चतुष्षष्टि-योगिनी
नाम-स्तोत्रम्
गजास्या
सिंह-वक्त्रा च, गृध्रास्या काक-तुण्डिका ।
उष्ट्रा-स्याऽश्व-खर-ग्रीवा, वाराहास्या शिवानना ।।
उलूकाक्षी
घोर-रवा, मायूरी शरभानना ।
कोटराक्षी
चाष्ट-वक्त्रा, कुब्जा च विकटानना ।।
शुष्कोदरी
ललज्जिह्वा, श्व-दंष्ट्रा वानरानना ।
ऋक्षाक्षी
केकराक्षी च, बृहत्-तुण्डा सुराप्रिया ।।
कपालहस्ता
रक्ताक्षी च, शुकी श्येनी कपोतिका ।
पाशहस्ता
दंडहस्ता, प्रचण्डा चण्डविक्रमा ।।
शिशुघ्नी
पाशहन्त्री च, काली रुधिर-पायिनी ।
वसापाना
गर्भरक्षा, शवहस्ताऽऽन्त्रमालिका ।।
ऋक्ष-केशी
महा-कुक्षिर्नागास्या प्रेतपृष्ठका ।
दन्द-शूक-धरा
क्रौञ्ची, मृग-श्रृंगा वृषानना ।।
फाटितास्या
धूम्रश्वासा, व्योमपादोर्ध्वदृष्टिका ।
तापिनी
शोषिणी स्थूलघोणोष्ठा कोटरी तथा ।।
विद्युल्लोला
वलाकास्या, मार्जारी कटपूतना ।
अट्टहास्या
च कामाक्षी, मृगाक्षी चेति ता मताः ।।
।।
फल-श्रुति ।।
चतुष्षष्टिस्तु
योगिन्यः पूजिता नवरात्रके ।
दुष्ट-बाधां
नाशयन्ति, गर्भ-बालादि-रक्षिकाः ।।
न
डाकिन्यो न शाकिन्यो, न कूष्माण्डा न राक्षसाः ।
तस्य
पीड़ां प्रकुर्वन्ति, नामान्येतानि यः पठेत् ।।
बलि-पूजोपहारैश्च, धूप-दीप-समर्पणैः ।
क्षिप्रं
प्रसन्ना योगिन्यो, प्रयच्छेयुर्मनोरथान् ।।
कृष्णा-चतुर्दशी-रात्रावुपवासी
नरोत्तमः ।
प्रणवादि-चतुर्थ्यन्त-नामभिर्हवनं
चरेत् ।।
प्रत्येकं
हवनं चासां, शतमष्टोत्तरं मतम् ।
स-सर्पिषा
गुग्गुलुना, लघु-बदर-मानतः ।।
उक्त
चौंसठ योगिनियाँ नवरात्र में पूजन करने से कलुषित यातनाओं का नाश और गर्भस्थ शिशु तथा
बच्चों की रक्षा करती है । जो इन नामों का पाठ करता है, उसे डाकिनी, शाकिनी, कूष्माण्ड
और राक्षस आदि किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती । धूप-दीपादि उपचारों सहित पूजन और बलि
प्रदान करने से योगनियाँ शीघ्र प्रसन्न होकर सभी कामनाओं को पूरा करती है ।
साधक
कृष्ण-पक्ष की चतुर्दशी को उपवास करे । रात्रि में छोटी बेर के बराबर गुग्गुल और घृत
से चतुर्थी विभक्ति (सम्प्रदान कारक) युक्त प्रत्येक नाम के आगे प्रणव (ॐ) लगाकर, प्रत्येक नाम से १०८ आहुतियाँ अर्पित करे । पूरी तरह शुद्ध होकर, एकाग्र-मन से, अपने अभीष्ट का चिन्तन करने वाला जो-जो
कामनाएँ करता है, उस -उसको पाता है ।
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पाठकों
की सुविधा के लिए हवन के लिये चतुर्थ्यन्त नाम इस प्रकार है, प्रत्येक नाम के आदि में ‘ॐ’ तथा अन्त में स्वाहा लगाकर हवन करें -
१॰
ॐ गजास्यै स्वाहा
२॰ सिंह-वक्त्रायै,
३॰ गृध्रास्यायै,
४॰ काक-तुण्डिकायै ,
५॰ उष्ट्रास्यायै,
६॰ अश्व-खर-ग्रीवायै,
७॰ वाराहस्यायै,
८॰ शिवाननायै,
९॰ उलूकाक्ष्यै,
१०॰ घोर-रवायै,
११॰ मायूर्यै,
१२॰ शरभाननायै,
१३॰
कोटराक्ष्यै,
१४॰ अष्ट-वक्त्रायै,
१५॰ कुब्जायै,
१६॰ विकटाननायै,
१७॰ शुष्कोदर्यै,
१८॰ ललज्जिह्वायै,
१९॰ श्व-दंष्ट्रायै,
२०॰ वानराननायै,
२१॰ ऋक्षाक्ष्यै,
२२॰ केकराक्ष्यै,
२३॰ बृहत्-तुण्डायै,
२४॰ सुरा-प्रियायै,
२५॰ कपाल-हस्तायै,
२६॰ रक्ताक्ष्यै,
२७॰ शुक्यै,
२८॰
श्येन्यै,
२९॰ कपोतिकायै,
३०॰ पाश-हस्तायै,
३१॰ दण्ड-हस्तायै,
३२॰ प्रचण्डायै,
३३॰ चण्ड-विक्रमायै,
३४॰ शिशुघ्न्यै,
३५॰ पाश-हन्त्र्यै,
३६॰ काल्यै,
३७॰ रुधिर-पायिन्यै,
३८॰ वसा-पानायै,
३९॰ गर्भ-भक्षायै,
४०॰ शव-हस्तायै,
४१॰ आन्त्र-मालिकायै,
४२॰ ऋक्ष-केश्यै,
४३॰ महा-कुक्ष्यै,
४४॰ नागास्यायै,
४५॰ प्रेत-पृष्ठकायै,
४६॰ दन्द-शूक-धरायै,
४७॰ क्रौञ्च्यै,
४८॰ मृग-श्रृंगायै,
४९॰ वृषाननायै,
५०॰ फाटितास्यायै,
५१॰ धूम्र-श्वासायै,
५२॰ व्योम-पादायै,
५३॰ ऊर्ध्व-दृष्टिकायै,
५४॰ तापिन्यै,
५५॰ शोषिण्यै,
५६॰ स्थूल-घोणोष्ठायै,
५७॰ कोटर्यै,
५८॰ विद्युल्लोलायै,
५९॰ बलाकास्यायै,
६०॰ मार्जार्यै,
६१॰ कट-पूतनायै,
६२॰ अट्टहास्यायै,
६३॰ कामाक्ष्यै,
६४॰ मृगाक्ष्यै ।
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