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Thursday, September 22, 2011

कर्म सिद्धान्त Work theory


                           कर्म सिद्धान्त 


कर्म मुख्यतः तीन प्रकार के माने गए हैं, यथा:-
(१)-संचित कर्म 
(२)-क्रियमाण 
(३)-प्रारब्ध 


(१)-संचित कर्म- प्रत्येक जन्म में किये गये संस्कार एवं उसके फल भाव का संचित कोष तैयार हो जाता है.यह उस जीव की व्यक्तिगत पूँजी है जो अच्छी या बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है यही संचित कोष संचित कर्म कहा जाता है, और मनुष्य इसे हर जन्म में नये रूप में अर्जित करता रहता है.
संचित कर्म में विशेषता यह है की किसी कर्म को बार-बार करने की आदतों का निर्माण होता है अथवा कुछ कर्म या घटनायें ऐसी होती है जिनकी जीवन में स्मृति पर अमिट छाप हो जाये तो वे मन का भाग हो जाया करती है जिन्हें संस्कार कहा जाता है.
इस तरह संचित कर्म का सम्बन्ध मानसिक कर्म से भी होता है जैसे ईर्ष्या,क्रोध,बदला लेने की भावना अथवा क्षमा,दया इत्यादि की भावना मनुष्य में संचित कर्मों के आधार पर ही पायी जती है अशुभ चिंतन में अशुभ संचित कर्म व शुभ चिन्तन में शुभ संचित कर्म बनते हैं.
जीवन में तीन चीजों का संयोग होता है -आत्मा,मन,और शरीर .
शरीर और आत्मा के मध्य सेतु है मन.यदि मन किसी प्रकार के संस्कार निर्मित न करे और पूर्व संस्कारों को क्षय करे टो वह मन अपना अस्तित्व ही खो देगा और मनुष्य का जन्म नहीं होगा .
संचित कर्मों का प्रभाव -प्रत्येक मनुष्य अपने पूर्व जन्मों में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में पैदा हुआ था.जिससे उसके कर्म भी भिन्न-भिन्न प्रकार के रहे,उसकी प्रतिभा का विकास भी भिन्न-भिन्न प्रकार से हुआ होगा.
इन्ही पिछले संस्कारों के कारण कोई व्यक्ति कर्मठ या आलसी स्वाभाव का होता है,यह संचित कोष ही पाप और पुण्य का ढेर होता है. इसी ढेर के अनुसार वासनायें,इच्छायें,कामनायें,ईर्ष्या,द्वेष,क्रोध,क्षमा इत्यादि होते हैं. ये संस्कार बुद्धि को उसी दिशा की ओर प्रेरित करते हैं जैसा की उसमे संग्रहीत हों.

(२)-क्रियमाण -तात्कालिक किये जाने वाले कर्म.


(३)-प्रारब्ध -कर्मों के फल अंश का कुछ हिस्सा इस जन्म के भोग के लिये निश्चित होता है या इस जन्म में जिन संचित कर्मों का भोग आरम्भ हो चुका है वही प्रारब्ध है.इसी प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य को अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में जन्म लेना पड़ता है.
इसका भोग तीन प्रकार से होता है -
अनिच्छा से -वे बातें जिन पर मनुष्य का वश नहीं और न ही विचार किया हो जैसे भूकंप आदि.
परेच्छा से -दूसरों के द्वारा दिया गया सुख दुःख .
स्वेच्छा से -इस समय मनुष्य की बुद्धि ही वैसी हो जाया करती है, जिससे वह प्रारब्ध के वशीभूत अपने भोग के लिये स्वयं कारक बन जाता है ;किसी विशेष समय में विशेष प्रकार की बुद्धि हो जाया करती है तथा उसके अनुसार निर्णय लेना प्रारब्ध है.

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