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Monday, July 3, 2023

गुरु चरणों में समर्पित guru charano mein samarpit

गुरु चरणों में समर्पित 

guru charano mein samarpit




गुरु के बारे में दो बातें बहुत ही प्रचलित हैं-एक गुरु शब्द का अर्थ, जो हमारे अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाता है, वह गुरु है।

और दूसरा एक बहु प्रचलित श्लोक -गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरःगुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।अर्थात् गुरु ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं और इस प्रकार गुरु साक्षात परब्रह्म हैं,उनके चरणों में नमन।

सनातन संस्कृति में पौराणिक काल से ही गुरु का व्यापक महत्व है।गुरु शब्द का प्रयोग भी व्यापक है।गुरु किसी बंधन में नही बांधता है, बल्कि साधना व सेवा के पथ पर अग्रसर करता है।गुरु शब्द को आज के समय में समझना भी जरूरी है।

गुरु और पुरोहित में थोड़ा अंतर है,पुरोहित भक्त व ईश्वर के बीच माध्यम बनता है।ऐसा ही भेद गुरु और शिक्षक या आचार्य के बीच भी होता है।शिक्षक पारितोषिक के बदले ज्ञान देता है।और गुरु ज्ञान देने के बाद शिष्यों से गुरुदक्षिणा ग्रहण करते हैं।ताकि ज्ञान की पूर्ति हो जाए।

गुरु के साथ ही ज्ञान को भी समझना चाहिए।क्योंकि बुद्धि और प्रज्ञा में अंतर है, उस अंतर को समझे बिना ज्ञान नही हो सकता।

दत्तात्रेय जी ने कहा है कि मानव में जो ज्ञान शक्ति है, वह विषय मुक्त हो,तो प्रज्ञा बन जाती है।विषय के अभाव में ज्ञान स्वयं को जानता है।स्वयं द्वारा स्वयं का ज्ञान ही प्रज्ञा है।स्वयं का स्वयं से प्रकाशित होना प्रज्ञा है।या ज्ञान का स्वयं अपने आप पर लौट आना ही प्रज्ञा है।और यही मनुष्य की चेतना की सबसे बड़ी क्रांति है।इसी की खोज सदियों से विद्वान करते आये हैं।

गुरु हमारी ज्ञानशक्ति पर छाए विषय रूपी अंधेरे को हटा देता है और ज्ञान स्वयं प्रकाशित हो उठता है।

हम अन्यान्य जगहों से ज्ञान अर्जित करते हैं उसके साथ थोड़ा बहुत विषय भी चला आता है, इसलिए सत्य का वास्तविक स्वरूप हम समझ नहीं पाते।

सच्चा गुरु वही है, जो विषय रूपी अंधकार को परे हटाकर हमारी प्रज्ञा को स्वयं प्रकाशित होने में भूमिका निभाता है।

यहाँ प्रश्न यह उठता है कि सच्चे गुरु की पहचान कैसे हो?

क्योंकि एक शास्त्रज्ञ आचार्य ने एक संत के सामने बड़ी विनम्रता से अपने को प्रस्तुत किया-"महाराज मैंने शास्त्रों का अध्ययन किया है, दर्शन जानता हूँ, शिष्यों को जगत मिथ्या है यह पढ़ाता भी हूँ, परन्तु आज तक स्वयं को नही समझा सका कि जगत मिथ्या क्यों है?"

यहाँ ज्ञान का परिपक्व होना आवश्यक है।वास्तव में, जिसने सत्य का साक्षात्कार स्वयं न किया हो,ऐसा गुरु भी शिष्य के अज्ञान के अंधकार को दूर नही कर सकता।विषयों की सेवा में लगे हुए अधपके ज्ञान वाले गुरु से हमे बचना चाहिए।


कबीर जी ने गुरु के लक्षणों को बताया है-


गुरू के लक्षण चार बखाना, प्रथम वेद शास्त्र को ज्ञाना।।

दुजे हरि भक्ति मन कर्म बानि, तीजे समदृष्टि करि जानी।।

चौथे वेद विधि सब कर्मा, ये चार गुरू गुण जानों मर्मा।।


अर्थात् कबीर जी ने कहा है कि जो सच्चा गुरू होगा, उसके चार मुख्य लक्षण होते हैं -


सब वेद तथा शास्त्रों को वह ठीक से जानता है।


दूसरे वह स्वयं भी भक्ति मन-कर्म-वचन से करता है अर्थात् उसकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं होता।


तीसरा लक्षण यह है कि वह सभी शिष्यों से समान व्यवहार करता है, भेदभाव नहीं रखता।


चौथा लक्षण यह है कि वह सर्व भक्ति कर्म वेदों के अनुसार करवाता है तथा अपने द्वारा करवाए भक्ति कर्मों को वेदों से प्रमाणित भी करता है।


वास्तव में, सत्य के प्रति हमारे अंदर आस्था होगी,तभी हम गुरु की खोज करेंगें।चूंकि आज सत्य के प्रति आस्था कम हुई है, इसलिए लोगों ने सच्चे गुरु को खोजना कम कर दिया है।

ज्ञान को अग्नि कहा गया है।एक सच्चा गुरु शिष्य में ज्ञान की अग्नि पैदा करता है और वही ज्ञान की अग्नि विकारों को मिटाकर हमे मनुष्य बनाती है।

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