भगवान ने मनुष्य रूपी एक ऐसी स्वचालित मशीन बनाई है
जिसका संचालन विचारों के द्वारा होता है।
अगर हम विचारों का सामना करना सीख लें या विचारों के आते-जाते प्रवाह का आनंद लेना जान जाये तो क्या बात हो।
चूँकि हम अपने को सुखी रखने के लिए,अपने को प्रसन्न रखने के लिए तरह-तरह के संसाधन खानपान की सामग्री योग व्यायाम आदि की जरुरतों पर ध्यान देतें है।
परन्तु विचारों के प्रवाह पर संतुलन नही बैठाते और तमाम संसाधनों के बावजूद हम न तो स्वस्थ रह पाते है और न ही सुखी।
क्योंकि विचारों या चिंतन का हमारे शरीर पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
हम जैसा विचार करते है उसीके अनुसार हमारे शरीर मे रासायनिक परिवर्तन होने लगते है।
और एक बार ये प्रक्रिया शुरू हो जाती है तो अपने निश्चित गन्तव्य तक पहुँच कर ही रूकती है।
जिसके फलस्वरूप हमारे शरीर मे एक परिवर्तन की शुरुआत हो चुकी होती है।
अब ये परिवर्तन अच्छा है या बुरा ये हमारे चिंतन पर निर्भर करता है।
कालान्तर मे यही परिवर्तन रोग आदि के माध्यम से परिलक्षित होता है।
यद्यपि विचारों पर हमारा पूरी तरह नियन्त्रण नही होता है।ये भी परिस्थितिजन्य होते है,और कहा गया है कि मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है। परिस्थितियां हमें वैसा सोचने को मजबूर कर देती है।
इसीलिये कहा गया है की ऊपर वाले की मर्जी के बिना पत्ता तक नही हिलता है।और अगर ऊपर वाले ने कोई पत्ता हिलाने का सौभाग्य हमें दिया हो तो हमें उसका सदुपयोग करना चाहिये।न कि उसके मद मे आकर अपने को भूल जाना चाहिये।
अर्थात् हमारी सबलता और निर्बलता हमारे अपने कर्मो हमारे अपने विचारों की देन है।
जीवन में हम जिन वस्तुओं के पीछे भागते रहते है या जिन्हें पाने के लिये अत्यन्त लालायित रहते है वही सब हमारी जीवन की मजबूरियाँ बन जाती है।
या दूसरे शब्दों मे कहे तो वो सब हमारे जीवन की आवश्यकता है हम उनके बिना रह भी नही सकते है।
और वो सभी आवश्यकतायें अपने अपने समयानुसार पूरी भी होती रहती है।
लेकिन हम निरर्थक समय से पहले ही उनको पूरा कर लेने की जुगत मे अपने को भ्रमित करते रहते है।
और इन्ही सब कारणों से हमारे विचारों की श्रृंखला प्रभावित हो जाती है उस पर हम नियन्त्रण नही रख पात और समय की धारा में बहते रहते है।
फिर कुछ समय बाद हमारा किसी भी चीज पर नियन्त्रण नही रहता और हम कर्म करते हुये पूरी तरह भाग्य के भरोसे रह जाते है।
जबकि उस परम सत्ता ने कर्म के द्वारा हमें नव निर्माण की शक्ति प्रदान की हुई है।लेकिन हम उसका उपयोग नही कर पाते है।
हमारे धर्म शास्त्रों में भी विचारों को ही प्रधान मन है।बिना विचार के भावना दृढ नही हो सकती है।
इसीलिये कहा गया है कि "देवो भूत्वा देवं यजेत्, अर्थात् देवता बनकर देवता की पूजा करो।मन्त्र जप के समय भी उस देवता की शक्तियों का उसके स्वरुप आदि की कल्पना करते हुए उसके किये कर्मो का विचार करना चाहिये।
जितनी दृढ़ता से या जितनी एकाग्रता से हम उसके बारे मे विचार करते है मन्त्र या जप उतना ही फलीभूत होता है।
इसीलिये हमने धर्म शास्त्रों के द्वारा जनमानस को सत् विचारों की ओर प्रेरित कर सन्मार्ग पर चलने को अनेकों विधान प्रस्तुत कर दिए है।
गीता मे भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि इस संसार मे अकर्म कोई नही रह सकता अर्थात् कोई भी मनुष्य बगैर कुछ किये एक क्षण भी नही रह सकता है।वो हर समय कुछ न कुछ करता रहता है।
जिसका संचालन विचारों के द्वारा होता है।
अगर हम विचारों का सामना करना सीख लें या विचारों के आते-जाते प्रवाह का आनंद लेना जान जाये तो क्या बात हो।
चूँकि हम अपने को सुखी रखने के लिए,अपने को प्रसन्न रखने के लिए तरह-तरह के संसाधन खानपान की सामग्री योग व्यायाम आदि की जरुरतों पर ध्यान देतें है।
परन्तु विचारों के प्रवाह पर संतुलन नही बैठाते और तमाम संसाधनों के बावजूद हम न तो स्वस्थ रह पाते है और न ही सुखी।
क्योंकि विचारों या चिंतन का हमारे शरीर पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
हम जैसा विचार करते है उसीके अनुसार हमारे शरीर मे रासायनिक परिवर्तन होने लगते है।
और एक बार ये प्रक्रिया शुरू हो जाती है तो अपने निश्चित गन्तव्य तक पहुँच कर ही रूकती है।
जिसके फलस्वरूप हमारे शरीर मे एक परिवर्तन की शुरुआत हो चुकी होती है।
अब ये परिवर्तन अच्छा है या बुरा ये हमारे चिंतन पर निर्भर करता है।
कालान्तर मे यही परिवर्तन रोग आदि के माध्यम से परिलक्षित होता है।
यद्यपि विचारों पर हमारा पूरी तरह नियन्त्रण नही होता है।ये भी परिस्थितिजन्य होते है,और कहा गया है कि मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है। परिस्थितियां हमें वैसा सोचने को मजबूर कर देती है।
इसीलिये कहा गया है की ऊपर वाले की मर्जी के बिना पत्ता तक नही हिलता है।और अगर ऊपर वाले ने कोई पत्ता हिलाने का सौभाग्य हमें दिया हो तो हमें उसका सदुपयोग करना चाहिये।न कि उसके मद मे आकर अपने को भूल जाना चाहिये।
अर्थात् हमारी सबलता और निर्बलता हमारे अपने कर्मो हमारे अपने विचारों की देन है।
जीवन में हम जिन वस्तुओं के पीछे भागते रहते है या जिन्हें पाने के लिये अत्यन्त लालायित रहते है वही सब हमारी जीवन की मजबूरियाँ बन जाती है।
या दूसरे शब्दों मे कहे तो वो सब हमारे जीवन की आवश्यकता है हम उनके बिना रह भी नही सकते है।
और वो सभी आवश्यकतायें अपने अपने समयानुसार पूरी भी होती रहती है।
लेकिन हम निरर्थक समय से पहले ही उनको पूरा कर लेने की जुगत मे अपने को भ्रमित करते रहते है।
और इन्ही सब कारणों से हमारे विचारों की श्रृंखला प्रभावित हो जाती है उस पर हम नियन्त्रण नही रख पात और समय की धारा में बहते रहते है।
फिर कुछ समय बाद हमारा किसी भी चीज पर नियन्त्रण नही रहता और हम कर्म करते हुये पूरी तरह भाग्य के भरोसे रह जाते है।
जबकि उस परम सत्ता ने कर्म के द्वारा हमें नव निर्माण की शक्ति प्रदान की हुई है।लेकिन हम उसका उपयोग नही कर पाते है।
हमारे धर्म शास्त्रों में भी विचारों को ही प्रधान मन है।बिना विचार के भावना दृढ नही हो सकती है।
इसीलिये कहा गया है कि "देवो भूत्वा देवं यजेत्, अर्थात् देवता बनकर देवता की पूजा करो।मन्त्र जप के समय भी उस देवता की शक्तियों का उसके स्वरुप आदि की कल्पना करते हुए उसके किये कर्मो का विचार करना चाहिये।
जितनी दृढ़ता से या जितनी एकाग्रता से हम उसके बारे मे विचार करते है मन्त्र या जप उतना ही फलीभूत होता है।
इसीलिये हमने धर्म शास्त्रों के द्वारा जनमानस को सत् विचारों की ओर प्रेरित कर सन्मार्ग पर चलने को अनेकों विधान प्रस्तुत कर दिए है।
गीता मे भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि इस संसार मे अकर्म कोई नही रह सकता अर्थात् कोई भी मनुष्य बगैर कुछ किये एक क्षण भी नही रह सकता है।वो हर समय कुछ न कुछ करता रहता है।
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