Tuesday, June 13, 2017

गणेश अथर्वशीर्ष पाठ के लाभ Benefits of Ganesh Atharvashirsh Lesson

जब किसी जातक की जन्मकुंडली में बुध ग्रह अशुभ भावो का स्वामी हो,अशुभ ग्रहों से द्वारा द्रष्ट हो,या शुभ भाव में होकर भी निर्बल हो,क्रूर ग्रहों के साथ युति हो रही हो,अस्त हो, जिसके प्रभाव से जीवन में धनाभाव (आर्थिक समस्या) स्वास्थ्य की समस्या, व्यापार में निरंतर हानि जैसे परिणाम मिल रहे हो तो शास्त्र में बुधग्रह के जप, दान, श्री गणेश जी की पूजा, बुधवार व गणेश चतुर्थी के व्रत का नियम है ।
प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष की चंद्रोदयव्यापिनी चतुर्थी तिथि को भगवान श्रीगणेश के लिए जो व्रत किया जाता है उसे गणेश चतुर्थी व्रत कहते हैं। भगवान गणेश बुद्धि, धन, ज्ञान, यश, सम्मान, पद और तमाम भौतिक सुखों को देने वाले देवता तथा सभी पाप व क्रूर ग्रहों के दोष को दूर करेने वाले देवता विघ्नहर्ता के रूप में पूजनीय हैं।
भगवान गणेश की प्रसन्नता के लिए शास्त्रों में अनेक  मंत्र, पूजा व आरती का महत्व बताया गया है।
गणेश पूजन में सबसे ज्यादा विशेषता श्रीगणपति अथर्वशीर्ष की मानी जाती है। यह मूलत: भगवान गणेश की वैदिक स्तुति है, इसका पाठ करने वाला किसी प्रकार के विघ्न से बाधित न होता हुआ महापातकों से मुक्त हो जाता है। जिसमें भगवान गणेश के आवाहन से लेकर ध्यान, नाम से मिलने वाले शुभ फल आदि सम्मिलित है। इस गणपति स्त्रोत का पाठ धार्मिक दृष्टि से सभी दोष से मुक्त करता है, वहीं व्यावहारिक जीवन के कष्टो, दु:खों और बाधाओं से भी रक्षा करता है। ईश्वर आपका मंगल करें।
गणेश अथर्वशीर्ष स्तोत्र का महत्व

अथर्वशीर्ष शब्द में अ+थर्व+शीर्ष इन शब्दों का समावेश है। ‘अ’ अर्थात् अभाव, ‘थर्व’ अर्थात् चंचल एवं ‘शीर्ष’ अर्थात् मस्तिष्क–चंचलता रहित मस्तिष्क अर्थात् शांत मस्तिष्क। मन बड़ा प्रबल है। मन का कार्य संकल्प-विकल्प करना है। मन ही सारे संसार-चक्र को चला रहा है। मन का समाहित हो जाना ही परम योग है। गणपति अथर्वशीर्ष मन-मस्तिष्क को शांत रखने की विद्या है।

अथर्वशीर्ष में मात्र दस ऋचाएं हैं। इसमें बताया गया है कि शरीर के मूलाधार चक्र में श्री गणेश का निवास है। मूलाधार चक्र शरीर में गुदा स्थान के पास स्थित है। मूलाधार चक्र आत्मा का भी स्थान है जो ॐकारमय है। यहां ॐकार स्वरूप गणेशजी विराजमान हैं। मूलाधार चक्र में ध्यान केन्द्रित करने से मन-मस्तिष्क शांत रहता है।

श्रीगणेश का वक्रतुण्ड-आकार ओंकार को प्रदर्शित करता है। ‘अकार’ गणेशजी के चरण हैं, ‘उकार’ उदर और ‘मकार’ मस्तक का महामण्डल है। इस प्रकार गणपति अथर्वशीर्ष में ओंकार और गणपति दोनों एक ही तत्त्व हैं। ओंकार रूप गणपति सत्ता, ज्ञान और सुख के रक्षक हैं। जीवन के कष्ट, संकट, विघ्न, शोक एवं मोह का नाश कर अथर्वशीर्ष परमार्थिक सुख भी प्रदान करता है। श्रीगणेश कष्टों का निवारण कर बिना भेदभाव के सभी का मंगल करते हैं।

अथर्वशीर्ष का सार है– ॐ गं गणपतये नम:।।

अथर्वशीर्ष के प्रतिदिन एक, पांच अथवा ग्यारह पाठ करने का विधान है। जो इसका नित्य पाठ करता है, वह  हर प्रकार से सुखी हो जाता है। वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता।

भगवान गणेश के नाम से"ॐ गं गणपतये नम:" मन्त्र को का जाप करते हुए विधिवत पूजन करें। अथर्वशीर्ष स्त्रोत पाठ से व्यक्ति के सभी दुखों का नाश होता है।

गणपति अथर्वशीर्ष का कम से कम एक पाठ नियमित करने से शरीर की आंतरिक शुद्धि होती है। इससे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ से मानसिक शांति और मानसिक मजबूती मिलती है। इससे दिमाग स्थिर रहते हुए सटीक निर्णय लेने के काबिल बनता है।

इसके नियमित पाठ से शरीर के सारे विषैले तत्व बाहर आ जाते हैं। शरीर में एक विशेष तरह की कांति पैदा होती है।

जिन लोगों की जन्मकुंडली में चंद्र के साथ पाप ग्रह राहु, केतु और शनि बैठे हों उनका जीवन संकटपूर्ण रहता है। ऐसे लोगों को हर दिन गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करना ही चाहिए।

इसके पाठ से अशुभ ग्रह शांत होते हैं और भाग्य के कारक ग्रह बलवान होते हैं।

बच्चों और युवाओं का मन यदि पढ़ाई से उचट गया है या पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें इसका पाठ रोज करना चाहिए।

आर्थिक सुख-समृद्धि और धन की प्राप्ति के लिए भी गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करना चाहिए।

गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करने के लिए प्रतिदिन अपने पूजा स्थान या किसी शुद्ध स्थान पर स्नानादि करके शांत मन से बैठ जाएं। रीढ़ एकदम सीधी रखते हुए बैठें और पाठ करें। इसका पाठ करने के लिए किसी पूजा की आवश्यकता नहीं होती। भगवान श्रीगणेश की प्रतिमा या फोटो सामने ना हो तो भी चलेगा।

इसका पाठ नियमित करना चाहिए, लेकिन प्रत्येक माह आने वाले विशेष दिन जैसे संकष्टी चतुर्थी के दिन शाम के समय 21 पाठ करना चाहिए।

गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ के साथ यदि एक माला" ॐ गं गणपतये नम:" की जपी जाए तो और भी अधिक लाभदायक होता है।

इसका पाठ महिलाओं के लिए भी बहुत लाभदायक होता है लेकिन वे अपनी माहवारी के दौरान इसका पाठ ना करें।

अगर आपकी कुंडली में बुध की स्थिति ठीक नहीं है । व्यापार में लगातार आपको हानि हो रही है और सेहत भी आपका साथ नहीं दे रही है. तो भगवान गणेश के अथर्वशीर्ष के मंत्रों के पाठ से आपकी सारी समस्याएं दूर हो जाती हैं।।


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              ◆  गणेश अथर्वशीर्ष


गणपति का आधिदैविक स्वरूप

ॐ नमस्ते गणपतये । त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि । त्वमेव केवलं कर्तासि । त्वमेव केवलं धर्तासि । त्वमेव केवलं हर्तासि ।त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि । त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ।।१।।

सत्य कथन

ऋतम् वच्मि । सत्यं (सत्यौं) वच्मि ।। २।।

रक्षण के लिये प्रार्थना

अव त्वं माम्‌ । अव वक्तारम् । अव श्रोतारम् । अव दातारम् । अव धातारम् । अवानूचानमव शिष्यम् । अव पश्चात्तात्‌ । अव पुरस्तात् । अवोत्तरात्तात् । अव दक्षिणात्तात् । अव चोर्ध्वात्तात् । अवाधरात्तात् । सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ।।३।।

गणपतिजी का आध्यात्मिक स्वरूप

त्वं वाङ्‌मयस्त्वं चिन्मय: । त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममय: । त्वं (त्वौं) सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि । त्वं (त्वौं) प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ।।४।।

गणपति का स्वरूप

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते । सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति । सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति । सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ।

त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ: । त्वं चत्वारि वाक्पदानि ।।५।।त्वं गुणत्रयातीत: । त्वं अवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीत: ।त्वं कालत्रयातीत: । त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् । त्वं (त्वौं) शक्तित्रयात्मक: । त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् । त्वं ब्रहमा त्वं विष्णुस् त्वं रुद्रस् त्वं इन्द्रस् त्वं अग्निस् त्वं (त्वौं) वायुस् त्वं सूर्यस् त्वं‌ चंद्रमास् त्वं ब्रह्मभूर्भुवः: स्वरोम् ।।६।।

गणेशविद्या

गणादिम् पूर्वमुच्चार्य वर्णादिस्‌ तदनंतरम् । अनुस्वार: परतर: । अर्धेन्दुलसितम् । तारेण ऋद्धम् । एतत्तव मनुस्वरूपम् । गकार: पूर्वरूपम् । अकारो मध्यमरूपम् । अनुस्वारश्चान्त्यरूपम् ।बिंदुरुत्तररूपम् । नादः संधानम् । संहिता (सौंहिता) संधिः । सैषा गणेशविद्या । गणक ऋषि: । निचृद्‌गायत्रीछंदः गणपतिर्देवता । ॐ गं गणपतये नम: ।।७।।

एकदंताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि । तन्नो दंती प्रचोदयात् ।। ८ ।।

एकदंतं चतुर्हस्तम् पाशमंकुशधारिणम् । रदं च वरदं (वरदौं) हस्तैर्‌बिभ्राणं मूषकध्वजम् । रक्तम् लंबोदरम् शूर्पकर्णकम् रक्तवाससम् । रक्तगंधानुलिप्तांगम् रक्तपुष्पै: सुपूजितम् ।भक्तानुकंपिनम् देवं जगत्कारणमच्युतम् । आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृते: पुरुषात्परम् । एवं ध्यायति यो नित्यम् स योगी योगिनां (उं) वर: ।।९।।

नमन

नमो व्रातपतये नमो गणपतये नम: प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नम: ।।१०।।

फलश्रुति

एतदथर्वशीर्षम्‌ योऽधीते । स ब्रह्मभूयाय कल्पते । स् सर्वविघ्नैर्न बाध्यते । स सर्वत: सुखमेधते । स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते । सायमधीयानो दिवसकृतम्‌ पापन्‌ नाशयति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतम्‌ पापन्‌ नाशयति । सायं प्रात: प्रयुंजानो अपापो भवति ।। सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति ।धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति ।। इदम्‌अथर्वशीर्षम्‌ अशिष्याय न देयम्‌। यो यदि मोहाद्दास्यति । स पापीयान्‌ भवति ।सहस्रावर्तनात्‌ यं (यैं) यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्‌।।११।।

अनेन गणपतिम्‌ अभिषिंचति । स वाग्मी भवति ।चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति । स विद्यावान्भवति । इत्यथर्वणवाक्यम्‌। ब्रह्माद्यावरणं (णौं) विद्यात्‌। न बिभेति कदाचनेति ।। १२ ।।

यो दूर्वांकुरैर्यजति । स वैश्रवणोपमो भवति । यो लाजैर्यजति । स यशोवान्भवति । स मेधावान्भवति । यो मोदकसहस्रेण यजति । स वांछितफलमवाप्नोति । यः साज्यसमिदभिर्यजति । स सर्वम् लभते स सर्वम् लभते । अष्टौ ब्राह्मणान्‌सम्यग्राहयित्वा । सूर्यवर्चस्वी भवति । सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्‌त्वा सिद्धमंत्रो भवति ।महाविघ्नात्प्रमुच्यते । महादोषात्प्रमुच्यते । महापापात्प्रमुच्यते । स सर्वविद्भवति स सर्वविद्‍भवति । य एवं वेद इत्युपनिषत्‌ ।।१३।।

अर्थ
गणपति को नमस्कार है, तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्त्व हो, तुम्हीं केवल कर्त्ता, तुम्हीं केवल धारणकर्ता और तुम्हीं केवल संहारकर्ता हो, तुम्हीं केवल समस्त विश्वरुप ब्रह्म हो और तुम्हीं साक्षात् नित्य आत्मा हो। ॥ १॥
॥ स्वरूप तत्त्व ॥
यथार्थ कहता हूँ। सत्य कहता हूँ। ॥ २॥
तुम मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। षडंग वेदविद् आचार्य की रक्षा करो। शिष्य रक्षा करो। पीछे से रक्षा करो। आगे से रक्षा करो। उत्तर (वाम भाग) की रक्षा करो। दक्षिण भाग की रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे की ओर से रक्षा करो। सर्वतोभाव से मेरी रक्षा करो। सब दिशाओं से मेरी रक्षा करो। ॥ ३॥
तुम वाङ्मय हो, तुम चिन्मय हो। तुम आनन्दमय हो। तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानन्द अद्वितीय परमात्मा हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम ज्ञानमय हो, विज्ञानमय हो। ॥ ४॥
यह सारा जगत् तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत् तुमसे सुरक्षित रहता है। यह सारा जगत् तुममें लीन होता है। यह अखिल विश्व तुममें ही प्रतीत होता है। तुम्हीं भूमि, जल, अग्नि और आकाश हो। तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चतुर्विध वाक् हो। ॥ ५॥
तुम सत्त्व-रज-तम-इन तीनों गुणों से परे हो। तुम भूत-भविष्य-वर्तमान-इन तीनों कालों से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीनों देहों से परे हो। तुम नित्य मूलाधार चक्र में स्थित हो। तुम प्रभु-शक्ति, उत्साह-शक्ति और मन्त्र-शक्ति- इन तीनों शक्तियों से संयुक्त हो। योगिजन नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो। तुम विष्णु हो। तुम रुद्र हो। तुम इन्द्र हो। तुम अग्नि हो। तुम वायु हो। तुम सूर्य हो। तुम चन्द्रमा हो। तुम (सगूण) ब्रह्म हो, तुम (निर्गुण) त्रिपाद भूः भुवः स्वः एवं प्रणव हो। ॥ ६॥
॥ गणेश मंत्र ॥
‘गण’ शब्द के आदि अक्षर गकार का पहले उच्चारण करके अनन्तर आदिवर्ण अकार का उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वार रहे। इस प्रकार अर्धचन्द्र से पहले शोभित जो ‘गं’ है, वह ओंकार के द्वारा रुद्ध हो, अर्थात् उसके पहले और पीछे भी ओंकार हो। यही तुम्हारे मन्त्र का स्वरुप (ॐ गं ॐ) है। ‘गकार’ पूर्वरुप है, ‘अकार’ मध्यमरुप है, ‘अनुस्वार’ अन्त्य रूप है। ‘बिन्दु’ उत्तररुप है। ‘नाद’ संधान है। संहिता’ संधि है। ऐसी यह गणेशविद्या है। इस विद्या के गणक ऋषि हैं। निचृद् गायत्री छन्द है और गणपति देवता है। मन्त्र है- ‘ॐ गं गणपतये नमः” ॥ ७॥
॥ गणेश गायत्री ॥
एकदन्त को हम जानते हैं, वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। दन्ती हमको उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करें। ॥ ८॥
॥ गणेश रूप (ध्यान)॥
गणपतिदेव एकदन्त और चर्तुबाहु हैं। वे अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, दन्त और वरमुद्रा धारण करते हैं। उनके ध्वज में मूषक का चिह्न है। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा रक्तवस्त्रधारी हैं। रक्तचन्दन के द्वारा उनके अंग अनुलिप्त हैं। वे रक्तवर्ण के पुष्पों द्वारा सुपूजित हैं। भक्तों की कामना पूर्ण करने वाले, ज्योतिर्मय, जगत् के कारण, अच्युत तथा प्रकृति और पुरुष से परे विद्यमान वे पुरुषोत्तम सृष्टि के आदि में आविर्भूत हुए। इनका जो इस प्रकार नित्य ध्यान करता है, वह योगी योगियों में श्रेष्ठ है। ॥ ९॥
॥ अष्ट नाम गणपति ॥
व्रातपति, गणपति, प्रमथपति, लम्बोदर, एकदन्त, विघ्ननाशक, शिवतनय तथा वरदमूर्ति को नमस्कार है। ॥ १०॥
॥ फलश्रुति ॥
इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका अध्ययन करनेवाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल पाठ करनेवाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं और प्रातःकाल पाठ करने वाला निष्पाप हो जाता है। (सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाले सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष इसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा। इसकी १००० आवृत्ति करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा। ॥ ११॥
(विविध प्रयोग)
जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् हो जाता है। यह अथर्वण-वाक्य है। जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता। ॥ १२॥
(यज्ञ प्रयोग)
जो दुर्वांकुरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान होता है। जो सहस्त्र मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है। ॥ १३॥
(अन्य प्रयोग)

जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज-सम्पन्न होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है। सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है-वह सर्वविद् हो जाता है। ॥ १४॥

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2 comments:

Unknown said...
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Anonymous said...

kya shipraprasad ganesh sadhna karne ki koi hani ho sakti h? bina upnayan diksha liy

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