Monday, April 20, 2020

इच्छापूर्ति का सिद्धान्त Wish fulfillment principle

इच्छापूर्ति का सिद्धान्तWish fulfillment principle




इच्छाएं और आवश्यकताएं

व्यक्ति की इच्छाएं और आवश्यकताएं दो प्रकार की हो सकती हैं- परिमाणात्मक तथा गुणात्मक।
वे इच्छाएं, जैसे मोटर रखने की इच्छा, एक मकान खरीदने की इच्छा, रेडियो, वस्त्र तथा ऐसी अन्य वस्तुएं प्राप्त करने की इच्छा- परिमाणात्मक वर्ग के अन्तर्गत आती हैं।
संगीतज्ञ, डॉक्टर, प्राध्यापक आदि बनना, एम.ए.या पी. एच. डी.आदि की उपाधि प्राप्त करना और इस प्रकार की अन्य इच्छाएं गुणात्मक वर्ग के अन्तर्गत आती हैं।
इच्छा की प्रकृति और प्रकार के अनुसार कुछ व्यक्तियों के पास उनकी पूर्ति के साधन हो सकते हैं, जबकि दूसरों के पास नहीं हो सकते। तब प्रश्न यह उठता है- यदि इच्छा करने वाले व्यक्ति के पास उपलब्धि के प्रस्तुत साधन नहीं हों, तो क्या उसकी इच्छा की पूर्ति हो सकती है?
उत्तर है -हां। 


चिंतन का सिद्धान्त


इस सिद्धान्त के अनुसार प्राप्ति के साधनों की सुलभता पर यदि ध्यान ना भी दिया जाए, यदि किसी व्यक्ति ने सही ढंग से केवल एक ही चीज  की है तो उसे पूर्तिकारी परिणाम प्राप्त होगा। 
वह एक चीज क्या है?
वह है- यदि उसके मन ने इच्छा की यथार्थता को जान लिया है। क्योंकि कठिनाई पूर्ति में नहीं, बल्कि इच्छा के सही ज्ञान और ग्रहण करने में है।
इस सिद्धान्त की परीक्षा करने का एक सरल तरीका है, कि केवल कुछ सेकंड तक हम लोग स्वयं अपना अन्वेषण करें और देखें कि यह सिद्धान्त सत्य है अथवा नहीं।
क्या मैं आपसे आग्रह कर सकता हूं कि आप भी इस अन्वेषण में भाग ले?
कृपया आप अपने को अपने जीवन के पांच से दस वर्ष पूर्व की स्थिति में ले जाएं।
अब उस चीज का स्मरण करने का प्रयास करें, जिसकी चाह या आवश्यकता आपको उस समय थी। यदि आप सुनिश्चित हों कि वस्तुतः आपकी चाह क्या थी और उस चाह की आकृति, प्रकृति और प्रकार के सम्बन्ध में आपका मन या मस्तिष्क सुस्पष्ट रहा हो, तो आपने उसे प्राप्त कर लिया होगा। आपकी इच्छा या चाहा पूरी हो गई होगी। अनेकानेक अवसरों पर मैंने इस सिद्धान्त की परीक्षा की है, और बार-बार मैंने एक ही परिणाम पाया है।और मेरा निश्चित मत है कि आपने भी पूर्ति का वही परिणाम पाया होगा। यदि हमारे निजी अनुभवों के सभी मामलों में यह सच है, तो तर्कसंगत निष्कर्ष की कसौटी पर यह सिद्धान्त वैज्ञानिक हो जाता है।
इस सिद्धांत के शासी(governing) घटकों के विषय में दो शब्द कह देना आवश्यक है। आपकी  इच्छाओं की पूर्ति के सभी मामलों में दो घटक या कारक विद्यमान थे- आवश्यकता और उपयोग।
आपकी गुणात्मक अथवा परिमाणात्मक इच्छा की पूर्ति केवल इसीलिए हुई, क्योंकि आपको उसकी आवश्यकता थी और उपयोग भी था। इच्छा होने के समय यदि आप विचार या चिंतन इन दोनों घटको या कारकों के अभाव में या तो आपकी इच्छा, इच्छा नहीं बल्कि कल्पना, एक अनुमान या एक भ्रांति मात्र थी। और, यही कारण था की बहुधा आपकी  तथा-कथित इच्छाएं पूरी नहीं हुई।
अतएव, कोई भी इच्छा करने से पहले अपने से एक सरल प्रश्न पूछे- "क्या मुझे इसकी आवश्यकता है और क्या मैं इसका उपयोग कर सकता हूं?" यदि आपके मन में इसका उत्तर हां है, तब इस पृथ्वी पर कोई ऐसी शक्ति नहीं, जो इसकी पूर्ति को रोक सके।
संभवत:आपको यह जानने की उत्कंठा हो कि ऐसा घटित होने के वैज्ञानिक कारण क्या है। कर्म योग और राजयोग इस सिद्धान्त की रचना पर विस्तृत प्रकाश डालते हैं। संक्षेप में इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है।(कर्मयोग  स्वामी विवेकानन्द रामकृष्ण विवेकानन्द सेण्टर न्यूयार्क1985,पृष्ठ8,58-59 तथा 68-69और राजयोग  स्वामी विवेकानन्दरामकृष्ण विवेकानन्द सेण्टर न्यूयार्क1955,पृष्ठ 39-40 ।)
जब आप कोई इच्छा करते हैं तब आप उस पर चिंतन भी करते रहते हैं। विचार या चिंतन, इच्छापूर्ति को दो प्रकार से प्रभावित करता है- प्रथम, व्यक्ति की स्व-क्रिया द्वारा और द्वितीय, विश्व के सम्बद्ध प्राणियों को प्रभावित करके।
इसमें प्रथम का विवेचन पहले ही, मन द्वारा शरीर की क्रियाशीलता की चर्चा के क्रम में किया जा चुका है और इसीलिए यहां उसकी पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है। किन्तु स्पष्टीकरण के लिए इतना कहा जा सकता है कि जब कोई इच्छा होती है तब मन उसकी तीव्रता से उसी प्रकार प्रभावित होता है, जिस प्रकार पूर्व वर्णित दृष्टान्त में हम लोगों ने पाया है। मन की यह तीव्रता तब व्यक्ति के कार्यों, भूमिकाओं, कार्य-निष्पादनों, विचारणाओं, तथा योजना- प्रक्रियाओं की पूर्ति की दिशा में उसी प्रकार प्रभावित करती है, जिस प्रकार उसने "अ"महोदय के कार्यों को सिगरेट प्राप्ति की ओर निर्देशित किया था। इसे ध्यान में रखते हुए अब यह समझ लेना चाहिए कि जब कोई इच्छा पूर्ति होती है तब उसकी पूर्ति स्वयं व्यक्ति के कार्यों द्वारा ही होती है।


कम्पन का सिद्धान्त

इच्छापूर्ति का दूसरा मार्ग कम्पन के सिद्धान्त से सम्बद्ध है। हम लोग जानते हैं कि जब हम बोलते हैं तब हमारी ध्वनि सुनाई पड़ती है। ऐसा ध्वनि द्वारा उत्पन्न कम्पन के कारण ही होता है। हमें यह भी ज्ञात है कि दूसरों तक अपनी इच्छा और संवाद पहुंचाने के लिए हमारी बोली में स्पष्टता होनी चाहिए।
यदि ध्वनि में यह स्पष्ट पता नही होती है तो जो कुछ कहा जाता है उसे श्रोता ग्रहण नहीं कर सकते।
राजयोग तथा कर्मयोग के अनुसार विचार या चिंतन भी कम्पन उत्पन्न करता है। विचार का यह कम्पन्न ध्वनि द्वारा उत्पन्न कम्पन की अपेक्षा अधिक गतिशील है,अधिक समय तक बना रहता है, अधिक तीव्र गति से चलता है और अधिक लम्बी दूरियों तक पहुंचता है।
हाल के वैज्ञानिक अनुसंधानों ने इस योग सिद्धान्त की प्रामाणिकता को सिद्ध कर दिया है। योग सिद्धान्त की वैधता प्रदर्शित करने के लिए "राजयोग" से तथा "यूक्रेनियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइकोलॉजी" के कार्य-विवरण से निम्नांकित उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं:-
" जब मन, जो प्रकृति से चंचल है, एकाग्र हो जाता है और इस प्रकार दृढ़-संकल्प के रूप में परिणत हो जाता है। तब स्नायु-धाराएं भी विद्युत-सदृश्य एक गति में परिणत हो जाती है, क्योंकि यह सिद्ध हो चुका है की विद्युत धाराओं की क्रिया के अन्तर्गत स्नायुएं ध्रुवता प्रदर्शित करती हैं। यह दर्शाता है कि जब संकल्प स्नायु धाराओं में रूपांतरित होता है तब यह विद्युत-सदृश किसी वस्तु में परिणत हो जाता है। अतएव जब शरीर की सभी गतियां पूर्णत: लयबद्ध हो जाती हैं तब शरीर संकल्प की एक विशाल बैटरी बन जाता है।"
यूक्रेनियन इंस्टीट्यूट भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचता है यह निम्नांकित उक्त से स्पष्ट है:
" मानव-मस्तिष्क बिल्कुल रेडियो स्टेशन के समान, एक विशेष प्रकार की विद्युत- चुंबकीय तरंगे विकिरित करता है। जबकि दूसरे व्यक्ति का मस्तिष्क रेडियो- संग्राहक के समान उन तरंगों को पकड़ लेता है और उन्हें ध्वनि में रूपान्तरित कर देता है। इस परिकल्पना में कोई अलौकिकता नहीं है, क्योंकि यह सिद्ध हो चुका है कि हमारे सारे पिण्डों में विद्युत प्रविष्ट है।"
, यह काम किस प्रकार होता है इसके संबंध में संक्षेप में प्रकाश डालना आवश्यक है।
जैसा कि हम लोग जानते हैं, वायु, द्रव्य और अंतरिक्ष द्वारा भी, जो द्रव्य से रहित है, कम्पन का गमन होता है। चूंकि इस पृथ्वी पर सर्वत्र वायु तथा द्रव्य विद्यमान है,अतएव ये किसी व्यक्ति को पृथ्वी पर स्थित अन्य व्यक्तियों या वस्तुओं से सम्बद्ध या संयोजित करने में माध्यम बन जाते हैं।
तब यह स्पष्ट है कि व्यक्ति का चिंतन या विचार ठीक उसी प्रकार उसके संदेश को संचारित करता है, जिस प्रकार उसकी ध्वनि या आवाज किया करती है।
किन्तु मौखिक संदेश में जिस प्रकार स्पष्टता का महत्व है, उसी प्रकार विचार या चिंतन- संदेश में भी इसका महत्व है। जैसा कि मौखिक संदेश के संबंध में होता है, केवल वे ही लोग सहायतार्थ आते हैं, जो उससे प्रभावित होते हैं। 

चिन्तन- संदेश के साथ भी ऐसा ही घटित होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जो लोग व्यक्ति के चिंतन "मष्तिष्क की ध्वनि", से प्रभावित होते हैं वे ही इच्छाओं और चाह की पूर्ति में सहायतार्थ आते हैं। चूंकि कम्पन ज्ञात तथा अज्ञात- दोनों ही को प्रभावित कर सकता है, इसलिए पूर्ति, इस मामले में, ज्ञात तथा अज्ञात दोनों ही स्रोतों से होती है। यह द्वितीय स्रोत से होने वाली पूर्ति है, जो हमारे दैनिक जीवन में हममें से बहुतों को आश्चर्यचकित कर देती है।

स्पष्टीकरण

यह प्रश्न किया जा सकता है कि कोई व्यक्ति(पुरूष या स्त्री)क्या अपने लिए इच्छा करने के बदले अन्य व्यक्ति के लिए इच्छा कर सकता है?
या दूसरा प्रश्न है:चूंकि व्यक्ति ने इच्छा-पूर्ति की तकनीक को जान लिया है, इसलिए क्या वह(पुरूष या स्त्री) अनंत इच्छाएं कर सकता है?
पहले प्रश्न के उत्तर में ज्ञातव्य है कि योग-विज्ञान केवल व्यक्ति या व्यक्तियों से सम्बद्ध है।इसके तात्कालिक विषय का लक्ष्य दल या समूह नही है।
आप स्वयं अपने लिए उत्तरदायी हो सकते हैं दूसरों के लिए नही।
अतएव किसी अन्य व्यक्ति के लिए आपके द्वारा की गई इच्छा असंगत है और यह योग-विज्ञान के क्षेत्र के अंतर्गत नही आती।
द्वितीयत: आप यह कैसे जानते हैं कि आपने किसी दूसरे व्यक्ति के लिए जो इच्छा की है, वह ठीक वही है, जो वह व्यक्ति चाहता है? योग के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति एक विलक्षण प्राणी है। वह आज जो कुछ है और कल जो कुछ होगा, उसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी है। वह अकेले इसका निश्चय कर सकता है कि वह क्या चाहता है और केवल वही निश्चय उसमें अंतर्निहित विलक्षणता को प्रकट करने में उसका मार्गदर्शन करेगा। अतः उस व्यक्ति के लिए आपकी इच्छा भार स्वरूप हो सकती है और वह इसका विरोध कर सकता है। अब आप उस इच्छा की पूर्ति की आशा कैसे कर सकते हैं, जिसका चयन आपने उसके लिए करने का कष्ट उठाया था?
योग हमें सिखाता है: सर्वप्रथम अपने को बनाएं। दूसरों को सुधारने का प्रयास करने के पूर्व अपने को सुधारें। यह हमें यह भी बताता है कि ऐसा मत सोचें कि इस पृथ्वी पर उत्पन्न एकमात्र मनुष्य आप ही है। आपअच्छे, नेक एवं बुद्धिमान हो सकते हैं; किंतु वह क्या है, जो आपको यह सोचने को विवश करता है कि दूसरे लोग वही नहीं है या अधिक अच्छे हैं? जिसे आप अच्छा समझते हैं, वह दूसरों के द्वारा सबसे बुरा माना जा सकता है। जिसे आपने नेक समझते हैं, वह दूसरों की दृष्टि में दुष्ट हो सकता है। योग इस तत्व को स्वीकार करता है कि जब तक मानव-प्राणियों में यह परस्पर विरोध वर्तमान है, मानवीय सद्भाव या भलाई नहीं हो सकती। चूँकि देह, मन और प्रकृति में विपरीत गुणों, शक्तियों या बलों की विद्यमानता से इन परस्पर भिन्न क्षेत्रों के सम्यक् कार्य संपादन को प्रेरणा एवं शक्ति प्राप्त होती है, इसलिए समाज के सदस्यों में जिसके आप अंगमात्र हैं, विरोधी या विपरीत विचारों, कार्यों तथा जीवन पद्धतियों का होना समान रूप से महत्वपूर्ण है।
अतएव योग हमें सिखाता है: सबसे पहले आप अपने को एक नेक व्यक्ति बनाएं। आपका वैसा होना दूसरों को प्रेरित करेगा। जब दूसरे लोग आप में जो परिवर्तन हो रहा है, उसे देखेंगे और गुण-दोष का विचार करेंगे, तो उन्हें भी आपका अनुसरण करने की प्रेरणा मिल सकती है। तत्पश्चात उन्हें अपने निर्माण में आपके मार्ग- निर्देश की आवश्यकता पड़ सकती है। इस प्रकार आप एक मार्गदर्शक तथा प्रेरक हो सकते हैं, किन्तु भार डालने वाले नहीं हो सकते। यह अभीष्ट है, और इसलिए उचित है, क्योंकि ऐसा करके आप अपने मूलतः निर्धारित लक्ष्य की अपेक्षा अधिक कार्य संपन्न करेंगे।

अनन्त इच्छाओं से सम्बन्धित द्वितीय प्रश्न को कंपन-सिद्धांत की संरचना के संदर्भ में समझना श्रेयस्कर होगा। बताया जा चुका है कि यदि विचार की स्पष्टता नहीं होगी तो कंपन का यथेष्ट प्रभाव नहीं पड़ेगा। इच्छा में यदि आपने आवश्यकता एवं उपयोग का अनुभव कर लिया तो आपके चिंतन या विचार में सामंजस्य या समरसता आ गई।
मन की विपरीत शक्तियां, जैसे कि सकारात्मक, नकारात्मक तथा धर्म-परायणता, उस स्थिति में संतुलन के स्तर पर क्रियाशील रहती हैं।
इस प्रकार मन की वैसी स्थिति में जब कोई इच्छा की जाती है तो उस चिंतन या विचार द्वारा उत्पन्न कंपन सभी स्नायुधाराओं के पूर्णतया सक्रिय होने के कारण गतिशील हो जाता है। मन की यही सामंजस्य पूर्ण अवस्था है, स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में इच्छा या संकल्प की विशाल बैटरी रूपी शरीर का निर्माण करती हैं, और इसे एक शक्तिमान कंपन उत्सर्जित करने में समर्थ बनाती है,जो इच्छा पूर्ति को प्रभावित करता है।
जब आवश्यकता और प्रयोग का अभाव होता है, दूसरों को हानि पहुंचाने की भावना रहती है तथा जब इच्छा की यथार्थता अज्ञात रहती है तब यह संरचना भंग हो जाती है तथा अपना प्रभाव खो देती है।
इस प्रकार जब आपकी इच्छा आवश्यकता एवं प्रयोग पर आधारित है, जब आप उसकी यथार्थता से अभिज्ञ हैं और जब आप दूसरों को हानि नहीं पहुंचाना चाहते हैं, तभी आपकी सीमित या असीमित इच्छाओं की पूर्ति होगी। किन्तु" असीमित" शब्द असंख्य के समानार्थी रूप में ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए, इसका एकमात्र अर्थ है बहुत, किन्तु ज्ञात।

इस विषय को संपन्न करते हुए यह कहना आवश्यक होगा कि व्यक्ति की शायद ही कोई समस्या होती है, जिस पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता, जिसका कोई समाधान नहीं ढूंढा जाता और जिसके लिए योग में निष्पादन की पद्धति नहीं दर्शाई गई है। अतः यदि कोई ऐसा मार्ग है, जो व्यक्ति को शारीरिक मानसिक तथा सांसारिक सुख प्रदान करने का दावा कर सकता है, तो वह योग विज्ञान ही है।

पूज्य श्री सीताराम जी मिश्र (शिष्य परमहंस जी महाराज) द्वारा प्रेरित तथा उन्ही को समर्पित

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