Thursday, October 28, 2021

व्रत और उपवास vrat aur upavaas

 व्रत और उपवास vrat aur upavaas

सभी धर्मों में व्रत का महत्वपूर्ण स्थान है व्रत से मनुष्य की अन्तरात्मा शुद्ध होती है। इससे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति, तथा पवित्रता की वृद्धि होती है; अकेला एक उपवास सैकड़ों रोगों का संहार करता है।

नियमत: व्रत तथा उपवास के पालन से उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घजीवन की प्राप्ति होती है- यह सर्वथा निर्विवाद है।
' शब्द रत्नावली' का संयम और नियम को व्रत का समानार्थक मानते हैं वाराह पुराण में अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य  और सरलता को मानसिक व्रत एक भक्त नक्त व्रत निराहार आदि को कायिक व्रत तथा मौन एवं हित, मित, सत्य, मृदु भाषण को वाचिक व्रत कहा गया है।
सामान्यतया
●किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दिनभर के लिए अन्न या जल या अन्य भोजन या इन सबका त्याग व्रत कहलाता है।

●किसी कार्य को पूरा करने का संकल्प लेना भी व्रत कहलाता है।

●संकल्पपूर्वक किए गए कर्म को व्रत कहते हैं।

नित्य, नैमित्तिक और काम्य, इन भेदों से व्रत तीन प्रकार के होते हैं। जिस व्रत का आचरण सर्वदा के लिए आवश्यक है और जिसके न करने से मानव दोषी होता है वह नित्यव्रत है। 
सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना आदि नित्यव्रत हैं। किसी प्रकार के पातक के हो जाने पर या अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण प्रभृति जो व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत हैं।
जो व्रत किसी प्रकार की कामना विशेष से प्रोत्साहित होकर मानव के द्वारा संपन्न किए जाते हैं वे काम्य व्रत हैं; यथा पुत्रप्राप्ति के लिए राजा दिलीप ने जो गोव्रत किया था वह काम्य व्रत है।

पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए पृथक् व्रतों का अनुष्ठान कहा है। कतिपय अर्थात् कुछ व्रत उभय के लिए सामान्य है तथा कतिपय/कुछ व्रतों को दोनों मिलकर ही कर सकते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा, हस्त या श्रवण नक्षत्र में किया जानेवाला उपाकर्म व्रत केवल पुरुषों के लिए विहित है। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को आचारणीय हरितालिक व्रत केवल स्त्रियों के लिए कहा है। एकादशी जैसा व्रत स्त्री व पुरूष दोनों ही के लिए सामान्य रूप से विहित है। शुभ मुहूर्त में किए जानेवाले कन्यादान जैसे व्रत दंपति के द्वारा ही किए जा सकते हैं।

प्रत्येक व्रत के आचरण के लिए कुछ समय भी निश्चित है। जैसे सत्य और अहिंसा व्रत का पालन करने का समय यावज्जीवन कहा गया है वैसे ही अन्य व्रतों के लिए भी समय निर्धारित है। महाव्रत जैसे व्रत सोलह वर्षों में पूर्ण होते हैं। वेदव्रत और ध्वजव्रत की समाप्ति बारह वर्षों में होती है। पंचमहाभूतव्रत, संतानाष्टमीव्रत, शक्रव्रत और शीलावाप्तिव्रत एक वर्ष तक किया जाता है। अरुंधती व्रत वसंत ऋतु में होता है।
चैत्रमास में वत्सराधिव्रत, वैशाख मास में स्कंदषष्ठीव्रत, ज्येठ मास में निर्जला एकादशी व्रत, आषाढ़ मास में हरिशयनव्रत, श्रावण मास में उपाकर्मव्रत, भाद्रपद मास में स्त्रियों के लिए हरितालिकव्रत, आश्विन मास में नवरात्रव्रत, कार्तिक मास में गोपाष्टमीव्रत, मार्गशीर्ष मास में भैरवाष्टमीव्रत, पौष मास में मार्तण्डव्रत, माघ मास में षट्तिलाव्रत और फाल्गुन मास में महाशिवरात्रिव्रत प्रमुख हैं।

महालक्ष्मीव्रत भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को प्रारंभ होकर सोलह दिनों में पूर्ण होता है। प्रत्येक संक्रांति को आचरणीय व्रतों में मेष संक्रांति को सुजन्मावाप्ति व्रत, किया जाता है।तिथि पर आश्रित रहनेवाले व्रतों में एकादशी व्रत, वार पर आश्रित व्रतों में रविवार को सूर्यव्रत, नक्षत्रों में अश्विनी नक्षत्र में शिवव्रत, योगों में विष्कुंभ योग में धृतदानव्रत और करणों में नवकरण में विष्णुव्रत का अनुष्ठान विहित है। भक्ति और श्रद्धानुकूल चाहे जब किए जानेवाले व्रतों में सत्यनारायण व्रत प्रमुख है।

किसी भी व्रत के अनुष्ठान के लिए देश और स्थान की शुद्धि अपेक्षित है। उत्तम स्थान में किया हुआ अनुष्ठान शीघ्र तथा अच्छे फल को देनेवाला होता है। इसलिए किसी भी अनुष्ठान के प्रारंभ में संकल्प करते हुए सर्वप्रथम काल तथा देश का उच्चारण करना आवश्यक होता है। व्रतों के आचरण से देवता, ऋषि, पितृ और मानव प्रसन्न होते हैं। ये लोग प्रसन्न होकर मानव को आशीर्वांद देते हैं जिससे उसके अभिलषित मनोरथ पूर्ण होते हैं।
इस प्रकार श्रद्धापूर्वक किए गए व्रत और उपवास के अनुष्ठान से मानव को ऐहिक तथा आमुष्मिक सुखों की प्राप्ति होती है।
अतः जीवन में व्रत का पालन अवश्य करना चाहिए। 

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Sunday, October 24, 2021

दीपावली पर्व Deepawali Parva

 दीपावली पर्व Deepawali Parva



दीपावली  (व्रतोत्सव) के अनुसार लोक प्रसिद्धि में प्रज्ज्वलित दीपकों की पंक्ति लगा देने से "दीपावली" और स्थान-स्थान में मण्डल बना देने से "दीपमालिका" बनती है,अतः इस रूप में यह दोनों नाम सार्थक हो जाते हैं।इस प्रकार की दीपावली या दीपमालिका संपन्न करने से  'कार्तिके मास्यमावास्या तस्यां दीप प्रदीपनम्।शालायां ब्राह्मण: कुर्यात् स गच्छेत् परमं पदम्।।'के अनुसार परमपद प्राप्त होता है।  ब्रह्मपुराण में लिखा है कि कार्तिक की  अमावस्या को अर्धरात्रि के समय  माता लक्ष्मी सद्गृहस्थों के मकानों/ भवनों में जहांँ-तहांँ विचरण करती हैं।  इसलिए अपने मकानों को सब प्रकार से स्वच्छ, शुद्ध और सुशोभित करके दीपावली अथवा दीपमालिका बनाने से लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और उनमें स्थाईरूप से निवास करती हैं। इसके अलावा वर्षा काल के किए हुए दुष्कर्म ( जाले, मकड़ी, धूल-धमासे और दुर्गंध आदि) दूर करने के हेतु से भी कार्तिक की अमावस्या को दीपावली लगाना हितकारी होता है। यह अमावस्या प्रदोष काल से अर्ध रात्रि तक रहने वाली श्रेष्ठ होती है। यदि वह अर्धरात्रि तक ना रहे तो प्रदोष व्यापिनी लेना चाहिए।

लक्ष्मी पूजन- कार्तिक कृष्ण अमावस्या अर्थात् दीपावली के दिन प्रातः स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर "मम सर्वापच्छान्ति पूर्वक दीर्घायुष्य बलपुष्टि नैरुज्यादि सकलशुभ फल प्राप्त्यर्थं गज तुरग रथ राज्य ऐश्वर्य आदि सकल सम्पदामुत्तरोत्तराभि वृध्यर्थम् इन्द्र कुबेर सहित श्रीलक्ष्मी पूजनं करिष्ये।"
यह संकल्प करके दिन भर व्रत रखें और सायंकाल के समय पुनः स्नान करके पूर्वोक्त प्रकार की "दीपावली", "दीपमालिका" और "दीपवृक्ष" आदि बनाकर कोषागार अर्थात खजाने में या किसी भी शुद्ध, सुंदर,सुशोभित और शांतिवर्धक स्थान में वेदी बनाकर या चौकी-पाटे आदि पर अक्षतादि से अष्टदल लिखें और उस पर लक्ष्मी का स्थापन करके 'लक्ष्म्यै नमः' 'इन्द्राय नमः' और 'कुबेराय नमः' इन नामों से तीनों का पृथक-पृथक (या एकत्र) यथाविधि पूजन करके 'नमस्ते सर्वदेवानां वरदासि हरिप्रियाया गतिस्त्वत्प्रपन्नानां सा मे भूयात्वदर्चनात् से माता लक्ष्मी की और 'ऐरावत समारूढो वज्रहस्तो महाबलःशतयज्ञाधिपो देवस्तस्मा इन्द्राय ते नमः'से इन्द्र की और 'धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय भवन्तु त्वत्प्रसादान्मे धनधान्यादिसम्पद:'से कुबेर की प्रार्थना करें। पूजन सामग्री में अनेक प्रकार की उत्तमोत्तम मिठाई उत्तमोत्तम फल पुष्प और सुगंधपूर्ण धूप-दीपादि लें और ब्रम्हचर्य से रहकर उपवास अथवा नक्त व्रत करें।
हमारे देश भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् (हे भगवन!) मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाइए
मान्यता है कि दीपावली के दिन भगवान राम अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे।अयोध्यावासियों का हृदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से प्रफुल्लित हो उठा था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने देशी घी के दीपक जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस की वह रात्रि दीपों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक हम सब प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं।

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