गन्धर्व-राज विश्वावसु की पूजा पद्धति
Pooja of Gandharva-Raj Vishwasu
जब किसी पुरुष जातक के विवाह मे अत्यधिक विलम्ब या विवाह का बार-बार टूटना आदि घटनाएं होती हैं।तब इस विद्या का प्रयोग किया जाता है।
गन्धर्व-राज विश्वावसु की उपासना मुख्यतः ‘वशीकरण’ और ‘विवाह’ के लिये ही की जाती है। स्त्री-वशीकरण और विवाह के लिये इनके प्रयोग अमोघ है।इनकी कई विधाएं शास्त्रों मे वर्णित हैं, जिनमे ये प्रमुख है।
मन्त्र-
“ॐ विश्वावसु-गन्धर्व-राज-कन्या-सहस्त्रमावृत, ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्रयच्छ स्वाहा।”
विनियोग-
ॐ अस्य श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-मन्त्रस्य श्रीरुद्र-ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजः देवता, ह्रीं बीजं, स्वाहा शक्तिः, विश्वावसु-गन्धर्व-राज प्रीति-पूर्वक ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्राप्तयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यास-
श्रीरुद्र-ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजः देवतायै नमः हृदि, ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, स्वाहा शक्तये नमः पादयोः, विश्वावसु-गन्धर्व-राज प्रीति-पूर्वक ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्राप्तयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।
कराङ्ग-न्यास-
ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः। ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः। ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
षडङ्ग-न्यास-
ॐ ह्रां हृदयाय नमः। ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा। ॐ ह्रूं शिखायै वषट्। ॐ ह्रैं कवचाय हुं। ॐ ह्रौं नेत्र-त्रयाय वौषट्। ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।
पुनः कराङ्ग-न्यास-
ॐ ह्रां ॐ विश्वावसु अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ ह्रीं गन्धर्व-राज तर्जनीभ्यां नमः। ॐ ह्रूं कन्या-सहस्त्रमावृत मध्यमाभ्यां नमः। ॐ ह्रैं ममाभिलाषितां अनामिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रौं अमुकीं कन्यां कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रः प्रयच्छ स्वाहा करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
इसी क्रम से ‘षडङ्ग-न्यास’ कर ‘दिग्-बन्धन’ करे। यथा-
दिग्-बन्धन-
‘ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ’ से ‘दिग्-बन्धन करे। “ॐ रां रं रं तेजोज्ज्वलप्रकाशाय नमः” से अपने चारों ओर तीन अग्नि-प्राकारों का ध्यान करे। फिर मूल-मन्त्र से तीन, पाँच या सात बार व्यापक न्यास करे। फिर अपने शरीर में पीठ-न्यास करे-
पीठ-न्यास-
मं मण्डूकाय नमः मूलाधारे। कां कालाग्नि-रुद्राय नमः स्वाधिष्ठाने। कं कच्छपाय नमः हृदये। आं आधार-शक्तये नमः। कं कूर्माय नमः। धं धरायै नमः। क्षीं क्षीर-सागराय नमः। श्वें श्वेत-द्वीपाय नमः। कं कल्प-वृक्षाय नमः। मं मणि-प्राकाराय नमः। हें हेम-पीठाय नमः। (कच्छप से हेम-पीठ तक का न्यास हृदय में होगा।) धं धर्माय नमः दक्ष स्कन्धे। ज्ञां ज्ञानाय नमः वाम-स्कन्धे। वैं वैराग्याय नमः दक्ष-जानुनि। ऐं ऐश्वर्याय नमः वाम-जानुनि। अं अधर्माय नमः मुखे। अं अज्ञानाय नमः वाम-पार्श्वे। अं अवैराग्याय नमः नाभौ। अं अनैश्वर्याय नमः दक्ष-पार्श्वे।
निम्न सभी मन्त्रों का हृदय में न्यास करे- अं अनन्ताय नमः। चं चतुर्विंशति-तत्त्वेभ्यो नमः। पं पद्माय नमः। आं आनन्द-कन्दाय नमः। सं सम्विन्नालाय नमः। विं विकार-मय-केसरेभ्यो नमः। प्रं प्रकृत्यात्मक-पत्रेभ्यो नमः। पञ्चाशद्-वर्णाढ्य-कर्णिकायै नमः। सं सूर्य-मण्डलाय नमः। चं चन्द्र-मण्डलाय नमः। वैं वैश्वानर-मण्डलाय नमः। सं सत्त्वाय नमः। रं रजसे नमः। तं तमसे नमः। आं आत्मने नमः। अं अन्तरात्मने नमः। पं परमात्मने नमः। ज्ञां ज्ञानात्मने नमः। मां माया-तत्त्वात्मने नमः। कं कला-तत्त्वात्मने नमः। विं विद्या-तत्त्वात्मने नमः। पं पर-तत्त्वात्मने नमः।
हृदयस्थ अष्ट-दल में प्रादक्षिण्य-क्रम से और मध्य में पीठ-शक्तियों का न्यास करे-
कां कान्त्यै नमः। प्रं प्रभायै नमः। रं रमायै नमः। विं विद्यायै नमः। मं मदनायै नमः। मं मदनातुरायै नमः। रं रंभायै नमः। मं मनोज्ञायै नमः।
कर्णिका में- ह्रीं सर्व-शक्ति-कमलासनाय नमः।
अब हृदयस्थ पीठ पर ‘ध्यान’ करे-
१॰ कन्या-समूहैर्युव-चित्त-हारारुपै परितं उप-केतु-रुपम्।
अम्भोज-ताम्बूल-करं युवानं गन्धर्व-पौढां वने स्मरामि।।
२॰ ध्याये दिव्यं वर्त्ते रम्ये, तयवानमति-सुन्दरम्।
सेवितं कन्यका-वृन्दैः सुन्दरैः भूषितां सदा।।
मुक्ता-हार-लसत्-पाणिः, पङ्जैरति-शोभनैः।
लीला-गृहित-कमलैर्मधुरालाप-कारिभिः।।
उपर्युक्त दो ध्यानों में से कोई एक ध्यान करके ‘मानसिक-पूजन’ करें। यथा-
लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय विलेपयामि नमः (अधो-मुख कनिष्ठा एवं अंगुष्ठ से)। हं आकाश- तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय समर्पयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ से)। यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय आघ्रापयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ मिलाकर वाम-स्तन पर १० बार भावना से धूम-पात्र रखे)। रं तेजस्तत्त्वात्मकं दीपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय दर्शयामि नमः (उर्ध्व-मुख मध्यमा एवं अंगुष्ठ मिलाकर, दक्ष-स्तन पर १० बार भावना से दीप-पात्र रखे)। वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय निवेदयामि नमः (उर्ध्व-मुख
उपर्युक्त दो ध्यानों में से कोई एक ध्यान करके ‘मानसिक-पूजन’ करें। यथा-
लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय विलेपयामि नमः (अधो-मुख कनिष्ठा एवं अंगुष्ठ से)। हं आकाश- तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय समर्पयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ से)। यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय आघ्रापयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ मिलाकर वाम-स्तन पर १० बार भावना से धूम-पात्र रखे)। रं तेजस्तत्त्वात्मकं दीपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय दर्शयामि नमः (उर्ध्व-मुख मध्यमा एवं अंगुष्ठ मिलाकर, दक्ष-स्तन पर १० बार भावना से दीप-पात्र रखे)। वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय निवेदयामि नमः (उर्ध्व-मुख अनामिका एवं अंगुष्ठ से)। शं शक्त्यात्मकं ताम्बूलादिकं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय निवेदयामि नमः (उर्ध्व-मुख सभी अँगुलियों से)।
इस प्रकार पूजन करके कमल (पद्म), ताम्बूल और योनि-मुद्रा दिखाकर, यथा शक्ति जप करके ‘गुह्याति-गुह्य’ आदि मन्त्र से जप-फल का समर्पण करे।
पुरश्चरण-
१ लाख जप। अयुत (१०,०००) हवन घृत-मिश्रित लाजा से। सहस्त्र (१०००) तर्पण। शत (१००) मार्जन। दश ब्राह्मण भोजन।
प्रयोग-
१॰ कल्पतरु के नीचे मणि-मण्डप में सिंहासन पर बैठे हुए, गन्धर्व-राज-विश्वावसु का ध्यान करते हुए जलाञ्जलि देकर, नित्य १०८ जप करने से एक मास में उत्तम आभूषणों से सुसज्जित ‘कन्या’ की प्राप्ति होती है।
२॰ जल के किनारे, इक्षु-क्षेत्र (गन्ने के खेत) अथवा कदली (केला) वन में मन्त्र का यथा-शक्ति जप तथा दशांश हवन-तिल और पायस से करने पर अभीष्ट कन्या प्राप्त होती है। यह १ मास का प्रयोग है।
३॰ शाल-वृक्ष(साखू) की लकड़ी की ११ अंगुल की कील १००८ बार अभिमन्त्रित कर, अभीष्ट कन्या के घर में रखने से वह कन्या प्राप्त होती है।
४॰ मन्त्र में से ‘अमुकी’ पद अलग करके ‘जप’ करने से सबका आकर्षण होता है।
नोट- यह साधना केवल पुरुषों के लिये है।
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गन्धर्व-राज विश्वावसु की उपासना मुख्यतः ‘वशीकरण’ और ‘विवाह’ के लिये ही की जाती है। स्त्री-वशीकरण और विवाह के लिये इनके प्रयोग अमोघ है।इनकी कई विधाएं शास्त्रों मे वर्णित हैं, जिनमे ये प्रमुख है।
मन्त्र-
“ॐ विश्वावसु-गन्धर्व-राज-कन्या-सहस्त्रमावृत, ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्रयच्छ स्वाहा।”
विनियोग-
ॐ अस्य श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-मन्त्रस्य श्रीरुद्र-ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजः देवता, ह्रीं बीजं, स्वाहा शक्तिः, विश्वावसु-गन्धर्व-राज प्रीति-पूर्वक ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्राप्तयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यास-
श्रीरुद्र-ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजः देवतायै नमः हृदि, ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, स्वाहा शक्तये नमः पादयोः, विश्वावसु-गन्धर्व-राज प्रीति-पूर्वक ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्राप्तयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।
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ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः। ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः। ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
षडङ्ग-न्यास-
ॐ ह्रां हृदयाय नमः। ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा। ॐ ह्रूं शिखायै वषट्। ॐ ह्रैं कवचाय हुं। ॐ ह्रौं नेत्र-त्रयाय वौषट्। ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।
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ॐ ह्रां ॐ विश्वावसु अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ ह्रीं गन्धर्व-राज तर्जनीभ्यां नमः। ॐ ह्रूं कन्या-सहस्त्रमावृत मध्यमाभ्यां नमः। ॐ ह्रैं ममाभिलाषितां अनामिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रौं अमुकीं कन्यां कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रः प्रयच्छ स्वाहा करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
इसी क्रम से ‘षडङ्ग-न्यास’ कर ‘दिग्-बन्धन’ करे। यथा-
दिग्-बन्धन-
‘ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ’ से ‘दिग्-बन्धन करे। “ॐ रां रं रं तेजोज्ज्वलप्रकाशाय नमः” से अपने चारों ओर तीन अग्नि-प्राकारों का ध्यान करे। फिर मूल-मन्त्र से तीन, पाँच या सात बार व्यापक न्यास करे। फिर अपने शरीर में पीठ-न्यास करे-
पीठ-न्यास-
मं मण्डूकाय नमः मूलाधारे। कां कालाग्नि-रुद्राय नमः स्वाधिष्ठाने। कं कच्छपाय नमः हृदये। आं आधार-शक्तये नमः। कं कूर्माय नमः। धं धरायै नमः। क्षीं क्षीर-सागराय नमः। श्वें श्वेत-द्वीपाय नमः। कं कल्प-वृक्षाय नमः। मं मणि-प्राकाराय नमः। हें हेम-पीठाय नमः। (कच्छप से हेम-पीठ तक का न्यास हृदय में होगा।) धं धर्माय नमः दक्ष स्कन्धे। ज्ञां ज्ञानाय नमः वाम-स्कन्धे। वैं वैराग्याय नमः दक्ष-जानुनि। ऐं ऐश्वर्याय नमः वाम-जानुनि। अं अधर्माय नमः मुखे। अं अज्ञानाय नमः वाम-पार्श्वे। अं अवैराग्याय नमः नाभौ। अं अनैश्वर्याय नमः दक्ष-पार्श्वे।
निम्न सभी मन्त्रों का हृदय में न्यास करे- अं अनन्ताय नमः। चं चतुर्विंशति-तत्त्वेभ्यो नमः। पं पद्माय नमः। आं आनन्द-कन्दाय नमः। सं सम्विन्नालाय नमः। विं विकार-मय-केसरेभ्यो नमः। प्रं प्रकृत्यात्मक-पत्रेभ्यो नमः। पञ्चाशद्-वर्णाढ्य-कर्णिकायै नमः। सं सूर्य-मण्डलाय नमः। चं चन्द्र-मण्डलाय नमः। वैं वैश्वानर-मण्डलाय नमः। सं सत्त्वाय नमः। रं रजसे नमः। तं तमसे नमः। आं आत्मने नमः। अं अन्तरात्मने नमः। पं परमात्मने नमः। ज्ञां ज्ञानात्मने नमः। मां माया-तत्त्वात्मने नमः। कं कला-तत्त्वात्मने नमः। विं विद्या-तत्त्वात्मने नमः। पं पर-तत्त्वात्मने नमः।
हृदयस्थ अष्ट-दल में प्रादक्षिण्य-क्रम से और मध्य में पीठ-शक्तियों का न्यास करे-
कां कान्त्यै नमः। प्रं प्रभायै नमः। रं रमायै नमः। विं विद्यायै नमः। मं मदनायै नमः। मं मदनातुरायै नमः। रं रंभायै नमः। मं मनोज्ञायै नमः।
कर्णिका में- ह्रीं सर्व-शक्ति-कमलासनाय नमः।
अब हृदयस्थ पीठ पर ‘ध्यान’ करे-
१॰ कन्या-समूहैर्युव-चित्त-हारारुपै परितं उप-केतु-रुपम्।
अम्भोज-ताम्बूल-करं युवानं गन्धर्व-पौढां वने स्मरामि।।
२॰ ध्याये दिव्यं वर्त्ते रम्ये, तयवानमति-सुन्दरम्।
सेवितं कन्यका-वृन्दैः सुन्दरैः भूषितां सदा।।
मुक्ता-हार-लसत्-पाणिः, पङ्जैरति-शोभनैः।
लीला-गृहित-कमलैर्मधुरालाप-कारिभिः।।
उपर्युक्त दो ध्यानों में से कोई एक ध्यान करके ‘मानसिक-पूजन’ करें। यथा-
लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय विलेपयामि नमः (अधो-मुख कनिष्ठा एवं अंगुष्ठ से)। हं आकाश- तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय समर्पयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ से)। यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय आघ्रापयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ मिलाकर वाम-स्तन पर १० बार भावना से धूम-पात्र रखे)। रं तेजस्तत्त्वात्मकं दीपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय दर्शयामि नमः (उर्ध्व-मुख मध्यमा एवं अंगुष्ठ मिलाकर, दक्ष-स्तन पर १० बार भावना से दीप-पात्र रखे)। वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय निवेदयामि नमः (उर्ध्व-मुख
उपर्युक्त दो ध्यानों में से कोई एक ध्यान करके ‘मानसिक-पूजन’ करें। यथा-
लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय विलेपयामि नमः (अधो-मुख कनिष्ठा एवं अंगुष्ठ से)। हं आकाश- तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय समर्पयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ से)। यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय आघ्रापयामि नमः (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ मिलाकर वाम-स्तन पर १० बार भावना से धूम-पात्र रखे)। रं तेजस्तत्त्वात्मकं दीपं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय दर्शयामि नमः (उर्ध्व-मुख मध्यमा एवं अंगुष्ठ मिलाकर, दक्ष-स्तन पर १० बार भावना से दीप-पात्र रखे)। वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय निवेदयामि नमः (उर्ध्व-मुख अनामिका एवं अंगुष्ठ से)। शं शक्त्यात्मकं ताम्बूलादिकं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय निवेदयामि नमः (उर्ध्व-मुख सभी अँगुलियों से)।
इस प्रकार पूजन करके कमल (पद्म), ताम्बूल और योनि-मुद्रा दिखाकर, यथा शक्ति जप करके ‘गुह्याति-गुह्य’ आदि मन्त्र से जप-फल का समर्पण करे।
पुरश्चरण-
१ लाख जप। अयुत (१०,०००) हवन घृत-मिश्रित लाजा से। सहस्त्र (१०००) तर्पण। शत (१००) मार्जन। दश ब्राह्मण भोजन।
प्रयोग-
१॰ कल्पतरु के नीचे मणि-मण्डप में सिंहासन पर बैठे हुए, गन्धर्व-राज-विश्वावसु का ध्यान करते हुए जलाञ्जलि देकर, नित्य १०८ जप करने से एक मास में उत्तम आभूषणों से सुसज्जित ‘कन्या’ की प्राप्ति होती है।
२॰ जल के किनारे, इक्षु-क्षेत्र (गन्ने के खेत) अथवा कदली (केला) वन में मन्त्र का यथा-शक्ति जप तथा दशांश हवन-तिल और पायस से करने पर अभीष्ट कन्या प्राप्त होती है। यह १ मास का प्रयोग है।
३॰ शाल-वृक्ष(साखू) की लकड़ी की ११ अंगुल की कील १००८ बार अभिमन्त्रित कर, अभीष्ट कन्या के घर में रखने से वह कन्या प्राप्त होती है।
४॰ मन्त्र में से ‘अमुकी’ पद अलग करके ‘जप’ करने से सबका आकर्षण होता है।
नोट- यह साधना केवल पुरुषों के लिये है।
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● श्री विश्वावसु गन्धर्व-राज कवच स्तोत्रम् Shri Vishwasu Gandharva-Raj Kavach Santrom
● किन-किन जगहों पर पत्नी को पति के दाई/बाई तरफ बैठना चाहिये?
● कितने प्रकार के विवाह होते हैं?How many types of marriages occur?
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कवच मूल पाठ ।। कवच मूल पाठ ।। क्लीं कन्याभिः परिवारितं, सु-विलसत् माला-धृतन्- स्तुष्टयाभरण-विभूषितं, सु-नयनं कन्या-प्रदानोद्यमम् । भक्तानन्द-करं सुरेश्वर-प्रियं मिथुनासने संस्थितं, त्रातुं मे मदनारविन्द-सुमदं विश्वावसुं मे गुरुम् क्लीं ।। १ क्लीं विश्वावसु शिरः पातु, ललाटे कन्यकाऽधिपः । नेत्रौ मे खेचरो रक्षेद्, मुखे विद्या-धरं न्यसेत् क्लीं ।। २ क्लीं नासिकां मे सुगन्धांगो, कपोलौ कामिनी-प्रियः । हनुं हंसाननः पातु, कटौ सिंह-कटि-प्रियः क्लीं ।। ३ क्लीं स्कन्धौ महा-बलो रक्षेद्, बाहू मे पद्मिनी-प्रियः । करौ कामाग्रजो रक्षेत्, कराग्रे कुच-मर्दनः क्लीं ।। ४ क्लीं हृदि कामेश्वरो रक्षेत्, स्तनौ सर्व-स्त्री-काम-जित् । कुक्षौ द्वौ रक्षेद् गन्धर्व, ओष्ठाग्रे मघवार्चितः क्लीं ।। ५ क्लीं अमृताहार-सन्तुष्टो, उदरं मे नुदं न्यसेत् । नाभिं मे सततं पातु, रम्भाद्यप्सरसः प्रियः क्लीं ।। ६ क्लीं कटिं काम-प्रियो रक्षेद्, गुदं मे गन्धर्व-नायकः । लिंग-मूले महा-लिंगी, लिंगाग्रे भग-भाग्य-वान् क्लीं ।।७ क्लीं रेतः रेताचलः पातु, लिंगोत्कृष्ट-बल-प्रदः । दीर्घ-लिंगी च मे लिंगं, भोग-काले विवर्धय क्लीं ।। ८ क्लीं लिंग-मध्ये च मे पातु, स्थूल-लिंगी च वीर्यवान् । सदोत्तिष्ठञ्च मे लिंगो, भग-लिंगार्चन-प्रियः क्लीं ।। ९ क्लीं वृषणं सततं पातु, भगास्ये वृषण-स्थितः । वृषणे मे बलं रक्षेद्, बाला-जंघाधः स्थितः क्लीं ।। १० क्लीं जंघ-मध्ये च मे पातु, रम्भादि-जघन-स्थितः । जानू मे रक्ष कन्दर्पो, कन्याभिः परिवारितः क्लीं ।। ११ क्लीं जानू-मध्ये च मे रक्षेन्नारी-जानु-शिरः-स्थितः । पादौ मे शिविकारुढ़ः, कन्यकादि-प्रपूजितः क्लीं ।। १२ क्लीं आपाद-मस्तकं पातु, धृत-कह्लार-मालिका । भार्यां मे सततं पातु, सर्व-स्त्रीणां सु-भोगदः क्लीं ।। १३ क्लीं पुत्रान् कामेश्वरो पातु, कन्याः मे कन्यकाऽधिपः । धनं गेहं च धान्यं च, दास-दासी-कुलं तथा क्लीं ।। १४ क्लीं विद्याऽऽयुः सबलं रक्षेद्, गन्धर्वाणां शिरोमणिः । यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, गजाश्वादि-पशून् तथा क्लीं ।। १५ क्लीं क्षेमारोग्यं च मानं च, पथिषु च बालालये । वाते मेघे तडित्-पतिः, रक्षेच्चित्रांगदाग्रजः क्लीं ।। १६ क्लीं पञ्च-प्राणादि-देहं च, मनादि-सकलेन्द्रियान् । धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, रक्षां देहि सुरेश्वर ! क्लीं ।। १७ क्लीम रक्ष मे जगतस्सर्वं, द्वीपादि-नव-खण्डकम् । दश-दिक्षु च मे रक्षेद्, विश्वावसुः जगतः प्रभुः क्लीं ।। १८ क्लीं साकंकारां सु-रुपां च, कन्या-रत्नं च देहि मे । विवाहं च प्रद क्षिप्रं, भग-भाग्यादि-सिद्धिदः क्लीं ।। १९ क्लीं रम्भादि-कामिनी-वारस्त्रियो जाति-कुलांगनाः । वश्यं देहि त्वं मे सिद्धिं, गन्धर्वाणां गुरुत्तमः क्लीं ।। २० क्लीं भग-भाग्यादि-सिद्धिं मे, देहि सर्व-सुखोत्सवः । धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, ददेहि विश्वावसु प्रभो ! क्लीं ।। २१ फल-श्रुति ।। फल-श्रुति ।। इत्येतत् कवचं दिव्यं, साक्षाद् वज्रोपमं परम् । भक्तया पठति यो नित्यं, तस्य कश्चिद्भयं नहि ।। २२ एक-विंशति-श्लोकांश्च, काम-राज-पुटं जपेत् । वश्यं तस्य जगत् सर्वं, सर्व-स्त्री-भुवन-त्रयम् ।। २३ सालंकारां सु-रुपां च, कन्यां दिव्यां लभेन्नरः । विवाहं च भवेत् तस्य, दुःख-दारिद्रयं तं नहि ।। २४ पुत्र-पौत्रादि-युक्तञ्च, स गण्यः श्रीमतां भवेत् । भार्या-प्रीतिर्विवर्धन्ति, वर्धनं सर्व-सम्पदाम् ।। २५ गजाश्वादि-धनं-धान्यं, शिबिकां च बलं तथा । महाऽऽनन्दमवाप्नोति, कवचस्य पाठाद् ध्रुवम् ।। २६ देशं पुरं च दुर्गं च, भूषादि-छत्र-चामरम् । यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, लभेद् गन्धर्व-सेवनात् ।। २७ राज-मान्यादि-सम्मानं, बुद्धि-विद्या-
कवच मूल पाठ ।। कवच मूल पाठ ।। क्लीं कन्याभिः परिवारितं, सु-विलसत् माला-धृतन्- स्तुष्टयाभरण-विभूषितं, सु-नयनं कन्या-प्रदानोद्यमम् । भक्तानन्द-करं सुरेश्वर-प्रियं मिथुनासने संस्थितं, त्रातुं मे मदनारविन्द-सुमदं विश्वावसुं मे गुरुम् क्लीं ।। १ क्लीं विश्वावसु शिरः पातु, ललाटे कन्यकाऽधिपः । नेत्रौ मे खेचरो रक्षेद्, मुखे विद्या-धरं न्यसेत् क्लीं ।। २ क्लीं नासिकां मे सुगन्धांगो, कपोलौ कामिनी-प्रियः । हनुं हंसाननः पातु, कटौ सिंह-कटि-प्रियः क्लीं ।। ३ क्लीं स्कन्धौ महा-बलो रक्षेद्, बाहू मे पद्मिनी-प्रियः । करौ कामाग्रजो रक्षेत्, कराग्रे कुच-मर्दनः क्लीं ।। ४ क्लीं हृदि कामेश्वरो रक्षेत्, स्तनौ सर्व-स्त्री-काम-जित् । कुक्षौ द्वौ रक्षेद् गन्धर्व, ओष्ठाग्रे मघवार्चितः क्लीं ।। ५ क्लीं अमृताहार-सन्तुष्टो, उदरं मे नुदं न्यसेत् । नाभिं मे सततं पातु, रम्भाद्यप्सरसः प्रियः क्लीं ।। ६ क्लीं कटिं काम-प्रियो रक्षेद्, गुदं मे गन्धर्व-नायकः । लिंग-मूले महा-लिंगी, लिंगाग्रे भग-भाग्य-वान् क्लीं ।।७ क्लीं रेतः रेताचलः पातु, लिंगोत्कृष्ट-बल-प्रदः । दीर्घ-लिंगी च मे लिंगं, भोग-काले विवर्धय क्लीं ।। ८ क्लीं लिंग-मध्ये च मे पातु, स्थूल-लिंगी च वीर्यवान् । सदोत्तिष्ठञ्च मे लिंगो, भग-लिंगार्चन-प्रियः क्लीं ।। ९ क्लीं वृषणं सततं पातु, भगास्ये वृषण-स्थितः । वृषणे मे बलं रक्षेद्, बाला-जंघाधः स्थितः क्लीं ।। १० क्लीं जंघ-मध्ये च मे पातु, रम्भादि-जघन-स्थितः । जानू मे रक्ष कन्दर्पो, कन्याभिः परिवारितः क्लीं ।। ११ क्लीं जानू-मध्ये च मे रक्षेन्नारी-जानु-शिरः-स्थितः । पादौ मे शिविकारुढ़ः, कन्यकादि-प्रपूजितः क्लीं ।। १२ क्लीं आपाद-मस्तकं पातु, धृत-कह्लार-मालिका । भार्यां मे सततं पातु, सर्व-स्त्रीणां सु-भोगदः क्लीं ।। १३ क्लीं पुत्रान् कामेश्वरो पातु, कन्याः मे कन्यकाऽधिपः । धनं गेहं च धान्यं च, दास-दासी-कुलं तथा क्लीं ।। १४ क्लीं विद्याऽऽयुः सबलं रक्षेद्, गन्धर्वाणां शिरोमणिः । यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, गजाश्वादि-पशून् तथा क्लीं ।। १५ क्लीं क्षेमारोग्यं च मानं च, पथिषु च बालालये । वाते मेघे तडित्-पतिः, रक्षेच्चित्रांगदाग्रजः क्लीं ।। १६ क्लीं पञ्च-प्राणादि-देहं च, मनादि-सकलेन्द्रियान् । धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, रक्षां देहि सुरेश्वर ! क्लीं ।। १७ क्लीम रक्ष मे जगतस्सर्वं, द्वीपादि-नव-खण्डकम् । दश-दिक्षु च मे रक्षेद्, विश्वावसुः जगतः प्रभुः क्लीं ।। १८ क्लीं साकंकारां सु-रुपां च, कन्या-रत्नं च देहि मे । विवाहं च प्रद क्षिप्रं, भग-भाग्यादि-सिद्धिदः क्लीं ।। १९ क्लीं रम्भादि-कामिनी-वारस्त्रियो जाति-कुलांगनाः । वश्यं देहि त्वं मे सिद्धिं, गन्धर्वाणां गुरुत्तमः क्लीं ।। २० क्लीं भग-भाग्यादि-सिद्धिं मे, देहि सर्व-सुखोत्सवः । धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, ददेहि विश्वावसु प्रभो ! क्लीं ।। २१ फल-श्रुति ।। फल-श्रुति ।। इत्येतत् कवचं दिव्यं, साक्षाद् वज्रोपमं परम् । भक्तया पठति यो नित्यं, तस्य कश्चिद्भयं नहि ।। २२ एक-विंशति-श्लोकांश्च, काम-राज-पुटं जपेत् । वश्यं तस्य जगत् सर्वं, सर्व-स्त्री-भुवन-त्रयम् ।। २३ सालंकारां सु-रुपां च, कन्यां दिव्यां लभेन्नरः । विवाहं च भवेत् तस्य, दुःख-दारिद्रयं तं नहि ।। २४ पुत्र-पौत्रादि-युक्तञ्च, स गण्यः श्रीमतां भवेत् । भार्या-प्रीतिर्विवर्धन्ति, वर्धनं सर्व-सम्पदाम् ।। २५ गजाश्वादि-धनं-धान्यं, शिबिकां च बलं तथा । महाऽऽनन्दमवाप्नोति, कवचस्य पाठाद् ध्रुवम् ।। २६ देशं पुरं च दुर्गं च, भूषादि-छत्र-चामरम् । यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, लभेद् गन्धर्व-सेवनात् ।। २७ राज-मान्यादि-सम्मानं, बुद्धि-विद्या-
ameya jaywant narvekar
कवच मूल पाठ ।। कवच मूल पाठ ।। क्लीं कन्याभिः परिवारितं, सु-विलसत् माला-धृतन्- स्तुष्टयाभरण-विभूषितं, सु-नयनं कन्या-प्रदानोद्यमम् । भक्तानन्द-करं सुरेश्वर-प्रियं मिथुनासने संस्थितं, त्रातुं मे मदनारविन्द-सुमदं विश्वावसुं मे गुरुम् क्लीं ।। १ क्लीं विश्वावसु शिरः पातु, ललाटे कन्यकाऽधिपः । नेत्रौ मे खेचरो रक्षेद्, मुखे विद्या-धरं न्यसेत् क्लीं ।। २ क्लीं नासिकां मे सुगन्धांगो, कपोलौ कामिनी-प्रियः । हनुं हंसाननः पातु, कटौ सिंह-कटि-प्रियः क्लीं ।। ३ क्लीं स्कन्धौ महा-बलो रक्षेद्, बाहू मे पद्मिनी-प्रियः । करौ कामाग्रजो रक्षेत्, कराग्रे कुच-मर्दनः क्लीं ।। ४ क्लीं हृदि कामेश्वरो रक्षेत्, स्तनौ सर्व-स्त्री-काम-जित् । कुक्षौ द्वौ रक्षेद् गन्धर्व, ओष्ठाग्रे मघवार्चितः क्लीं ।। ५ क्लीं अमृताहार-सन्तुष्टो, उदरं मे नुदं न्यसेत् । नाभिं मे सततं पातु, रम्भाद्यप्सरसः प्रियः क्लीं ।। ६ क्लीं कटिं काम-प्रियो रक्षेद्, गुदं मे गन्धर्व-नायकः । लिंग-मूले महा-लिंगी, लिंगाग्रे भग-भाग्य-वान् क्लीं ।।७ क्लीं रेतः रेताचलः पातु, लिंगोत्कृष्ट-बल-प्रदः । दीर्घ-लिंगी च मे लिंगं, भोग-काले विवर्धय क्लीं ।। ८ क्लीं लिंग-मध्ये च मे पातु, स्थूल-लिंगी च वीर्यवान् । सदोत्तिष्ठञ्च मे लिंगो, भग-लिंगार्चन-प्रियः क्लीं ।। ९ क्लीं वृषणं सततं पातु, भगास्ये वृषण-स्थितः । वृषणे मे बलं रक्षेद्, बाला-जंघाधः स्थितः क्लीं ।। १० क्लीं जंघ-मध्ये च मे पातु, रम्भादि-जघन-स्थितः । जानू मे रक्ष कन्दर्पो, कन्याभिः परिवारितः क्लीं ।। ११ क्लीं जानू-मध्ये च मे रक्षेन्नारी-जानु-शिरः-स्थितः । पादौ मे शिविकारुढ़ः, कन्यकादि-प्रपूजितः क्लीं ।। १२ क्लीं आपाद-मस्तकं पातु, धृत-कह्लार-मालिका । भार्यां मे सततं पातु, सर्व-स्त्रीणां सु-भोगदः क्लीं ।। १३ क्लीं पुत्रान् कामेश्वरो पातु, कन्याः मे कन्यकाऽधिपः । धनं गेहं च धान्यं च, दास-दासी-कुलं तथा क्लीं ।। १४ क्लीं विद्याऽऽयुः सबलं रक्षेद्, गन्धर्वाणां शिरोमणिः । यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, गजाश्वादि-पशून् तथा क्लीं ।। १५ क्लीं क्षेमारोग्यं च मानं च, पथिषु च बालालये । वाते मेघे तडित्-पतिः, रक्षेच्चित्रांगदाग्रजः क्लीं ।। १६ क्लीं पञ्च-प्राणादि-देहं च, मनादि-सकलेन्द्रियान् । धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, रक्षां देहि सुरेश्वर ! क्लीं ।। १७ क्लीम रक्ष मे जगतस्सर्वं, द्वीपादि-नव-खण्डकम् । दश-दिक्षु च मे रक्षेद्, विश्वावसुः जगतः प्रभुः क्लीं ।। १८ क्लीं साकंकारां सु-रुपां च, कन्या-रत्नं च देहि मे । विवाहं च प्रद क्षिप्रं, भग-भाग्यादि-सिद्धिदः क्लीं ।। १९ क्लीं रम्भादि-कामिनी-वारस्त्रियो जाति-कुलांगनाः । वश्यं देहि त्वं मे सिद्धिं, गन्धर्वाणां गुरुत्तमः क्लीं ।। २० क्लीं भग-भाग्यादि-सिद्धिं मे, देहि सर्व-सुखोत्सवः । धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, ददेहि विश्वावसु प्रभो ! क्लीं ।। २१ फल-श्रुति ।। फल-श्रुति ।। इत्येतत् कवचं दिव्यं, साक्षाद् वज्रोपमं परम् । भक्तया पठति यो नित्यं, तस्य कश्चिद्भयं नहि ।। २२ एक-विंशति-श्लोकांश्च, काम-राज-पुटं जपेत् । वश्यं तस्य जगत् सर्वं, सर्व-स्त्री-भुवन-त्रयम् ।। २३ सालंकारां सु-रुपां च, कन्यां दिव्यां लभेन्नरः । विवाहं च भवेत् तस्य, दुःख-दारिद्रयं तं नहि ।। २४ पुत्र-पौत्रादि-युक्तञ्च, स गण्यः श्रीमतां भवेत् । भार्या-प्रीतिर्विवर्धन्ति, वर्धनं सर्व-सम्पदाम् ।। २५ गजाश्वादि-धनं-धान्यं, शिबिकां च बलं तथा । महाऽऽनन्दमवाप्नोति, कवचस्य पाठाद् ध्रुवम् ।। २६ देशं पुरं च दुर्गं च, भूषादि-छत्र-चामरम् । यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, लभेद् गन्धर्व-सेवनात् ।। २७ राज-मान्यादि-सम्मानं, बुद्धि-विद्या-
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