Sunday, October 11, 2015

कलश स्थापन एवं दुर्गा पूजा विधान Kalash Setting and Durga Puja Vidhan


घट स्थापना करना अर्थात नवरात्रि की कालावधि में ब्रह्मांड में कार्यरत शक्ति तत्त्व का घट में आवाहन कर उसे कार्यरत करना । कार्यरत शक्ति तत्त्व के कारण वास्तु में विद्यमान कष्टदायक तरंगें समूल नष्ट हो जाती हैं।
सामग्री:
जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र
जौ बोने के लिए शुद्ध साफ़ की हुई मिटटी
पात्र में बोने के लिए जौ
घट स्थापना के लिए मिट्टी का कलश
कलश में भरने के लिए शुद्ध जल, गंगाजल
मोली (कलावा)
इत्र
साबुत सुपारी
दूर्वा
कलश में रखने के लिए कुछ सिक्के
पंचरत्न
पंचपल्लव या आम के पत्ते
कलश ढकने के लिए ढक्कन
ढक्कन में रखने के लिए बिना टूटे चावल
पानी वाला नारियल
नारियल पर लपेटने के लिए लाल कपडा
फूल माला
विधि
सबसे पहले जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र लें। इस पात्र में मिट्टी की एक परत बिछाएं। अब एक परत जौ की बिछाएं। इसके ऊपर फिर मिट्टी की एक परत बिछाएं। अब फिर एक परत जौ की बिछाएं। जौ के बीच चारों तरफ बिछाएं ताकि जौ कलश के नीचे न दबे। इसके ऊपर फिर मिट्टी की एक परत बिछाएं। अब कलश के कंठ पर मोली बाँध दें और स्वस्तिक बना दे। अब कलश में शुद्ध जल, गंगाजल कंठ तक भर दें। कलश में साबुत सुपारी, दूर्वा, कुश,रोली,चावल,फूल डालें। कलश में पंचरत्न डालें। कलश में कुछ सिक्के डाल दें। कलश मे पंचपल्लव या आम के पत्ते रख दें। अब कलश का मुख ढक्कन से बंद कर दें। ढक्कन में चावल भर दें। श्रीमद्देवीभागवत पुराण के अनुसार “पञ्चपल्लवसंयुक्तं वेदमन्त्रैः सुसंस्कृतम्। सुतीर्थजलसम्पूर्णं हेमरत्नैः समन्वितम्॥” अर्थात कलश पंचपल्लवयुक्त, वैदिक मन्त्रों से भली भाँति संस्कृत, उत्तम तीर्थ के जल से पूर्ण और सुवर्ण तथा पंचरत्न मय होना चाहिए।
नारियल पर लाल कपडा लपेट कर मोली लपेट दें। अब नारियल को कलश पर रखें। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है: “अधोमुखं शत्रु विवर्धनाय,ऊर्ध्वस्य वक्त्रं बहुरोग वृध्यै। प्राचीमुखं वित विनाशनाय,तस्तमात् शुभं संमुख्यं नारीकेलं”। अर्थात् नारियल का मुख नीचे की तरफ रखने से शत्रु में वृद्धि होती है।नारियल का मुख ऊपर की तरफ रखने से रोग बढ़ते हैं, जबकि पूर्व की तरफ नारियल का मुख रखने से धन का विनाश होता है। इसलिए नारियल की स्थापना सदैव इस प्रकार करनी चाहिए कि उसका मुख साधक की तरफ रहे। ध्यान रहे कि नारियल का मुख उस सिरे पर होता है, जिस तरफ से वह पेड़ की टहनी से जुड़ा होता है।
अब कलश को उठाकर जौ के पात्र में बीचो बीच रख दें। अब कलश में सभी देवी देवताओं का आवाहन करें। "हे सभी देवी देवता और माँ दुर्गा आप सभी नौ दिनों के लिए इस में पधारें।" अब दीपक जलाकर कलश का पूजन करें। धूपबत्ती कलश को दिखाएं। कलश को माला अर्पित करें। कलश को फल मिठाई अर्पित करें। कलश को इत्र समर्पित करें। तत्पश्चात् एक लकड़ी की चौकी की स्थापना करनी चाहिए। इसको गंगाजल से पवित्र करके इसके ऊपर सुन्दर लाल वस्त्र बिछाना चाहिए। इसको कलश के दायीं और रखना चाहिए। उसके बाद माँ भगवती की धातु की मूर्ति अथवा नवदुर्गा का फोटो स्थापित करना चाहिए। मूर्ति के अभाव में नवार्णमन्त्र युक्त यन्त्र को स्थापित करें। माँ दुर्गा को लाल चुनरी उड़ानी चाहिए। माँ दुर्गा से प्रार्थना करें "हे माँ दुर्गा आप नौ दिन के लिए इस चौकी में विराजिये।
नवरात्रि में नौ दिन मां भगवती का व्रत रखने का तथा प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करने का विशेष महत्व है। हर एक मनोकामना पूरी हो जाती है। सभी कष्टों से छुटकारा दिलाता है।
नवरात्री के प्रथम दिन ही अखंड ज्योत जलाई जाती है जो नौ दिन तक जलती रहती है। दीपक के नीचे "चावल" रखने से माँ लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है तथा "सप्तधान्य" रखने से सभी प्रकार के कष्ट दूर होते है
माता की पूजा "लाल रंग के कम्बल" के आसन पर बैठकर करना उत्तम माना गया है
नवरात्रि के प्रतिदिन माता रानी को फूलों का हार चढ़ाना चाहिए। प्रतिदिन घी का दीपक (माता के पूजन हेतु सोने, चाँदी, कांसे के दीपक का उपयोग उत्तम होता है) जलाकर माँ भगवती को मिष्ठान का भोग लगाना चाहिए। मान भगवती को इत्र/अत्तर विशेष प्रिय है।
नवरात्री के प्रतिदिन कंडे की धूनी जलाकर उसमें घी, हवन सामग्री, बताशा, लौंग का जोड़ा, पान, सुपारी, कपूर, गूगल, इलायची, किसमिस, कमलगट्टा जरूर अर्पित करना चाहिए।
लक्ष्मी प्राप्ति के लिए नवरात्र मे पान मे गुलाब की ७ पंखुरियां रखें तथा मां भगवती को अर्पित कर दें
मां दुर्गा को प्रतिदिन विशेष भोग लगाया जाता है। किस दिन किस चीज़ का भोग लगाना है ।इसका अलग महत्त्व है।
प्रतिदिन कन्याओं का विशेष पूजन किया जाता है।

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Saturday, October 10, 2015

नवरात्र Navratra

नवरात्रियों तक व्रत करने से 'नवरात्र' व्रत पूर्ण होता है.वैसे तो
वासंती नवरात्रों में विष्णु की और शारदीय नवरात्रों में शक्ति की
उपासना का प्राधान्य है;किन्तु ये दोनों बहुत ही व्यापक है,अतः
दोनों में दोनों की उपासना होती है इनमे किसी वर्ण,विधान या देवादि
की भिन्नता नहीं है;सभी वर्ण अपने अभीष्ट की उपासना करते है.
यदि नवरात्र पर्यन्त व्रत रखने की सामर्थ्य न हो तो-
(१) प्रतिपदा से सप्तमी पर्यन्त 'सप्तरात्र' ;
(२) पञ्चमी से नवमी पर्यन्त 'पञ्चरात्र' ;
(३) सप्तमी से नवमी पर्यन्त 'त्रिरात्र'
(४) आरम्भ और समाप्ति के दो व्रतों से 'युग्मरात्र'
(५) आरम्भ या समाप्ति के एक व्रत से 'एकरात्र' के रूप में जो भी
किये जायें, उन्ही से अभीष्ट की सिद्धि होती है.
दुर्गा पूजा में- प्रतिपदा को केश संस्कार द्रव्य,आँवला आदि,
द्वितीया को बाल बांधने के लिये रेशमी डोरी;
तृतीया को सिन्दूर और दर्पण;
चतुर्थी को मधुपर्क,तिलक और नेत्रांजन;
पंचमी को अंगराग और अलंकार;
षष्ठी को फूल आदि
सप्तमी को गृह मध्य पूजा;
अष्टमी को उपवास पूर्वक पूजन;
नवमी को महापूजा और कुमारी पूजा तथा दशमी को नीराजन और
विसर्जन करें।
नवरात्र में कलश स्थापन हेतु चित्रा नक्षत्र एवं वैधृति योग वर्जित है।
यदि इन दोनों का मान रात्रि तक है और कलश स्थापन का कोई मुहूर्त न हो तो मध्याह्न मे अभिजित मुहूर्त को कलश स्थापन हेतु ग्रहण किया जाता  है ।
लेकिन यह एक विकल्प है।
और दुर्गा पूजा हमारे नित्य अनुष्ठानों में आती है।
अतः कलश स्थापन भी जरुरी हो जाता है।ऐसी स्थिति मे हमें क्षण वार,नक्षत्र और योग का ग्रहण करना चाहिये।
बृहज्ज्योतिषार के अनुसार प्रत्येक दिन सूर्योदय से अहोरात्र भर मे 2-2 घड़ी के 30 नक्षत्र बीतते है,जो क्षण नक्षत्र कहलाते है।यथा-1 आर्द्रा,2 श्लेषा,3 अनुराधा, 4 मघा,5 धनिष्ठा, 6 पूर्वाषाढ,7 उत्तराषाढा,8 अभिजित,9 रोहिणी,10 ज्येष्ठा,11 विशाखा,12 मूल,13 शतभिषा,14 उत्तराफाल्गुनी,15 पूर्वाफाल्गुनी,16 आर्द्रा,17 पूर्वाभाद्रपद,18 उत्तराभाद्रपद,19 रेवती,20 आश्विनी,21 भरणी,22 कृतिका,23 रोहिणी,24 मृगशिरा,25 पुनर्वसु,26 पुष्य,27 श्रवण,28 हस्त, 29 चित्रा,30 स्वाती।
चित्रा का मान 29 वें स्थान है अर्थात् 56 घड़ी बीत जाने पर चित्रा का वर्जनीय काल होगा।
इसी तरह स्थूल योग के पूर्ण मान का 27 वाँ भाग एक-एक सूक्ष्म योग होता है।
आवश्यकता पड़ने पर स्थूल के निषिद्ध होने पर भी सूक्ष्म मे कार्य करना श्रेष्ठ होता है।
इस तरह हम ब्रह्म मुहूर्त के अलावा सूर्योदय के एक घण्टे के बाद किसी भी समय कलश स्थापन कर सकते है।इसमें किसी प्रकार का भ्रम पलने की आवश्यकता नही है।

नवरात्र की त्रिदिवसीय पूजा मे सप्तमी तिथि जिस दिन पड़े उससे देवी आगमन के वाहन का तथा दशमी जिस दिन पड़े उससे गमन का विचार होता है।
यद्यपि इसका लौकिक प्रमाण ही प्राप्त होता है।
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Friday, July 24, 2015

माँ पीताम्बरा Maa pitambara

माँ बगलामुखी १० महाविद्याओं में आठवां स्वरुप हैं। ये महाविद्यायें भोग और मोक्ष दोनों को देने वाली हैं। सांख़यायन तन्त्र के अनुसार बगलामुखी को सिद्घ विद्या कहा गया है।
तन्त्र शास्त्र में इसे ब्रह्मास्त्र, स्तंभिनी विद्या, मंत्र संजीवनी विद्या तथा प्राणी प्रज्ञापहारका एवं षट्कर्माधार विद्या के नाम से भी अभिहित किया गया है।
सांख़यायन तंत्र के अनुसार ‘कलौ जागर्ति पीतांबरा।’ अर्थात कलियुग के तमाम संकटों के निराकरण में भगवती पीताम्बरा की साधना उत्तम मानी गई है। अतः आधि व्याधि से त्रस्त वर्तमान समय में मानव मात्र माँ पीतांबरा की साधना कर अत्यन्त विस्मयोत्पादक अलौकिक सिद्घियों को अर्जित कर अपनी समस्त अभिलाषाओं को प्राप्त कर सकता है।
बगलामुखी की साधना से साधक भयरहित हो जाता है और शत्रु से उसकी रक्षा होती है। बगलामुखी का स्वरूप रक्षात्मक,शत्रुविनाशक एवं स्तंभनात्मक है।
इसका आविर्भाव प्रथम युग में बताया गया है। देवी बगलामुखी जी की प्राकट्य कथा इस प्रकार है  :-

एक बार सतयुग में महाविनाश उत्पन्न करने वाला प्रचण्ड तूफान उत्पन्न हुआ, जिससे संपूर्ण विश्व नष्ट होने लगा इससे चारों ओर हाहाकार मच जाता है और अनेकों लोक संकट में पड़ गए और संसार की रक्षा करना असंभव हो गया. यह तूफान सब कुछ नष्ट भ्रष्ट करता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था, जिसे देख कर भगवान विष्णु जी चिंतित हो गए.
इस समस्या का कोई हल न पा कर उन्होंने  भगवान शिव को स्मरण किया  तब भगवान शिव उनसे कहते हैं कि शक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई इस विनाश को रोक नहीं सकता अत: आप उनकी शरण में जाएँ, तब भगवान विष्णु ने हरिद्रा सरोवर के निकट पहुँच कर कठोर तप करते हैं. भगवान विष्णु ने तप करके महात्रिपुरसुंदरी को प्रसन्न किया देवी शक्ति उनकी साधना से प्रसन्न हुई और सौराष्ट्र क्षेत्र की हरिद्रा झील में जलक्रीडा करती श्रीविद्या के  हृदय से दिव्य तेज उत्पन्न हुआ उस तेज से भगवती पीतांबरा का प्राकट्य हुआ
उस समय चतुर्दशी की रात्रि को देवी बगलामुखी के रूप में प्रकट हुई, त्र्येलोक्य स्तम्भिनी महाविद्या भगवती बगलामुखी नें प्रसन्न हो कर विष्णु जी को इच्छित वर दिया और तब सृष्टि का विनाश रूक सका.जब समस्त संसार के नाश के लिए प्रकृति में आंधी तूफान आया उस समय विष्णु भगवान संसार की रक्षा के लिये तपस्या करने लगे।
उनकी तपस्या से सौराष्ट्र में पीत सरोवर में । इनका आविर्भाव वीर रात्रि को माना गया है। शक्ति संग तंत्र के काली खंड के त्रयोदश पटल में वीर रात्रि का वर्णन इस प्रकार है
चतुर्दशी संक्रमश्च कुलर्क्ष कुलवासरः अर्ध रात्रौ यथा योगो वीर रात्रिः प्रकीर्तिता।
भगवती पीतांबरा के मंत्र का छंद वृहती है। ऋषि ब्रह्मा हैं, जो सर्व प्रकार की वृद्घि करने वाले हैं। भगवती सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं। इसके भक्त धन धान्य से पूर्ण रहते हैं।
भगवती पीतांबरा की पूजा पीतोपचार से होती है। पीतपुष्ष, पीत वस्त्र, हरिद्रा की माला, पीत नैवेद्य आदि पीतरंग इनको प्रिय हैं। इनकी पूजा में प्रयुक्त की जाने वाली हर वस्तु पीले रंग की ही होती है।
भगवती के अनेक साधकों का वर्णन तंत्र ग्रंथों में उपलब्ध है। सर्व प्रथम ब्रह्मास्त्र रूपिणी बगला महाविद्या का उपदेश ब्रह्माजी ने सनकादि ऋषियों को दिया। वहाँ से नारद, परशुराम आदि को इस महाविद्या का उपदेश हुआ। भगवान परशुराम शाक्तमार्ग के आचार्य हैं।
भगवान परशुराम को स्तंभन शक्ति प्राप्त थी। स्तंभन शक्ति के बल से शत्रु को पराजित करते थे।
देवी बगलामुखी को ब्रह्मास्त्र विद्या भी कहते हैं क्यूंकि ये स्वयं ब्रह्मास्त्र रूपिणी हैं, इनके शिव को एकवक्त्र महारुद्र कहा जाता है इसी लिए देवी सिद्ध विद्या हैं. तांत्रिक इन्हें स्तंभन की देवी मानते हैं, गृहस्थों के लिए देवी समस्त प्रकार के संशयों का शमन करने वाली हैं।

माँ बगलामुखी का बीज मंत्र :- ह्ली

मूल मंत्र :- !!ॐ ह्लीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं
स्तम्भय जिह्वां किलय बुध्दिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा!!
ग्रंथों के अनुसार ये मन्त्र सवा लाख जप कर के सिद्ध हो जाता है।
ये एक अति उग्र मंत्र है और गलत उच्चारण करने पर उल्टा नुकसान भी दे सकता है।
बिना सही विधि के जप करने पर मन्त्र में शत्रु के नाश के लिए कही गयी बातें स्वयं पर ही असर कर सकती है अतः गुरु से दीक्षा लेने और विधान जानने के बाद ही इस अनुष्ठान को करना चाहिए।
दूसरी बात माँ का मूल मंत्र जो की सबसे प्रचलित भी है इसका असर दिखने में काफी समय लगता है या यूँ कहिये की माँ साधक के धैर्य की परीक्षा लेती हैं और उसके बाद ही अपनी कृपा का अमृत बरसाती हैं।
माँ का मूल मन्त्र करने से पूर्व गायत्री मंत्र या बीज मन्त्र या माँ का ही कोई अन्य सौम्य मंत्र कर लिया जाये तो इसका प्रभाव शीघ्र मिलता है।
जप आरम्भ करने से पूर्व बगलामुखी कवच और अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र का पाठ करने से साधक सब प्रकार की बाधाओं और जप/ साधना में विघ्न उत्पन्न करने वाली शक्तियों से सुरक्षित रहता है और सफल होता है।
शास्त्रानुसार यदि सिर्फ कवच और अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र का ही १००० बार निर्विघ्न रूप से साधनात्मक तरीके से पाठ कर लिया जाये तो ये जागृत हो जाते हैं और फिर साधक इनके माध्यम से भी कई कर संपन्न कर सकता है।

||बगलामुखी स्तोत्र ||

नमो देवि बगले! चिदानंद रूपे, नमस्ते जगद्वश-करे-सौम्य रूपे।
नमस्ते रिपु ध्वंसकारी त्रिमूर्ति, नमस्ते नमस्ते नमस्ते नमस्ते।।
सदा पीत वस्त्राढ्य पीत स्वरूपे, रिपु मारणार्थे गदायुक्त रूपे।
सदेषत् सहासे सदानंद मूर्ते, नमस्ते नमस्ते नमस्ते नमस्ते।।
त्वमेवासि मातेश्वरी त्वं सखे त्वं, त्वमेवासि सर्वेश्वरी तारिणी त्वं।
त्वमेवासि शक्तिर्बलं साधकानाम, नमस्ते नमस्ते नमस्ते नमस्ते।।
रणे, तस्करे घोर दावाग्नि पुष्टे, विपत सागरे दुष्ट रोगाग्नि प्लुष्टे।।
त्वमेका मतिर्यस्य भक्तेषु चित्ता, सषट कर्मणानां भवेत्याशु दक्षः।।
बगलामुखी कवचं
श्रुत्वा च बगलापूजां स्तोत्रं चाप महेश्वर ।
इदानी श्रोतुमिच्छामि कवचं वद मे प्रभो ॥ १ ॥
वैरिनाशकरं दिव्यं सर्वाSशुभविनाशनम् ।
शुभदं स्मरणात्पुण्यं त्राहि मां दु:खनाशनम् ॥२॥
-----------
श्रीभैरव उवाच :
कवचं शृणु वक्ष्यामि भैरवीप्राणवल्लभम् ।
पठित्वा धारयित्वा तु त्रैलोक्ये विजयी भवेत् ॥३॥
---------------
ॐ अस्य श्री बगलामुखीकवचस्य नारद ऋषि: ।
अनुष्टप्छन्द: । बगलामुखी देवता । लं बीजम् ।
ऐं कीलकम् पुरुषार्थचष्टयसिद्धये जपे विनियोग: ।
ॐ शिरो मे बगला पातु हृदयैकाक्षरी परा ।
ॐ ह्ली ॐ मे ललाटे च बगला वैरिनाशिनी ॥१॥
गदाहस्ता सदा पातु मुखं मे मोक्षदायिनी ।
वैरिजिह्वाधरा पातु कण्ठं मे वगलामुखी ॥२॥
उदरं नाभिदेशं च पातु नित्य परात्परा ।
परात्परतरा पातु मम गुह्यं सुरेश्वरी ॥३॥
हस्तौ चैव तथा पादौ पार्वती परिपातु मे ।
विवादे विषमे घोरे संग्रामे रिपुसङ्कटे ॥४॥
पीताम्बरधरा पातु सर्वाङ्गी शिवनर्तकी ।
श्रीविद्या समय पातु मातङ्गी पूरिता शिवा ॥५॥
पातु पुत्रं सुतांश्चैव कलत्रं कालिका मम ।
पातु नित्य भ्रातरं में पितरं शूलिनी सदा ॥६॥
रंध्र हि बगलादेव्या: कवचं मन्मुखोदितम् ।
न वै देयममुख्याय सर्वसिद्धिप्रदायकम् ॥ ७॥
पाठनाद्धारणादस्य पूजनाद्वाञ्छतं लभेत् ।
इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद् बगलामुखीम् ॥८॥
पिवन्ति शोणितं तस्य योगिन्य: प्राप्य सादरा: ।
वश्ये चाकर्षणो चैव मारणे मोहने तथा ॥९॥
महाभये विपत्तौ च पठेद्वा पाठयेत्तु य: ।
तस्य सर्वार्थसिद्धि: स्याद् भक्तियुक्तस्य पार्वति ॥१०॥
-----------------
(इति श्रीरुद्रयामले बगलामुखी कवचं सम्पूर्ण )
माता बगलामुखी अष्टोत्तरशत नाम स्तोत्र
--------------------------
ब्रह्मास्त्ररुपिणी देवी माता श्रीबगलामुखी ।
चिच्छिक्तिर्ज्ञान-रुपा च ब्रह्मानन्द-प्र
दायिनी ।। १ ।।
महाविद्या महालक्ष्मी श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी ।
भुवनेशी जगन्माता पार्वती सर्वमंगला ।। २ ।।
ललिता भैरवी शान्ता अन्नपूर्णा कुलेश्वरी ।
वाराही छीन्नमस्ता च तारा काली सरस्वती ।।
३ ।।
जगत्पूज्या महामाया कामेशी भगमालिनी ।
दक्षपुत्री शिवांकस्था शिवरुपा शिवप्रिया ।। ४
।।
सर्व-सम्पत्करी देवी सर्वलोक वशंकरी ।
विदविद्या महापूज्या भक्ताद्वेषी भयंकरी ।। ५
।।
स्तम्भ-रुपा स्तम्भिनी च दुष्टस्तम्भनकारिणी ।
भक्तप्रिया महाभोगा श्रीविद्या ललिताम्बिका ।।
६ ।।
मैनापुत्री शिवानन्दा मातंगी भुवनेश्वरी ।
नारसिंही नरेन्द्रा च नृपाराध्या नरोत्तमा ।। ७
।।
नागिनी नागपुत्री च नगराजसुता उमा ।
पीताम्बा पीतपुष्पा च पीतवस्त्रप्रिया शुभा ।।
८ ।।
पीतगन्धप्रिया रामा पीतरत्नार्चिता शिवा ।
अर्द्धचन्द्रधरी देवी गदामुद्गरधारिणी ।। ९ ।।
सावित्री त्रिपदा शुद्धा सद्योराग विवर्धिनी ।
विष्णुरुपा जगन्मोहा ब्रह्मरुपा हरिप्रिया ।। १०
।।
रुद्ररुपा रुद्रशक्तिश्चिन्मयी भक्तवत्सला ।
लोकमाता शिवा सन्ध्या शिवपूजनतत्परा ।। ११
।।
धनाध्यक्षा धनेशी च नर्मदा धनदा धना ।
चण्डदर्पहरी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी ।। १२ ।।
राजराजेश्वरी देवी महिषासुरमर्दिनी ।
मधूकैटभहन्त्री देवी रक्तबीजविनाशिनी ।। १३ ।।
धूम्राक्षदैत्यहन्त्री च भण्डासुर विनाशिनी ।
रेणुपुत्री महामाया भ्रामरी भ्रमराम्बिका ।। १४
।।
ज्वालामुखी भद्रकाली बगला शत्रुनाशिनी ।
इन्द्राणी इन्द्रपूज्या च गुहमाता गुणेश्वरी ।। १५
।।
वज्रपाशधरा देवी ज्ह्वामुद्गरधारिणी ।
भक्तानन्दकरी देवी बगला परमेश्वरी ।। १६ ।।
अष्टोत्तरशतं नाम्नां बगलायास्तु यः पठेत् ।
रिपुबाधाविनिर्मुक्तः लक्ष्मीस्थैर्यमवाप्नुयात् ।।
१७ ।।
भूतप्रेतपिशाचाश्च ग्रहपीड़ानिवारणम् ।
राजानो वशमायांति सर्वैश्वर्यं च विन्दति ।। १८
।।
नानाविद्यां च लभते राज्यं प्राप्नोति निश्चितम्

भुक्तिमुक्तिमवाप्नोति साक्षात् शिवसमो भवेत् ।।
(श्री रुद्रयामले सर्वसिद्धिप्रद बगला अष्टोत्तरशतनाम स्त्रोत्रम )
बगुलामुखी यन्त्र
आज के इस भागदौड़ के युग में श्री बगलामुखी यंत्र की साधना अन्य किसी भी साधना से अधिक उपयोगी है। यह एक परीक्षित और अनुभवसिद्ध तथ्य है। इसे गले में पहनने के साथ-साथ पूजा घर में भी रख सकते हैं। इस यंत्र की पूजा पीले दाने, पीले वस्त्र, पीले आसन पर बैठकर निम्न मंत्र को प्रतिदिन जप करते हुए करनी चाहिए। अपनी सफलता के लिए कोई भी व्यक्ति इस यंत्र का उपयोग कर सकता है। इसका वास्तविक रूप में प्रयोग किया गया है। इसे अच्छी तरह से अनेक लोगों पर उपयोग करके देखा गया है।
शास्त्रानुसार जिस घर में यह महायंत्र स्थापित होता है, उस घर पर कभी भी शत्रु या किसी भी प्रकार की विपत्ति हावी नहीं हो सकती। न उस घर के किसी सदस्य पर आक्रमण हो सकता है, न ही उस परिवार में किसी की अकाल मृत्यु हो सकती है। इसीलिए इसे महायंत्र की संज्ञा दी गई है। इससे दृश्य/अदृश्य बाधाएं समाप्त होती हैं। यह यंत्र अपनी पूर्ण प्रखरता से प्रभाव दिखाता है। उसके शारीरिक और मानसिक रोगों तथा ऋण, दरिद्रता आदि से उसे मुक्ति मिल जाती है। वहीं उसकी पत्नी और पुत्र सही मार्ग पर आकर उसकी सहायता करते हैं। उसके विश्वासघाती मित्र और व्यापार में साझीदार उसके अनुकूल हो जाते हैं।
शत्रुओं के शमन (चाहे बाहरी हो या घरेलू कलह , दरिद्रता या शराब / नशे व्यसन रूप में भीतरी शत्रु ),रोजगार या व्यापार आदि में आनेवाली बाधाओं से मुक्ति, मुकदमे में सफलता के लिए , टोने टोटकों के प्रभाव से बचाव आदि के लिए किसी साधक के द्वारा सिद्ध मुहूर्त में निर्मित, बगलामुखी तंत्र से अभिसिंचित तथा प्राण प्रतिष्ठित श्री बगलामुखी यंत्र घर में स्थापित करना चाहिए या कवच रूप में धारण करना चाहिए।
बगलामुखी हवन
१) वशीकरण : मधु, घी और शर्करा मिश्रित तिल से किया जाने वाला हवन (होम) मनुष्यों को वश में करने वाला माना गया है। यह हवन आकर्षण बढ़ाता है।
२) विद्वेषण : तेल से सिक्त नीम के पत्तों से किया जाने वाला हवन विद्वेष दूर करता है।
३) शत्रु नाश : रात्रि में श्मशान की अग्नि में कोयले, घर के धूम, राई और माहिष गुग्गल के होम से शत्रु का शमन होता है।
४) उच्चाटन : गिद्ध तथा कौए के पंख, कड़वे तेल, बहेड़े, घर के धूम और चिता की अग्नि से होम करने से साधक के शत्रुओं को उच्चाटन लग जाता है।
५) रोग नाश : दूब, गुरुच और लावा को मधु, घी और शक्कर के साथ मिलाकर होम करने पर साधक सभी रोगों को मात्र देखकर दूर कर देता है।
६ ) मनोकामना पूर्ति : कामनाओं की सिद्धि के लिए पर्वत पर, महावन में, नदी के तट पर या शिवालय में एक लाख जप करें।
७) विष नाश / स्तम्भन :
एक रंग की गाय के दूध में मधु और शक्कर मिलाकर उसे तीन सौ मन्त्रों से अभिमंत्रित करके पीने से सभी विषों की शक्ति समाप्त हो जाती है और साधक शत्रुओं की शक्ति तथा बुद्धि का स्तम्भन करने में सक्षम होता है।

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Thursday, July 23, 2015

पुरुषोत्तम(अधिक)मास Purushottam (more) month

प्रायः अधिक मास कैसे लग जाता है इसकी जिज्ञासा होती है।
सूर्य की एक संक्रान्ति के जितनी देर बाद दूसरी संक्रान्ति आती है वह एक सौर मास होता है। एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के काल को एक सावन दिन कहते है।मध्यम मान से एक सौर मास मे 30 दिन,10 घण्टा और 30 मिनट होते है। एक अमान्त से दूसरी अमान्त तक एक चन्द्र मास होता है एवं एक चन्द्रमास मे29 दिन,13 घण्टा 44  मिनट होते है।
यहाँ सौरमास एवं चन्द्रमास का दिनात्मक अन्तर=20 घंटे 46 मिनट होता है।
सिद्धान्त ज्योतिष के अनुसार यह अन्तर जब इतना हो जाता है कि एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या के बीच एक चन्द्र मास मे कोई सूर्य की संक्रान्ति लगती ही नही,वहीँ अधिकमास(मलमास) लग जाता है।
वस्तुतः सौरमास और चन्द्रमासों की विसंगति के कारण ही अधिकमास लगता है और इसीलिये इसे "मलमास" भी कहते है।
यही कारण है कि इसमें समस्त शुभ कार्य वर्जित रहते है।
श्रीहरिविष्णु ने इस मास को अपना नाम देकर बहुविध धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने का निर्देश दिया है।

Tuesday, July 14, 2015

विचार प्रवाह Idea flow

भगवान ने मनुष्य रूपी एक ऐसी स्वचालित मशीन बनाई है
जिसका संचालन विचारों के द्वारा होता है।
अगर हम विचारों का सामना करना सीख लें या विचारों के आते-जाते प्रवाह का आनंद लेना जान जाये तो क्या बात हो।
चूँकि हम अपने को सुखी रखने के लिए,अपने को प्रसन्न रखने के लिए तरह-तरह के संसाधन खानपान की सामग्री योग व्यायाम आदि की जरुरतों पर ध्यान देतें है।
परन्तु विचारों के प्रवाह पर संतुलन नही बैठाते  और तमाम संसाधनों के बावजूद हम न तो स्वस्थ रह पाते है और न ही सुखी।

क्योंकि विचारों या चिंतन का हमारे शरीर पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
हम जैसा विचार करते है उसीके अनुसार हमारे शरीर मे रासायनिक परिवर्तन होने लगते है।
और एक बार ये प्रक्रिया शुरू हो जाती है तो अपने निश्चित गन्तव्य तक पहुँच कर ही रूकती है।
जिसके फलस्वरूप हमारे शरीर मे एक परिवर्तन की शुरुआत हो चुकी होती है।
अब ये परिवर्तन अच्छा है या बुरा ये हमारे चिंतन पर निर्भर करता है।
कालान्तर मे यही परिवर्तन रोग आदि के माध्यम से परिलक्षित होता है।

यद्यपि विचारों पर हमारा पूरी तरह नियन्त्रण नही होता है।ये भी परिस्थितिजन्य होते है,और कहा गया है कि मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है। परिस्थितियां हमें वैसा सोचने को मजबूर कर देती है।
इसीलिये कहा गया है की ऊपर वाले की मर्जी के बिना पत्ता तक नही हिलता है।और अगर ऊपर वाले ने कोई पत्ता हिलाने का सौभाग्य हमें दिया हो तो हमें उसका सदुपयोग करना चाहिये।न कि उसके मद मे आकर अपने को भूल जाना चाहिये।
अर्थात् हमारी सबलता और निर्बलता हमारे अपने कर्मो हमारे अपने विचारों की देन है।

जीवन में हम जिन वस्तुओं के पीछे भागते रहते है या जिन्हें पाने के लिये अत्यन्त लालायित रहते है वही सब हमारी जीवन की मजबूरियाँ बन जाती है।
या दूसरे शब्दों मे कहे तो वो सब हमारे जीवन की आवश्यकता है हम उनके बिना रह भी नही सकते है।
और वो सभी आवश्यकतायें अपने अपने समयानुसार पूरी भी होती रहती है।
लेकिन हम निरर्थक समय से पहले ही उनको पूरा कर लेने की जुगत मे अपने को भ्रमित करते रहते है।
और इन्ही सब कारणों से हमारे विचारों की श्रृंखला प्रभावित हो जाती है  उस पर हम नियन्त्रण नही रख पात और समय की धारा में बहते रहते है।
फिर कुछ समय बाद हमारा किसी भी चीज पर नियन्त्रण नही रहता और हम कर्म करते हुये पूरी तरह भाग्य के भरोसे रह जाते है।
जबकि उस परम सत्ता ने कर्म के द्वारा हमें नव निर्माण की शक्ति प्रदान की हुई है।लेकिन हम उसका उपयोग नही कर पाते है।

हमारे धर्म शास्त्रों में भी विचारों को ही प्रधान मन है।बिना विचार के भावना दृढ नही हो सकती है।
इसीलिये कहा गया है कि "देवो भूत्वा देवं यजेत्, अर्थात् देवता बनकर देवता की पूजा करो।मन्त्र जप के समय भी उस देवता की शक्तियों का उसके स्वरुप आदि की कल्पना करते हुए उसके किये कर्मो का विचार करना चाहिये।
जितनी दृढ़ता से या जितनी एकाग्रता से हम उसके बारे मे विचार करते है मन्त्र या जप उतना ही फलीभूत होता है।
इसीलिये हमने धर्म शास्त्रों के द्वारा जनमानस को सत् विचारों की ओर प्रेरित कर सन्मार्ग पर चलने को अनेकों विधान प्रस्तुत कर दिए है।
गीता मे भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि इस संसार मे अकर्म कोई नही रह सकता अर्थात् कोई भी मनुष्य बगैर कुछ किये एक क्षण भी नही रह सकता है।वो हर समय कुछ न कुछ करता रहता है।





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