Sunday, September 18, 2011

कूष्माण्डा माहात्म्य kushmanda mahatmya


                     कूष्माण्डा माहात्म्य 


           या    देवी   सर्व  भूतेषु   मात्र  रूपेण  संस्थिता.
          नमस्तस्यै   नमस्तस्यै  नमस्तस्यै  नमो नमः.
          सुरा    सम्पूर्ण    कलशं     रूधिराप्लुतमेव    च .
          दधाना हस्त पद्माभ्याम कूष्माण्डा शुभदास्तुमे.


माँ भगवती दुर्गा के चौथे स्वरुप का नाम कूष्माण्डा हैं.अपनी मंद हल्की हँसी द्वारा अंड अर्थात ब्रम्हाण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है.
जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था चारो ओर अन्धकार ही अन्धकार परिव्याप्त था  तब इन्ही देवी ने अपने ईषत हास्य से ब्रम्हाण्ड की रचना की थी.अतः यही सृष्टि की आदि स्वरूपा शक्ति है.
इनका निवास सूर्य मण्डल के भीतर के लोक में है सूर्य लोक में निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्ही में है,इनके शरीर की कान्ति और प्रभा भी सूर्य के समान ही देदीप्यमान और भास्वर है,इनके तेज की तुलना इन्ही से की जा सकती है.
इनकी आठ भुजायें है,अतः यह अष्टभुजी देवी के नाम से भी विख्यात है,इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डलु,धनुष,बाण,कमल-पूष्प,अमृत पूर्ण कलश,चक्र,तथा गदा है आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है,इनका वाहन सिंह है,बलियों में इन्हें कुम्हड़े की बलि सर्वाधिक प्रिय है इसलिये भी इन्हें कूष्माण्डा कहा जाता है.
नवरात्र पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरुप की पूजा की जाती है,इस दिन साधक का मन 'अनाहत चक्र' में अवस्थित होता है,इनकी भक्ति से आयु,यश,बल,और आरोग्य की वृद्धि होकर समस्त रोग-शोक विनष्ट हो जाते है,यदि मनुष्य सच्चे ह्रदय से माँ के शरणागत हो जाये तो उसे अत्यन्त सुगमता से परमपद की प्राप्ति हो जाती है,अतः लौकिक,पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिये.

Saturday, September 17, 2011

श्री सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय 'सन्त'


                            प्राक्कथन 
श्री कूष्माण्डा चालीसा का प्रणयन संवत् २०१९ कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को पं.-श्री सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय 'संत'(जन्म 01/01/1938 एवं प्रयाण 10/04/2014) द्वारा हुआ.

यह वही समय है जब विश्व पर अष्टग्रही योग का प्रभाव व्याप्त था और भारत पर चीन का आक्रमण हुआ था.उस समय ये परास्नातक (हिन्दी) के विद्यार्थी थे.ये बचपन से ही शान्त एवं अध्यात्मिक विचारधारा के व्यक्ति रहे हैं.
उस समय तीन वर्ष घाटमपुर में प्रवास करने के दौरान माँ कूड़हा (कूष्माण्डा) देवी के प्रति लगन एवं उनके आशीर्वाद से इनके ह्रदय में ऐसी प्रेरणा हुई कि अपने कृतित्व द्वारा माँ के चरणों में कुछ श्रद्धा सुमन अर्पित किये जायें.
इसी सन्दर्भ में माँ की चालीसा की रचना का विचार उत्पन्न हुआ,उस समय अपने जेब खर्च से इन्होंने इसकी रचना कर एक हजार प्रतियाँ छपवा कर वितरित की,इस क्रम से आज तक इसकी रचना का प्रसाद भक्तों में वितरित होता रहा.
उम्र के अनुभव और अंतर्मन की प्रेरणा से जीवन के उत्तरार्ध में इन्हें पुनः यह विचार आया कि इस रचना को वह पुनः प्रसाद रूप में वितरित करे,किन्तु आज की प्रति में संशोधन एवं कुछ और प्रकरण जो मूल प्रति में थे परन्तु बाद के संस्करणों में उनका अभाव देखा गया,इसलिये रचयिता द्वारा अन्य प्रतियो में छोड़े गये अंशो को पुनः प्रकाशित करना आवश्यक समझा गया साथ ही इसमें कूष्माण्डा पंचामृत,शिव शतनाम को जोड़ा गया है.
इस प्रकार यह संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण पुनः आपके सम्मुख माँ के प्रसाद के रूप में प्रस्तुत है.
इनकी अन्य रचनायें- रानी सारन्धा(खण्ड काव्य), गुलहाये अक़ीदत आदि भी हैं।
      -:निवेदक:- 
 विजय कुमार शुक्ल (आचार्य)
 कानपुर (उत्तर प्रदेश ) 
 मो_9936816114
 vijay.shukla003@gmail.com   

Thursday, September 15, 2011

दान daan


दान के कुछ प्रकार 
१.धन दान 
२.अन्न दान 
३.स्वर्ण दान 
४.भूमि दान 
५.तिल दान 
६.लवण दान 
७.रजत दान 
८.धेनु दान 
९.वृषभ दान 
१०.कन्या दान 
११.दीप दान 
१२.अर्घ्य दान 
१३.सक्तु दान 
१४.कालपुरुदान ष 
१५.गृह दान 
१६.महिष दान 
१७.घृत दान 
१८.शैया  दान 
१९.श्वेताश्व दान 
२०.छत्र दान 
२१.शंख दान 
२२.वस्त्र दान 
२३.अपूप दान 
२४.सौभाग्य वायन दान  
२५.आसन दान 
२६.कलश दान 
२७.पात्र दान 
२८.मुद्रिकादान 
२९.गुप्त दान 
३०.तुला दान 
३१.आरोग्य दान 
३२.प्राण दान 
३३.रक्त दान 
३४.पिण्ड दान 
३५.धर्मोपदेश दान 
३६.प्रेम दान 
३७.क्षमा दान 
३८. अभय दान 
३९.ज्ञान दान 
४०.आत्म दान 
४१.विद्या दान 
४२.जल दान 
४३.सेवा दान 

श्राद्ध shraddh


श्राद्ध शब्द का अर्थ जुड़ा है, श्रद्धा से.
जब तक श्रद्धा नहीं है,श्राद्ध का कोई मतलब नहीं होता है.पितृ पक्ष में पहला दिन पूर्णिमा और अंतिम दिन अमावस्या का होता है,इस तरह सोलह दिन का पितृ पक्ष होता है.
श्राद्ध करने से पितृ गण तृप्त होते है ,साथ ही ब्राम्हण,सूर्य,अश्विनी कुमार,मानव,पशु-पक्षी,तथा सभी प्राणियों की आत्माएं भी तृप्त होती है.
जो व्यक्ति श्राद्ध करते है,उनके परिवार में दुःख नहीं रहता, पर जहां श्राद्ध नहीं होता,वहां वीर पुरुष,निरोगी,शतायु,व्यक्तियों का जन्म नहीं होता.
आपके मन में प्रश्न उठता होगा की आश्विन मास में ही श्राद्ध क्यों?
मान्यता है की अश्विन माह में यमराज अपने पाश से सभी पितृ गणों को मुक्त कर देते है.ताकि वह अपनी-अपनी संतान से श्राद्ध के निमित्त भोजन ग्रहण कार सके.
इस लिये हर किसी को अपने कल्याण मार्ग के लिये अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिये.
श्राद्ध करने का अधिकार पुत्र को दिया गया है.पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है पत्नी न हो तो,पुत्री का पुत्र भी अपने नाना-नानी का श्राद्ध करने का हक़दार मन जाता है.  
श्राद्ध के तीन अंग माने गए हैं-तर्पण,भोजन,और त्याग.
इसमें तर्पण की प्रधानता है तथा जिसकी जितनी श्रद्धा हो,वह उतना भोजन बना कार श्रद्धा से सबको कराये.
तीसरा अंग है त्याग.
इसी अंग के तहत श्राद्ध पक्ष में बनने वाले भोजन को छह भागों में विभाजित किया गया है,गाय,कौवा,बिल्ली,कुत्ता,और ब्राह्मण को भोजन कराकर पितरों को खुश करने की बात शास्त्रों में लिखी गयी है शास्त्रानुसार इन्ही के द्वारा पितरों तक भोजन पहुंचता है.
अतः श्राद्ध संपन्न करते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिये.

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Saturday, September 3, 2011

भगवान श्री कृष्ण bhagavaan shree krishna


भगवान कृष्ण की याद आते ही हाथ में वंशी और मोर-मुकुट आँखों में बस जाते हैं :
कान्हा की असली पहचान उनके प्रतीकों में छिपी हुई है..........
मुरली के बिना कृष्ण की कल्पना नहीं की जा सकती है,इसी तरह मोर-मुकुट,गायेंमाखनऔर दूध से बने खाद्यों के प्रति उनका लगाव,नृत्य और रास उनके व्यक्तित्व से अभिन्न रूप से जुड़े  हुए हैं;इन्ही प्रतीकों के कारण उनका स्वरुप उभर कार आतता है.आइये उनके सौंदर्य औरर मर्म पर थोड़ा विचार करें.
मुरली
अत्यंत सहज, इसे बनाने में किसी तकनीक की आवश्यकता नही पड़ती है इसमें कोई गांठ नहीं होती,एक बार गोपियों ने बांसुरी से कहा,'हे बांसुरी! तुमने ऐसी कौन सी तपस्या की है,जो तुम कृष्ण के होठों पर सहज ही स्थान पाती हो.
वंशी ने कहा,'हे गोपिकाओं!मैंने अपना तन कटवाया,अंग-अंग छिदवाया.
मैंने अपने आपको इस तरह स्थिर किया कि श्री कृष्ण ने जो तान छेड़नी चाही,मैंने उसे ही अपनाया.
मोरपंख
मोरमुकुट धारण करने के पीछे अनेक कथाएं प्रचिलित हैं;
जैसे कि नृत्य-क्रिया में मोर की आँखों से आँसू गिरने लगते है,इन आंसुओं से मोरनी को गर्भ धारण होता है;
इस प्रक्रिया में अंशमात्र भी वासना का भाव नहीं होता;मोर को चिर-ब्रह्मचर्य युक्त प्राणी समझा जाता है,अतः प्रेम में ब्रह्यचर्य की महान भावना को समाहित करने के प्रतीक के रूप में कृष्ण मोरपंख धारण करते है;
इसका गहरा रंग दुःख और कठिनाइयाँ,हल्का रंग सुख,  शान्ति और समृद्धि का प्रतीक मना जाता है;
इस प्रकार श्री कृष्ण ने विरोधाभासों को स्वयं में सम्मिलित कर उच्चतर जीवन मूल्य  की अवधारणा स्थापित की है    

कष्ट शान्ति के लिये मन्त्र सिद्धान्त

कष्ट शान्ति के लिये मन्त्र सिद्धान्त Mantra theory for suffering peace

कष्ट शान्ति के लिये मन्त्र सिद्धान्त  Mantra theory for suffering peace संसार की समस्त वस्तुयें अनादि प्रकृति का ही रूप है,और वह...