शिवलिङ्ग का महत्व
शिवोपासना की महिमा का वर्णन शास्त्रों में सर्वत्र मिलता है। लिङ्ग शब्द का साधारण अर्थ चिह्न अथवा लक्षण है। देव-चिह्न के अर्थ में लिङ्ग शब्द शिवजी के ही लिङ्ग के लिए आता है।
पुराण में लयनालिंगमुच्यते कहा गया है अर्थात् लय या प्रलय से लिंग कहते हैं। प्रलय की अग्नि में सब कुछ भस्म होकर शिव में समा जाता है। वेद-शास्त्रादि भी शिव में लीन हो जाते हैं। फिर सृष्टि के आदि में सब कुछ लिङ्ग से ही प्रकट होता है।
शिव मंदिरों में पाषाण निर्मित शिवलिंगों की
अपेक्षा बाणलिंगों की विशेषता ही अधिक है। अधिकांश उपासक मृण्मय शिवलिंग अर्थात बाणलिंग की उपासना करते हैं। गरुड़ पुराण तथा अन्य शास्त्रों में अनेक प्रकार के शिवलिंगों के निर्माण का विधान है। उसका संक्षिप्त वर्णन भी पाठकों के ज्ञानार्थ यहां प्रस्तुत है।
दो भाग कस्तूरी, चार भाग चंदन तथा तीन भाग कुंकुम से ‘गंधलिंग’ बनाया जाता है। इसकी यथाविधि पूजा करने से शिव सायुज्य का लाभ मिलता है।
‘रजोमय लिंग’ के पूजन से सरस्वती की कृपा मिलती है। व्यक्ति शिव सायुज्य पाता है। जौ, गेहूं, चावल के आटे से बने लिंग को ‘यव गोधूमशालिज लिंग’ कहते हैं।
इसकी उपासना से स्त्री, पुत्र तथा श्री सुख की प्राप्ति होती है। आरोग्य लाभ के लिए मिश्री से ‘सिता खण्डमय लिंग’ का निर्माण किया जाता है।
हरताल, त्रिकटु को लवण में मिलाकर लवज लिंग बनाया जाता है। यह उत्तम वशीकरण कारक और सौभाग्य सूचक होता है। पार्थिव लिंग से कार्य की सिद्धि होती है।
भस्ममय लिंग सर्वफल प्रदायक माना गया है। गुडोत्थ लिंग प्रीति में बढ़ोतरी करता है। वंशांकुर निर्मित लिंग से वंश बढ़ता है। केशास्थि लिंग शत्रुओं का शमन करता है। दुग्धोद्भव लिंग से कीर्ति, लक्ष्मी और सुख प्राप्त होता है।
धात्रीफल लिंग मुक्ति लाभ और नवनीत निर्मित लिंग कीर्ति तथा स्वास्थ्य प्रदायक होता है। स्वर्णमय लिंग से महाभुक्ति तथा रजत लिंग से विभूति मिलती है। कांस्य और पीतल के लिंग मोक्ष कारक होते हैं।
पारद शिवलिंग महान ऐश्वर्य प्रदायक माना गया है। लिंग साधारणतया अंगुष्ठ प्रमाण का बनाना चाहिए। पाषाणादि से बने लिंग मोटे और बड़े होते हैं। लिंग से दोगुनी वेदी और उसका आधा योनिपीठ करने का विधान है।
लिंग की लंबाई उचित प्रमाण में न होने से शत्रुओं की संख्या में वृद्धि होती है। योनिपीठ बिना या मस्तकादि अंग बिना लिंग बनाना अशुभ है।
पार्थिव लिंग अपने अंगूठे के एक पोर के बराबर बनाना चाहिए। इसके निर्माण का विशेष नियम आचरण है जिसका पालन नहीं करने पर वांछित फल की प्राप्ति नहीं हो सकती।
लिंगार्चन में बाणलिंग का अपना अलग ही महत्व है। वह हर प्रकार से शुभ, सौम्य और श्रेयस्कर होता है। प्रतिष्ठा में भी पाषाण की अपेक्षा बाण लिंग की स्थापना सरल व सुगम है।
नर्मदा नदी के सभी कंकर ‘शंकर’ माने गए हैं। इन्हें नर्मदेश्वर भी कहते हैं। नर्मदा में आधा तोला से लेकर मनों तक के कंकर मिलते हैं। यह सब स्वतः प्राप्त और स्वतः संघटित होते हैं। उनमें कई लिंग तो बड़े ही अद्भुत, मनोहर, विलक्षण और सुंदर होते हैं। उनके पूजन-अर्चन से महाफल की प्राप्ति होती है।
मिट्टी, पाषाण या नर्मदा की जिस किसी मूर्ति का पूजन करना हो, उसकी विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा, स्थापना आदि की विधियां अनेक ग्रंथों मे वर्णित है |
पवित्र मनुष्य सदा ही उत्तराभिमुख होकर शिवार्चन करें।
-मृत्तिका, भस्म, गोबर, आटा, ताँबा और कांस का शिवलिङ्ग बानाकर जो मनुष्य एकबार भी पूजन करता है वह अयुतकल्प तक स्वर्ग में वास करता है।
शिवलिङ्ग की माप
नौ, आठ, और सात अँगुल का शिवलिङ्ग उत्तम होता है। तीन, छः, पाँच तथा चार अँगुल का शिवलिङ्ग मध्यम होता है। तीन, दो, और एक अँगुल का शिवलिङ्ग कनिष्ठ होता है। इस प्रकार यथा क्रम से चर प्रतिष्ठित शिवलिङ्ग नौ प्रकार का कहा गया है।
शूद्र, जिसका उपनयन सँस्कार नहीं हुआ है, स्त्री और पतित ये लोग केशव या शिव का स्पर्श करते हैं तो नरक प्राप्त करते हैं। (स्कन्द पुराण)
स्वयं प्रदुर्भूत बाणलिंग में, रत्नलिंग में, रसनिर्मित लिंग में और प्रतिष्ठित लिंग में चण्ड का अधिकार नहीं होता।
जहाँ पर चण्डाधिकार होता है वहाँ पर मनुष्यों को उसका भोजन नहीं करना चाहिये। जहाँ चण्डाधिकार नहीं होता है वहाँ भक्ति से भोजन करें। (नि.सि.पृ.सं.७२ॉ)
पृथिवी, सुवर्ण, गौ, रत्न, ताँबा, चाँदी, वस्त्रादि को छोड़कर चण्डेश के लिये निवेदन करें। अन्य अन्न आदि, जल, ताम्बूल, गन्ध और पुष्प, भगवान् शंकर को निवेदित किया हुआ सब चण्डेश को दे देना चाहिये।(नि.सि.पृ.सं.७१९)
विल्वपत्र तीन दिन और कमल पाँच दिन वासी नहीं होता और तुलसी वासी नहीं होती। (नि.सि.पृ.सं.७१८)
अँगुष्ठ, मध्यमा और अनामिका से पुष्प चढ़ाना चाहिये एवं अँगुष्ठ-तर्जनी से निर्माल्य को हटाना चाहिये।
‘अहं शिवः शिवश्चार्य, त्वं चापि शिव एव हि।
सर्व शिवमयं ब्रह्म, शिवात्परं न किञचन।।
मैं शिव, तू शिव सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। इसीलिए कहा गया है- ‘शिवोदाता, शिवोभोक्ता शिवं सर्वमिदं जगत्।
शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं। सब चाहते हैं अखण्ड आनंद को। शिव का अर्थ है आनंद। शिव का अर्थ है-परम मंगल, परम कल्याण।
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