Wednesday, April 22, 2020

आधुनिक जीवन में योग Yoga in modern life

आधुनिक जीवन में योग  

Yoga in modern life



यद्यपि भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों में भिन्नता रहने के कारण आधुनिक मनुष्य का जीवन भिन्न हो सकता है, फिर भी जीवन में चाहे उसकी आधारभूत समस्याओं में से अनेक एक समान ही रहती हैं।

इस सन्दर्भ में देखा गया है कि आधुनिक मनुष्य को एक ही समय दो प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है- पहली, उसके रहने सहने के वातावरण से उत्पन्न होती है, जिसे हम "स्थानीय" कह सकते हैं।
और दूसरी, मानव जीवन की मूलभूत समस्याओं में से उत्पन्न होती हैं, जिसे हम सार्वत्रिक या विश्वव्यापी नाम दे सकते हैं।
वातावरण सम्बन्धी घटक या कारक( factor)
एक देश से दूसरे देश में भिन्न तथा निरंतर परिवर्तनशील रहने के कारण, समायोजन, सामाजिक सम्बन्ध, सामाजिक वस्तुओं की प्रकृति का ज्ञान, और जीवन को सुखी बनाने की उपयुक्त विधि खोज निकालने की समस्याएं उत्पन्न करते हैं।
समस्याओं का समाधान वातावरण और उसके कार्यों की सही जानकारी द्वारा ही, जिसका सम्बन्ध व्यक्ति की मानसिक शक्ति से है। उपलब्ध हो सकता है
व्यक्ति के सर्वदा वर्तमान और सर्वव्यापी घटक वे है, जिनका सम्बन्ध उसके स्वास्थ्य, दीर्घायु, आनंदोपलब्धि, इच्छाओं और आवश्यकताओं से है। यह विश्वव्यापी घटक उसकी मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों से सम्बद्ध है।
स्थानीय और विश्वव्यापी दोनों प्रकार के घटकों पर एक साथ विचार करने पर हम पाते हैं के मानवीय समस्याओं की प्रकृति ऐसी होती है कि वे मनुष्य की दोनों शक्तियों-, शरीर और मन- से सम्बद्ध रहती हैं। यदि सामाजिक रहन सहन में अच्छाई लाने के लिए मस्तिष्क का अच्छा रहना पूर्व-आवश्यकता है, तो उस अच्छाई में विशिष्टता तथा स्थायित्व लाने के लिए शरीर की स्वस्थता समान रूप से महत्वपूर्ण है।
तब समस्या है : इन शरीर और मन की दोनों शक्तियों को समझने और इन्हें विकसित करने तथा इनके बीच समन्वय स्थापित करने की विधि खोज निकालने की, ताकि व्यक्ति जो कुछ करना चाहता है उसमें तथा जिस किसी कार्य में हाथ डालना चाहता है उसमें आनन्द प्राप्त करने में सक्षम हो जाए।
लेकिन प्रश्न है- यह हो तो कैसे? क्या कोई तरीका,, प्रणाली या विज्ञान है जो सभी मानवीय समस्याओं का विस्तृत अध्ययन करता हो, मनुष्य की दोनों शक्तियों- शारिरिक और मानसिक-का विश्लेषण करता हो, प्रविधियां निर्धारित करता हो और इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति का मार्ग दर्शाता हो?
जी हां, यह योग है- न केवल शरीर और मस्तिष्क को समृद्ध बनाने वाला विज्ञान, बल्कि इन दोनों शक्तियों में समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करने वाला विज्ञान।

योग विज्ञान Yoga science


यह योग विज्ञान क्या है? और इसे विज्ञान क्यों कहते हैं?
यहां विज्ञान की व्याख्या या परिभाषा प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं है।
किन्तु इतना कहना पर्याप्त होगा कि जब कुछ करने या प्राप्त करने की पद्धति या प्रणाली तर्क तथा बौद्धिक विचार धाराओं पर आधारित होती है तब वह "वैज्ञानिक" हो जाती है।
विज्ञान में मताग्रह, धर्मोपदेशों, तथा ईश्वरी कृपा या  आशीर्वचनों का कोई स्थान नहीं है।
इसमें कार्य संपादन की एक पद्धति है और वही सब कुछ है, जिस पर यह विचार करता है। यदि आप यही प्रक्रिया पूरी करते हैं तो आपको वही परिणाम मिलेगा।
चूँकि योग का प्रत्येक पहलू तर्क, उपर्युक्त सिद्धान्तों एवं बौद्धिक विचारणाओं द्वारा शासित होता है, इसलिए यह "विज्ञान" है।
जैसा कि हम लोग जानते हैं विज्ञान के कई प्रकार हैं जैसे पदार्थ विज्ञान तथा रसायन शास्त्र, जीवविज्ञान तथा प्राणी विज्ञान, औषध विज्ञान तथा कुछ मानवता एवं मानवीय समस्याओं से सम्बद्ध हैं- जैसे राजनीति विज्ञान, मनोविज्ञान, समाज विज्ञान।
प्रत्येक विज्ञान का एक ज्ञात विश्व होता है। उसके अन्वेषण, प्रयोग तथा कार्य सम्पादन की एक ज्ञात सीमा होती है। योग विज्ञान का यह विश्व व्यक्तियों पुरुष तथा स्त्री के अलावा अन्य कोई नहीं है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि योग व्यक्ति की अच्छाई एवं सुख का विज्ञान है। अन्य किसी विज्ञान की तरह योग विज्ञान भी कुछ निश्चित आधारभूत सिद्धान्तों पर आधारित है।इसके अन्वेषण, उपलब्धियां एवं प्रयोग तार्किक तथा बौद्धिक विचारणाओं पर आधारित हैं।
इस विज्ञान के प्रवर्तकों तथा आविष्कारकों ने बहुत पहले ही पता लगा लिया था कि मनुष्य की दो विशिष्ट शक्तियां- शरीर और मन की हैं और जब तक इन दोनों पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता, इच्छित अच्छाई उपलब्ध नहीं हो सकती। अपने विज्ञान की इन्हीं समस्याओं को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने इन दोनों शक्तियों- शारीरिक और मानसिक- को समृद्ध करने की पद्धतियां विकसित की। किन्तु चूँकि व्यक्ति की यह दोनों शक्तियां पृथक इकाइयां नहीं है, क्योंकि यह अन्योन्याश्रित है, इसलिए इन दोनों में समन्वय एवं सामंजस्य रखने के लिए एक पद्धति का भी विकास किया गया।
योग में हम जो कुछ पाते हैं, वह स्पष्टत: यह है: इसमें शारीरिक कुशलता की एक पद्धति है, दूसरी मानसिक कुशलता की और तीसरी इन दोनों में सामंजस्य रखने वाली। इस विज्ञान की विलक्षणता यह है कि यह व्यक्ति की समस्याओं को समग्र रूप से अपने में समाहित करता है। योग की सार्वदेशिक मान्यता का कारण यह है कि इस धरती के किसी भी कोने में कोई अन्य विज्ञान नहीं है,, जो योग के गुण अंतर्वस्तु, प्रणाली बद्ध प्रक्रिया और इसकी देनों से समता कर सके। योग भारत का एक जाज्वल्यमान विज्ञान है, जिसका उपयुक्त शिक्षण विश्व के किसी भी भाग में रहने वाले व्यक्ति को गौरव प्रदान कर सकता है।

योग का अर्थ Meaning of yoga


योग का अर्थ है- जोड़ या मेल। यह मेल दो या दो से अधिक विपरीत गुणों, बलों या शक्तियों का हो सकता है। किन्तु इस मेल में जो अंतर्निहित है, वह है संतुलन और सामंजस्य का हेतुत्व।
अतः योग का अर्थ संतुलन और सामंजस्य का विज्ञान भी है। योग की मान्यताओं के अनुसार ये विपरीत बल या शक्तियां विश्व के सभी पदार्थों तथा जीवित प्राणियों में सदा वर्तमान रहती हैं। मनुष्य में ये विपरीत गुण या बल उसके शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रदेशों में विद्यमान हैं। शारीरिक प्रदेश में इन विपरीत गुणों या बलों की पहचान इड़ा, पिंगला, तथा सुषुम्णा स्नायुओं से होती है। इनमें पहली नकारात्मकता को, दूसरी सकारात्मकता को निरूपित करती है और सुषुम्णा इन दोनों में सामंजस्य स्थापित करती है। मानसिक स्तर पर इसी प्रकार इन तीनों बलों की सदा विद्यमानता  है, जो नकारात्मक, सकारात्मक तथा औचित्य- निर्धारक गुण कहलाते हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति तीन शक्तियों से संगठित है- सत्व, रजस्और तमस्। इनकी अभिव्यक्ति को संतुलन, क्रियाशीलता एवं निष्क्रियता कहा जा सकता है। तमस् अंधकार या निष्क्रियता को प्रतीकित करता है। रजस् क्रियाशीलता को प्रतीकित करता है। और सत्व इन दोनों के संतुलन का सामंजस्य है।
पुनः सांख्य के अनुसार ये तीनों शक्तियां प्रत्येक व्यक्ति में भी सदा वर्तमान रहती है। किंतु मनुष्य में वर्तमान इन तीनों शक्तियों में स्वत: सामंजस्य स्थापित हो,यह आवश्यक नहीं है।
जब मनुष्य तमस् से प्रभावित होता है तब वहआलसी, अकर्मण्य एवं सुस्त हो जाता है।
जब वह रजस् से प्रभावित होता है तब अति सक्रिय होता है, अपने बल एवं उर्जा को प्रकट करता है और अधिकतर भाग दौड़ में रहता है। लेकिन उसके तामस और राजस गुणों में संतुलन स्थापित करने वाला गुण सत्व है, जो उसमें सामंजस्य स्थापित कर शान्ति एवं भद्रता लाता है।
किन्तु प्रश्न यह है कि सत्व या संतुलन को प्राप्त कैसे किया जाए?
योग जैसा कि अब इसके अर्थ से स्पष्ट है, मनुष्य की इन्हीं तीन शक्तियों से संबंधित है और यह न केवल इन्हें समंजित करने का, बल्कि परिवर्धित और समृद्ध करने का भी मार्ग दर्शाता है।
वे योग, जो प्रत्यक्ष रूप से पूर्वोक्त तीनों शक्तियों से सम्बद्ध है, ये हैं- हठयोग, राजयोग और कर्म योग। इनमें प्रथम मुख्यतः व्यक्ति के शारीरिक पक्ष से, द्वितीय मानसिक पक्ष से और तृतीय शारीरिक एवं मानसिक दोनों पक्षों से संबंध रखता है। हठयोग, राजयोग और कर्मयोग के अतिरिक्त एक और प्रासंगिक योग है- ज्ञान योग, जो यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने का विज्ञान है।

योग के विभिन्न प्रकार Different types of yoga


जैसा कि ऊपर कहा गया है, हठयोग शारीरिक कुशलता का विज्ञान है, कर्मयोग क्रियाशीलता और कार्य का विज्ञान है, और राजयोग धारणा तथा ध्यान की शक्ति प्राप्त करने का विज्ञान है।
सर्वाधिक सुसंगत होने के कारण उल्लिखित चारों योग विश्व के किसी भी भाग में रहने वाले किसी भी आधुनिक मनुष्य के लिए बिना किसी हिचक के शीघ्र स्वीकार्य तथा सहमति-योग्य हैं। इन चारों योगों के विषय क्षेत्र के अंतर्गत जो कुछ सिखाया जाता है, वह तर्क एवं बौद्धिक विचारणाओं की उसी कसौटी पर आधारित है, जिसकी उपस्थित किसी पद्धति या प्रणाली को वैज्ञानिक कहलाने योग्य बना देती है।
कुछ अन्य योगों के वर्णन में समय का अपव्यय मुझे अभीष्ट नहीं।
यद्यपि ये कुछ लोगों द्वारा अच्छे माने गए हैं और समादृत हुए हैं, तथापि आधुनिक मनुष्य से इनकी संगति नगण्य या नहीं के बराबर है।
एक भक्ति योग है- पूजा, उपासना और धार्मिक मूल्यों का योग।
यह उन लोगों के उपयुक्त है,जो किसी दैवी शक्ति की सर्वोपरिता में विश्वास करते हैं, अपने आराध्य देवता की पूजा करते हैं, और गुरु( धर्म शिक्षक) अगाध श्रद्धा रखते हैं।
विश्वास, आस्था और धार्मिक विचारणाओं तथा आवश्यकताओं के इन्हीं कारणों से योग, हिंदुओं के धार्मिक दृष्टिकोणों एवं विचारों से अतिरंजित हो गया है।
कुछ अन्य योग, जिनकी चर्चा यौगिक साहित्य में अक्सर मिलती है, ये हैं- तंत्र योग, मंत्र योग, यंत्र योग, क्रिया योग और लय योग।
यह कहना अनुचित होगा कि यह योग वैज्ञानिक नहीं है, किन्तु दुख की बात यह है की इनके शिक्षक सामान्यत: इनमें जो वैज्ञानिकता है, उस को अस्वीकार करते हैं और उन्हीं विषयों को आरोपित करते हैं, जो विश्वास, आस्था, रहस्यवाद एवं छल छद्म के विषय हैं।
चूंकि यह हमारा उद्देश्य योग के उन्हीं पहलुओं का विवेचन करना है, जो हमारी तात्कालिक अभिरुचि के प्रसंगानुकूल हैं, इसलिए हम लोग अपने को चार योगों तक, का उल्लेख पहले किया जा चुका है, सीमित रखेंगे- हठयोग, राजयोग, कर्म योग और ज्ञान योग।

योग के वैज्ञानिक सिद्धान्त
Scientific principles of yoga


अब हम लोग कुछ क्षण उन वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर विचार करें जिन पर यह योग आधारित हैं। यह ज्ञातव्य है कि प्रत्येक विज्ञान के प्रयोग एवं कार्य-सम्पादन का अपना निजी सुस्पष्ट सिद्धान्त होता है और यह योग के संबंध में भी सत्य है।
हठयोग में जहां विभिन्न आसनों द्वारा शारीरिक क्रियाशीलता होती है, शासक सिद्धान्त है- गतिशीलता की स्थिति के क्रम में ही गतिशून्यता की स्थिति उत्पन्न करना।
गतिशीलता और गतिहीनता का यह सिद्धान्त योग के सभी आसनों, प्राणायामों, बन्धों एवं मुद्राओं में विद्यमान है। यदि अभ्यास के समय इस सिद्धान्त का पालन नहीं होता है, तब यह कुछ अन्य भले ही हो जाए, योग नहीं हो सकता।
इस सिद्धान्त का महत्व क्या है?
इसके महत्व को स्पष्ट करने के लिए हमें इस विज्ञान के मूल में जाना पड़ेगा। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, किसी भीपद्धति या प्रणाली को वैज्ञानिक कहने के पूर्व किसी प्रयोगशाला में या बाहर सर्वप्रथम उसका प्रयोग किया जाता है, जांच की जाती है, निरीक्षण किया जाता है और उसका औचित्य स्थापन होता है, और जब ज्ञात परिणाम बारम्बार एक ही आता है तब वह वैज्ञानिक कहलाने योग्य हो जाती है।
हठयोग के प्रवर्तकों ने ठीक ऐसा ही किया। उनका खुला परिवेश ही उनकी प्रयोगशाला में थी। उन्होंने अपने परिवेश के मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, पौधों, वस्तुओं तथा शेष जीवित जन्तुओं के जीवन-ढांचे का निरीक्षण एवं औचित्य-स्थापन किया।
जब उन्होंने उनमें कुछ अच्छाई और वांछनीयता पाई तब वे उस अच्छाई के कारणों को खोज निकालने को प्रेरित हुए। उन्होंने उसकी कारणता या हेतुत्व की पद्धति का अनुसरण किया और उन्हें अपने जीवन में अपना लिया। परिणाम स्वरूप हम पाते हैं की हठयोग में केवल एक आसन( मत्स्येन्द्र-आसन, इसका नामकरण इसके प्रवर्तक मत्स्येंद्रनाथ के नाम पर हुआ है) को छोड़कर कुल चौरासी आसनों का नामकरण उनके परिवेश के पक्षियों, पशुओं, पौधों, कुछ जन्तुओं और किन्हीं पदार्थों के नाम पर ही हुआ है।
 अपने शोध, अन्वेषण एवं अनुसन्धान के क्रम में उन्होंने पाया कि यद्यपि गति, ऊर्जा एवं शक्ति उत्पन्न करती है, तथापि उसके मध्य थोड़ी देर की गतिशून्यता एवं स्थिरता की अवस्था उससे कई गुना अधिक ऊर्जा एवं शक्ति का संचार कर देती है। दौड़ते हुए सिंह, कुत्ते, बिल्ली तथा ऐसे अन्य जन्तुओं को देखकर उन्होंने इस सिद्धान्त की सार्थकता पाई। जैसा कि हम जानते हैं, दौड़ने वाला कुत्ता छलांग मारने के पहले कुछ क्षणों के लिए गतिशून्यता की स्थिति की सृष्टि करता है। पशु ऐसा करते हैं, क्योंकि दौड़ने में उन्हें जितनी ऊर्जा चाहिए, उससे अधिक ऊर्जा की आवश्यकता उन्हें छलांग मारने के लिए चाहिए होती है गति में गतिशून्यता की यह अवस्था यदि पशु की ऊर्जा या शक्ति में वृद्धि कर सकती है, तो इससे स्पष्ट है की यह प्रक्रिया समान रूप से मनुष्य की शक्ति में भी वृद्धि लाएगी। अपने इस शोध पूर्ण ज्ञान के आधार पर उन्होंने एक पद्धति विकसित की, जिसमें जब कोई योगाभ्यासी आसन द्वारा गति उत्पन्न करता है, तो वह उसी आसन में गतिशून्यता भी बनाए रखता है। ऐसा करने से एक ओर जहां उसकी शक्ति का व्यय होता रहता है, वहीं दूसरी ओर वह शक्ति भी संचित करता जाता है।
हठयोग में वस्तुतः इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।
इसी सिद्धान्त के समावेश से ही हठयोग शारीरिक कुशलता का अनोखा विज्ञान बन गया है।
पाश्चात्य जगत में शारीरिक संस्कृति की कोई अन्य ऐसी पद्धति नहीं है, जिसमें इस सिद्धान्त का समावेश हो। अन्य पद्धतियों की तुलना में हमारी उत्कृष्टता के अनेक उपयुक्त कारण है। शेष सभी शारीरिक संस्कृतियों में केवल गतिशीलता होती है, जिसके कारण अत्यधिक थकान, तनाव और शरीर का असंतुलित अनुकूलन उत्पन्न होता है। यद्यपि इनमें से सभी का प्रभाव एक सा नहीं होता, फिर भी बहुत सी ऐसी पद्धतियां है, जो अभ्यासियों के शरीर को विकृत तथा विद्रूप बना देती हैं। दूसरी ओर, शरीर के आंतरिक एवं बाह्य भागों पर योग का कोई अवांछित परिणाम नहीं होता। योगासनों का प्रभाव ऐसा होता है कि जहां एक ओर यह शरीर को सुडौल एवं आनुपातिक बनाते हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी सुंदरता में भी वृद्धि करते हैं। योग से शरीर बलवान होता है किन्तु विकृत नहीं होता। यह शरीर का निर्माण करता है, किन्तु दुर्बल नहीं बनाता। हठयोग, इस प्रकार, पुरुषों तथा स्त्रियों के लिए शारीरिक कुशलता का सर्वाधिक वांछनीय विज्ञान हो जाता है।
आधुनिक मनुष्य अपनी सामाजिक आर्थिक और अन्य उलझनों तथा अपने वातावरण की विलक्षणताओं के कारण मुश्किल से अपने शारीरिक स्वास्थ्य के लिए कोई समय निकाल पाता है। किसी खेलकूद एवं शारीरिक क्रियाशीलनों में भाग लेने के लिए वह अपने साथियों से भी नहीं मिल पाता।
आधुनिक नर नारियों में बहुतेरे ऐसे लोग भी हैं, जो यद्यपि बीमार या शारीरिक रूप से पीड़ित नहीं देखते, फिर भी उन्हें अनेक प्रकार के प्रच्छन्न एवं गुप्त शारीरिक रोग तथा गड़बड़ियां रहती हैं। इन गुप्त शारीरिक गड़बड़ियों के कारण वे जीवन के पूर्ण आनंद से वंचित रह जाते हैं, जिन की प्राप्ति शारीरिक क्रियाशीलता से ही संभव है। व्यक्ति की इस प्रकार की समस्याओं का उत्तर भी हठयोग है। हठयोग के अभ्यास के लिए आपको ना तो किसी साथी की, ना किसी पदार्थ की, ना किसी खास समय की और ना किसी खास स्थान की ही आवश्यकता होती है। के लिए यह भी आवश्यक नहीं कि कोई आपकी विशेष आयु हो, या आपका स्वास्थ्य विशेष प्रकार का हो। आप जैसे और जहां हैं वैसे ही वहां रहे। आप जो कुछ कर रहे हैं उसे करते हुए योगाभ्यास कर सकते हैं। यदि आप अपने सुविधानुसार किसी भी स्थान पर कुछ मिनट लगाएं, तो आप वही योगाभ्यास कर सकते हैं। यह आवश्यक नहीं कि आप सभी आसनों का अभ्यास करें ही, क्योंकि उनमें से कुछ कठिन है और उनसे अधिक लाभ भी नहीं होता। किन्तु कुछ ऐसे भी आसान है, जो आसान होने के साथ-साथ अधिक लाभप्रद भी हैं। इन आसनों का अभ्यास कोई भी व्यक्ति यहां तक कि रुग्ण, वृद्ध, बच्चा या शरीर से असमर्थ व्यक्ति भी कर सकता है। आपको जो भी आसन पसंद हो और जो आपके लिए उपयुक्त हो, उन्हें चुन लें और उनके अभ्यास में योग के सिद्धान्तों का पालन करें। यदि आप इसे करेंगे तो निश्चय ही न केवल आपका स्वास्थ्य उत्तम होगा बल्कि आप आधुनिक युग की सुख-सुविधाओं का पूर्णतम उपभोग भी कर पाएंगे।
अब हम उन योगों पर विचार करें, जो हमारी मानसिक शक्तियों से सम्बन्ध रखते हैं। किंतु इन्हीं योगों- कर्म, ज्ञान और राजयोग- की विशिष्टताओं में अपने को उलझाने की अपेक्षा इनके कुछ मूलभूत सिद्धान्तों पर, जिनमें यह सभी योग अनुस्यूत हैं, प्रकाश डालना उपयुक्त होगा। योग के अनुसार मन शरीर को नियंत्रित, शासित और सक्रिय करता है। इस दृष्टि से शरीर मन का एक यंत्र या उपकरण बन जाता है। बल्कि यह माना जाता है कि जैसा आप चिन्तन करते हैं वैसा ही बनते हैं और जैसा सोचते हैं वैसा ही पाते हैं। और इससे भी बढ़कर दृढ़ता पूर्वक यह कहा जाता है कि आपका विचार न केवल आपके कर्मों को स्वरूप प्रदान करता है, बल्कि आपके निकटतम परिवेश के अन्य व्यक्तियों एवं इस पृथ्वी के किसी भी स्थान पर स्थित सम्बद्ध व्यक्तियों से आपको जोड़ता है।अतएव आपकी इच्छाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति इस पर निर्भर है कि वे इच्छाएं एवं आवश्यकताएं आपके मन द्वारा किस प्रकार ग्रहण की जाती हैं। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि मन का इतना अधिक महत्व होने के कारण ही योग विज्ञान के प्रवर्तकों ने मानसिक कुशलता पर जितना ध्यान दिया, उतना ही शारीरिक कुशलता पर भी दिया। यहाँ यह सम्भव नहीं कि उपर्युक्त सभी नियमों एवं सिद्धांतों की मान्यताओं पर विस्तृत प्रकाश डाला जाए, किन्तु प्रामाणिकता की उपलब्धि के लिए कुछ का विवेचन करूंगा।
हम लोग उस सिद्धांत को लें, जो यह बताता है कि मन शरीर को नियंत्रित और शासित करता है तथा उसे सक्रिय बनाता है। आप प्रश्न कर सकते हैं कि क्या यह सच है?
इसका उत्तर है-हां। इसे सिद्ध करने के लिए हमें एक दृष्टांत की आवश्यकता होगी।
मान ले कि एक व्यक्ति "अ" के मन में, अपने कार्यालय के दैनंदिन कार्यों से मुक्ति मिलने पर अपराह्न में सिगरेट पीने का विचार आता है। उसके पास सिगरेट नहीं है, किन्तु अपने कार्यालय से कुछ दूर स्थित दुकान से सिगरेट खरीदने का उसने विचार किया है। क्या होगा? उसके सिगरेट पीने के विचार की जितनी तीव्रता होगी, उतनी ही तीव्रता सिगरेट की ओर उसके शरीर के विकर्षण में भी होगी। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम लोग अपराह्न में "अ" की निगरानी करें। जैसे ही उसे कार्यालय से फुरसत मिलेगी, उसी क्षण वह उस दुकान की ओर तेजी से चल पड़ेगा। और यदि वर्षा होने लग जाए तो उसे भीगने की परवाह भी ना रहेगी। लेकिन वह दुकान बंद है! और, जब तक उसे सिगरेट नहीं मिल जाती है तब तक वह विश्राम नहीं लेगा। वह तब दूसरी दुकान की ओर बढ़ता है। जब उसे उस दुकान की दूरी अधिक प्रतीत होती है, तब वह एक सवारी या वाहन ले लेता है और दूसरी दुकान पर जा पहुंचता है। वह खुली हुई थी। उसने वहां से सिगरेट ली और उसे सुलगा लिया, तब कहीं जाकर उसे चैन मिला।
"अ" ने इतना अधिक कष्ट क्यों उठाया? क्योंकि जैसे ही धूम्रपान का विचार उसके मन में आया और उसी तीव्रता के साथ बना रहा, उसके शरीर को मन के प्रक्षेप के अनुसार विकर्षित होना पड़ा। यदि "अ" महोदय की यह छोटी कहानी, अपने जीवन के सदृश अनुभव के क्षणों से तुलना करने पर, युक्तिसंगत प्रतीत होती है, तो आप इस तथ्य को अवश्य स्वीकार करेंगे कि मन ही शरीर को नियंत्रित और शासित करता है तथा सक्रिय बनाता है।
इसका एक और दृष्टि से मूल्यांकन करने के लिए हम लोग एक दूसरे सिद्धांत को ले, जो यह बताता है कि व्यक्ति की इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति इस पर निर्भर करती है इच्छाएं और आवश्यकताएं मन द्वारा किस प्रकार गृहीत एवं प्रक्षिप्त हुई है। प्रसंगवश यह बताना चाहूंगा कि यह सिद्धांत आधुनिक मनुष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है, विशेषकर जब हम यह कहते हैं कि पीड़ा का कारण इच्छाओं और आवश्यकताओं के होने में नहीं, बल्कि उनकी पूर्ति नहीं होने में निहित है। यदि इच्छाएं और आवश्यकताएं पूरी हो जाती है तो व्यक्ति अपने को सुखी अनुभव करता है। और चूँकि सुख की उपलब्धि प्रत्येक व्यक्ति का स्वाभाविक लक्ष्य है, इसलिए मैं संक्षेप में यह विवेचन करना चाहूंगा कि सुख किस प्रकार, क्योंकर, किस हेतू से और कब प्राप्त हो सकता है।

आगे देखें - इच्छाएं और आवश्यताएं(इच्छापूर्ति का सिद्धान्त्त)


क्रमशः

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