श्राद्ध शब्द का अर्थ जुड़ा है, श्रद्धा से.
जब तक श्रद्धा नहीं है,श्राद्ध का कोई मतलब नहीं होता है.पितृ पक्ष में पहला दिन पूर्णिमा और अंतिम दिन अमावस्या का होता है,इस तरह सोलह दिन का पितृ पक्ष होता है.
श्राद्ध करने से पितृ गण तृप्त होते है ,साथ ही ब्राम्हण,सूर्य,अश्विनी कुमार,मानव,पशु-पक्षी,तथा सभी प्राणियों की आत्माएं भी तृप्त होती है.
जो व्यक्ति श्राद्ध करते है,उनके परिवार में दुःख नहीं रहता, पर जहां श्राद्ध नहीं होता,वहां वीर पुरुष,निरोगी,शतायु,व्यक्तियों का जन्म नहीं होता.
आपके मन में प्रश्न उठता होगा की आश्विन मास में ही श्राद्ध क्यों?
मान्यता है की अश्विन माह में यमराज अपने पाश से सभी पितृ गणों को मुक्त कर देते है.ताकि वह अपनी-अपनी संतान से श्राद्ध के निमित्त भोजन ग्रहण कार सके.
इस लिये हर किसी को अपने कल्याण मार्ग के लिये अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिये.
श्राद्ध करने का अधिकार पुत्र को दिया गया है.पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है पत्नी न हो तो,पुत्री का पुत्र भी अपने नाना-नानी का श्राद्ध करने का हक़दार मन जाता है.
श्राद्ध के तीन अंग माने गए हैं-तर्पण,भोजन,और त्याग.
इसमें तर्पण की प्रधानता है तथा जिसकी जितनी श्रद्धा हो,वह उतना भोजन बना कार श्रद्धा से सबको कराये.
तीसरा अंग है त्याग.
इसी अंग के तहत श्राद्ध पक्ष में बनने वाले भोजन को छह भागों में विभाजित किया गया है,गाय,कौवा,बिल्ली,कुत्ता,और ब्राह्मण को भोजन कराकर पितरों को खुश करने की बात शास्त्रों में लिखी गयी है शास्त्रानुसार इन्ही के द्वारा पितरों तक भोजन पहुंचता है.
अतः श्राद्ध संपन्न करते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिये.
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