हरितालिका व्रत
हरितालिका व्रत को हरितालिका तीज या तीजा भी कहते हैं। यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को किया जाता है।इसमें हस्त नक्षत्र का संयोग अतिउत्तम होता है।हरितालिका व्रत में तृतीया तिथि में द्वितीया तिथि का योग निषेध और चतुर्थी तिथि का योग श्रेष्ठ होता है।अतः तृतीया तिथि मुहूर्त मात्र हो तो भी परा तिथि ग्रहण की जाती है।
शास्त्र में इस व्रत के लिए सधवा, विधवा,सबको आज्ञा है।
यह व्रत करवाचौथ से भी कठिन माना जाता है क्योंकि जहां करवाचौथ में चन्द्र देखने के उपरांत व्रत सम्पन्न कर दिया जाता है, वहीं इस व्रत में पूरे दिन निर्जल व्रत किया जाता है और अगले दिन पूजन के पश्चात ही व्रत सम्पन्न जाता है। इस व्रत से जुड़ी एक मान्यता यह है कि इस व्रत को करने वाली स्त्रियां पार्वती जी के समान ही सुखपूर्वक पतिरमण करके शिवलोक को जाती हैं।
हरितालिका तीज व्रत विधि-विधान
सौभाग्यवती स्त्रियां अपने सुहाग को अखण्ड बनाए रखने और अविवाहित युवतियाँ मनोवांछित वर पाने के लिए हरितालिका तीज का व्रत करती हैं। सर्वप्रथम इस व्रत को माता पार्वती ने भगवान शिव-शंकर के लिए रखा था। इस दिन विशेष रूप से गौरी-शंकर का ही पूजन किया जाता है। इस दिन व्रत करने वाली स्त्रियां सूर्योदय से पूर्व ही उठ जाती हैं फिर स्नानादि कर श्रृंगार करती हैं। पूजन के लिए केले के पत्तों से मंडप बनाकर गौरी-शंकर की प्रतिमा स्थापित की जाती है।
उनका स्थापन पूजन धूप दीप नैवेद्य आदि से पूजन करें।और निराहार रहें।दूसरे दिन पूर्वाह्न में पारणा करके व्रत का समापन करे।8 या 16 युग्म ब्राह्मणों को भोजन करावे। 16 सौभाग्य द्रव्य और वस्त्रादि दे।फिर स्वयं भोजन करें।
इसी दिन हरिकाली, हस्तगौरी और कोटीश्वरी आदि व्रत भी होते हैं इन सबमें पार्वती जी के पूजन का प्राधान्य है और विशेषकर इनको स्त्रियां करती हैं।
व्रत की अनिवार्यता
इस व्रत की पात्र कुमारी कन्याएँ व सुहागिन महिलाएँ दोनों ही हैं परन्तु एक बार व्रत रखने उपरांत जीवन पर्यन्त इस व्रत को रखना होता है। यदि व्रती महिला गंभीर रोग की स्थिति में हो तो उसके स्थान पर दूसरी महिला या उसका पति भी इस व्रत को रख सकता है ऐसा विधान कहा गया है।
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