक्का-बक्का, दुखी या उद्विग्न अनुभव करने लगता है, क्योंकि उसकी यौनेच्छा की पूर्ति नहीं हो पाती। इन अनुभूतियों के कारण उत्पन्न तीव्रता की मात्रा के अनुसार ही, उसी अनुपात में, चिंता भी होगी, जिसका अंतिम परिणाम होगा-घबराहट, चाहे वह क्षणिक हो, अल्पकालिक अथवा दीर्घकालिक प्रवृत्ति की।

सुलभता, किन्तु क्षमता का अभाव: इस स्थिति में यौन-संबंध की सुलभता रहती है, किंतु व्यक्ति उपयुक्त एवं यथोचित रति- कार्य- संपादन में असमर्थ रहता है।- क्षमता के अभाव का तात्पर्य है - संभोग-कार्य पूरा करने में शारीरिक असमर्थता। ऐसी दशा में, व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ, देखने में सामान्य हो सकता है, किंतु विभिन्न शारीरिक एवं मानसिक कारणों से, जिन सबका यहां उल्लेख करना आवश्यक नहीं है, उसमें दुर्बलताए भी हो सकती हैं। किंतु इसे स्पष्ट करने के लिए उनमें से कुछेक का निर्देशन किया जा रहा है। विभिन्न सामाजिक, परिवेश संबंधी और वैयक्तिक कारण या घटक, जो व्यक्ति के मन में घबराहट उत्पन्न कर सकते हैं, वे स्वभावत: संबद्ध व्यक्ति की शारीरिक शक्ति को भी दुर्बल बनाएंगे। इस दशा में,रति-कार्य संबंधी असमर्थता उसी मानसिक अवस्था के फलस्वरूप उत्पन्न अवस्था है।
तब कुछ खास अवस्थाएं भी हो सकती हैं जैसे या तो अवांछनीय जीवन पद्धति के कारण या मन की व्यर्थ धारणाओं के कारण उत्पन्न नपुंसकता और उदासीनता या ठण्डापन।
किंतु अवांछनीय पद्धति कहा किसे जा सकता है? कोई भी काम, जिसे करते समय ज्ञात रूप से व्यक्ति को क्षति पहुंचती है और उसे यह अनुभूति होती है कि यदि उस काम को जारी रखा जाए तो भविष्य में और अधिक क्षति पहुंचेगी, अवांछनीय है। और जब व्यक्ति उस कार्य से होने वाली क्षति को जानते हुए भी उसी कार्य में अपने को लगाता है तब वह ( स्त्री या पुरुष) अवांछनीय जीवन पद्धति का अनुसरण करता है। इस अवबोध के साथ हम देख सकते हैं की ऐसी सुपरिचित हानियों, जैसे यौनवृत्ति में लगातार अत्यधिक लिप्तता, अत्यधिक धूम्रपान, लगातार अत्यधिक मद्यपान, विश्राम तथा शयन का लगातार अभाव आदि के कारण व्यक्तियों में किस प्रकार शारीरिक असमर्थता उत्पन्न हो जाती है। जीवन की इस पद्धति में संतुलन को निर्दयतापूर्वक तोड़ दिया जाता है तथा उसे कठोरता पूर्वक कुचल दिया जाता है। यह वस्तुतः वही है, जिसे अवांछनीय जीवन पद्धति का नाम दिया गया है।
यह बता देना भी आवश्यक है कि वही बहुत सारे लोग सामान्य यौनवृत्ति के निर्वाह में अक्षम या असमर्थ हो जाते हैं; क्योंकि उनमें साधारण शारीरिक दुर्बलता रहती है। इस दशा में यद्यपि विभिन्न उत्तेजनाकारी कारकों द्वारा यौन-सुख की इच्छा तीव्र हो जाती है, तथापि शारीरिक असमर्थता उस पुरुष या स्त्री को ऐसे कार्य संपादित करने से वंचित कर देती है। फलस्वरूप, यौन-भावना की तीव्रता के अनुसार घबराहट उत्पन्न होगी।

असमायोजन या अप्रिय संबंध: 
यह स्थिति व्यक्ति के यौन सहभागी के साथ आनंदरहित, असुखकर और कष्टप्रद संबंध से संबंधित है। अव्यवस्था या असमायोजन का यह कारक संभवतः यौनवृत्ति से संबंधित अन्य किसी भी समस्या की अपेक्षा सर्वाधिक प्रभावी कारक है, जो पुरुषों तथा स्त्रियों में घबराहट उत्पन्न करता है। यह असमायोजन विभिन्न कारणों के फल स्वरुप हो सकता है। यह एक या दूसरे सहभागी के प्रति विश्वास, आस्था और निर्भरशीलता के अभाव के कारण, एक दूसरे के खामियों के प्रति सहिष्णुता के अभाव के कारण, किसी एक से सहभागी से यौन-अनुक्रिया की अधिक अपेक्षा या चाह और दूसरे सहभागी में उसका अभाव होने के कारण, सहभागियों में से किसी में उत्साह या उत्तेजना, आदर और निश्छलता के अभाव के कारण; किसी सहभागी में संतुष्टिकर रीति सेरतिकार्य संपादित करने की शारीरिक क्षमता का अभाव, जो दूसरे सहभागी को ठंडा, असंतुष्ट और निरुत्साहित बना दे सकता है; रतिकार्य के उपयुक्त तरीके का अभाव, जिसका जारी रहना दूसरे सहभागी के मन में असंतोष, परेशानी और बेचैनी की भावनाएं तक उत्पन्न कर सकता है, तथा ऐसे ही अन्य कारणों से हो सकता है। इन स्थितियों में बेचैनी, अशांति, तनाव और आचरण संबंधी परिवर्तन आ जाएंगे।
 परिणामस्वरूप, ईर्ष्या, क्रोध, प्रतिशोध, घृणा और भय जैसी निभेदक भावनाएं उत्पन्न हो सकती हैं। और इसका अर्थ होगा घबराहट उत्पन्न होना।

गलतफहमी: यहाँ गलतफहमी से तात्पर्य है उन परिवर्तनों तथा पूर्ण विकसित अवस्थाओं की जानकारी का अभाव, जो आयु वृद्धि तथा शारीरिक वृद्धि के क्रम में व्यक्ति के शारीरिक क्षेत्र में घाटी तो होते हैं। ये परिवर्तनयौवनारम्भ, रजोनिवृत्ति, गर्भावस्था और इसी तरह के शारीरिक विकास  के समय हो सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों में बहुत से लोग बदहवास, हक्का-बक्का, बेचैन और यहां तक कि भयभीत भी हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में गलतफहमी या यथार्थ ज्ञान के अभाव में मुख्यतः घबराहट उत्पन्न होगी ही।

घबराहट का प्रतिकार, नियंत्रण और उपचार:


'प्रतिकार' और 'उपचार' शब्दों से किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि घबराहट एक रोग है। योग के अनुसार यह मुख्यतः एक मानसिक अवस्था है, जिसने शरीर की सामान्य मानसिक अवस्था में गड़बड़ी उत्पन्न कर दी है। जैसा कि इस अध्याय मे सर्वत्र  देखा जा सकता है कि घबराहट उत्पन्न करने वाली मुख्य वस्तु चिंता है, जो कभी भी बीमारी नहीं कही जा सकती। यह सच है कि घबराया हुआ कोई व्यक्ति कुछ औषधियों या दवाओं के प्रयोग से शांति, चैन और विश्राम की अवस्था में लाया जा सकता है, किंतु यह केवल क्षणिक आराम होगा,न कि स्वाभाविक अवस्था को स्थाई रूप से लौटाने वाला।अतएव, योग घबराहट को एक मानसिक अवस्था मात्र मानता है, जो स्वयं व्यक्ति (पुरुष और स्त्री) द्वारा सुधारी जा सकती है।

घबराहट दूर करने की विधि  : 


उसके कारण या कारणों के अनुसार अपनाई जानी चाहिए। अतः, प्रथम चरण में घबराहट के कारण का पता लगाया जाना चाहिए। जब कारण ज्ञात हो जाए तब व्यक्ति को उसे सुधारने तथा उस पर काबू पाने के तरीकों तथा विधियों का पता लगाने का प्रयास करना चाहिए। जैसा कि आपने देखा है, घबराहट के कुछ कारण सरल, गौण और आपके द्वारा सर्जित है। आप यदि चाहे तो उन्हें आसानी से सुधार सकते हैं। इसी प्रकार, यदि आप केवल प्रयास करें तो मानव प्राणियों तथा ऐसे ही दूसरों की प्रकृति के बारे में यथार्थ ज्ञान के अभाव को आसानी से सुधार सकते हैं। तब यह देखा जा सकता है कि अनेक स्थितियों में इस विधि को आपके अपने संशोधनों, सुधार, परिवर्धन तथा कार्य की आवश्यकता है।
इस विधि के दूसरे पहलू के लिए जीवन विषयक कुछ जीवन दर्शनों, मान्यताओं, सिद्धांतों एवं विचारों का अध्ययन आवश्यक है। इनके अवबोध तथा ज्ञान से आपको अपने जीवन को साथ ही साथ दूसरों के जीवन को समझने का सुराग मिलेगा। यह जानकारी आपको यह तय करने तथा निर्णय लेने में भी समर्थ बनाएगी कि किसी खास परिस्थिति में क्या किया जाना चाहिए और क्या, किस प्रकार और कब कार्यवाही की जानी चाहिए। प्रश्न यह है कि यह जानकारी कैसे प्राप्त की जाए?
इस बिंदु पर मैं यह राय दे सकता हूं कि आप स्वामी विवेकानन्द की कर्मयोग तथा ज्ञानयोग नामक पुस्तकों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन करें। वहां कहीं गई प्रत्येक बात को स्वीकार नहीं करें जब तक की आपके पास स्वीकार करने के लिए युक्ति संगत कारण न हों। योग आपको शिक्षा प्रदान करता है कि किसी व्यक्ति के विचार, परामर्श और धारणा को तब तक स्वीकार नहीं करें जब तक कि उन्हें स्वीकार करने के लिए तर्क-संगत एवं बुद्धि-संगत कारण न हो।
घबराहट की अवस्था पर विजय पाने की कुछ यौगिक विधियां एवं प्रविधियां है, जिनका वर्णन अंत में किया गया है।
यद्यपि तरीके या विधि के संबंध में सामान्यकृत विवरण कुछ अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, तथापि पाठको में से कुछ लोग बारी बारी से प्रत्येक दशा का उपचार अलग से जानने की इच्छा कर सकते हैं।अतएव, घबराहट के सभी प्रमुख कारकों पर एक एक कर विचार करने तथा तदनुसार उपचार बताने का यहाँ प्रयास किया गया है। किंतु चूँकि बहुत से अतिव्यापी कारक है, इसलिए पुनरावृत्ति से बचते हुए मैं उपचारों के विवेचन का प्रयास करूंगा।

परिवेश-संबंधी कारकों का उपचार:

यदि घबराहट उत्पन्न करने वाले कारक परिवेश संबंधी हो तो प्राकृतिक घटनाओं को जान और समझ कर कार्य करके उनका प्रतिकार किया जा सकता है। ज्ञान योग यह शिक्षा देता है कि अंधेरे में लटकती रस्सी को सांप के रूप में देखना या अंधेरे में लटकते किसी सांप को रस्सी के रूप में देखना न केवल ज्ञान का अभाव प्रदर्शित करता है, बल्कि त्रुटिपूर्ण ज्ञान को प्रदर्शित करता है। यह त्रुटिपूर्ण ज्ञान असंख्य के प्रकार से तथा अनगिनत अवसरों पर व्यक्ति में भय तथा बेचैनी उत्पन्न कर सकता है। औषध या दवाओं की कोई भी मात्रा इसे ठीक नहीं कर सकती। व्यक्ति( पुरुष या स्त्री) को स्वयं ही अध्ययन, तर्क बुद्धि, अनुभव, निरीक्षण तथा ऐसे ही अन्य साधनों द्वारा अपने में यथार्थ ज्ञान विकसित करना होगा।
जब व्यक्ति यह समझ जाता है कि प्राकृतिक आपदाएं किसी व्यक्ति द्वारा सर्जित नहीं है और वे किसी व्यक्ति के अनुकूल या प्रतिकूल नहीं है, तब बदहवास होने, बेचैन होने और घबराने का कोई कारण नहीं रह जाता। ऐसी दशा में उपचार यह है कि परिस्थिति संबंधी तथ्यों को प्राकृतिक रूप में स्वीकार किया जाए और क्या उपाय किया जा सकता है - यह पता लगा लिया जाए।
ऐसी स्थिति में आप जितना- कितना कर सकते हो, करने का प्रयास करें। किसी खास स्थिति में आप बेचैन, अशांत उद्विग्न होने( घबराने) के बजाय रक्षा करने तथा जीवन पद्धति को बनाए रखने के लिए जो भी संभव हो, करने का प्रयास करें।

सामाजिक कारकों का उपचार:
जैसा कि हम लोगों ने देखा है, घबराहट के सामाजिक कारक विभिन्न प्रकृति के हैं। इनमें से कुछ कारक - जैसे उपयुक्त काम धंधे या जीविका के अभाव में आर्थिक असुरक्षा- योग्यता, यथार्थ ज्ञान, यथार्थ जानकारी तथा दक्षता के अभाव के कारण हो सकते हैं। यदि घबराहट के ये ही कारण है, तो इसका प्रतिकार और उपचार है इन्हें प्राप्त कर लेना। जैसा कि आप देख सकते हैं, ज्ञान, योग्यता और जानकारी विकसित या परिवर्द्धित की जाती है तथा प्राप्त की जाती है। व्यक्ति के लिए धैर्य पूर्वक काम करने के अलावा, उनकी प्राप्ति का, कोई दूसरा मार्ग नहीं है। ऐसी दशा में, योग के सिद्धांतों के अनुसार एकमात्र आप उन्हें प्राप्त करने के लिए जिम्मेवार है।
यदि घबराहट का कारण व्यक्ति द्वारा अधिक चाही गई कुछ वस्तुओं की सुलभता का अभाव है, तो इसका उपचार उन वस्तुओं की प्राप्ति के तरीके एवं साधन ढूंढ निकालने में निहित है। इसकी प्रविधि यह है कि सर्वप्रथम आप ठीक ठीक यह जान ले कि वह है क्या, जिसे आप पाना चाहते हैं और जिसकी आपको आवश्यकता है। इस प्रकार इच्छित वस्तुओं के बिंब या आकृति को सुस्पष्ट रूप से अपने मन में देखें।

पूर्व लेख (इच्छापूर्ति का सिद्धान्त Wish fulfillment principle)   में वर्णित कंपन के सिद्धान्त को पढ़ें और तदनुसार उस का प्रयोग करें। इच्छा एवं आवश्यकता की यथार्थता की अनुभूति में यदि आपने धारणा का अभाव हो, तो कुछ समय तक( कुछ महीने) धारणा का अभ्यास करें, और उस शक्ति का प्रयोग करें। आप यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाएंगे कि आपकी सारी इच्छाएं एवं आवश्यकताएं क्रमशः पूरी हो जाएंगी। इस प्रविधि का प्रयोग किसी भी प्रकार की इच्छा, चाहे भौतिक हो या वैयक्तिक, के लिए किया जा सकता है।

उदाहरणार्थ, यदि आप एक जीवन संगी चाहते हैं,विवाह करना चाहते हैं, एक मकान खरीदना चाहते हैं, गाड़ी, कपड़े तथा ऐसी ही अन्य चीजें खरीदना चाहते हैं, तो इसी प्रविधि का प्रयोग करें। आपका ध्यान पूर्ण रूप से आकृष्ट करने के लिए मैं इस बात को पुनः दुहरा देना चाहूंगा कि आप इच्छापूर्ति का सिद्धान्त Wish fulfillment principle में वर्णित इच्छाएं एवं आवश्यकताएं इस अंश को अवश्य पढ़ें। उस विषय को ध्यान पूर्वक बार-बार पढ़ें अब तक कि आप उसे पूरी तरह समझ न ले। इच्छाओं और आवश्यकताओं से संबंधित उक्त अंश का, कुछ मित्रों के साथ अध्ययन और विचार-विमर्श विषय को स्पष्ट करने में सफल हो सकता है।

अब हम लोग घबराहट के सामाजिक कारकों के शेष पहलुओं को लें। जब घबराहट का कारण सामाजिक उपद्रव हों, जैसे जातीय दंगे, धार्मिक संघर्ष या झगड़े तथा ऐसी अन्य उथल पुथल, तब इसका एक उपचार यह है कि आप उसमें शामिल ना हो। दूसरे, अन्य लोगों को मारने और आहत करने की भावना को पनपने और बढ़ने न दे। योग के अनुसार जब आप सोचते हैं तो एक कंपन उत्पन्न होता है, जो आप के संपर्क में आने वाले सभी लोगों को प्रभावित करता है।अतएव, जब आप अपने घर के एकांत में भी दूसरों को आहत करने की बात सोचते हैं तो वायु में विद्यमान कंपन के कारण दूसरों द्वारा उसका भेद खुल जाता है, वह ज्ञात एवं अनुभूत हो जाती है। अभिप्राय यह है कि तबु दूसरों के प्रति आपकी अच्छी और प्रिय भावनाएं लाभकारी एवं शान्तिदायक कंपन उत्पन्न करेंगी, जिसका आवर्तन में सामान परिणाम होगा।

वैयक्तिक कारकों  का प्रतिकार एवं नियंत्रण : 



यद्यपि इस शीर्षक के अंतर्गत हमारे पास घबराहट उत्पन्न करने वाले कारकों की एक लंबी सूची है, फिर भी अपनी याददाश्त को ताजा करने के लिए एक बार पुनः उनकी रूपरेखा प्रस्तुत करना श्रेयस्कर होगा।
ये कारक है: भय का संवेग, मानव स्वभाव तथा सामाजिक घटनाओं के विषय में यथार्थ ज्ञान का अभाव, दूसरों को क्षति पहुंचाने की भावना तथा यौन-जीवन(सेक्स लाइफ) से संबंधित समस्याएं।
अब इनमें से एक एक कारक पर अलग-अलग विचार करेंगे और तत्पश्चात उपचार बताएंगे। सर्वप्रथम हम भय को लें।
भय : जैसा कि आपने देखा है, भय का प्रधान कारण है दृढ़ विश्वास का अभाव या कोई व्यक्ति जो कुछ करने को तत्पर है उसे करने की क्षमता का अभाव। इस स्थिति में एक उपचार है - कार्य को करने की जानकारी तथा ज्ञान का विकास।
जब आप कार्य करने की सही विधि का ज्ञान प्राप्त करने को प्रस्तुत कर लेंगे, तब आप कभी नहीं घबराएंगे।
द्वितीयत: कुछ चीजों के लिए अकेले काम करके सीखना आवश्यक होता है। सैद्धांतिक ज्ञान, चाहे आप को कितना भी अधिक क्यों ना हो, पर्याप्त नहीं होगा। ऐसी दशा में आपको यह अनुभव करना चाहिए कि आप केवल सीख रहे हैं, और यदि आप कुशल कार्य संपादन में विफल हो जाते हैं तो यह आपकी घबराहट का कारण नहीं होना चाहिए। इसे याद रखें की गलतियां करना, अधिक अच्छा करने के ज्ञान का केवल एक अंग है। जहां तक हमारी जानकारी है, मानव इतिहास में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं हुआ, जो बिना गलतियां किए किसी चीज को अच्छी तरह करने में समर्थ हुआ हो। अतएव गलतियों को विफलताओ के समकक्ष कदापि नहीं माने।
गूढ़ बात यह है कि उन गलतियों से शिक्षा ग्रहण की जाए, उनसे अनुभव प्राप्त किया जाए और अगले कार्य संपादन में सुधरी हुई रीति से उनका प्रयोग किया जाए। यदि किस जानकारी के साथ आप कुछ करते हैं तो आप करने से न तो कभी भयभीत होंगे और न भय के कारण घबराएंगे ही।

जब यथार्थ ज्ञान व जानकारी का अभाव होता है : 

जैसा कि हमने देखा है, इस दशा में व्यक्ति जिन लोगों के संपर्क में आता है, उनकी प्रकृति एवं स्वभाव की गलत जानकारी के कारण चिंता उत्पन्न हुई है, और कुछ खास परिस्थितियों को, जिनसे व्यक्ति सबद्ध होता है, गलत समझने का कारण भी।
इसका उपचार इस तथ्य को स्वीकार कर लेना है कि सभी मानव प्राणी एक समान कार्य, आचरण और विचार नहीं कर सकते। प्रत्येक समाज में शैक्षिक, संस्थागत एवं प्रयोजनमूलक भिन्नताऐं व्यक्तियों में रहती ही है। तब वैयक्तिक प्रकार की हजारों समस्याएं हैं, जो व्यक्ति की मनोदशा, प्रवृत्ति, स्वभाव तथा शारीरिक एवं मानसिक दशाओं को प्रभावित करती है, एक ही दिन विभिन्न समयों में उस व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) के भिन्न-भिन्न रूप से कार्य तथा आचरण कराती है। तब यह बिल्कुल संभव है कि आप सड़क पर, कार्यालय में, बस में, ट्रेन आदि में किसी व्यक्ति से मिलते हैं तब उससे यह आशा नहीं की जा सकती कि वह अपनी अनुकूल अनुक्रिया ही व्यक्त करे, क्योंकि वह विभिन्न कारणों से, जैसे पेट दर्द या दिमाग चकराने की अवस्था, सामान्यत: अनुक्रिया नहीं भी व्यक्त कर सकता है। और जब वह मुंह लटका ले या कड़ा उत्तर दे तो इससे आपको घबराना नहीं चाहिए। यदि आपने मानव जीवन के इस तथ्य को समझ लिया है, तो ऐसी दशाओं का उपचार  भी आपने जान लिया है।
जहां तक कुछ खास दशाओं के लिए उपचार का संबंध है, वह उपाय किए जा सकते हैं : 
एक है - आप असुखकर स्थिति में शारीरिक उपस्थिति से बचें। 
और दूसरा, कभी ऐसा ना सोचे कि समाज में जो घटना घटी है, उससे केवल आपका ही संबंध है। यदि ऐसा हो कि ऐसी स्थिति उत्पन्न करने से, जिससे किसी व्यक्ति को क्षति पहुंची हो, आप ही प्रत्यक्ष रूप से सबद्ध रहे हो, तो भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति ना होने पाए। एक बार जो कुछ हो गुजरा, उसका यह अर्थ नहीं कि उसने सुधार तथा समुन्नति के अवसरों को अवरुद्ध कर दिया है। इसका एकमात्र तात्पर्य है कि कुछ गलतियां हुई। उन गलतियों से सबक ले। भविष्य में उन्हें दोहराएं नहीं। यही उपचार है।

दूसरों को क्षति पहुंचाने की भावना से बचें : 

सामाजिक कारकों का विवेचन करते समय पहले ही इसके उपचार का विवेचन किया जा चुका है। किंतु मैं यहां केवल एक बात जोड़ना चाहूंगा। योग यह शिक्षा देता है कि व्यक्ति की अच्छाई किसी अन्य व्यक्ति के समर्थन, कृपा या सहानुभूति पर निर्भर नहीं करती। स्वयं व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) में शक्ति - विपुल शक्ति - निहित है, जिसके समुचित विकास और समुचित प्रयोग द्वारा सभी इच्छित परिणाम पाए जा सकते हैं। तब आप देख सकते हैं कि जब आप दूसरों को हानि पहुंचाने के विचार में समय लगाना प्रारंभ करते हैं, तब आप उसी समय अपनी अच्छाई की उन चीजों की अवहेलना कर रहे होते हैं, जिन्हें केवल समुचित वैयक्तिक ध्यान द्वारा और अच्छा किया जा सकता है।अतएव, इसका उपचार यह है कि दूसरों को हानि पहुंचाने यहां तक कि दूसरों का अनुचित समर्थन प्राप्त करने के बजाए आप अपनी अच्छाई या नेकी की बात सोचें।

यौन-वृत्ति से सबद्ध समस्याओं का उपचार : 

वैयक्तिक प्रकार की सभी समस्याओं में यौनवृत्ति की समस्याओं को इस विवेचन के पहले ही सर्वाधिक प्रभावी एवं महत्वपूर्ण माना गया है। अतः इसका उपचार बतलाने के समय इसकी विभिन्न समस्याओं का बारी-बारी से विवेचन श्रेयस्कर होगा। फिर, यद्यपि कुछ आती भी आती कारक है, अतः मैं उन्हें स्पष्ट करने तथा पृथक रूप में समझाने का प्रयास करूंगा।

जब सुलभता का अभाव होता है : सुलभता की समस्या प्रतिबंधिक या आपेक्षिक होती है। यह समाज, स्थान, वातावरण तथा परिस्थितियों की प्रकृति पर निर्भर करती है, जिसमें इसका सामना करना होता है। यदि व्यक्ति इस रूप में व्यवस्थित हो कि काम-वृत्ति के सहभागी की सुलभता असंभव हो तो इसका उपचार है -
धैर्य, सांत्वना तथा संयम की भावना विकसित करना। यद्यपि ऐसा करना आसान नहीं है, तथापि कोई भी व्यक्ति अपने मन के ध्यान को किसी रचनात्मक कार्य में, जिसमें शारीरिक एवं मानसिक श्रम आवश्यक होता है, लगाकर इसे आसानी से कर सकता है। किसी भिन्न कार्य में शारीरिक एवं मानसिक रूप से संलग्न हो जाने पर कामवृत्ति की भावना दब जाएगी। फलस्वरूप घबराहट दूर हो जाएगी।
तत्पश्चात, एक योगासन है, जिसका अभ्यास नियम पूर्वक करने से वासना की इच्छा मर जाती तथा नष्ट हो जाती है इस आसन का अभ्यास उन लोगों के लिए उपयुक्त हो सकता है, जो काम-वासना को स्थायी रूप से समाप्त कर देना चाहते हैं। अधिकांश हिंदू- धर्मावलंबी लोग अपनी कामवृत्ति पर नियंत्रण के लिए इस आसन का प्रयोग करते हैं। किंतु चूँकि इस आसन के अभ्यास से स्थायी क्षति हो सकती है, इसलिए उसका वर्णन करने में भी मुझे हिचकिचाहट हो रही है। इस प्रकार का भी एक उपचार है, यह बताने के लिए मैंने केवल संकेत भर कर दिया है।
किंतु उपर्युक्त विधि के प्रतिस्थापक के रूप में अन्य योगासनों के अभ्यास की अनुशंसा की जाती है। यह समझ लेना चाहिए कि उल्लिखित एक आसन को छोड़कर योग के अन्य आसन कामेच्छा या कामशक्ति को दुर्बल नहीं बनाते। बल्कि वे कामशक्ति को उत्पन्न एवं परिवर्द्धित करते हैं। किंतु इस अभ्यास से अच्छी बात यह है कि यह तनाव, चिंता और बेचैनी में कमी लाता, उन्हें सामान्यीकृत तथा शांत करता है और विवेच्य स्थिति में प्रमुख आवश्यक यह है कि तनाव तथा बेचैनी को सामान्य बनाया जाए।

इस प्रकार, यद्यपि कामशक्ति उत्पन्न होगी, तथापि वह उत्तेजना की अवस्था नहीं होगी। जब समुचित अवसर सुलभ होगा तब उस शक्ति का उपयोग लाभकारी होगा।
जब इस प्रकार आपकी शक्ति नियंत्रित हो जाती है।
तो आप पाएंगे कि स्थिरता, शांत स्वभाव तथा भद्रता शारीरिक या मानसिक दुर्बलता की निशानी नहीं है। योग ठीक इसी लक्ष्य की ओर निर्देश करता है। इसे समझ लेने के बाद, हम जिस स्थिति का विवेचन कर रहे हैं उसमें पड़ा व्यक्ति योग के निम्नांकित अभ्यास कर सकता है :
1- गहरी श्वास क्रिया, जैसे कि " धारणा/ एकाग्रता " में वर्णित है। सुबह-शाम दोनों समय अभ्यास करें - एक समय में दस बार।
2- कुछ आसनों का वर्णन आगे किया गया है। उनमें कुछ या सभी का सुबह और शाम में अभ्यास करें।
एक सत्र या समय में एक घंटे से अधिक अभ्यास नहीं करें। प्रथम तथा द्वितीय के सत्र के बीच आठ घंटे का अंतर रखें। यदि आप चाहें तो केवल एक ही समय अभ्यास कर सकते हैं।

अब हम लोग इस स्थिति के दूसरे पक्ष या पहलू को ले। यदि व्यक्ति ऐसे स्थान, वातावरण या समाज में अवस्थित हो, जहां कामवृत्ति के सहभागी उपस्थित है, किंतु वह व्यक्ति किसी को प्राप्त करने में असमर्थ रहता है - तब उसका उपचार है - कंपन के सिद्धांत का प्रयोग करना।
( इसका विवरण इच्छापूर्ति का सिद्धांत में दिया गया है) कृपया उसे पढ़ें तथा समुचित रीति से उसका प्रयोग करें। आप अपने लक्ष्य सिद्धि या उद्देश्य पूर्ति के पूर्णतया आश्वस्त हो सकते हैं। फिर आपमें घबराहट उत्पन्न करने वाली सुलभता की यह समस्या कभी रहेगी ही नहीं।

जब सुलभता रहती है, किंतु क्षमता का अभाव होता है : 

यौन या कामवृत्ति संबंधी अक्षमता के लिए सुधारात्मक तथा सर्जनात्मक उपाय आवश्यक है। सुधारात्मक उपाय के अंतर्गत उन आदतों को छोड़ने और परिवर्तित करने की बात आती है, जो आदतें ज्ञात रूप से व्यक्ति को हनी पहुंचाती रही है, दुर्बल और अक्षम बनाती रही है।
दूसरी ओर, सर्जनात्मक उपाय से तात्पर्य है शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के उन पहलुओं को सबल, क्रियाशील तथा विकसित करने से, जो शक्तिहीन तथा उपेक्षित कर दिए गए हैं। इन दोनों उपायों में अंतर इस तथ्य में देखा जा सकता है कि सुधार करने में जहां कुछ चीजों के परिवर्तन करने और छोड़ देने की आवश्यकता पड़ती है, जो चीजें पहले से ही ज्ञात है, वह सर्जन करने से किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए, जिसका या तो अभाव रहता है या जो पर्याप्त नहीं होती, नए प्रयास करने की आवश्यकता पड़ती है। यहाँ संक्षेप में इन दोनों उपायों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि किस प्रकार वे दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण है।

सुधारात्मक उपाय : कुछ चीजों के प्रयोग का किसी व्यक्ति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ सकता है, किंतु दूसरों पर उनका हानिकारक प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं भी हो सकता है।अतएव व्यक्ति को स्वयं इसका निर्धारण करना होता है कि कौन सी चीज किस मात्रा में हानिकारक है। इसी के अनुसार सुधार किया जाना चाहिए। यहाँ कुछ सामान्यत: ज्ञात दुर्बलकारी पहलुओं को प्रस्तुत किया जा रहा है।

धूम्रपान : यदि आप अत्यधिक धूम्रपान करते हो तो उसमें सुधार लाएं। कुछ लोगों पर केवल एक ही सिगरेट पीने से दुर्बल कारी प्रभाव हो सकता है, यद्यपि वह प्रभाव केवल चौबीस घंटे तक रहेगा। यदि आप धूम्रपान पूर्णत: छोड़ सकते हैं तो यह अतिशय वांछनीय होगा, विशेष होता आपके मामले में जबकि यह दुर्बलता का ज्ञात कारक या घटक है। पान के साथ जर्दा (तंबाकू) का अत्यधिक प्रयोग करने से भी वही दुर्बल कार्य प्रभाव हो सकता है।

शराब : यद्यपि अल्कोहल युक्त मादक पेय को कामोत्तेजक माना जाता है, तथापि इनका अधिक प्रयोग शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता लाता है, क्योंकि सभी मादक पर विटामिन अपहरणकारी होते हैं। वे शरीर के पोषक तत्वों को नष्ट कर डालते हैं। इसके अतिरिक्त, यदि किसी भी शराब का सेवन अत्यधिक किया जाए तो वह व्यक्ति को दुर्बल बना देगा। यह जो अवांछनीय है, वह है इसका नियमित रूप से अत्यधिक सेवन। यदि कभी सामाजिक अवसरों पर आपको पीने का अवसर मिले और आप अधिक भी पी ले तो उसका कोई स्थाई प्रभाव नहीं होगा। किंतु यदि आप प्रतिदिन अधिक सेवन की आदत डाल लेते हैं तो इसका प्रभाव चिरस्थायी होगा। अब आप स्वयं इसका निर्णय करें कि आपके निजी मामले में क्या किया जाना चाहिए।

शयन तथा विश्राम : 
जीवन का एक अति महत्वपूर्ण पक्ष (पहलू), जिस पर यथोचित ध्यान नहीं दिया जाता है, वह है शयन तथा मिश्राम। बहुत से लोगों की यह धारणा है कि दिन में दो से चार घंटे से अधिक का विश्राम विलासिता है। कुछ लोग जानबूझकर जितने घंटे सोना आवश्यक है, उसकी अवहेलना करते हैं और परिणाम स्वरूप में सदा ही घबराहट की हालत में रहते हैं। मैं यहां एक महिला का मनोरंजक दृष्टांत प्रस्तुत करना चाहूंगा।
वह महिला प्रायः सभी समय धूम्रपान किया करते थे, हर घंटे काफी (कहवा) पीती थी तथा अस्थिर चित्त और घबराई हुई रहती थी। कौतूहलवश, मैंने एक दिन उसकी ऐसी स्थिति का कारण जानने के लिए उनसे पूछा - " महोदया, मुझे क्षमा करें। मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं।" उसने हिचकिचाहट रहित स्वर में उत्तर दिया - हां हां अवश्य पूछिए। तब मैंने अति विनम्रता पूर्वक पूछा - आप कितने घंटे सोती हैं? उसने उत्तर दिया - दिन में दो-तीन घंटे। और जब मैंने पूछा - क्यों? तब उसने उत्तर दिया - आप देखें में इससे अधिक सोने की आरामतलबी की गुंजाइश निकाल ही नहीं सकती क्योंकि मुझे अन्य कार्य के लिए समय निकालना पड़ता है। मेरी जानकारी के लिए यही पर्याप्त था और मैंने उस महिला को धन्यवाद दिया। उपर्युक्त उदाहरण घबराहट के कारण को जानने के लिए यथेष्ट है। परामर्श क्या है? योग का परामर्श यह है कि प्रतिदिन छः से आठ घंटे सोना चाहिए। शयन की कमी से व्यक्ति की न केवल शारीरिक, बल्कि मानसिक शक्ति और अवस्था में भी दुर्बलता आती है। तब प्रश्न यह उठता है कि ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति को क्या करना चाहिए, जो कुछ घंटों से अधिक नहीं सो सकता है।
यह दूसरी समस्या है। इस बिंदु पर जोर देकर कहना चाहूंगा कि जानबूझकर शयन के घंटों में कमी नहीं करें। बहुत से लोगों को संभोग का सुख नहीं मिल पाता, क्योंकि मुख्यतः उनका विश्राम तथा शयन अपर्याप्त होता है।अतएव, यदि आपके साथ ऐसी बात हो तो अपने में सुधार लाएं।

काफी( कहवा) और चाय :
यह आधुनिक समय के रहन-सहन का ऐसा विभिन्न अंग बन गई है कि इनका पूर्णत:  त्याग नहीं किया जा सकता है। किंतु हमें जान लेना चाहिए कि इनमें खामियां क्या है। इनका अत्यधिक सेवन करने से अनेक गड़बड़ियां पैदा होती हैं। चौबीस घंटे की अवधि में दो प्याली से अधिक कॉफी या चाय को अधिक ही मानना चाहिए। शारीरिक तंत्र पर कॉफी और चाय दोनों का प्रायः समान प्रभाव पड़ता है। इससे कब्जियत, अनिद्रा, त्वचा का रुखा हो जाना, तथा स्नायु में तनाव उत्पन्न होते हैं। इनका अधिक व्यवहार या सेवन बहुत से लोगों में बेचैनी, अस्थिरता तथा घबराहट पैदा करता है। यह बताना आवश्यक है कि इनका अधिक प्रयोग करने से व्यक्ति के कामशक्ति दुर्बल पड़ जाएगी। अतः इनके दैनिक व्यवहार पर नियंत्रण रखा जाना चाहिए।

कुछ खास आदतों में सुधार : घबराहट के कारणों के विवेचन के क्रम में यह पहले ही बताया जा चुका है कि बहुत से अवांछनीय तरीके, आदतें और कुछ फिजूल मानसिक धारणाएं यौन क्षमता को दुर्बल बना देती है। हिंद का सुधार करना आवश्यक है।
इसके अतिरिक्त, संभोग के सही तरीके, प्रविधि और तरकीब के अभाव में असंतुष्टि, अरुचि और यहां तक कि कामवृत्ति के प्रति प्रतिकूल दृष्टिकोण तथा भावनाएं भी उत्पन्न हो सकती हैं, जिनसे कालांतर में काम शक्ति  क्षीण या दुर्बल हो जाएगी। इसका भी सुधार किया जाना आवश्यक है इन सभी सुधारात्मक पहलुओं का पूर्ण विवेचन इस विषय सीमा से परे है।अतएव, यह सलाह दी जाती है किन व्यक्तियों को कारण भूत कारको को पहचान लेना चाहिए और तदनुसार उन्हें सुधारने का का प्रयास करना चाहिए। कामकला की दोषपूर्ण विधियों को सुधारने के लिए वात्सायन के कामसूत्र का अध्ययन करना चाहिए, जिसके अनूदित संस्करण अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में सुलभ हैं।

सर्जनात्मक उपाय : यह सर्जनात्मक उपायों से तात्पर्य है सार्थक तथा संतुष्टिकर कामवृत्ति के लिए शक्ति, क्षमता तथा यौनाकर्षण की प्राप्ति तथा इन्हें विकसित करने से इस संबंध में दो चीजें करनी चाहिए : एक है उपयुक्त आहार ग्रहण करना दूसरी है शारीरिक व्यायाम करना।

आहार : नियमित जीवन सिद्धांतों के अनुसार अपना दैनिक भोजन ले। ताजा फल और कड़े छिलके वाले फल खाने का विशेष ध्यान रखना चाहिए। गिरी-फल भुने हुए या सेके हुए नहीं हो। उन्हें उनके प्राकृतिक रूप में ही खाना चाहिए। जिन गिरी फलों को खाने की राय दी जाती है, वे हैं - अखरोट, काजू, बादाम, पिस्ता आदि।

शारीरिक व्यायाम  : प्रतिदिन लगभग पन्द्रह मिनट तक योगासनों का नियमित अभ्यास सर्वथा पर्याप्त होगा। केवल कुछ ही महीने के भीतर आपको यह देख कर आश्चर्य होगा कि येपूरे शरीर तंत्र को किस प्रकार सबल बना देते हैं। अपनी शारीरिक अवस्था के अनुसार कुछ आसनों को चुन ले और उनका नियम पूर्वक अभ्यास करें।

जब असमायोजन या अप्रिय संबंध हो  : कुसमायोजनों को को निकट से देखने पर प्रकट हो जाएगा कि उनमें से अनेक ऐसे हैं जिनका उपचार महज वे कार्य करने में निहित है, जो पहले नहीं किए गए थे, जैसे अविश्वास की स्थिति में विश्वसनीय होना, अनिर्भरता की स्थिति में निर्भर योग्य होना आदि। कुछ अन्य प्रकार की समस्याओं का विवेचन पूर्व के प्रश्नों में किया जा चुका है और वही उनके उपचार भी बताए जा चुके हैं। अतः यहां केवल सर्वाधिक संगत या उपर्युक्त समस्याओं को, जिन का विवेचन पहले नहीं हुआ है, समाविष्ट किया गया है।
योग के सिद्धांतों के अनुसार जो चीजें अच्छी हैं, वे भी बुरी लग सकती हैं यदि बुराई की भावना या विचार अध्यारोपित (Super imposed) हो। इसी प्रकार यदि अनुकूल भावना विकसित की जाए तो जो चीज बुरी मानी जाती है, वह अच्छी लग सकती है। वस्तुतः भावना ही यह विभिन्नता उत्पन्न करती है, न कि स्वयं पदार्थ या चीज। इस प्रकार, आपका जीवन साथी या काम-सहभागी, जो आज भी उतना ही अच्छा हो सकता है,जितना वह प्रथम मिलन के समय था, इसीलिए बुरा लगता है, क्योंकि आपने उसे( पुरुष या स्त्री) बुराई की अध्यारोपित भावना से देखना प्रारंभ कर दिया है। यह मैं यह समझाने के लिए कि यह किस प्रकार सच है, उदाहरण प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं समझता, क्योंकि कुछ अतीत की बातों, घटनाओं या वस्तुओं के संबंध में आपके अपने पुनर्मूल्यांकन से इस तथ्य की प्रामाणिकता स्पष्ट हो जाएगी।
योग का दूसरा सिद्धांत यह है जो चीज अवांछनीय है, उसे वांछनीय के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। असुखकर अवस्था में यह परिवर्तन तभी हो सकता है, जब सबद्ध व्यक्ति परिवर्तन लाने के लिए निश्चय करे, उसे श्रेयस्कर समझे और कार्य करे। यह व्यक्ति की अपनी शक्ति के अधीन है कि वह शारीरिक मानसिक और यहां तक कि सांसारिक - सभी क्षेत्रों में इस परिवर्तित सुखकर अवस्था की सृष्टि करे। यह प्रदर्शित करने के लिए कि व्यक्ति की शक्तियां क्या हैं, और वह (पुरुष या स्त्री) क्या कर सकता है - मैं यहाँ " ज्ञान योग" के कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा।

' ज्ञानयोग' का कथन है : " तुम ही शुद्ध रूप हो। जागो और उठो। हे सर्वशक्तिमान! यह निद्रा तुम्हारे अनुरूप नहीं है। जागो और उठो, यह निद्रा तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है। यह कदापि नहीं सोचो कि तुम दुर्बल और दीन दुखी हो। हे सर्वशक्तिमान! उठो और जागो और अपने सच्चे स्वरूप को प्रकट करो। यह तुम्हारे लिए उचित नहीं कि तुम अपने को पापी समझो। यह भी उचित नहीं कि तुम अपने को दुर्बल समझो। यही बात विश्व को कहो, यही अपने को कहो, और देखो - इसका क्या व्यवहारिक परिणाम सामने आता है; देखो, किस प्रकार बिजली की चमक से वास्तविकता प्रकट हो जाती है, किस प्रकार प्रत्येक वस्तु परिवर्तित हो जाती है।"पृ 345।।
एक अतिरिक्त बिंदु, जिस पर ध्यान देना आवश्यक है, सहिष्णुता होने विषयक है। इसका अर्थ है अन्य व्यक्ति की त्रुटियों के प्रति सहिष्णुता। सहिष्णुता के इस गुण के अभाव में कोई व्यक्ति दैनिक जीवन के अनगिनत अवसर पर संकट में पड़ सकता है। आप कह सकते हैं कि आप सर्वथा सहिष्णु है, किंतु दूसरा व्यक्ति असहिष्णु है। जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, योग वह शिक्षा देता है कि दूसरों को सुधारने के पहले अपने को सुधारो। आपका यह सुधार दूसरों को भी अपना सुधार करने की प्रेरणा प्रदान करेगा।
इसके अतिरिक्त आप का यह सोचना कि आप जैसा चाहते हैं, दूसरा व्यक्ति भी वैसा ही अवश्य सोचें और करे, एक अत्यंत अवांछनीय धारणा है। यह ना तो संभव है, न आवश्यक और इसीलिए वांछनीय भी नहीं है। इन विभिन्नताओं या विभेदों को मानव जीवन तथा मानव की प्रगति उत्कर्ष के अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए, क्योंकि बताओ से कोई खतरा या हानि नहीं है। बल्कि ये विभिन्नताएं प्रगति, सुधार और सर्जनात्मक विचार उत्पन्न करती हैं।अतएव, दूसरे व्यक्ति में आप जो विभिन्नताएं देखते हैं उनका इसी साझेदारी के साथ स्वागत किया जाना चाहिए तथा उन्हें सहना चाहिए। केवल तब ही आप किसी सुखकर एवं चिरस्थायी संबंध बनाए रखने की आशा कर सकते हैं। ज्ञान योग यही विचार प्रकट करता है, जब वह हमें शिक्षा देता है :  " हमें यह इच्छा कदापि नहीं करें कि हम सब को एक समान सोचना चाहिए। तब चिंतन करने के लिए कोई विचार ही नहीं रह जाएगा; जिस प्रकार संग्रहालय या अजायबघर में मिस्रियों द्वारा सुरक्षित रखे गए शव चिंतन करने के लिए विचार के बिना एक दूसरे की ओर देख रहे हैं। वही यह अंतर है, यह विभेद है, यह हम लोगों के बीच सादृश्य का अभाव है, जो हमारी प्रगति की आत्मा है, हमारे सभी विचारों की आत्मा है। यह सदा अवश्य होना है।"पृ 391।।

जब भ्रांतियां हो : इन मामलों के उपचार हैं - मानव प्राणियों के शरीर क्रियात्मक पहेलुओं के विषय में यथार्थ ज्ञान और जानकारी विकसित करना। प्राकृतिक बुद्धि तथा विकास के क्रम में जो कुछ घटित हुआ है, उससे किसी व्यक्ति में आतंक या बेचैनी नहीं उत्पन्न होनी चाहिए। बल्कि इन परिवर्तनों को सामान्य जीवन पद्धति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
स्त्रियों का जब तैतालिसवें वर्ष के करीब मासिकधर्म एकदम रुक जाता है, तब मैं बहुत परेशान हो जाती हैं। उन्हें यह भय सताने लगता है कि इससे शारीरिक एवं यौन असमर्थता उत्पन्न होगी और वे संभोग-सुख से वंचित रह जाएंगी। यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है यद्यपि कुछ शारीरिक परिवर्तन अवश्य घटित होते हैं तथापि वे किसी भी स्थिति में संभोग-सुख से वंचित नहीं करते अथवा उसे कम भी नहीं करते। इसके विपरीतरजोनिवृत्ति की अवधि को बहुतों ने वांछनीय परिवर्तन माना है क्योंकि इस अवध में गर्भ-धारण नहीं रहता।

घबराहट से आराम पाने की कुछ यौगिक-प्रविधियां :


हमने विभिन्न अवस्थाओं के लिए, जिनमें विभिन्न प्रकार के उपचार आवश्यक है, उपचारात्मक उपायों का विस्तृत विवेचन किया है। उन अवस्थाओं के लिए बताए गए उपचारों का स्थाई मूल्य एवं प्रभाव है। यहां घबराहट की दशा में फौरन राहत पाने की कुछ सामान्य प्रविधियां बताई जा रही है। इसे समझ लेना चाहिए कि इन उत्तर विधियों का केवल क्षणस्थायी प्रभाव होगा, न् कि स्थायी रोगमुक्त या नियंत्रण।अतएव इन प्रविधियों का प्रयोग नियमित रूप से हरगिज़ नहीं करना चाहिए, जैसा कि अन्य योगासनों का अभ्यास किया जा सकता है। मैं इस तथ्य का पुनः उल्लेख कर देना चाहता हूं कि  इन प्रविधियों का प्रयोग केवल तभी किया जाए जब फौरन राहत पाने या तात्कालिक निवारण आवश्यक हो।

गहरी सांस लेना : बैठ जाएं या खड़ा रहने की स्थिति में हो जाए। आप कुर्सी, सोफा या फर्श पर बैठ सकते हैं। किंतु आपको सीधा तन कर बैठना चाहिए ताकि आपका मेरुदंड और सिर एकसीध में रहे। यदि आप खड़े हैं तो सीधा खड़ा हो।
तत्पश्चात दोनों नासिका छिद्रों से सांस छोड़ते हुए सारी वायु बाहर निकाल दे। जब सारी वायु बाहर निकल जाए तब दोनों नासिका छिद्रों से सांस खींचना प्रारंभ करें। एक गहरी या लंबी सांस ले। जब सांस लेने की क्रिया पूरी हो जाए तब सांस छोड़ना प्रारंभ करें। इस क्रिया को दस बार करें। सांस लेने और छोड़ने की क्रिया मंद तथा धीमी होनी चाहिए। एक समय में दस बार से अधिक गहरी सांस न ले। स्वाश-क्रिया के बाद दस मिनट या उससे अधिक समय तक विश्राम करें।
इस गहरी सांस क्रिया का अत्यंत शांतिकारी प्रभाव स्नायुओं पर पड़ेगा। आप आराम महसूस करेंगे। घबराहट यदि पूर्णत: दूर नहीं होगी तो भी उसने बहुत अधिक कमी आ जाएगी।
इस प्रविधि का लाभ यह है कि आप इसका अभ्यास किसी भी स्थान में, जैसे कार्यालय लो, रेलगाड़ी में, बस में कर सकते हैं। क्योंकि आप इसका प्रयोग प्रतिदिन नहीं करने जा रहे हैं, इसलिए आप इसका अभ्यास किसी समय, बिना यह विचार कीजिए कि आपका पेट खाली है या भरा हुआ, कर सकते हैं। किंतु इसका प्रयोग केवल तभी करें जब आपको इसकी आवश्यकता हो।

शीतली प्राणायाम 

शीतली का अर्थ है शीतल या ठंडा करने वाला। यह एक प्रकार का प्राणायाम है, जिसका अभ्यास नियमित रूप से किया जा सकता है। किंतु नियमित अभ्यास में कुछ शर्तों की आवश्यकता पड़ेगी जिनका निर्वाह विशेष परिस्थितियों में आवश्यक नहीं है।अतएव, शीतली का अभ्यास केवल तभी करें जब आपको घबराहट से तत्काल राहत पाना जरूरी हो। इस स्थिति में आप आवश्यकताओं का विचार किए बिना भी अभ्यास कर सकते हैं। जहां तक फौरन राहत पाने का संबंध है, यह विधि सर्वोत्तम है।
विधि : फर्श पर सीधा तन कर बैठ जाए, अपना मुंह खोलें और उसे इस प्रकार बंद कर ले कि आपकी जिह्वा का अग्रभाग दांतो का स्पर्श करे। अब आपकी जिह्वा आपके मुंह में सीधे रुप में और जिह्वाग्र दोनों दंत पंक्तियों के निकटतर है।
तत्पश्चात दंत पंक्तियों के बीच से होकर शुद्ध वायु की सांस लें। इस प्रकार सांस लें कि भीतर आने वाली वायु कंठ क्षेत्र तक के सम्पूर्ण मार्ग में, जिह्वाग्र से जिह्वा मूल तक,जिह्वा का स्पर्श करे। श्वास लेने की यह क्रिया लगातार दीर्घकाल तक मध्यम गति से पूरी करें। दूसरे शब्दों में न तो तेजी से सांस ले न बहुत धीरे-धीरे। जब आप सांस द्वारा पर्याप्त वायु भीतर ले ले तब आपने दोनों नासिका छिद्रों द्वारा मध्यम गति से वायु को बाहर निकाल दें।
तब आप उसी प्रकार, जिस प्रकार आपने पहले किया था, पुनः मुंह द्वारा सांस ले और दोनों नासिका क्षेत्रों द्वारा सांस छोड़ें। इस प्रक्रिया को पांच बार तक जारी रखें। इसे एक समय में दस बार से अधिक नहीं करें। इस शीतली का अभ्यास आवश्यकतानुसार किसी भी समय तथा किसी भी स्थान में किया जा सकता है।

लाभ : इसके लाभ विस्मयकारी रूप से अत्यधिक हैं। यह अत्यल्प समय में संपूर्ण शरीर तथा स्नायु तंत्र को ठंडा कर देता है। अभ्यास करने वाले स्वयं देखेंगे कि केवल पांच से दस बार तक अभ्यास करने के पश्चात यह किस प्रकार मुंह, जिह्वा, तथा शरीर को शीतल करता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ लोग इसे" स्वत: वातानुकूलन" कहते हैं।
शीतली के अभ्यास का प्रयोग अनेक अन्य पीड़ाओं या रोगों में भी किया जा सकता है। उदाहरणार्थ ऐसी अवस्थाओं में, जैसे - सिर दर्द, ज्वर, और जब कोई गर्मी, प्यास और यहां तक कि भूख महसूस करें। इन सभी दशाओं में इसका प्रभाव शांतिदायक तथा प्रशमनकारी होगा।
ऐसा हो सकता है कि पहले पहल शीतली का अभ्यास करने पर अभ्यासकर्ताओं को ठंड लग जाए अथवा गले में खराश या व्रण उत्पन्न हो जाए। वैसी स्थिति में शीतली का अभ्यास बंद कर देना चाहिए। ऐसी सर्दी तथा गले की खराश के निवारण के लिए थोड़ा नमक मिश्रित गर्म पानी से गलगला कर कुल्ली करनी चाहिए। दिन भर में कई बार कुल्ली करने से शीतली द्वारा उत्पन्न सर्दी या पीड़ा दूर हो जाएगी।
इस सूझबूझ के साथ, घबराहट के तात्कालिक उपचार के लिए शीतली की जोरदार सिफारिश की जाती है और इसका प्रयोग सभी लोगों द्वारा, जिन्हें कुछ खास परिस्थितियों में इसकी आवश्यकता हो,किया जा सकता है।

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