Friday, February 21, 2020

दारिद्र्य दहन शिव स्तोत्र Daridraya Dahana Shiv Stotra


दारिद्र्य दहन शिव स्तोत्र 
Daridraya Dahana Shiv Stotra


भगवान शिव का अत्यंत प्रिय स्तोत्र है।जिसके पाठ मात्र से दारिद्रता का विनाश हो जाता है।वैसे भी शिवपूजक दरिद्र नही रह सकता।

जब व्यक्ति घोर आर्थिक संकट में हो, कर्ज में फसा हो, व्यापार व्यवसाय की पूंजी बार-बार फंस जाती हो उन्हें दारिद्रय दहन स्तोत्र से शिवजी की आराधना करनी चाहिए।
महर्षि वशिष्ठ रचित यह स्तोत्र बहुत प्रभावशाली है।
शिवमंदिर में या शिव की प्रतिमा के सामने प्रतिदिन तीन बार इसका पाठ करें तो विशेष लाभ होगा।
आर्थिक संकटों के साथ-साथ पारिवारिक सुख शांति के लिए भी इस स्तोत्र का पाठ का विधान बताया गया है।


दारिद्रयदहन शिव स्तोत्र



विश्वेश्वराय नरकार्णव तारणाय कणामृताय शशिशेखरधारणाय।
कर्पूरकान्तिधवलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥१॥


गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय कालान्तकाय भुजगाधिपकङ्कणाय।
गंगाधराय गजराजविमर्दनाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥२॥


भक्तिप्रियाय भवरोगभयापहाय उग्राय दुर्गभवसागरतारणाय।
ज्योतिर्मयाय गुणनामसुनृत्यकाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥३॥


चर्मम्बराय शवभस्मविलेपनाय भालेक्षणाय मणिकुण्डलमण्डिताय।
मंझीरपादयुगलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥४॥


पञ्चाननाय फणिराजविभूषणाय हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय।
आनन्दभूमिवरदाय तमोमयाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥५॥


भानुप्रियाय भवसागरतारणाय कालान्तकाय कमलासनपूजिताय।
नेत्रत्रयाय शुभलक्षण लक्षिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥६॥


रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय।
पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥७॥


मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय गीतप्रियाय वृषभेश्वरवाहनाय।
मातङ्गचर्मवसनाय महेश्वराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय॥८॥


वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोगनिवारणं। सर्वसंपत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्रादिवर्धनम्।
त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात्॥९॥


॥इति वसिष्ठ विरचितं दारिद्र्यदहनशिवस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥

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Thursday, February 20, 2020

पंचतत्त्व नवग्रह गायत्री और महाशिवरात्रि पर्व panchatattv navagrah gaayatree aur mahaashivaraatri parv

पंचतत्त्व नवग्रह गायत्री और महाशिवरात्रि पर्व panchatattv navagrah gaayatree aur mahaashivaraatri parv


शिवरात्रि पर्व पर शिव की कृपा प्राप्त करने का सबसे आसान उपाय
इस शिवरात्रि पर्व पर करें शिवत्व की प्राप्ति कर आध्यात्मिक उन्नति।
पंचतत्त्व नवग्रह गायत्री मंत्रों के द्वारा  सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है।अतः शिवरात्रि के पुण्य अवसर पर अधिक से अधिक पंचतत्त्व नवग्रह गायत्री  सञ्जीवनी महामृत्युञ्जय विष्णु गायत्री और शिव गायत्री का जप करें।

                प्रार्थना:-

"किसी भी काल मे जाने अनजाने हमसे या हमारे पूर्वजों से कोई गलती हुई हो उसे क्षमा करे हमारी आर्थिक स्थिति सही करे पूरे परिवार को स्वस्थ करे हमे श्राप मुक्त करे हमे ऋण मुक्त करे"

तत्पश्चात पञ्च तत्वक्रमानुसार  प्रत्येक गायत्री मंत्र,संजीवनी महामृत्युंजय,विष्णु गायत्री ,शिव गायत्री 108 बार पढ़े।

पंचतत्व नवग्रह गायत्री मन्त्र

प्रथम् वायु तत्व

               राहु गायत्री 

ॐ शिरोरूपाय विद्महे अमृतेशाय धीमहि; तन्नः राहुः प्रचोदयात् ।

                   केतु गायत्री

ॐ गदाहस्ताय विद्महे अमृतेशाय धीमहि, तन्नः केतुः प्रचोदयात् ।

                    शनि गायत्री

ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरुपाय धीमहि, तन्नः सौरिः प्रचोदयात् ।

द्वितीय जल तत्व

                    चन्द्र गायत्री
ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृततत्वाय धीमहि, तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात् ।

                   शुक्र गायत्री

ॐ भृगुसुताय विद्महे दिव्यदेहाय धीमहि, तन्नः शुक्रः प्रचोदयात् ।

तृतीय अग्नि तत्व

                   भौम गायत्री 

ॐ अङ्गारकाय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि, तन्नो भौमः प्रचोदयात् ।
                 
                    सूर्य गायत्री

ॐ भास्कराय विद्महे महातेजाय धीमहि, तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ।

                  
चतुर्थ पृथ्वी तत्व
                   बुध गायत्री

ॐ सौम्यरुपाय विद्महे बाणेशाय धीमहि, तन्नो बुधः प्रचोदयात्,।

                
पञ्चम आकाश तत्व

                      गुरू गायत्री

ॐ आङ्गिरसाय विद्महे दण्डायुधाय धीमहि, तन्नो जीवः प्रचोदयात्।

        सञ्जीवनी महामृत्युञ्जय

ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं त्रयंम्बकंयजामहे भर्गोदेवस्य धीमहि सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम् धियो यो नः प्रचोदयात् ऊर्वारूकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
        
             विष्णु गायत्री

ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि, तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्।

शिव गायत्री

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्।।

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Wednesday, February 19, 2020

महाशिवरात्रि Mahashivratri

महाशिवरात्रि Mahashivratri


मुख्यतः तीन रात्रियाँ बताई गई हैं यथा:-
कालरात्रि,महारात्रि,मोहरात्रि।
इनमे शिवरात्रि को महारात्रि कहा जाता है।
महाशिवरात्रि भगवान शिव का प्रमुख पर्व है।
वैसे तो हर माह में शिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है किन्तु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है।
मान्यता है कि सृष्टि का प्रारंभ इसी दिन से हुआ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन सृष्टि का आरम्भ अग्निलिङ्ग के उदय से हुआ। इसी दिन भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ था।
वर्ष में होने वाली बारह शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
इस दिन भक्त रात्रि के चारो प्रहर में जागरण करके शिवपूजन और नृत्यगानादि करते हुए शिव को प्रसन्न करते हैं।

महाशिवरात्रि के सम्बन्ध में कई पौराणिक कथायें प्रचिलित हैं:-

समुद्र मंथन Samudra Manthan

समुद्र मंथन अमृत का उत्पादन करने के लिए निश्चित किया गया था, लेकिन इसके साथ ही हलाहल विष भी पैदा हुआ था। हलाहल विष में ब्रह्मांड को नष्ट करने की क्षमता थी और इसे केवल भगवान शिव ही नष्ट कर सकते थे।भगवान शिव ने हलाहल नामक विष को अपने कंठ में रख लिया जिससे उनका गला नीला हो गया था। इस कारण से भगवान शिव 'नीलकंठ' के नाम से प्रसिद्ध हैं। उपचार के लिए, चिकित्सकों ने देवताओं को भगवान शिव को रात भर जागते रहने की सलाह दी। इस प्रकार, भगवान भगवान शिव के चिंतन में एक सतर्कता रखी। शिव का आनंद लेने और जागने के लिए, देवताओं ने अलग-अलग नृत्य-गायन और संगीत वादन किया। जैसे सुबह  हुई, उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव ने उन सभी को आशीर्वाद दिया। शिवरात्रि इस घटना का उत्सव है, जिससे भगवान शिव ने दुनिया को बचाया। तब से इस दिन, भक्त उपवास करते है

शिकारी की कथा Shikari ki Katha

एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?' उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई-
'एक बार चित्रभानु नामक एक शिकारी था। वह पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।'

शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।

पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई।

कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्षपर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृगविनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।' उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान शिव की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।

थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए'।

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Wednesday, February 12, 2020

जानें ज्योतिष अनुसार किस महीने में बच्चों का दांत निकलना माना जाता है शुभ According to astrology, in which month it is considered auspicious for children to have teeth


जानें ज्योतिष अनुसार किस महीने में बच्चों का दांत निकलना माना जाता है शुभAccording to astrology, in which month it is considered auspicious for children to have teeth


ज्योतिष के अनुसार बच्चों के दांत निकलने के शुभाशुभ परिणाम
According to astrology, the good bad results of children's teeth
छोटे बच्चों के दांत निकलने को लेकर काफी सारी मान्यताएं प्रचलित है।
ज्योतिष अनुसार बच्चे के दांत पाचवें महीने के बाद निकलना शुभ माना गया है। यहां जानें किस महीने निकला दांत कैसा प्रभाव डालता है…

जानें ज्योतिष अनुसार किस महीने में बच्चों के दांत निकलने का कैसा प्रभाव पड़ता है।
According to astrology, in what month is the effect of children's teeth coming out.

● माना जाता है कि जिस बच्चे के जन्म के समय से ही दांत होते हैं। यह माता-पिता के लिए काफी कष्टकारी साबित होते हैं। इससे माता और पिता दोनों के ही स्वास्थ्य पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
● आमतौर पर बच्चों का नीचे वाला दांत पहले आता है। ज्योतिष अनुसार जिन बच्चों का ऊपर वाला दांत सबसे पहले निकल जाए तो यह बच्चे के ननिहाल पक्ष के लिए अशुभ होता है।
● बच्चे के दांत पहले महीने में निकलना बच्चे के लिए अच्छा नहीं होता है। इससे खुद उस बच्चे को परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
● दूसरे महीने पर दांत निकलने से उस बच्चे के भाईयों को कष्ट होता है।
● तीसरे महीने में दांत निकलना बहन के लिए अशुभ होता है।
● चौथे महीने में दांत निकलने से उस बच्चे की माता को कष्ट होता है।
● पांचवें महीने में दांत निकलने से बड़े भाई को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
● छठे महीने में दांत निकलना शुभ माना जाता है। इससे माता और पिता को आनंद की प्राप्ति होती है। रुके हुए काम बनने लगते हैं। परिवार की आर्थिक स्थिति काफी अच्छी होने लगती है।
● सातवें महीने में दांत निकलना पिता के लिए काफी शुभ होता है। पिता को व्यापार में उन्नति मिलती है।
● आठवें महीने में दांत निकलना मामा के लिए कष्टदायक साबित होता है।
● नौवें महीने में दांत निकलने से धन की प्राप्ति होती है।
● दशवे महीने में दांत निकलने से सुख की प्राप्ति होती है।
● ग्यारहवें महीने में दांत निकलने से सुख और धन दोनों की प्राप्ति होती है।
● बारहवें महीने में दांत निकलने से धन और धान्य मिलता है।

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सत्य नारायण व्रत कथा हिन्दी रूपांतरण Sathya Narayan Vrat Katha Hindi Conversion


सत्य नारायण व्रत कथा हिन्दी रूपांतरण
Sathya Narayan Vrat Katha Hindi Conversion


हमारे यहाँ सत्यनारायण भगवान की कथा लोक में प्रचलित है। हिंदू धर्मावलंबियो के बीच सबसे प्रतिष्ठित व्रत कथा के रूप में भगवान विष्णु के सत्य स्वरूप की सत्यनारायण व्रत कथा है। कुछ लोग मनौती पूरी होने पर, कुछ अन्य नियमित रूप से इस कथा का आयोजन करते हैं। सत्यनारायण व्रतकथाके दो भाग हैं, व्रत-पूजन एवं कथा। सत्यनारायण म्व्रतकथा स्कंदपुराण के रेवाखंड से संकलित की गई है।
सत्य को नारायण (विष्णु के रूप में पूजना ही सत्यनारायण की पूजा है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि संसार में एकमात्र नारायण ही सत्य हैं, बाकी सब माया है।
भगवान की पूजा कई रूपों में की जाती है, उनमें से उनका सत्यनारायण स्वरूप इस कथा में बताया गया है। इसके मूल पाठ में पाठांतर से लगभग 170 श्लोक संस्कृत भाषा में उपलब्ध है जो पांच अध्यायों में बंटे हुए हैं। इस कथा के दो प्रमुख विषय हैं- जिनमें एक है संकल्प को भूलना और दूसरा है प्रसाद का अपमान।
व्रत कथा के अलग-अलग अध्यायों में छोटी कहानियों के माध्यम से बताया गया है कि सत्य का पालन न करने पर किस तरह की परेशानियां आती है। इसलिए जीवन में सत्य व्रत का पालन पूरी निष्ठा और सुदृढ़ता के साथ करना चाहिए। ऐसा न करने पर भगवान न केवल नाराज होते हैं अपितु दंड स्वरूप संपति और बंधु बांधवों के सुख से वंचित भी कर देते हैं। इस अर्थ में यह कथा लोक में सच्चाई की प्रतिष्ठा का लोकप्रिय और सर्वमान्य धार्मिक साहित्य हैं। प्रायः पूर्णमासी को इस कथा का परिवार में वाचन किया जाता है। अन्य पर्वों पर भी इस कथा को विधि विधान से करने का निर्देश दिया गया है।
इनकी पूजा में केले के पत्ते व फल के अलावा पंचामृत, पंचगव्य, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा की आवश्यकता होती जिनसे भगवान की पूजा होती है। सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, मधु, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है जो भगवान को काफी पसंद है। इन्हें प्रसाद के तौर पर फल, मिष्टान्न के अलावा आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर एक प्रसाद बनता है जिसे सत्तू ( पंजीरी ) कहा जाता है, उसका भी भोग लगता है।
विधि
सत्यनारायण व्रतकथा पुस्तिका के प्रथम अध्याय में यह बताया गया है कि सत्यनारायण भगवान की पूजा कैसे की जाय। संक्षेप में यह विधि निम्नलिखित है-
जो व्यक्ति सत्यनारायण की पूजा का संकल्प लेते हैं उन्हें दिन भर व्रत रखना चाहिए। पूजन स्थल को गाय के गोबर से पवित्र करके वहां एक अल्पना बनाएं और उस पर पूजा की चौकी रखें। इस चौकी के चारों पाये के पास केले का वृक्ष लगाएं। इस चौकी पर शालिग्राम या ठाकुर जी या श्री सत्यनारायण की प्रतिमा स्थापित करें। पूजा करते समय सबसे पहले गणपति की पूजा करें फिर इन्द्रादि दशदिक्पाल की और क्रमश: पंच लोकपाल, सीता सहित राम, लक्ष्मण की, राधा कृष्ण की। इनकी पूजा के पश्चात ठाकुर जी व सत्यनारायण की पूजा करें। इसके बाद लक्ष्मी माता की और अंत में महादेव और ब्रह्मा जी की पूजा करें।
पूजा के बाद सभी देवों की आरती करें और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण करें। पुरोहित जी को दक्षिणा एवं वस्त्र दे व भोजन कराएं। पुराहित जी के भोजन के पश्चात उनसे आशीर्वाद लेकर आप स्वयं भोजन करें।
कथा
सत्यनारायण व्रत कथा का पूरा सन्दर्भ यह है कि प्राचीनकाल में शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषि गण नैमिषारण्य स्थित महर्षि सूत के आश्रम पर पहुंचे। ऋषिगण महर्षि सूत से प्रश्न करते हैं कि लौकिक कष्टमुक्ति, सांसारिक सुख समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए सरल उपाय क्या है? महर्षि सूत शौनकादिऋषियों को बताते हैं कि ऐसा ही प्रश्न नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था। भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि लौकिक क्लेशमुक्ति, सांसारिक सुखसमृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य सिद्धि के लिए एक ही राजमार्ग है, वह है सत्यनारायण व्रत। सत्यनारायण का अर्थ है सत्याचरण, सत्याग्रह, सत्यनिष्ठा। संसार में सुखसमृद्धि की प्राप्ति सत्याचरणद्वारा ही संभव है। सत्य ही ईश्वर है। सत्याचरणका अर्थ है ईश्वराराधन, भगवत्पूजा।
कथा का प्रारंभ सूत जी द्वारा कथा सुनाने से होता है। नारद जी भगवान श्रीविष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति करते हैं। स्तुति सुनने के अनन्तर भगवान श्रीविष्णु जी ने नारद जी से कहा- महाभाग! आप किस प्रयोजन से यहां आये हैं, आपके मन में क्या है? कहिये, वह सब कुछ मैं आपको बताउंगा।
नारद जी बोले - भगवन! मृत्युलोक में अपने पापकर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों में उत्पन्न सभी लोग बहुत प्रकार के क्लेशों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! किस लघु उपाय से उनके कष्टों का निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तो वह सब मैं सुनना चाहता हूं। उसे बतायें।
श्री भगवान ने कहा - हे वत्स! संसार के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा से आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस व्रत के करने से प्राणी मोह से मुक्त हो जाता है, उसे आपको बताता हूं, सुनें। हे वत्स! स्वर्ग और मृत्युलोक में दुर्लभ भगवान सत्यनारायण का एक महान पुण्यप्रद व्रत है। आपके स्नेह के कारण इस समय मैं उसे कह रहा हूं। अच्छी प्रकार विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्त कर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
भगवान की ऐसी वाणी सनुकर नारद मुनि ने कहा -प्रभो इस व्रत को करने का फल क्या है? इसका विधान क्या है? इस व्रत को किसने किया और इसे कब करना चाहिए? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये।
श्री भगवान ने कहा - यह सत्यनारायण व्रत दुख-शोक आदि का शमन करने वाला, धन-धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और संतान देने वाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है। जिस-किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धुबान्धवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे। नैवेद्य के रूप में उत्तम कोटि के भोजनीय पदार्थ को सवाया मात्रा में भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए। केले के फल, घी, दूध, गेहूं का चूर्ण अथवा गेहूं के चूर्ण के अभाव में साठी चावल का चूर्ण, शक्कर या गुड़ - यह सब भक्ष्य सामग्री सवाया मात्रा में एकत्र कर निवेदित करनी चाहिए।
बन्धु-बान्धवों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए। तदनन्तर बन्धु-बान्धवों के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। भक्तिपूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदि का आयोजन करना चाहिए। तदनन्तर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए अपने घर जाना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्यों की अभिलाषा अवश्य पूर्ण होती है। विशेष रूप से कलियुग में, पृथ्वीलोक में यह सबसे छोटा सा उपाय है।
दूसरा अध्याय
श्रीसूतजी बोले - हे द्विजों! अब मैं पुनः पूर्वकाल में जिसने इस सत्यनारायण व्रत को किया था, उसे भलीभांति विस्तारपूर्वक कहूंगा। रमणीय काशी नामक नगर में कोई अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह प्रतिदिन पृथ्वी पर भटकता रहता था। ब्राह्मण प्रिय भगवान ने उस दुखी ब्राह्मण को देखकर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके उस द्विज से आदरपूर्वक पूछा - हे विप्र! प्रतिदिन अत्यन्त दुखी होकर तुम किसलिए पृथ्वीपर भ्रमण करते रहते हो। हे द्विजश्रेष्ठ! यह सब बतलाओ, मैं सुनना चाहता हूं।
ब्राह्मण बोला - प्रभो! मैं अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण हूं और भिक्षा के लिए ही पृथ्वी पर घूमा करता हूं। यदि मेरी इस दरिद्रता को दूर करने का आप कोई उपाय जानते हों तो कृपापूर्वक बतलाइये।
वृद्ध ब्राह्मण बोला - हे ब्राह्मणदेव! सत्यनारायण भगवान् विष्णु अभीष्ट फल को देने वाले हैं। हे विप्र! तुम उनका उत्तम व्रत करो, जिसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।
व्रत के विधान को भी ब्राह्मण से यत्नपूर्वक कहकर वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी भगवान् विष्णु वहीं पर अन्तर्धान हो गये। ‘वृद्ध ब्राह्मण ने जैसा कहा है, उस व्रत को अच्छी प्रकार से वैसे ही करूंगा’ - यह सोचते हुए उस ब्राह्मण को रात में नींद नहीं आयी।
अगले दिन प्रातःकाल उठकर ‘सत्यनारायण का व्रत करूंगा’ ऐसा संकल्प करके वह ब्राह्मण भिक्षा के लिए चल पड़ा। उस दिन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान सत्यनारायण का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी दुखों से मुक्त होकर समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न हो गया। उस दिन से लेकर प्रत्येक महीने उसने यह व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायण के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापों से मुक्त हो गया और उसने दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया।
हे विप्र! पृथ्वी पर जब भी कोई मनुष्य श्री सत्यनारायण का व्रत करेगा, उसी समय उसके समस्त दुख नष्ट हो जायेंगे। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार भगवान नारायण ने महात्मा नारदजी से जो कुछ कहा, मैंने वह सब आप लोगों से कह दिया, आगे अब और क्या कहूं?
हे मुने! इस पृथ्वी पर उस ब्राह्मण से सुने हुए इस व्रत को किसने किया? हम वह सब सुनना चाहते हैं, उस व्रत पर हमारी श्रद्धा हो रही है।
श्री सूत जी बोले - मुनियों! पृथ्वी पर जिसने यह व्रत किया, उसे आप लोग सुनें। एक बार वह द्विजश्रेष्ठ अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार बन्धु-बान्धवों तथा परिवारजनों के साथ व्रत करने के लिए उद्यत हुआ। इसी बीच एक लकड़हारा वहां आया और लकड़ी बाहर रखकर उस ब्राह्मण के घर गया। प्यास से व्याकुल वह उस ब्राह्मण को व्रत करता हुआ देख प्रणाम करके उससे बोला - प्रभो! आप यह क्या कर रहे हैं, इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है, विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये।
विप्र ने कहा - यह सत्यनारायण का व्रत है, जो सभी मनोरथों को प्रदान करने वाला है। उसी के प्रभाव से मुझे यह सब महान धन-धान्य आदि प्राप्त हुआ है। जल पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया। सत्यनारायण देव के लिए मन से ऐसा सोचने लगा कि ‘आज लकड़ी बेचने से जो धन प्राप्त होगा, उसी धन से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूंगा।’ इस प्रकार मन से चिन्तन करता हुआ लकड़ी को मस्तक पर रख कर उस सुन्दर नगर में गया, जहां धन-सम्पन्न लोग रहते थे। उस दिन उसने लकड़ी का दुगुना मूल्य प्राप्त किया।
इसके बाद प्रसन्न हृदय होकर वह पके हुए केले का फल, शर्करा, घी, दूध और गेहूं का चूर्ण सवाया मात्रा में लेकर अपने घर आया। तत्पश्चात उसने अपने बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान से भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह धन-पुत्र से सम्पन्न हो गया और इस लोक में अनेक सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर अर्थात् बैकुण्ठलोक चला गया।
तीसरा अध्याय
श्री सूतजी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं पुनः आगे की कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा था। वह जितेन्द्रिय, सत्यवादी तथा अत्यन्त बुद्धिमान था। वह विद्वान राजा प्रतिदिन देवालय जाता और ब्राह्मणों को धन देकर सन्तुष्ट करता था। कमल के समान मुख वाली उसकी धर्मपत्नी शील, विनय एवं सौन्दर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा पतिपरायणा थी। राजा एक दिन अपनी धर्मपत्नी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर श्रीसत्यनारायण का व्रत कर रहा था। उसी समय व्यापार के लिए अनेक प्रकार की पुष्कल धनराशि से सम्पन्न एक साधु नाम का बनिया वहां आया। भद्रशीला नदी के तट पर नाव को स्थापित कर वह राजा के समीप गया और राजा को उस व्रत में दीक्षित देखकर विनयपूर्वक पूछने लगा।
साधु ने कहा - राजन्! आप भक्तियुक्त चित्त से यह क्या कर रहे हैं? कृपया वह सब बताइये, इस समय मैं सुनना चाहता हूं।
राजा बोले - हे साधो! पुत्र आदि की प्राप्ति की कामना से अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मैं अतुल तेज सम्पन्न भगवान् विष्णु का व्रत एवं पूजन कर रहा हूं।
राजा की बात सुनकर साधु ने आदरपूर्वक कहा - राजन् ! इस विषय में आप मुझे सब कुछ विस्तार से बतलाइये, आपके कथनानुसार मैं व्रत एवं पूजन करूंगा। मुझे भी संतति नहीं है। ‘इससे अवश्य ही संतति प्राप्त होगी।’ ऐसा विचार कर वह व्यापार से निवृत्त हो आनन्दपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी भार्या से संतति प्रदान करने वाले इस सत्यव्रत को विस्तार पूर्वक बताया तथा - ‘जब मुझे संतति प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा’ - इस प्रकार उस साधु ने अपनी भार्या लीलावती से कहा।
एक दिन उसकी लीलावती नाम की सती-साध्वी भार्या पति के साथ आनन्द चित्त से ऋतुकालीन धर्माचरण में प्रवृत्त हुई और भगवान् श्रीसत्यनारायण की कृपा से उसकी वह भार्या गर्भिणी हुई। दसवें महीने में उससे कन्या रत्न की उत्पत्ति हुई और वह शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उस कन्या का ‘कलावती’ यह नाम रखा गया। इसके बाद एक दिन लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वाणी में कहा - आप पूर्व में संकल्पित श्री सत्यनारायण के व्रत को क्यों नहीं कर रहे हैं?
साधु बोला - ‘प्रिये! इसके विवाह के समय व्रत करूंगा।’ इस प्रकार अपनी पत्नी को भली-भांति आश्वस्त कर वह व्यापार करने के लिए नगर की ओर चला गया। इधर कन्या कलावती पिता के घर में बढ़ने लगी। तदनन्तर धर्मज्ञ साधु ने नगर में सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई अपनी कन्या को विवाह योग्य देखकर आपस में मन्त्रणा करके ‘कन्या विवाह के लिए श्रेष्ठ वर का अन्वेषण करो’ - ऐसा दूत से कहकर शीघ्र ही उसे भेज दिया। उसकी आज्ञा प्राप्त करके दूत कांचन नामक नगर में गया और वहां से एक वणिक का पुत्र लेकर आया। उस साधु ने उस वणिक के पुत्र को सुन्दर और गुणों से सम्पन्न देखकर अपनी जाति के लोगों तथा बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्टचित्त हो विधि-विधान से वणिकपुत्र के हाथ में कन्या का दान कर दिया।
उस समय वह साधु बनिया दुर्भाग्यवश भगवान् का वह उत्तम व्रत भूल गया। पूर्व संकल्प के अनुसार विवाह के समय में व्रत न करने के कारण भगवान उस पर रुष्ट हो गये। कुछ समय के पश्चात अपने व्यापारकर्म में कुशल वह साधु बनिया काल की प्रेरणा से अपने दामाद के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगर में गया और पअने श्रीसम्पन्न दामाद के साथ वहां व्यापार करने लगा। उसके बाद वे दोनो राजा चन्द्रकेतु के रमणीय उस नगर में गये। उसी समय भगवान् श्रीसत्यनारायण ने उसे भ्रष्टप्रतिज्ञ देखकर ‘इसे दारुण, कठिन और महान् दुख प्राप्त होगा’ - यह शाप दे दिया।
एक दिन एक चोर राजा चन्द्रकेतु के धन को चुराकर वहीं आया, जहां दोनों वणिक स्थित थे। वह अपने पीछे दौड़ते हुए दूतों को देखकर भयभीतचित्त से धन वहीं छोड़कर शीघ्र ही छिप गया। इसके बाद राजा के दूत वहां आ गये जहां वह साधु वणिक था। वहां राजा के धन को देखकर वे दूत उन दोनों वणिकपुत्रों को बांधकर ले आये और हर्षपूर्वक दौड़ते हुए राजा से बोले - ‘प्रभो! हम दो चोर पकड़ लाए हैं, इन्हें देखकर आप आज्ञा दें’। राजा की आज्ञा से दोनों शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक बांधकर बिना विचार किये महान कारागार में डाल दिये गये। भगवान् सत्यदेव की माया से किसी ने उन दोनों की बात नहीं सुनी और राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों का धन भी ले लिया।
भगवान के शाप से वणिक के घर में उसकी भार्या भी अत्यन्त दुखित हो गयी और उनके घर में सारा-का-सारा जो धन था, वह चोर ने चुरा लिया। लीलावती शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं से युक्त, भूख और प्यास से दुखी हो अन्न की चिन्ता से दर-दर भटकने लगी। कलावती कन्या भी भोजन के लिए इधर-उधर प्रतिदिन घूमने लगी। एक दिन भूख से पीडि़त कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। वहां जाकर उसने श्रीसत्यनारायण के व्रत-पूजन को देखा। वहां बैठकर उसने कथा सुनी और वरदान मांगा। उसके बाद प्रसाद ग्रहण करके वह कुछ रात होने पर घर गयी।
माता ने कलावती कन्या से प्रेमपूर्वक पूछा - पुत्री ! रात में तू कहां रुक गयी थी? तुम्हारे मन में क्या है? कलावती कन्या ने तुरन्त माता से कहा - मां! मैंने एक ब्राह्मण के घर में मनोरथ प्रदान करने वाला व्रत देखा है। कन्या की उस बात को सुनकर वह वणिक की भार्या व्रत करने को उद्यत हुई और प्रसन्न मन से उस साध्वी ने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान् श्रीसत्यनारायण का व्रत किया तथा इस प्रकार प्रार्थना की - ‘भगवन! आप हमारे पति एवं जामाता के अपराध को क्षमा करें। वे दोनों अपने घर शीघ्र आ जायं।’ इस व्रत से भगवान सत्यनारायण पुनः संतुष्ट हो गये तथा उन्होंने नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को स्वप्न दिखाया और स्वप्न में कहा - ‘नृपश्रेष्ठ! प्रातः काल दोनों वणिकों को छोड़ दो और वह सारा धन भी दे दो, जो तुमने उनसे इस समय ले लिया है, अन्यथा राज्य, धन एवं पुत्रसहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा।’
राजा से स्वप्न में ऐसा कहकर भगवान सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। इसके बाद प्रातः काल राजा ने अपने सभासदों के साथ सभा में बैठकर अपना स्वप्न लोगों को बताया और कहा - ‘दोनों बंदी वणिकपुत्रों को शीघ्र ही मुक्त कर दो।’ राजा की ऐसी बात सुनकर वे राजपुरुष दोनों महाजनों को बन्धनमुक्त करके राजा के सामने लाकर विनयपूर्वक बोले - ‘महाराज! बेड़ी-बन्धन से मुक्त करके दोनों वणिक पुत्र लाये गये हैं। इसके बाद दोनों महाजन नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को प्रणाम करके अपने पूर्व-वृतान्त का स्मरण करते हुए भयविह्वन हो गये और कुछ बोल न सके।
राजा ने वणिक पुत्रों को देखकर आदरपूर्वक कहा -‘आप लोगों को प्रारब्धवश यह महान दुख प्राप्त हुआ है, इस समय अब कोई भय नहीं है।’, ऐसा कहकर उनकी बेड़ी खुलवाकर क्षौरकर्म आदि कराया। राजा ने वस्त्र, अलंकार देकर उन दोनों वणिकपुत्रों को संतुष्ट किया तथा सामने बुलाकर वाणी द्वारा अत्यधिक आनन्दित किया। पहले जो धन लिया था, उसे दूना करके दिया, उसके बाद राजा ने पुनः उनसे कहा - ‘साधो! अब आप अपने घर को जायं।’ राजा को प्रणाम करके ‘आप की कृपा से हम जा रहे हैं।’ - ऐसा कहकर उन दोनों महावैश्यों ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया।
चौथा अध्याय
श्रीसूत जी बोले - साधु बनिया मंगलाचरण कर और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर के लिए चल पड़ा। साधु के कुछ दूर जाने पर भगवान सत्यनारायण की उसकी सत्यता की परीक्षा के विषय में जिज्ञासा हुई - ‘साधो! तुम्हारी नाव में क्या भरा है?’ तब धन के मद में चूर दोनों महाजनों ने अवहेलनापूर्वक हंसते हुए कहा - ‘दण्डिन! क्यों पूछ रहे हो? क्या कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है? हमारी नाव में तो लता और पत्ते आदि भरे हैं।’ ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर - ‘तुम्हारी बात सच हो जाय’ - ऐसा कहकर दण्डी संन्यासी को रूप धारण किये हुए भगवान कुछ दूर जाकर समुद्र के समीप बैठ गये।
दण्डी के चले जाने पर नित्यक्रिया करने के पश्चात उतराई हुई अर्थात जल में उपर की ओर उठी हुई नौका को देखकर साधु अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और नाव में लता और पत्ते आदि देखकर मुर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। सचेत होने पर वणिकपुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा - ‘आप शोक क्यों करते हैं? दण्डी ने शाप दे दिया है, इस स्थिति में वे ही चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं। अतः उन्हीं की शरण में हम चलें, वहीं मन की इच्छा पूर्ण होगी।’ दामाद की बात सुनकर वह साधु बनिया उनके पास गया और वहां दण्डी को देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा - आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है, असत्यभाषण रूप अपराध किया है, आप मेरे उस अपराध को क्षमा करें - ऐसा कहकर बारम्बार प्रणाम करके वह महान शोक से आकुल हो गया।
दण्डी ने उसे रोता हुआ देखकर कहा - ‘हे मूर्ख! रोओ मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से ही तुमने बारम्बार दुख प्राप्त किया है।’ भगवान की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा।
साधु ने कहा - ‘हे प्रभो! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपों को यथावत रूप से नहीं जान पाते, फिर मैं मूर्ख आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूं! आप प्रसन्न हों। मैं अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार आपकी पूजा करूंगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरा जो नौका में स्थित पुराा धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें।’ उस बनिया की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान जनार्दन संतुष्ट हो गये।
भगवान हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौका में चढ़ा और उसे धन-धान्य से परिपूर्ण देखकर ‘भगवान सत्यदेव की कृपा से हमारा मनोरथ सफल हो गया’ - ऐसा कहकर स्वजनों के साथ उसने भगवान की विधिवत पूजा की। भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से वह आनन्द से परिपूर्ण हो गया और नाव को प्रयत्नपूर्वक संभालकर उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। साधु बनिया ने अपने दामाद से कहा - ‘वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है’। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूत कोअपने आगमन का समाचार देने के लिए अपनी नगरी में भेजा।
उसके बाद उस दूत ने नगर में जाकर साधु की भार्या को देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिए अभीष्ट बात कही -‘सेठ जी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गों के साथ बहुत सारे धन-धान्य से सम्पन्न होकर नगर के निकट पधार गये हैं।’ दूत के मुख से यह बात सुनकर वह महान आनन्द से विह्वल हो गयी और उस साध्वी ने श्री सत्यनारायण की पूजा करके अपनी पुत्री से कहा -‘मैं साधु के दर्शन के लिए जा रही हूं, तुम शीघ्र आओ।’ माता का ऐसा वचन सुनकर व्रत को समाप्त करके प्रसाद का परित्याग कर वह कलावती भी अपने पति का दर्शन करने के लिए चल पड़ी। इससे भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पति को तथा नौका को धन के साथ हरण करके जल में डुबो दिया।
इसके बाद कलावती कन्या अपने पति को न देख महान शोक से रुदन करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। नाव का अदर्शन तथा कन्या को अत्यन्त दुखी देख भयभीत मन से साधु बनिया से सोचा - यह क्या आश्चर्य हो गया? नाव का संचालन करने वाले भी सभी चिन्तित हो गये। तदनन्तर वह लीलावती भी कन्या को देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार बोली -‘ अभी-अभी नौका के साथ वह कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवता की उपेक्षा से वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायण का माहात्म्य कौन जान सकता है!’ ऐसा कहकर वह स्वजनों के साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्या को गोद में लेकर रोने लगी।
कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुखी हो गयी और पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिए उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देख भार्यासहित वह धर्मज्ञ साधु बनिया अत्यन्त शोक-संतप्त हो गया और सोचने लगा - या तो भगवान सत्यनारायण ने यह अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान सत्यदेव की माया से मोहित हो गये हैं। अपनी धन शक्ति के अनुसार मैं भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करूंगा। सभी को बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान सत्यदेव को दण्डवत प्रणाम किया। इससे दीनों के परिपालक भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गये। भक्तवत्सल भगवान ने कृपापूर्वक कहा - ‘तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पति को देखने चली आयी है, निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधु बनिया तुम्हारी पुत्री पति को प्राप्त करेगी, इसमें संशय नहीं।
कन्या कलावती भी आकाशमण्डल से ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया। पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पति को देखा। तब कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा - ‘अब तो घर चलें, विलम्ब क्यों कर रहे हैं?’ कन्या की वह बात सुनकर वणिकपुत्र संतुष्ट हो गया और विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवों के साथ अपने घर गया। तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वों पर भगवान सत्यनारायण का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह सत्यपुर बैकुण्ठलोक में चला गया।
पांचवा अध्याय
श्रीसूत जी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर तुंगध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेव के प्रसाद का परित्याग करके दुख प्राप्त किया। एक बाद वह वन में जाकर और वहां बहुत से पशुओं को मारकर वटवृक्ष के नीचे आया। वहां उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा कर रहे हैं। राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहां गया और न उसे भगवान सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। पूजन के बाद सभी गोपगण भगवान का प्रसाद राजा के समीप रखकर वहां से लौट आये और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुख हुआ।
उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है। इसलिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां श्री सत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों के समीप गया और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुआ।
श्रीसूत जी कहते हैं - जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्री सत्यनारायण के व्रत को करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान की कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र धनवान हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भय मुक्त हो जाता है - यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। इस लोक में वह सभी ईप्सित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को जाता है। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।
कलियुग में तो भगवान सत्यदेव की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुग में सनातन भगवान विष्णु ही सत्यव्रत रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करने वाले होंगे। हे श्रेष्ठ मुनियों! जो व्यक्ति नित्य भगवान सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान सत्यारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरों! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान सत्यनारायण का व्रत किया था, उसके अगले जन्म का वृतान्त कहता हूं, आप लोग सुनें।
शतानन्द नाम के ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने के प्रभाव से दूसे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल्ल गुहों का राजा हुआ और अगले जन्म में उसने भगवान श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख दूसरे जन्म में राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरंगनाथजी की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया। इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में मोरध्वज नामक राजा हुआ। उसने आरे से चीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान कृष्ण को अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया। महाराजा तुंगध्वज जन्मान्तर में स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वत धाम गोलोक प्राप्त किया।
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायणव्रत कथा का यह पांचवां अध्याय पूर्ण हुआ।
सारांश या समीक्षा
सत्यनारायण व्रत कथा के पात्र दो कोटि में आते हैं, निष्ठावान सत्यव्रतीएवं स्वार्थबद्धसत्यव्रती। शतानन्द, काष्ठ-विक्रेता भील एवं राजा उल्कामुखनिष्ठावान सत्यव्रतीथे। इन पात्रों ने सत्याचरणएवं सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकरके लौकिक एवं पारलौकिक सुखोंकी प्राप्ति की। शतानन्दअति दीन ब्राह्मण थे। भिक्षावृत्ति अपनाकर वे अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। अपनी तीव्र सत्यनिष्ठा के कारण उन्होंने सत्याचरणका व्रत लिया। भगवान सत्यनारायण की विधिवत् पूजार्चाकी।
वे इहलोके सुखंभुक्त्वाचान्तंसत्यपुरंययौ (इस लोक में सुखभोग एवं अन्त में सत्यपुरमें प्रवेश) की स्थिति में आए। काष्ठ-विक्रेता भील भी अति निर्धन था। किसी तरह लकड़ी बेचकर अपना और अपने परिवार का पेट पालता था। उसने भी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ सत्याचरणकिया; सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकी। राजा उल्कामुखभी निष्ठावान सत्यव्रतीथे। वे नियमित रूप से भद्रशीलानदी के किनारे सपत्नीक सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकरते थे। सत्याचरणही उनके जीवन का मूलमन्त्र था। दूसरी तरफ साधु वणिक एवं राजा तुंगध्वजस्वार्थबद्धकोटि के सत्यव्रतीथे। स्वार्थ साधन हेतु बाध्य होकर इन दोनों पात्रों ने सत्याचरणकिया ; सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकी। साधु वणिक की सत्यनारायण भगवान में निष्ठा नहीं थी। सत्यनारायण पूजार्चाका संकल्प लेने के उपरान्त उसके परिवार में कलावतीनामक कन्या-रत्न का जन्म हुआ। कन्याजन्मके पश्चात उसने अपने संकल्प को भुला दिया और सत्यनारायण भगवान की पूजार्चानहीं की। उसने पूजा कन्या के विवाह तक के लिए टाल दी। कन्या के विवाह-अवसर पर भी उसने सत्याचरणएवं पूजार्चासे मुंह मोड लिया और दामाद के साथ व्यापार-यात्रा पर चल पडा। दैवयोग से रत्नसारपुरमें श्वसुर-दामाद के ऊपर चोरी का आरोप लगा। यहां उन्हें राजा चंद्रकेतुके कारागार में रहना पडा। श्वसुर और दामाद कारागार से मुक्त हुए तो श्वसुर (साधु वाणिक) ने एक दण्डीस्वामीसे झूठ बोल दिया कि उसकी नौका में रत्नादिनहीं, मात्र लता-पत्र है। इस मिथ्यावादनके कारण उसे संपत्ति-विनाश का कष्ट भोगना पडा। अन्तत:बाध्य होकर उसने सत्यनारायण भगवान का व्रत किया। साधु वाणिकके मिथ्याचार के कारण उसके घर पर भी भयंकर चोरी हो गई। पत्नी-पुत्र दाने-दाने को मुहताज। इसी बीच उन्हें साधु वाणिकके सकुशल घर लौटने की सूचना मिली। उस समय कलावतीअपनी माता लीलावती के साथ सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकर रही थी। समाचार सुनते ही कलावतीअपने पिता और पति से मिलने के लिए दौडी। इसी हडबडी में वह भगवान का प्रसाद ग्रहण करना भूल गई। प्रसाद न ग्रहण करने के कारण साधु वाणिकऔर उसके दामाद नाव सहित समुद्र में डूब गए। फिर अचानक कलावतीको अपनी भूल की याद आई। वह दौडी-दौडी घर आई और भगवान का प्रसाद लिया। इसके बाद सब कुछ ठीक हो गया। लगभग यही स्थिति राजा तुंगध्वजकी भी थी। एक स्थान पर गोपबन्धुभगवान सत्यनारायण की पूजा कर रहे थे। राजसत्तामदांध तुंगध्वजन तो पूजास्थलपर गए और न ही गोपबंधुओं द्वारा प्रदत्त भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इसीलिए उन्हें कष्ट भोगना पडा। अंतत:बाध्य होकर उन्होंने सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकी और सत्याचरणका व्रत लिया। सत्यनारायण व्रतकथाके उपर्युक्त पांचों पात्र मात्र कथापात्रही नहीं, वे मानवमनकी दो प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं। ये प्रवृत्तियां हैं, सत्याग्रह एवं मिथ्याग्रह। लोक में सर्वदाइन दोनों प्रवृत्तियों के धारक रहते हैं। इन पात्रों के माध्यम से स्कंदपुराणयह संदेश देना चाहता है कि निर्धन एवं सत्ताहीनव्यक्ति भी सत्याग्रही, सत्यव्रती, सत्यनिष्ठ हो सकता है और धन तथा सत्तासंपन्नव्यक्ति मिथ्याग्रहीहो सकता है। शतानन्दऔर काष्ठ-विक्रेता भील निर्धन और सत्ताहीनथे। फिर भी इनमें तीव्र सत्याग्रहवृत्ति थी। इसके विपरीत साधु वाणिकएवं राजा तुंगध्वज धनसम्पन्न एवं सत्तासम्पन्न थे। पर उनकी वृत्ति मिथ्याग्रही थी। सत्ता एवं धनसम्पन्न व्यक्ति में सत्याग्रह हो, ऐसी घटना विरल होती है। सत्यनारायण व्रतकथाके पात्र राजा उल्कामुखऐसी ही विरल कोटि के व्यक्ति थे। पूरी सत्यनारायण व्रतकथाका निहितार्थ यह है कि लौकिक एवं परलौकिकहितों की साधना के लिए मनुष्य को सत्याचरणका व्रत लेना चाहिए। सत्य ही, भगवान है। सत्य ही विष्णु है। लोक में सारी बुराइयों, सारे क्लेशों, सारे संघर्षो का मूल कारण है सत्याचरणका अभाव। सत्यनारायण व्रत कथा  में इस संबंध में श्लोक इस प्रकार है:-
यत्कृत्वासर्वदु:खेभ्योमुक्तोभवतिमानव:। विशेषत:कलियुगेसत्यपूजाफलप्रदा। केचित् कालंवदिष्यन्तिसत्यमीशंतमेवच। सत्यनारायणंकेचित् सत्यदेवंतथाऽपरे। नाना रूपधरोभूत्वासर्वेषामीप्सितप्रद:। भविष्यतिकलौविष्णु: सत्यरूपीसनातन:।
अर्थात् सत्यनारायण व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सभी दु:खों से मुक्त हो जाता है। कलिकाल में सत्य की पूजा विशेष रूप से फलदायीहोती है। सत्य के अनेक नाम हैं, यथा-सत्यनारायण, सत्यदेव। सनातन सत्यरूपीविष्णु भगवान कलियुग में अनेक रूप धारण करके लोगों को मनोवांछित फल देंगे।
सत्य नारायण व्रत का मुख्य उद्देश्य
सत्यनारायण व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सभी दु:खों से मुक्त हो जाता है।कलिकाल में सत्य की पूजा विशेष रूप से फलदायी होती है सत्य के अनेक नाम हैं, यथा-सत्यनारायण, सत्यदेव। सनातन सत्यरूपी विष्णु भगवान कलियुग में अनेक रूप धारण करके लोगों को मनोवांछित फल देंगे।

सत्यनारायण व्रत कथा (संस्कृत) Satyanarayana Vrat Katha (Sanskrit)


सत्यनारायण व्रत कथा मूल पाठ (संस्कृत)


प्रथमोऽध्याय: व्यास उवाच- एकदा नैमिषारण्ये ऋषय: शौनकादय:। पप्रच्छुर्मुनय: सर्वे सूतं पौराणिकं खलु॥1॥ ऋषय: ऊचु:- व्रतेन तपसा किं वा प्राप्यते वाञ्छितं फलम्‌। तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम: कथयस्व महामुने !॥2॥ सूत उवाच- नारदेनैव सम्पृष्टो भगवान्‌ कमलापति:। सुरर्षये यथैवाऽऽह तच्छृणुध्वं समाहिता:॥3॥ एकदा नारदो योगी परानुग्रहकाङ्‌क्षया। पर्यटन्‌ विविधान्‌ लोकान्‌ मत्र्य लोकमुपागत:॥4॥ तत्र दृष्ट्‌वा जनान्‌ सर्वान्‌ नाना क्लेशसमन्वितान्‌। नाना योनिसमुत्पन्नान्‌ क्लिश्यमानान्‌ स्वकर्मभि:॥5॥ केनोपायेन चैतेषां दु:खनाशो भवेद्‌ ध्रुवम्‌। इति सञ्चिन्त्य मनसा विष्णुलोकं गतस्तदा ॥6॥ तत्र नारायणं देवं कृष्णवर्णं चतुर्भुजम्‌। शङ्‌ख-चक्र- गदा-पद्‌म-वन मालाविभूषितम्‌॥7॥ दृष्ट्‌वा तं देवदेवेशं स्तोतुं समुपचक्रमे। नारद-उवाच- नमो वाङ्‌मनसाऽतीतरूपायाऽनन्तशक्तये॥8॥ आदि-मध्याऽन्तहीनाय निर्गुणाय गुणात्मने। सर्वेषामादिभूताय भक्तानामार्तिनाशिने॥9॥ श्रुत्वा स्तोत्रं ततो विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत। श्रीभगवानुवाच- किमर्थमागतोऽसि त्वं किं ते मनसि वर्तते॥10॥ कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथयामि ते। नारद उवाच- मत्र्यलोके जना: सर्वे नाना क्लेशसमन्विता:। नाना योनिसमुत्पन्ना: क्लिश्यन्ते पापकर्मभि:॥11॥ तत्कथं शमयेन्नाथ लघूपायेन तद्‌ वद। श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं कृपास्ति यदि ते मयि॥12॥ श्रीभगवानुवाच- साधु पृष्टं त्वया वत्स! लोकानुग्रहकाङ्‌क्षया। यत्कृत्वा मुच्यते मोहात्‌ तच्क्षुणुष्व वदामि ते॥13॥ व्रतमस्ति महत्पुण्यं स्वर्गे मत्र्ये च दुलर्भम्‌। तव स्नेहान्मया वत्स! प्रकाश: क्रियतेऽधुना॥14॥ सत्यनारायणस्यैतद्‌ व्रतं सम्यग्विधानत:। कृत्वा सद्य:सुखं भुक्त्वा परत्र मोक्षमाप्नुयात्‌॥15॥ तच्छ्रत्वा भगवद्‌ वाक्यं नारदो मुनिरब्रवीत्‌। नारद उवाच- किं फलं किं विधानं च कृतं केनैव तद्‌व्रतम्‌॥16॥ तत्सर्वं विस्तराद्‌ बूरहि कदा कार्यं व्रतं हि तत्‌। श्रीभगवानुवाच- दु:ख-शोकादिशमनं धन-धान्यप्रवर्धनम्‌॥17॥ सौभाग्य-सन्ततिकरं सर्वत्रा विजयप्रदम्‌। यस्मिन्‌ कस्मिन्‌ दिने मत्र्यो भक्ति श्रद्धासमन्वित:॥18॥ सत्यनारायणं देवं यजेच्चैव निशामुखे। ब्राह्मणैर्बान्धवैश्चैव सहितो धर्मतत्पर:॥19॥ नैवेद्यं भक्तितो दद्यात्‌ सपादं भक्तिसंयुतम्‌। रम्भाफलं घृतं क्षीरं गोधूमस्य च चूर्णकम्‌॥ 20॥ अभावे शालिचूर्णं वा शर्करा वा गुडं तथा। सपादं सर्वभक्ष्याणि चैकीकृत्य निवेदयेत्‌ ॥21॥ विप्राय दक्षिणां दद्यात्‌ कथां श्रुत्वा जनै: सह। ततश्च बन्धुभि: सार्धं विप्रांश्च प्रतिभोजयेत्‌॥22॥ प्रसादं भक्षयेद्‌ भक्त्यानृत्यगीतादिकं चरेत्‌। ततश्च स्वगृहं गच्छेत्‌ सत्यनारायणं स्मरन्‌॥ 23॥ एवं कृते मनुष्याणां वाञ्छासिद्धिर्भवेद्‌ ध्रुवम्‌। विशेषत: कलियुगे लघूपायोऽस्ति भूतले॥24॥ इति श्री स्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सूत-शौन-संवादे सत्यनारायण-व्रत कथायां प्रथमोऽध्याय:॥1॥ द्वितीयोऽध्याय:ᅠ सूत उवाच- अथाऽन्यत्‌ सम्प्रवक्ष्यामि कृतं येन पुरा व्रतम्‌। कश्चित्‌ काशीपुरे रम्ये ह्यासीद्‌ विप्रोऽतिनिर्धन:॥1॥ क्षुत्तृड्‌भ्यां व्याकुलो भूत्वा नित्यं बभ्राम भूतले। दु:खितं ब्राह्मणं दृष्ट्‌वा भगवान्‌ ब्राह्मणप्रिय:॥2॥ वृद्धब्राह्मणरूपस्तं पप्रच्छ द्विजमादरात्‌। किमर्थं भ्रमसे विप्र! महीं नित्यं सुदु: खित: ॥3॥ तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यतां द्विजसत्तम!। ब्राह्मणोऽतिदरिद्रोऽहं भिक्षार्थं वै भ्रमे महीम्‌॥4॥ उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो! वृद्धब्राह्मण उवाच- सत्यनारायणो विष्णुर्वछितार्थफलप्रद:॥5॥ तस्य त्वं पूजनं विप्र कुरुष्व व्रतमुत्तमम्‌। यत्कृत्वा सर्वदु:खेभ्यो मुक्तो भवति मानव: ॥6॥ विधानं च व्रतस्यास्य विप्रायाऽऽभाष्य यत्नत:। सत्यनारायणोवृद्ध-स्तत्रौवान्तर धीयत॥7॥ तद्‌ व्रतं सङ्‌करिष्यामि यदुक्तं ब्राह्मणेन वै। इति सचिन्त्य विप्रोऽसौ रात्रौ निद्रां न लब्धवान्‌॥8॥ तत: प्रात: समुत्थाय सत्यनारायणव्रतम्‌। करिष्य इति सङ्‌कल्प्य भिक्षार्थमगद्‌ द्विज:॥9॥ तस्मिन्नेव दिने विप्र: प्रचुरं द्रव्यमाप्तवान्‌। तेनैव बन्धुभि: साद्‌र्धं सत्यस्य व्रतमाचरत्‌॥10॥ सर्वदु:खविनिर्मुक्त: सर्वसम्पत्‌ समन्वित:। बभूव स द्विज-श्रेष्ठो व्रतास्यास्य प्रभावत:॥11॥ तत: प्रभृतिकालं च मासि मासि व्रतं कृतम्‌। एवं नारायणस्येदं व्रतं कृत्वा द्विजोत्तम:॥12॥ सर्वपापविनिर्मुक्तो दुर्लभं मोक्षमाप्तवान्‌। व्रतमस्य यदा विप्रा: पृथिव्यां सचरिष्यन्ति॥13॥ तदैव सर्वदु:खं च मनुजस्य विनश्यति। एवं नारायणेनोक्तं नारदाय महात्मने ॥14॥ मया तत्कथितं विप्रा: किमन्यत्‌ कथयामि व:। ऋषय ऊचु:- तस्माद्‌ विप्राच्छुरतं केन पृथिव्यां चरितं मुने। तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम:श्रद्धाऽस्माकं प्रजायते॥15॥ सूत उवाच-श्रृणुध्वं मुनय:सर्वे व्रतं येन कृतं भुवि। एकदा स द्विजवरो यथाविभवविस्तरै:॥16॥ बन्धुभि: स्वजैन: सार्ध व्रतं कर्तुं समुद्यत:। एतस्मिन्नन्तरे काले काष्ठक्रेता समागमत्‌॥17॥ बहि: काष्ठं च संस्थाप्य विप्रस्य गृहमाययौ। तृष्णया पीडितात्मा च दृष्ट्‌वा विप्रकृतं व्रतम्‌ ॥18॥ प्रणिपत्य द्विजं प्राह किमिदं क्रियते त्वया। कृते किं फलमाप्नोति विस्तराद्‌ वद मे प्रभो! ॥19॥ विप्र उवाच-सत्यनाराणस्येदं व्रतं सर्वेप्सित- प्रदम्‌। तस्य प्रसादान्मे सर्वं धनधान्यादिकं महत्‌॥20॥ तस्मादेतत्‌ ब्रतं ज्ञात्वा काष्ठक्रेतातिहर्षित:। पपौ जलं प्रसादं च भुक्त्वा स नगरं ययौ॥21॥ सत्यनारायणं देवं मनसा इत्यचिन्तयत्‌। काष्ठं विक्रयतो ग्रामे प्राप्यते चाद्य यद्धनम्‌॥22॥ तेनैव सत्यदेवस्य करिष्ये व्रतमुत्तमम्‌। इति सञ्चिन्त्य मनसा काष्ठं धृत्वा तु मस्तके॥23॥ जगाम नगरे रम्ये धनिनां यत्र संस्थिति:। तद्‌दने काष्ठमूल्यं च द्विगुणं प्राप्तवानसौ॥24॥ तत: प्रसन्नहृदय: सुपक्वं कदलीफलम्‌। शर्करा-घृत-दुग्धं च गोधूमस्य च चूर्णकम्‌ ॥25॥ कृत्वैकत्र सपादं च गृहीत्वा स्वगृहं ययौ। ततो बन्धून्‌ समाहूय चकार विधिना व्रतम्‌॥26॥ तद्‌ व्रतस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत्‌। इह लोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥27॥ इति श्री स्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सूत शौनकसंवादे सत्यनारायण व्रतकथायां द्वितीयोऽध्याय: ॥2॥ तृतीयोऽध्याय:ᅠ सूत उवाच- पुनरग्रे प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा:। पुरा चोल्कामुखो नाम नृपश्चासीन्महामति:॥1॥ जितेन्द्रिय: सत्यवादी ययौ देवालयं प्रति। दिने दिने धनं दत्त्वा द्विजान्‌ सन्तोषयत्‌ सुधी:॥2॥ भार्या तस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना सती। भद्रशीलानदीतीरे सत्यस्य व्रतमाचरत्‌॥3॥ एतस्मिन्‌ समये तत्र साधुरेक: समागत:। वाणिज्यार्थं बहुधनैरनेकै: परिपूरिताम्‌ ॥4॥ नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम नृपतिं प्रति। दृष्ट्‌वा स व्रतिनं भूपं पप्रच्छ विनयान्वित:॥5॥ साधुरुवाच-किमिदं कुरुषे राजन्‌! भक्तियुक्तेन चेतसा। प्रकाशं कुरु तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम्‌॥6॥ राजोवाच- पूजनं क्रियते साधो! विष्णोरतुलतेजस: । व्रतं च स्वजनै: सार्धं पुत्राद्यावाप्तिकाम्यया॥7॥ भूपस्य वचनं श्रुत्वा साधु: प्रोवाच सादरम्‌। सर्वं कथय में राजन्‌! करिष्येऽहं तवोदितम्‌॥8॥ ममापि सन्ततिर्नास्ति ह्येतस्माज्जायते ध्रुवम्‌। ततो निवृत्य वाणिज्यात्‌ सानन्दो गृहमागत:॥9॥ भार्यायै कथितं सर्वं व्रतं सन्ततिदायकम्‌। तदा व्रतं करिष्यामि यदा में सन्ततिर्भवेत्‌ ॥10॥ इति लीलावती प्राह स्वपत्नीं साधुसत्तम:। एकस्मिन्‌ दिवसे तस्य भार्या लीलावती सती॥11॥ भर्तृयुक्ताऽऽनन्दचित्ताऽभवद्धर्मपरायणा। गर्भिणी साऽभवत्तस्य भार्या सत्यप्रसादत: ॥12॥ दशमे मासि वै तस्या: कन्यारत्नमजायत। दिने दिने सा ववृधे शुक्लपक्षे यथा शशी॥13॥ नाम्ना कलावती चेति तन्नामकरणं कृतम्‌। ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं वच:॥14॥ न करोषि किमर्थं वै पुरा सङ्‌कल्पितं व्रतम्‌। साधुरुवाच-विवाहसमये त्वस्या: करिष्यामि व्रतं प्रिये!॥15॥ इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति। तत: कलावती कन्या वृधपितृवेश्मनि॥16॥ दृष्ट्‌वा कन्यां तत: साधुर्नगरे सखिभि: सह। मन्त्रायित्वा दुरतं दूतं प्रेषयामास धर्मवित्‌॥17॥ विवाहार्थं च कन्याया वरं श्रेष्ठ विचारय। तेनाऽऽज्ञप्तश्च दूतोऽसौ काचनं नगरं ययौ ॥18॥ तस्मादेकं वणिक्पुत्रां समादायाऽऽगतो हि स:। दृष्ट्‌वा तु सुन्दरं बालं वणिक्‌पुत्रां गुणान्वितम्‌॥19॥ ज्ञातिभि-र्बन्धुभि: सार्धं परितुष्टेन चेतसा। दत्तवान्‌ साधुपुत्रााय कन्यां विधि-विधानत: ॥20॥ ततो भाग्यवशात्तेन विस्मृतं व्रतमुत्तमम्‌। विवाहसमये तस्यास्तेन रुष्टोऽभवत्‌ प्रभु: ॥21॥ तत: कालेन नियतो निजकर्मविशारद:। वाणिज्यार्थं तत: शीघ्रं जामातृसहितो वणिक्‌॥22॥ रत्नसारपुरे रम्ये गत्वा सिन्धुसमीपत:। वाणिज्यमकरोत्‌ साधुर्जामात्रा श्रीमता सह॥ 23॥ तौ गतौ नगरे रम्ये चन्द्रकेतोर्नृपस्य च। एतस्मिन्नेव काले तु सत्यनारायण: प्रभु: ॥24॥ भ्रष्टप्रतिज्ञमा-लोक्य शापं तस्मै प्रदत्तवान्‌। दारुणं कठिनं चास्य महद्‌दु:खं भविष्यिति॥25॥ एकस्मिन्‌ दिवसे राज्ञो धनमादाय तस्कर:। तत्रौव चागतश्चौरौ वणिजौ यत्र संस्थितौ॥26॥ तत्पश्चाद्‌ धावकान्‌ दूतान्‌ दृष्ट्‌वा भीतेन चेतसा। धनं संस्थाप्य तत्रौव स तु शिघ्रमलक्षित:॥27॥ ततो दूता: समायाता यत्रास्ते सज्जनो वणिक्‌। द्दष्ट्‌वा नृपधनं तत्र बद्‌ध्वाऽ ऽनीतौ वणिक्सुतौ॥28॥ हर्षेण धावमानाश्च ऊचुर्नृपसमीपत:। तस्करौ द्वौ समानीतौ विलोक्याऽऽज्ञापय प्रभो॥29॥ राज्ञाऽऽज्ञप्तास्तत: शीघ्रं दृढं बद्‌ध्वा तु तावुभौ। स्थापितौ द्वौ महादुर्गे कारागारेऽविचारत:॥30॥ मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं कैस्तयोर्वच:। अतस्तयोर्धनं राज्ञा गृहीतं चन्द्रकेतुना॥31॥ तच्छापाच्च तयोर्गेहे भार्या चैवातिदु:खिता। चौरेणापहृतं सर्वं गृहे यच्च स्थितं धनम्‌॥32॥ आधिव्याधिसमायुक्ता क्षुत्पिपसातिदु:खिता। अन्नचिन्तापरा भूत्वा बभ्राम च गृहे गृहे॥33॥ कलावती तु कन्यापि बभ्राम प्रतिवासरम्‌। एकस्मिन्‌ दिवसे जाता क्षुधार्ता द्विजमन्दिरम्‌ ॥34॥ गत्वाऽपश्यद्‌ व्रतं तत्र सत्यनारायणस्य च। उपविश्य कथां श्रुत्वा वरं सम्प्रार्थ्य वाछितम्‌॥35॥ प्रसादभक्षणं कृत्वा ययौ रात्रौ गृहं प्रति। माता लीलावती कन्यां कथयामास प्रेमत:॥36॥ पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्रा किं ते मनसि वर्तते। कन्या कलावती प्राह मातरं प्रति सत्वरम्‌॥37॥ द्विजालये व्रतं मातर्दृष्टं वाञ्छितसिद्धिदम्‌। तच्छ्रुत्वा कन्यका वाक्यं व्रतं कर्तु समुद्यता॥38॥ सा तदा तु वणिग्भार्या सत्यनारायणस्य च। व्रतं चक्रे सैव साध्वी बन्धुभि: स्वजनै: सह॥39॥ भर्तृ-जामातरौ क्षिप्रमागच्छेतां स्वमाश्रमम्‌। इति दिव्यं वरं बब्रे सत्यदेवं पुन: पुन:॥40॥ अपराधं च मे भर्तुर्जामातु: क्षन्तुमर्हसि। व्रतेनानेन तुष्टोऽसौ सत्यनारायण: पुन:॥41॥ दर्शयामास स्वप्नं हि चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम्‌। वन्दिनौ मोचय प्रातर्वणिजौ नृपसत्तम!॥42॥ देयं धनं च तत्सर्वं गृहीतं यत्त्वयाऽधुना। नो चेत्‌ त्वा नाशयिष्यामि सराज्यं-धन-पुत्रकम्‌॥43॥ एवमाभाष्य राजानं ध्यानगम्योऽभवत्‌ प्रभु:। तत: प्रभातसमये राजा च स्वजनै: सह॥44॥ उपविश्य सभामध्ये प्राह स्वप्नं जनं प्रति॥ बद्धौ महाजनौ शीघ्रं मोचय द्वौ वणिक्सुतौ॥45॥ इति राज्ञो वच: श्रुत्वा मोचयित्वा महाजनौ। समानीय नृपस्याऽग्रे प्राहुस्ते विनयान्विता:॥46॥ आनीतौ द्वौ वणिक्पुत्रौ मुक्त्वा निगडबन्धनात्‌। ततो महाजनौ नत्वा चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम्‌॥47॥ स्मरन्तौ पूर्ववृत्तान्तं नोचतुर्भयविद्दलौ। राजा वणिक्सुतौ वीक्ष्य वच: प्रोवाच सादरम्‌॥48॥ दैवात्‌ प्राप्तं महद्‌दु:खमिदानीं नास्ति वै भयम्‌। तदा निगडसन्त्यागं क्षौरकर्माऽद्यकारयत्‌॥49॥ वस्त्लङ्‌कारकं दत्त्वा परितोष्य नृपश्च तौ। पुरस्कृत्य वणिक्पुत्रौ वचसाऽतोच्चयद्‌ भृशम्‌॥50॥ पुराऽऽनीतं तु यद्‌ द्रव्यं द्विगुणीकृत्य दत्तवान्‌। प्रोवाच तौ ततो राजा गच्छ साधो! निजाश्रमम्‌॥51॥ राजानं प्रणिपत्याऽऽह गन्तव्यं त्वत्प्रसादत:। इत्युक्त्वा तौ महावैश्यौ जग्मतु: स्वगृहं प्रति॥52॥ इति श्री स्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सूतशौनकसंवादे सत्यनारायणव्रतकथायां तृतीयोध्याय:। चतुर्थोध्याय:ᅠ सूत उवाच-यात्रां तु कृतवान्‌ साधुर्मङ्‌गलायनपूर्विकाम्‌। ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा तदा तु नगरं ययौ॥1॥ कियद्‌ दूरे गते साधौ सत्यनारायण: प्रभु:। जिज्ञासां कृतवान्‌ साधो! किमस्ति तव नौ स्थितम्‌॥2॥ ततो महाजनौ मत्तौ हेलया च प्रहस्य वै। कथं पृच्छसि भो दण्डिन्! मुद्रां नेतुं किमिच्छसि॥3॥ लता-पत्रादिकं चैव वर्तते तरणौ मम। निष्ठुरं च वच: श्रुत्वा सत्यं भवतु ते वच:॥4॥ एवमुक्त्वा गत: शीघ्रं दण्डी तस्य समीपत:। कियद्‌दूरे ततो गत्वा स्थित: सिन्धुसमीपत:॥5॥ गते दण्डिनि साधुश्च कृतनित्यक्रियस्तदा। उत्थितां तरणीं ट्टष्ट्‌वा विस्मयं परमं ययौ ॥6॥ दृष्ट्‌वा लतादिकं चैव मूच्र्छितो न्यपतद्‌ भुवि। लब्धसंज्ञो वणिक्‌ पुत्रास्ततश्चिन्ताऽन्वितोऽभवत्‌॥7॥ तदा तु दुहितु: कान्तो वचनं चेदमब्रवीत्‌॥ किमर्थं क्रियते शोक: शापो दत्तश्च दण्डिना॥8॥ शक्यतेऽनेन सर्वं हि कर्तुं चात्रा न संशय:। अतस्तच्छरणं याहि वञ्छितार्थो भविष्यति ॥9॥ जामातुर्वचनं श्रुत्वा तत्सकाशं गतस्तदा॥ द्दष्ट्‌वा च दण्डिनं भक्त्या नत्वा प्रोवाच सादरम्‌॥10॥ क्षमस्व चापराधं मे यदुक्तं तव सन्निधौ॥ एवं पुन: पुनर्नत्वा महाशोकाऽऽकुलोऽभवत्‌॥11॥ प्रोवाच वचनं दण्डी विलपन्तं विलोक्य च। मारोदी: श्रृणु मद्वाक्यं मम पूजाबहिर्मुख:॥12॥ ममाऽऽज्ञया च दुर्बुद्‌धे! लब्धं दु:खं मुहुर्मुहु:। तच्छ्रुत्वा भगवद्‌ वाक्यं व्रतं कर्तुं समुद्यत:॥13॥ साधुरुवाच-त्वन्मायामोहिता: सर्वे ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकस:। न जानन्ति गुणान्‌ रूपं तवाऽऽश्चर्यर्ममिदं प्रभो॥14॥ मूढोऽहं त्वां कथं जाने मोहितस्तव मायया। प्रसीद पूजमिष्यामि यथाविभवविस्तरै:॥15॥ पुरा वित्तैश्च तत्सर्वै: पाहि मां शरणागतम्‌। श्रुत्वा भक्तियुतं वाक्यं परितुष्टो जनार्दन:॥16॥ वरं च वाञ्छितं दत्त्वा तत्रौवाऽन्तर्दधे हरि:। ततो नौकां समारुह्य दृष्ट्‌वा वित्तप्रपूरिताम्‌॥17॥ कृपया सत्यदेवस्य सफलं वाञ्छितं मम। इत्युक्त्वा स्वजनै: सार्धं पूजां कृत्वा यथाविधि॥18॥ हर्षेण चाऽभवत्पूर्ण: सत्यदेवप्रसादत:। नावं संयोज्य यत्नेन स्वदेशगमनं कृतम्‌॥19॥ साधुर्जामातरं प्राह पश्य रत्नपुरीं मम। दूतं च प्रेषयामास निजवित्तस्य रक्षकम्‌॥20॥ दूतोऽसौ नगरं गत्वा साधुभार्यां विलोक्य च। प्रोवाच वाञ्छितंवाक्यं नत्वा बद्धाजलिस्तदा॥21॥ निकटे नगरस्यैव जामात्रा सहितो वणिक्‌। आगतो बन्धुवर्गैश्च वित्तैश्च बहुभिर्युत:॥22॥ श्रुत्वा दूतमुखाद्‌ वाक्यं महाहर्षवती सती। सत्यपूजां तत: कृत्वा प्रोवाच तनुजां प्रति॥23॥ ब्रजामि शीघ्रमागच्छ साधुसन्दर्शनाय च। इति मातृवच: श्रुत्वा व्रतं कृत्वा समासत:॥24॥ प्रसादं च परित्यज्य गता साऽपि पतिं प्रति। तेन रुष्ट: सत्यदेवो भर्तारं तरणीं तथा॥25॥ संहृत्य च धनै: सार्धं जले तस्मिन्नमज्जयत्‌। तत: कलावती कन्या न विलोक्य निजं पतिम्‌॥26॥ शोकेन महता तत्र रुदती चाऽपतद्‌ भुवि। दृष्ट्‌वा तथाविधां नौकां कन्यां च बहुदु:खिताम्‌ ॥27॥ भीतेन मनसा साधु: किमाश्चर्यमिदं भवेत्‌ चिन्त्यमानाश्च ते सर्वे बभूवुस्तरिवाहका:॥28॥ ततो लीलावती कन्या दृष्ट्‌वा सा विह्नलाऽभवत्‌। विललापऽतिदु: खेन भर्तारं चेदमब्रतीत्‌॥29॥ इदानीं नौकया सार्धं कथं सोऽभूदलक्षित:। न जाने कस्य देवस्य हेलया चैव सा हृता॥30॥ सत्यदेवस्य माहात्म्यं ज्ञातुं वा केन शक्यते। इत्युक्त्वा विलालपैवं ततश्च स्वजनै: सह॥31॥ ततौ लीलावती कन्या क्रोडे कृत्वा रुरोद ह। तत: कलावती कन्या नष्टे स्वामिनि दु:खिता॥32॥ गृहीत्वा पादुकां तस्याऽनुगन्तुं च मनोदधे। कन्यायाश्चरितं दृष्ट्‌वा सभार्य: सज्जनो वणिक्‌॥33॥ अतिशोकेन सन्तप्तश्चिन्तयामास धर्मवित्‌। हृतं वा सत्यदेवेन भ्रान्तोऽहं सत्यमायया॥34॥ सत्यपूजां करिष्यामि यथाविभवविस्तरम्‌। इति सर्वान्‌ समाहूय कथयित्वा मनोरथम्‌॥35॥ नत्वा च दण्डवद्‌ भूमौ सत्यदेवं पुन: पुन:। ततस्तुष्ट: सत्यदेवो दीनानां परिपालक:॥36॥ जगाद वचनं चैनं कृपया भक्तवत्सल:। त्यक्त्त्वा प्रसादं ते कन्या पतिं दुरष्टुं समागता॥37॥ अतोऽदृष्टोभवत्तस्या: कन्यकाया: पतिध्र्रुवम्‌। गृहं गत्वा प्रसादं च भुक्त्वा साऽऽयाति चेत्पुन:॥38॥ लब्धभत्ररी सुता साधो! भविष्यति न संशय:। कन्यका तादृशं वाक्यं श्रुत्वा गगनमण्डलात्‌॥39॥ क्षिपंर तदा गृहं गत्वा प्रसादं च बुभोज सा। तत्‌ पश्चात्पुनरागत्य सा ददर्श निजं पतिम्‌॥40॥ तत: कलावती कन्या जगाद पितरं प्रति। इदानीं च गृहं याहि विलम्बं कुरुषे कथम्‌॥41॥ तच्छ्रुत्वा कन्यकावाक्यं सन्तुष्टोऽभूद वणिक्सुत:। पूजनं सत्यदेवस्य कृत्वा विधिविधानत:॥42॥ धनैर्बन्धुगणै: सार्धं जगाम निजमन्दिरम्‌॥ पौर्णमास्यां च सङ्‌क्रान्तौ कृतवान्‌ सत्यपूजनम्‌॥43॥ इह लोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥44॥ इति श्री सकन्दपुराणे रेवाखण्डे सूतशौनकसंवादे सत्यनारायणव्रतकथायां चतुर्थोऽध्याय:॥4॥ पञ्चमोध्याय:ᅠ सूत उवाच- अथान्यत् संप्रवक्ष्यामि श्रृणध्वं मुनिसत्तमा:॥ आसीत्‌ तुङ्‌गध्वजो राजा प्रजापालनतत्पर:॥1॥ प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्त्वा दु:खमवाप स:। एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान्‌ पशून्‌॥2॥ आगत्य वटमूलं च दृष्ट्‌वा सत्यस्य पूजनम्‌। गोपा: कुर्वन्ति सन्तुष्टा भक्तियुक्ता: सबन्धवा:॥3॥ राजा दृष्ट्‌वा तु दर्पेण न गतो न ननाम स:। ततो गोपगणा: सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥4॥ संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम्‌। तत: प्रसादं संत्यज्य राजा दु:खमवाप स:॥5॥ तस्य पुत्राशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत्‌। सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम्‌॥6॥ अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनन्‌। मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥7॥ ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणै: सह। भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृप:॥8॥ सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्राऽन्वितोऽभवत्‌। इह लोके सुखं भुक्त्वा पश्चात्‌ सत्यपुरं ययौ॥9॥ य इदं कुरुते सत्यव्रतं परम दुर्लभम्‌। श्रृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तां फलप्रदाम्‌॥10॥ धनधान्यादिकं तस्य भवेत्‌ सत्यप्रसादत:। दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत बन्धनात्‌॥11॥ भीतो भयात्‌ प्रमुच्येत सत्यमेव न संशय:। ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ब्रजेत्‌॥12॥ इति व: कथितं विप्रा: सत्यनारायणव्रतम्‌। यत्कृत्वा सर्वदु:खेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥13॥ विशेषत: कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा। केचित्कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥14॥ सत्यनारायणं केचित्‌ सत्यदेवं तथापरे। नाना रूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रद:॥15॥ भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातन:। श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्‌॥16॥ श्रृणोति य इमां नित्यं कथा परमदुर्लभाम्‌। तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेव प्रसादत:॥17॥ व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं सत्यनारायणस्य च। तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वरा:॥18॥ शतानन्दो महा-प्राज्ञ: सुदामा ब्राह्मणोऽभवत्‌। तस्मिन्‌ जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह॥19॥ काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह। तस्मिन्‌ जन्मनि श्रीरामसेवया मोक्षमाप्तवान्‌॥20॥ उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथो-ऽभवत्‌। श्रीरङ्‌नाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्‌॥21॥ धार्मिक: सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवेत्‌।

कष्ट शान्ति के लिये मन्त्र सिद्धान्त

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