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Saturday, August 31, 2019

गायत्री मंत्र की महिमा Glory of gayatri mantra

गायत्री


गायत्री आदिशक्ति हैं उनका मंत्र अतिशय प्रभाव कारी और पवित्र है।महादेवी गायत्री वरदायिनी है,ब्रह्मस्वरूपिणी है।
परमेश्वरी भी वही है। उनका श्री विग्रह अड़हुल के फूल जैसा है। वह कुमारी अवस्था में विराजमान है। रक्त चंदन से अनुलिप्त वे रक्तकमल पर आसीन है, वे रक्त माला और रक्त वस्त्र धारण किए रहती हैं। उनके चार मुख और चार भुजाएं हैं। उनके प्रत्येक मुख में दो-दो नेत्र हैं उनके हाथों में जप माला,स्रुक्,स्रुवा और कमण्डलु है। उत्तम आभरणों से उनका दिव्य शरीर चमकता रहता है।
वे निरंतर ऋग्वेद के अध्ययन में निरत हैं। उनका वाहन हंस है। ब्रह्मा उनकी उपासना और ध्यान में निरंतर लीन है। चार वेद उनके 4 पद हैं।
उनके 7 सिर हैं- व्याकरण, शिक्षा, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, इतिहास- पुराण और उपनिषद्। 
ब्रह्मा उनके कवच हैं, सांख्यायन उनका गोत्र है तथा वे आदित्य-मण्डल में विराजमान है।

गायत्री मंत्र की महिमा

माता गायत्री को कामधेनु कहा गया है,(विशेष कर ब्राह्मणों के लिए) अर्थात् सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली।
गायत्री मंत्र वेदों का एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है जिसकी महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी गई है। यह यजुर्वेद के मन्त्र 'ॐ भूर्भुवः स्वः' और ऋग्वेद के छन्द 3.62.10 के मेल से बना है। इस मंत्र में सवितृ देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रुप मे भी पूजा जाता है।
गायत्री मन्त्र
ॐ भूर् भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं।भर्गो देवस्य धीमहि। धियो योनः प्रचोदयात्।
माता गायत्री के अस्त्र-शस्त्र वेद और कमंडल हैं।जीवनसाथी ब्रह्मा को माना गया है, और उनका वाहन हंस है।
'गायत्री' एक छन्द भी है जो ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंदों में एक है। इन सात छंदों के नाम हैं- गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, विराट, त्रिष्टुप् और जगती। गायत्री छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण होते हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में त्रिष्टुप् को छोड़कर सबसे अधिक संख्या गायत्री छंदों की है। गायत्री के तीन पद होते हैं (त्रिपदा वै गायत्री)। अतएव जब छंद या वाक के रूप में सृष्टि के प्रतीक की कल्पना की जाने लगी तब इस विश्व को त्रिपदा गायत्री का स्वरूप माना गया। जब गायत्री के रूप में जीवन की प्रतीकात्मक व्याख्या होने लगी तब गायत्री छंद की बढ़ती हुई महिमा के अनुरूप विशेष मंत्र की रचना हुई, जो इस प्रकार है:
तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्। (ऋग्वेद ३,६२,१०)
गायत्री मन्त्र का देवी के रूप में चित्रण
ॐ भूर्भुवः स्व:।तत् सवितुर्वरेण्यं।भर्गो देवस्य धीमहि।धियो यो नः प्रचोदयात् ॥हिन्दी में भावार्थ 
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
परिचय
यह मंत्र सर्वप्रथम ऋग्वेद में उद्धृत हुआ है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। वैसे तो यह मंत्र विश्वामित्र के इस सूक्त के १८ मंत्रों में केवल एक है, किंतु अर्थ की दृष्टि से इसकी महिमा का अनुभव आरंभ में ही ऋषियों ने कर लिया था और संपूर्ण ऋग्वेद के १० सहस्र मंत्रों में इस मंत्र के अर्थ की गंभीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। इस मंत्र में २४ अक्षर हैं। उनमें आठ आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। किंतु ब्राह्मण ग्रंथों में और कालांतर के समस्त साहित्य में इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मंत्र का पूरा स्वरूप इस प्रकार स्थिर हुआ:
(१) ॐ(२) भूर्भव: स्व:(३) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है।
गायत्री तत्व क्या है? और क्यों इस मंत्र की इतनी महिमा है?
इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है। आर्ष मान्यता के अनुसार गायत्री एक ओर विराट् विश्व और दूसरी ओर मानव जीवन, एक ओर देवतत्व और दूसरी ओर भूततत्त्व, एक ओर मन और दूसरी ओर प्राण, एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म के पारस्परिक संबंधों की पूरी व्याख्या कर देती है। इस मंत्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के नाना रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो समस्त देवों को प्रेरित करता है। जाग्रत् में सवितारूपी मन ही मानव की महती शक्ति है। जैसे सविता देव है वैसे मन भी देव है (देवं मन: ऋग्वेद, १,१६४,१८)। मन ही प्राण का प्रेरक है। मन और प्राण के इस संबंध की व्याख्या गायत्री मंत्र को इष्ट है। सविता मन प्राणों के रूप में सब कर्मों का अधिष्ठाता है, यह सत्य प्रत्यक्षसिद्ध है। इसे ही गायत्री के तीसरे चरण में कहा गया है। ब्राह्मण ग्रंथों की व्याख्या है-कर्माणि धिय:, अर्थातृ जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं वह केवल मन के द्वारा होनेवाले विचार या कल्पना सविता नहीं किंतु उन विचारों का कर्मरूप में मूर्त होना है। यही उसकी चरितार्थता है। किंतु मन की इस कर्मक्षमशक्ति के लिए मन का सशक्त या बलिष्ठ होना आवश्यक है। उस मन का जो तेज कर्म की प्रेरण के लिए आवश्यक है वही वरेण्य भर्ग है। मन की शक्तियों का तो पारवार नहीं है। उनमें से जितना अंश मनुष्य अपने लिए सक्षम बना पाता है, वहीं उसके लिए उस तेज का वरणीय अंश है। अतएव सविता के भर्ग की प्रार्थना में विशेष ध्वनि यह भी है कि सविता या मन का जो दिव्य अंश है वह पार्थिव या भूतों के धरातल पर अवतीर्ण होकर पार्थिव शरीर में प्रकाशित हो। इस गायत्री मंत्र में अन्य किसी प्रकार की कामना नहीं पाई जाती। यहाँ एक मात्र अभिलाषा यही है कि मानव को ईश्वर की ओर से मन के रूप में जो दिव्य शक्ति प्राप्त हुई है उसके द्वारा वह उसी सविता का ज्ञान करे और कर्मों के द्वारा उसे इस जीवन में सार्थक करे।
व्याहृतियों  तथा ॐ की व्याख्या
गायत्री के पूर्व में जो तीन व्याहृतियाँ हैं, वे भी सहेतुक हैं। भू पृथ्वीलोक, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव जगत् और जाग्रत् अवस्था का सूचक है।
भुव: अंतरिक्षलोक, यजुर्वेद, वायु देवता, प्राणात्मक जगत् और स्वप्नावस्था का सूचक है।
स्व: द्युलोक, सामवेद, आदित्यदेवता, मनोमय जगत् और सुषुप्ति अवस्था का सूचक है। इस त्रिक के अन्य अनेक प्रतीक ब्राह्मण, उपनिषद् और पुराणों में कहे गए हैं, किंतु यदि त्रिक के विस्तार में व्याप्त निखिल विश्व को वाक के अक्षरों के संक्षिप्त संकेत में समझना चाहें तो उसके लिए ही यह ॐ संक्षिप्त संकेत गायत्री के आरंभ में रखा गया है। अ, उ, म इन तीनों मात्राओं से ॐ का स्वरूप बना है। अ अग्नि, उ वायु और म आदित्य का प्रतीक है। यह विश्व प्रजापति की वाक् है। वाक् का अनंत विस्तार है किंतु यदि उसका एक संक्षिप्त नमूना लेकर सारे विश्व का स्वरूप बताना चाहें तो अ, उ, म या ॐ कहने से उस त्रिक का परिचय प्राप्त होगा जिसका स्फुट प्रतीक त्रिपदा गायत्री है।
गायत्री उपासना का विधि-विधान
गायत्री उपासना कभी भी, किसी भी स्थिति में की जा सकती है। हर स्थिति में यह लाभदायी है, परन्तु विधिपूर्वक भावना से जुड़े न्यूनतम कर्मकाण्डों के साथ की गयी उपासना अति फलदायी मानी गयी है। तीन माला गायत्री मंत्र का जप अत्यन्त आवश्यक माना गया है। शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहिए।
उपासना की विधि-
(१) ब्रह्म सन्ध्या - जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है। इसके अंतर्गत पाँच कृत्य करने होते हैं।
(अ) पवित्रीकरण - बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें एवं मंत्रोच्चारण के बाद जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें।
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थांगतोऽपि वा।यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु।
(ब) आचमन - वाणी, मन व अंतःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें। हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाए।
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।
(स) शिखा स्पर्श एवं वंदन - शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे। निम्न मंत्र का उच्चारण करें।
ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥
(द) प्राणायाम - श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ किया जाए।
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ।
(य) न्यास - इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि देव-पूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें।
ॐ वां मे आस्येऽस्तु। (मुख को)ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को)ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को)ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को)ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों भुजाओं को)ॐ ऊर्वोमे ओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को)ॐ अरिष्टानि मेऽंगानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। (समस्त शरीर पर)
आत्मशोधन की ब्रह्म संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि सााधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो। पवित्र-प्रखर व्यक्ति ही भगवान के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते हैं।
(२) देवपूजन - गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतम्भरा गायत्री है। उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मंत्र के माध्यम से आवाहन करें। भावना करें कि साधक की प्रार्थना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है।
ॐ आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।गायत्रिच्छन्दसां मातः! ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥
ॐ श्री गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, ततो नमस्कारं करोमि।
(ख) गुरु - गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवंदन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरु आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें।
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः।गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥अखण्डमंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्।तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ॐ श्रीगुरवे नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(ग) माँ गायत्री व गुरु सत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापित करने हेतु पंचोपचार द्वारा पूजन किया जाता है। इन्हें विधिवत् संपन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें।
जल का अर्थ है - नम्रता-सहृदयता।
अक्षत का अर्थ है - समयदान अंशदान।
पुष्प का अर्थ है - प्रसन्नता-आंतरिक उल्लास। धूप-दीप का अर्थ है - सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य-परमार्थ तथा
नैवेद्य का अर्थ है - स्वभाव व व्यवहार में मधुरता-शालीनता का समावेश।

इन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी अर्पित कर सकते हैं।अप्रत्यक्ष रूप से अर्पण करने को मानसोपचार कहते हैं यथा:-
लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि
हं आकशात्मकं पुष्पं समर्पयामि
यं वायव्यात्मकं धूपं समर्पयामि
रं तैजसात्मकं दीपं समर्पयामि
वं अमृतात्मकं नैवेद्यं समर्पयामि
सं सर्वात्मकं पुष्पांजलिं समर्पयामि
ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से संपन्न करने के लिए किये जाते हैं। कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है।
(३) जप - गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाए। अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम। होठ हिलते रहें, किन्तु आवाज इतनी मंद हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें। जप प्रक्रिया कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए की जाती है।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि हम निरन्तर पवित्र हो रहे हैं। दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है।
(४) ध्यान - जप तो अंग-अवयव करते हैं, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों को शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की भावना की जाती है, जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है।
(५) सूर्यार्घ्यदान - विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में र्अघ्य रूप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है।
ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते।अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः॥
भावना यह करें कि जल आत्म सत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित हो रही है।
इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर देवताओं को करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जाए। जप के लिए माला तुलसी, चंदन या रुद्राक्ष की ही लेनी चाहिए। सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है।
मौन-मानसिक जप चौबीस घण्टे किया जा सकता है। माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें।



गायत्री मंत्र के विविध प्रयोग
Various uses of Gayatri Mantra


श्रीमद् देवी भागवत के 11 वें स्कंध में कामना सिद्धि और उपद्रव शांति के लिए गायत्री के विविध प्रयोग बताए गए हैं।यहां कतिपय प्रयोग उपन्यस्त हैं-

1- शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे गायत्री का सौ बार जप करने से भौतिक रोगों एवं आभिचारिक भय से मुक्ति मिलती है।

2- गिलोय को खंड खंड करके उसे दूध में भिगोकर गायत्री मंत्र से अग्नि में उसका हवन करे। इस होम को मृत्युंजय कहते हैं, इसमें संपूर्ण व्याधियों के विनाश की शक्ति है।

3- ज्वर की शांति के लिए दूध में आम के पत्तों को भिगोकर गायत्री मंत्र से उनका हवन करना चाहिए।

4- दूध में भिगोए हुए मीठे वच का गायत्री मंत्र से हवन करने पर क्षयरोग का शमन होता है।

5- मधुत्रय* (घी दूध और मधु)- से गायत्री मंत्र द्वारा किए गए हवन से राज्यक्षमा को दूर करने की शक्ति प्राप्त होती है।

6- गायत्री मंत्र से खीर का हवन कर उसे सूर्य भगवान् को अर्पित करे, फिर प्रसाद स्वरूप उसका प्राशन करने से राज्यक्षमा का उपद्रव शांत होता है।

7- शंख वृक्ष के पुष्प का गायत्री मंत्र द्वारा हवन करने से कुष्ठ रोग का निवारण होता है।

8- अपामार्ग (चिरचिटा)- के बीज का गायत्री मंत्र द्वारा हवन करने से मिर्गी रोग की शांति होती है।

9- गायत्री मंत्र द्वारा अभिमंत्रित जल पीने से भूत, प्रेत आदि के उपद्रवों से मनुष्यों को मुक्ति मिलती है।

10- भूत, प्रेत, व्याधि आदि के उपद्रव को शांत करने के लिए 100 बार गायत्री मंत्र के उच्चारण से अभिमंत्रित भस्म को सिर पर धारण करना चाहिए, ललाट पर लगाना चाहिए।

11- लक्ष्मी की कामना की सिद्धि के लिए गायत्री मंत्र द्वारा लाल फूलों से हवन करना चाहिए।

12- बेल के फल के टुकड़ों, पत्रों और पुष्पों से गायत्री मंत्र द्वारा हवन करने से उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इसमें समिधाएं भी बिल्ववृक्ष की ही होनी चाहिए।

13- पलाश, पीपल, गूलर, पाकड़ और बरगद की लकड़ी से गायत्री मंत्र के उच्चारण के साथ हवन करने से आयु की वृद्धि होती है।

14- मधुत्रय से युक्त लाजा (लावा)- का गायत्री मंत्र द्वारा हवन करने से वर को इच्छित कन्या की प्राप्ति होती है और इसी विधि से हवन करने पर कन्या को अभिलषित वर की प्राप्ति होती है।

15- एक पैर पर खड़े होकर बिना किसी सहारे के बाहों को ऊपर उठाए हुए तीन सौ गायत्री मंत्रों का महीने भर जप करने से संपूर्ण कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

यह अनुभूत प्रयोग है कि यदि छोटा बच्चा लगातार रोये, चुप ना हो और उसे नींद भी ना आए तो शरीर से पवित्र होकर श्रद्धा भाव से गायत्री मंत्र पढ़ते हुए उसके शरीर पर धीरे-धीरे हाथ फेरने से वह चुप हो जाता है और उसे नींद भी आ जाती है।

इस प्रकार गायत्री देवी के मंत्र की महिमा अपार है। गायत्री मंत्र का नित्य जप करने से से अपुत्र को पुत्र की प्राप्ति होती है,, दरिद्र धन लाभ करता है मनुष्य यशस्वी होता है, विद्यार्थी बुद्धि और विद्या से संपन्न हो जाता है तथा गायत्री माता उस पर प्रसन्न होकर उसकी सारी अभिलाषाएँ  पूरी कर देती हैं।
श्रीमद् देवी भागवत(12/14/27)- का यह प्रार्थना श्लोक देवी गायत्री की प्रसन्नता के निमित्त भक्ति भाव पूर्वक पाठ करना चाहिए-

सच्चिदानंद रूपां तां गायत्रीप्रतिपादिताम्।नमामि ह्रींमयीं देवीं धियो यो नः प्रचोदयात्।।


अर्थात् जो भगवती सच्चिदानन्द स्वरूपिणी है,  वे ही भगवती गायत्री के नाम से विख्यात है। उन ह्रीं मयी देवी को मैं प्रणाम करता हूं। मेरी बुद्धि को सत्प्रेरणा प्रदान करने की कृपा करें।
साभार:-
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