मनुष्य के जीवन की एक कविता, जो कहीं न कहीं किसी न किसी मोड़ पर सबके ऊपर चरितार्थ होती है।
दर्द कागज़ पर, मेरा बिकता रहा,
मेरा जीवन एक कहानी
दर्द कागज़ पर, मेरा बिकता रहा,
मैं बैचैन था, रातभर लिखता रहा..
छू रहे थे सब, बुलंदियाँ आसमान की
मैं सितारों के बीच,चाँद की तरह छिपता रहा..
अकड होती तो,कब का टूट गया होता
मैं था नाज़ुक डाली,जो सबके आगे झुकता रहा..
बदले यहाँ लोगों ने, रंग अपने-अपने ढंग से
रंग मेरा भी निखरा पर, मैं मेहँदी की तरह पिसता रहा..
जिनको जल्दी थी, वो बढ़ चले मंज़िल की ओर
मैं समन्दर से राज, गहराई के सीखता रहा..!!
"ज़िन्दगी कभी भी ले सकती है करवट...
तू गुमान न कर...
बुलंदियाँ छू हज़ार, मगर...
उसके लिए कोई 'गुनाह' न कर..
कुछ बेतुके झगड़े, कुछ इस तरह खत्म कर दिए मैंने..
जहाँ गलती नही भी थी मेरी, फिर भी हाथ जोड़ दिए मैंने..
साभार:-
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