दश महा-विद्याओं की उत्पत्ति
दक्ष
प्रजापति ने अपने द्वारा आयोजित यज्ञ में भगवान् शिव को निमन्त्रित नहीं करने पर जब
भगवती ने अपने पिता से कारण पुछने के लिये पितृ-गृह जाने के लिए भगवान् शिव से अनुमति
लेनी चाही, तो महादेव ने अनुमति नहीं दी । यह सुनकर
क्रोधावेश में सती के अंग कम्पित होने लगे । सती की इस भीषण मूर्त्ति को देखकर,
शंकर दसों दिशाओं की ओर देखने लगे । हर दिशा में उन्हें एक-एक मूर्त्ति
देवी की दिखाई पड़ी । दश दिशाओं की यही दस मूर्तियाँ “दस महा-विद्या” नाम से प्रसिद्ध
हुई ।
‘सत्य-युग
में, ‘दक्ष-यज्ञ’ में भगवती के शरीर त्याग करके, मेनका के गर्भ से जन्म लेने के बाद, जब विश्वामित्र सब
देवताओं की उपासना करने पर भी ‘ब्राह्मणत्व’ प्राप्त नहीं कर सके, तो दूसरी बार महा-देव को तपस्या द्वारा बाध्य किया । महा-देव ने उनसे कहा कि
‘तुम भगवती के एकाक्षर मन्त्र का नियमानुसार ‘जप’ करो, तभी तुम्हारा
अभीष्ट सिद्ध होगा ।’ तदनुसार विश्वामित्र ने आद्या-शक्ति ‘काली’ के एकाक्षरी मन्त्र
का यथा-विधि ‘जप’ किया । भगवती ने अवन्ती-नगर में काली-स्वरुप में साक्षात् प्रकट होकर,
विश्वामित्र को अभिलषित ‘ब्राह्मणत्व’ प्रदान किया था एवं शुम्भ और निशुम्भ
के समय भी ‘काली-मूर्त्ति’ धारण की थी ।
सत्य-युग
में, एक समय विष्णु ने नील-पर्वत पर आकर, पर्वत का उल्लंघन कर जाने की चेष्टा की । उस समय सिद्ध-गणों ने विष्णु से कहा
कि - हे विष्णो ! इस पर्वत के स्थान-स्थान में भगवती की असंख्य मूर्त्तियाँ हैं,
अतएव आप उन्हें उल्लंघन करके न जाएँ । किन्तु विष्णु ने उन लोगों के
निषेध को नहीं सुना । उल्लंघन करते ही गरुड़ के साथ वे स्तम्भित हो गए और सहस्र वर्ष
तक स्तम्भित रहे । देवी ने क्रोधित भयंकरी ‘तारा’-मूर्त्ति ग्रहण कर विष्णु को भारत-वर्ष
से दक्षिण लवण-समुद्र में फेंक दिया । बाद में नारद की उपासना से, भगवान् त्रिलोचन ने अनुग्रह-पूर्वक लवण-समुद्र से विष्णु का उद्धार किया ।
उसी समय से ‘तारा’-मूर्त्ति की सृष्टि हुई ।
एक
समय भगवती ने मन-ही-मन सोचा कि महा-देव मुझे कृष्ण-वर्णा जानकर, ‘काली’ कह कर केवल विद्रूप करते हैं । अतएव मैं उत्कृष्ट रुपवती होऊँगी । मन
में यह विचारकर वे अन्तर्हित हो गई । अनन्तर नारद ने ध्यान करके देखा कि भगवती सुमेरु
पर्वत के ऊपर बैठी हुई हैं । नारद वहीं जाकर बोले - ‘माँ ! आप यहाँ क्या कर रही हो
? महा-देव ने किसी दूसरी भार्या को ग्रहण करने का निश्चय किया है ।’
यह सुनकर भगवती ने क्रोध से लाल वर्ण होकर, त्रि-लोक में सबसे
मनोहर सुन्दर रुप धारण किया और तत्क्षण महा-देव के निकट आकर क्रोध-पूर्वक कहा – ‘हे
कृतघ्न ! महा-देव ! आपने अपनी प्रतिज्ञा छोड़कर विवाह किया है ?’ इस पर महा-देव ने हास्य-पूर्वक कहा - ‘देवि ! मैं प्रतिज्ञा-भ्रष्ट या कृतघ्न
नहीं हूँ । मेरे शरीर में तुम्हारी ही छाया है, उसे देखकर तुम
क्यों क्रोधित हो रही हो ?’ तब भगवती शान्त हुई । महादेव ने कहा
– ‘भगवती ! चूंकि तुम्हारे समान स्वर्ग, मर्त्य और पाताल में
सुन्दर कोई नहीं है और तुम ‘त्रिपुर-सुन्दरी’ तथा षोडश-वर्षीया के समान हो,
अतः ‘षोडशी’ और ‘राज-राजेश्वरी’ आदि के नाम से तुम विख्यात होगी ।’
पूर्व
समय में ब्रह्मा ने सृष्टि के निमित्त अत्यन्त घोर तपस्या की । उस तपस्या से भगवती
सर्व-शक्ति-मयी सन्तुष्ट होकर, चैत्र मास की नवमी
तिथि को उत्पन्न हो ‘भुवनेश्वरी’ नाम से लोक में विख्यात हुई ।
दुःख
विनाश-कारिणी, यम-भय-नाशिनी एवं भैरव की भार्या होने
के कारण ‘भैरवी’ हुई ।
‘सत्य-युग’
में एक समय भगवती मन्दाकिनी के जल में स्नान करके जब निवृत्त हुई, तो उनके साथ ही डाकिनी और वर्णिनी नामक सह-चरियाँ बार-बार कहने लगी कि – ‘हम
लोगों को अत्यन्त भूख लगी है, खाने की वस्तु दो ।’ भगवती ने कहा
– ‘थोड़ा ठहरो, घर जाकर खाने को प्रचुर खाद्य वस्तु दूँगी ।’
इस तरह कहने पर भी वे दोनों नहीं मानी और कहने लगी – ‘हम लोग भूख नहीं सह सकती । हमें
तृप्त करो, खाने को दो ।’ यह सुन कर भगवती ने कहा – ‘लो,
देती हूँ ।’ यह कहकर नख के अगले भाग से अपना ही मस्तक काट दिया और कटा
हुआ मस्तक बाएँ हाथ में आ गिरा । कण्ठ से शोणित की तीन धाराएँ बहने लगी । दो तो दोनों
सखियों के मुख में और एक अपने मुख में गिरने लगी । इस तरह दोनों सखियों के मुखों को
परितृप्त किया । इसलिए ‘छिन्न-मस्ता’ नाम से अभिहित हुई ।
एक
समय ‘कैलाश’ पर्वत पर महा-देव के अंक में स्थित भगवती ने कहा – ‘देव ! मुझे अत्यन्त
भूख लगी है, मुझे समुचित खाद्य वस्तु दें ।’ महादेव
ने कहा - ‘प्रिये ! थोड़ी देर में खाने की वस्तु देता हूँ ।‘ इस तरह बार-बार खाने के
लिए माँगने पर भी जब महादेव ने कहा कि – ‘थोड़ा ठहरो ।’ तो भगवती ने कहा कि ‘अब मुझसे
ठहरा नहीं जाता’ और इतना कहकर महादेव को ही अपने मुँह में डाल उदरस्थ कर लिया । देवी
की देह से धूम-राशि निकलने लगी । उसके बाद महादेव माया-पूर्वक उनके शरीर से ही कहने
लगे -‘देवि ! इस संसार में मैं भिन्न पुरुष और तुम भिन्न स्त्री नहीं हो, इसलिए जब तुमने मुझे भक्षण कर लिया, तो तुम सधवा का चिह्न
शंख (चूड़ी) और सिन्दूर आदि का परित्याग कर दो । आज से जिस तरह काली, तारा प्रभृति महा-विद्याएँ सिद्ध-विद्याएँ कहकर विख्यात है, उन्हीं (महा-विद्याओं) में तुम धूमावती नाम से प्रसिद्ध होगी ।’ उसी समय से
‘धूमावती’ की ख्याति हुई ।
एक
समय त्रिलोक-विनाशकारी झंझावात को प्रबल वेग से प्रवाहित देखकर, जगत् के पिता विष्णु भगवती की तपस्या में प्रवृत्त हुए । भगवती सन्तुष्ट होकर,
सौराष्ट्र देश में मंगलवार चतुर्दशी तिथि को वीर-रात्रि में,
हरिद्रा सरोवर में स्नान-पूर्वक, आधी रात के समय
त्रैलोक्य-स्तम्भन-कारिणी तेजो-राशि ब्रह्मास्त्र-क्रिया-रुप में उत्पन्न हुई । उक्त
तेज विष्णु के तेज में मिल गया । उसी दिन से ‘बगलामुखी’ महा-विद्या नाम से प्रसिद्ध
और पूजित हुई ।
पूर्व
समय में, एक बार नाना वृक्षों से शोभित कदम्ब-कानन
में, सर्व-लोक-हित-कामना से, मतंग नाम के
मुनि ने सौ सहस्र वर्ष तक भगवती की तपस्या की । तपस्या से सन्तुष्ट होकर भगवती सुन्दर
नेत्र-विशिष्ट तेजो-राशि रुप में, नील-वर्ण रुप धारण कर आविर्भूत
हुई । ‘मतगं’ की उपास्या होने से, वे उस समय से ‘मातंगी’ नाम
से प्रसिद्ध हुई ।
पूर्व
समय में क्षीरोदधि-मन्थन में विष्णु-वक्ष-स्थल-स्थिता महा-लक्ष्मी, फाल्गुन एकादशी-युक्त भृगुवार को महा-मातंगिनी के अंश से सर्व-सौभाग्य-दायिनी
‘कमलात्मिका’ के रुप में उत्पन्न हुई थी ।
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